शनिवार, मार्च 28, 2009

सिमटते सीपी


प्रदेश के कांग्रेसी मुखिया डॉ। सी.पी. जोशी एक बार फिर संकट में हैं। मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद लोकसभा में पहुंचने की उनकी उम्मीदें भी तार-तार हो सकती हैं। कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार तो बनाया है, पर चाही गई सीट से नहीं। आखिर क्यों सिमट रही है सीपी की सियासत? अंदर की कहानी!

राजनीति को यदि खेल माना जाए तो यह क्रिकेट के काफी करीब है। गौर से देखें तो क्रिकेट के कई केरेक्टर राजनीति की पिच पर खेलते हुए मिल जाएंगे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी उन्हीं धुरंधरों में से एक हैं। सूबे के कांग्रेसी निजाम डॉ. सी.पी. जोशी के नजरिए से देखें तो उनके लिए गहलोत 'स्लो डेथ' यानी वेस्टइंडीज के अंपायर स्टीव बकनर से कम नहीं हैं। वैसे बकनर की माफिक गहलोत कई नेताओं के लिए घातक साबित हुए हैं, लेकिन डॉ. जोशी के साथ उनका वैर ठीक वैसा ही है जैसा वेस्टइंडीज के अंपायर का मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के साथ। संकेतों को छोड़ सीधी भाषा में बात करें तो कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी एक बार फिर दिक्कत में हैं। वजह एक बार फिर अशोक गहलोत की सक्रियता बनी है। दरअसल, जोशी चित्तौडग़ढ़ से लोकसभा का चुनाव लडऩा चाहते थे, पर पार्टी ने उन्हें भीलवाड़ा से टिकट दे दिया। जोशी के लिए यहां के रास्ते लोकसभा में पहुंचना बेहद कठिन साबित हो रहा है। प्रदेश में कांग्रेस का मुखिया होते हुए भी उनकी बात नहीं मानने का यह वाकया पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी उन्हें साइड लाईन करने के कई प्रयास होते रहे हैं।
लोकसभा के टिकट वितरण में जोशी हर स्तर पर कमजोर नजर आए। प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते पार्टी ने उनसे सलाह-मशविरा प्रत्येक सीट के लिए किया, लेकिन उनकी चली कितनी इसका अंदाजा स्वयं को मिले टिकट के आधार पर लगाया जा सकता है। जोशी ने चित्तौडग़ढ़ से टिकट पाने के लिए पूरा जोर लगाया था। वे इसके लिए पूरी तरह आश्वस्त भी हो गए थे, पर उनका मुकाबला राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास से होने से पूरी गणित बिगड़ गई। दस जनपथ की चहेती होने लाभ स्पष्ट रूप से व्यास को मिला। कल तक जोशी के पीछे खड़े रहने वाले केंद्रीय नेता एक-एक करके व्यास के साथ हो लिए और वे टिकट हासिल करने में कामयाब हो गईं। उनकी उम्मीदवारी में अशोक गहलोत की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रही। शुरूआत में गहलोत कांग्रेस की इस नेत्री के समर्थन में आने से ठिठक रहे थे। वहज थी विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए हुई रस्साकशी। गौरतलब है कि गिरिजा व्यास भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में थीं। गहलोत को जब इसका अंदाजा हुआ कि वे गिरिजा की पैरवी नहीं कर जोशी को मदद पहुंचा रहे हैं तो उन्होंने रुख बदल लिया।
चित्तौडग़ढ़ से टिकट नहीं मिलने से तिलमिलाए जोशी पर भीलवाड़ा सीट निकालने का भारी दवाब है। यहां से जीतने के लिए वे कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते, पर विरोधी उन्हें हर चाल पर मात देने पर जुटे हैं। भीलवाड़ा में गुर्जर मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। जोशी ने इन्हें रिझाने के लिए गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल से संपर्क किया तो वे मदद करने की एवज में कोटा से कांग्रेस के टिकट की जिद पर अड़ गए। जोशी को गुंजल की इस जिद को पूरा करने में पसीना आ रहा है। पार्टी के ज्यादातर नेता गुंजल को टिकट दिए जाने की खिलाफत कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इनमें शामिल हैं। सूत्रों के मुताबिक जोशी की तो पिछले दिनों में मंडावा में आयोजित मुख्यमंत्री की सभा में गुंजल को पार्टी में शामिल करने की योजना थी, पर संभावित विरोध को देखते हुए उन्होंने ऐन वक्त पर इरादा त्याग दिया। मीडियाकर्मियों ने जब इस बारे में गहलोत से पूछा तो उन्होंने 'इस बारे में सीपी जी ही बता सकते हैं' कहते हुए पूरी बात जोशी के ऊपर डाल दी। गुंजल की पैरवी करने के चक्कर में पार्टी के कई नेता तो उनसे नाराज हो ही गए हैं, कई जातियां भी उनके खिलाफ लामबंद हो रही हैं। ऐसी खबरें हैं कि भीलवाड़ा संसदीय क्षेत्र में कई जगह मीणा जाति के लोगों ने गुंजल को कोटा से कांग्रेस प्रत्याशी बनाए जाने की स्थिति में जोशी के विरूद्ध मतदान करने का निर्णय लिया है। सूत्रों के मुताबिक डॉ. किरोड़ी लाल मीणा भी गुंजल का खैरख्वाह बनने के कारण जोशी से खासे नाराज हैं। यदि मीणा वोटरों ने जोशी का साथ नहीं दिया तो वे मुश्किल में पड़ सकते हैं। वैसे भी इस बात की संभावना कम ही है कि गुंजल, जोशी को गुर्जर वोट दिला पाएंगे, क्योंकि विधानसभा चुनावों में गुंजल गुर्जर बाहुल्य हिण्डोली से तीसरे स्थान पर रहे थे। यदि वोटों के गणित पर जाएं तो उन्हें पूरे गुर्जर मत भी नहीं मिले। ऐसे में वे जोशी की नैया कैसे पार लगा पाएंगे? गौरतलब है कि हिण्डोली विधानसभा क्षेत्र भीलवाड़ा संसदीय सीट का ही एक हिस्सा है।
जोशी की मुश्किलें यहीं तक सिमट जाती तो भी ठीक था, लेकिन उन्हें और भी कई मुश्किलों से रूबरू होना पड़ रहा है। दरअसल, अशोक गहलोत बड़े सलीके के साथ जोशी को किनारे कर रहे हैं। टिकट वितरण में जो कुछ भी अच्छा हुआ उसका पूरा श्रेय तो गहलोत ले गए और विवादों का ठीकरा जोशी के सिर फोड़ दिया। उम्मीदवारों के चयन को लेकर जहां भी विवाद पैदा हो रहे हैं, सबके लिए जोशी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, क्योंकि प्रदेश में पार्टी प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते वे ही संभावितों के पैनल बनाने व नाम फाइनल करने में सक्रिय नजर आए। यह बात अलग है कि इसमें उनकी ज्यादा चली नहीं। जिन नेताओं के टिकट कटे हैं, उनसे तो जोशी का वैर बंध ही गया है। कुल मिलाकर निर्णय लेने की प्रक्रिया में जोशी नीचे के पायदानों पर खिसकते चले गए और गहलोत ऊपर चढ़ते गए। किरोड़ी लाल मीणा का ही मामला लें। किरोड़ी लंबे समय से कांग्रेस को आदेश देने वाली भाषा में बात कर रहे थे। वे सात सीटों पर अपने अनुसार कांग्रेस के टिकट दिलवाना चाहते थे। इससे पहले कि जोशी कुछ बोलते गहलोत के एक बयान ने ही पूरा श्रेय लूट लिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि 'किरोड़ी जिस तरह से बात कर रहे हैं वह कांग्रेस की परंपरा नहीं है। अभी तो वे हमारी पार्टी में ही नहीं हैं। यह तय करना बाकी है कि वे पार्टी में आ रहे हैं या पार्टी उन्हें ले रही है। उनके कहने से पार्टी टिकट नहीं देने वाली है। जहां तक उनकी पत्नी गोलमा देवी, परसादी लाल मीणा और रामकिशोर सैनी की बात है तो वे हमारे साथ हैं। ये तीनों मंत्री किरोड़ी की बात नहीं मानेंगे।'
ऐसा नहीं है कि जोशी हमेशा गहलोत के कोप से पीडि़त रहे हैं। एक समय पार्टी में दोनों की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। हालांकि राजनैतिक हैसियत के नजरिए से गहलोत हमेशा जोशी से उन्नसी ही रहे। वे उनसे पहले प्रदेश अध्यक्ष बने और फिर मुख्यमंत्री। गहलोत के मुख्यमंत्रित्वकाल में जोशी एक सक्रिय सिपेहसालार की भूमिका में रहे। सूबे के सीएम के रूप में उन्होंने काम तो अच्छा किया, पर वे लोकलुभावन साबित नहीं हुए। चुनावों में जनता ने उन्हें नकार वसुंधरा के सिर ताज सजा दिया। चुनावों में करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस का भी वही हश्र हुआ जो सत्ता चली जाने के बाद सभी पार्टियों का होता है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया। कार्यकर्ता निष्क्रिय हो गए तो नेता हतोत्साहित। आलाकमान ने पार्टी में जान फूंकने के लिए एक के बाद एक कई अध्यक्ष बदले, लेकिन पार्टी पटरी पर नहीं आई। आखिर में सी.पी. जोशी को अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने पार्टी को संगठनात्मक रूप से पुनर्गठित तो किया, पर उनके मन में मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पलने लगा। इस दौरान विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय में टिकट के दावेदारों की भीड़ बढऩे लगी। स्वाभाव से तल्ख जोशी की भौंहें उस समय तन गईं जब दावेदार उनकी बजाय गहलोत की इर्दगिर्द घूमने लगे। जोशी को इस बात के संकेत मिल गए थे कि गहलोत उनकी मेहनत को मटियामेट करने में जुटे हैं। विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान राज्य में कांग्रेस की पूरी कमान गहलोत ने ली। उनके धुंआधार प्रचार के सामने जोशी बेबस नजर आए। अभी भी उन्होंने मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी, लेकिन चुनाव परिणामों ने जोशी की उम्मीदों को तबाह कर दिया। वे स्वयं महज एक वोट से चुनाव हार गए। हालांकि इसके बाद भी उन्होंने प्रयास किए, पर तब तक गहलोत उनसे कोसों आगे निकल गद्दीनशीं हो चुके थे।
मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद जोशी ने एक बार राजनीति से तौबा करने की ठान ली थी। उन्होंने इसकी तैयार भी कर ली थी, पर पार्टी आलाकमान से मिले सकारात्मक संकेतों के बाद उन्होंने मन बदल लिया। पहले राहुल गांधी और फिर सोनिया गांधी के राजस्थान दौरे के समय जोशी को जिस तरह से अहमियत मिली, उसे देखकर लगता था कि पार्टी नेतृत्व उन पर पूरी तरह से मेहरबान है। इसी आशा के सहारो जोशी फिर से जोश में आ गए। लोकसभा चुनावों के लिए 'टारगेट-25' बना डाला। आलाकमान को राज्य की पूरी सीटें जिताने का दावा करने वाले जोशी अब स्वयं अपनी सीट पर जीत के लिए जूझ रहे हैं। लगता है हर कदम पर हार जाना ही उनकी किस्मत में है, लेकिन यदि वे अब हारे तो कहीं के नहीं रहेंगे। जोशी को भी इसका अहसास है, इसलिए वे पूरी ताकत लगा रहे हैं।

बुधवार, मार्च 25, 2009

सब मोदी की माया


देश में आम चुनाव, केंद्र सरकार की अर्द्ध सैनिक बल मुहैया कराने के लिए साफ मनाही और राज्य सरकारों के आयोजन से हाथ खड़े करने के बाद एक बार तो लगा था कि आईपीएल का दूसरा संस्करण शुरू नहीं हो पाएगा, लेकिन इसकी कमान एक ऐसी शख्सियत से संभाल रखी है जो धुन के पक्के हैं। वो जो चाहते है, कर गुजरते हैं। जी हां! हम बात कर रहे हैं आईपीएल कमिश्नर और बीसीसीआई उपाध्यक्ष ललित मोदी की। मोदी अपने संपर्कों के के चलते हमेशा चर्चाओं में रहे हैं। चाहे बात फिल्मी सितारों की हो, राजनेताओं की, उद्यागपतियों की या खेल से जुड़ी हस्तियों की। इस बार भारत में भले ही उनके संपर्क जबाव दे गए, पर दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट बोर्ड के सीईओ जेराल्ड मजोला से उनकी मित्रता ने रंग दिखाया। दक्षिण अफ्रीका में ही सही, लेकिन आईपीएल का आयोजन होगा। ऐसा पहली बार नहीं है जब मोदी की मेहनत से फटाफट क्रिकेट का यह महाकुंभ आयोजित होने जा रहा है। दरअसल, सुपरहिट आईपीएल का मजा लेने वाले बहुत कम लोग यह जानते हैं कि क्रिकेट में क्रांति ला देने वाले इस स्वरूप की रूपरेखा ललित मोदी ने ही आज से उन्नीस साल पहले बनाई थी।
1963 में दिल्ली में जन्में मोदी का खिलाड़ी के तौर पर क्रिकेट से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। एक उद्योगपति के रूप में उनके 'के.के. मोदी ग्रुप' का वास्ता तंबाकू, धातु, स्वास्थ्य सेवाओं, अचल संपत्ति एवं वित्त तक ही है। उनके अंदर क्रिकेट में कुछ कर गुजरने का जुनून का जन्म अमरीका प्रवास के दौरान हुआ। यहां मोदी को ख्याल आया कि यदि अमरीका में ह्यूस्टन टेक्सन और डिज्नी की माइटी टेक्सन जैसी टीमें करोड़ो डॉलर कमा सकती हैं तो हमारे देश में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? मोदी ने इसके लिए रूपरेखा बनाना प्रारंभ किया। उन्होंने आईपीएल का पहला प्रस्ताव 1990 में बीसीसीआई के तत्कालीन अध्यक्ष माधवराव सिंधिया के सामने रखा। खिलाडिय़ों से अनुबंध किया गया और मुंबई स्टालियंस, कैलकटा टाइगर्स, बंगलूर ब्रेव्स, हैदराबाद हॉक्स एवं ग्वालियर कोब्राज सरीखी टीमें भी बनाई गईं। लेकिन, बात पूरी तरह से बन नहीं पाई और आइडिया फ्लॉप हो गया।
मोदी ने हार नहीं मानी उन्होंने कुछ वर्षों बाद फिर कोशिश की। इस बार उन्होंने पंजाब क्रिकेट एशोसिएशन (पीसीए) का सहारा लेकर अपनी योजना को अमली जामा पहनाने की कोशिश की। मोदी ने सारा मसला पीसीए की वेबसाइट पर डाल दिया। बीसीसीआई को इसकी भनक लगी तो बात बिगड़ गई। इस पूरे घटनाक्रम से मोदी के प्रोजेक्ट को तो कोई फायदा नहीं हुआ पर इंद्रजीत सिंह बिंद्रा के रूप में उन्हें एक भरोसेमंद जरूर मिल गया। बिंद्रा बीसीसीआई के अध्यक्ष रह चुके हैं। बिंद्रा ने मोदी को एक ही मंत्र दिया 'कुछ करना है तो बीसीसीआई में एंट्री कर लो।' मोदी ने इसकी शुरूआत राजस्थान क्रिकेट एशोसिएशन (आरसीए) का अध्यक्ष बन कर की। मौके की नजाकत को समझकर उन्होंने जगमोहन डालमिया के खिलाफ शरद पवार का साथ दिया। पवार ने डालमिया को पटकनी दी और मोदी को पुरस्कार स्वरूप बीसीसीआई के उपाध्यक्ष का पद मिल गया। फिर क्या था, कल तक अपने प्रोजेक्ट के लिए लोगों से मिन्नतें करने वाले मोदी आज उसे खुद स्वीकृत करने की स्थिति में थे। अंतत: अक्टूबर, 2007 में मोदी की सोच पर मुहर लगी। उन्हें आईपीएल का कमिश्नर भी बना दिया गया।
शुरूआत में 9 देशों के आईसीसी स्तर के अस्सी खिलाडिय़ों को सूचीबद्ध किया गया। प्रतियोगिता का कार्यक्रम बनाया। 4080 करोड़ रूपए की भारी राशि में प्रसारण के अधिकार बेचे गए। तय किया गया कि कुल आठ टीमें हिस्सा लेंगी। इन टीमों को खरीदने के लिए 14 औद्योगिक घराने मैदान में कूद पड़े। अपने पसंदीदा खिलाडिय़ों को खरीदने के लिए खुली बोली लगी। भाव करोड़ों में गए। मुकाबले के लिए टीमें तैयार थी। मुकाबले शुरू होने वाले थे। सबके मन में संदेह था कि क्रिकेट का यह नया दौर सफल होगा कि नहीं? पहला मैच बंगलौर के चिन्नास्वामी स्टेडियम में खेला गया। खचाखच भरे इस स्टेडियम को देखकर सारे संदेह दूर हो रहे थे। दर्शकों को क्रिकेट का यह नया संस्करण बेहद पसंद आ रहा था। खेल के साथ रोमांच और मनोरंजन का यह मिश्रण लोगों को खूब भाया। स्टेडियम तो फुल थे ही टीवी पर भी करोड़ों लोगों ने मैचों का पूरा मजा लिया। टेलीविजन के प्राइम टाईम में लोगों ने एकता कपूर के नाटकों को भुला दिया। मोदी की यह कल्पना जब साकार हुई तो उसे 'उम्मीद से दुगनी' सफलता मिली। मोदी ने प्रतियोगिता के दौरान गजब का तालमैल बिठाया। काम कहीं रूके नहीं इसके लिए अपने अधिकार, अनुभव और रसूख तीनों का सही इस्तेमाल किया। उन्होंने मैचों के दौरान स्थानीय क्रिकेट एशोसिएशनों को मुनाफे का लालच दिखाकर तमाम सुविधाएं बटोरने में कामयाबी हासिल की।
आईपीएल की कामयाबी से बुलंदियों पर पहुंचे ललित मोदी विवादों में भी घिरे रहे हैं। आईपीएल से जुड़े हुए विवादों की ही बात करें तो लीग की तीन टीमों में उनका पैसा लगा होने की चर्चाएं आम हैं। राजस्थान रॉयल्स, जिसके मालिकों में से एक अफ्रीका में व्यवसाय करने वाले उनके बहनोई हैं। किंग्स इलेवन के मालिकों में से एक मोहित बर्मन के भाई उनके दामाद हैं। इसके अलावा कोलकाता नाइट राइडर्स में भी उनका काफी पैसा लगे होने की खबर है। बहरहाल तमाम तरह के विवादों से दूर मोदी आईपीएल के दूसरे ऐपीसोड के सफल आयोजन की तैयारी में जुटे हैं।

शनिवार, मार्च 21, 2009

संकट में सल्तनत


विधानसभा चुनाव में मात खाने के बाद भी महारानी की दिक्कतें कम नहीं हो रही हैं। झालावाड़ लोकसभा सीट पर उनके पुत्र दुष्यंत सिंह इस बार पसीना आ रहा है। वसुंधरा को अपने बेटे को जीत सुनिश्चित करने के लिए दम लगाना पड़ रहा है। आखिर क्यों फंस गए हैं दुष्यंत मुकाबले में?

प्रत्याशियों की घोषणा के बाद भारतीय जनता पार्टी ने प्रचार अभियान में भी कांग्रेस से बाजी मार लेने के बाद भी महारानी का मूड इन दिनों कुछ ठीक नहीं है। बारां जिले से पार्टी के प्रचार अभियान की शुरूआत करते वक्त उनके माथे पर चिंता की लकीरों के बीच चमकता पसीना परेशानी का संकेत कर रहा था। महारानी कुछ दिन पहले भी यहां मतदाताओं की नब्ज टटोलने आईं थीं। वैसे वसुंधरा ही नहीं, राजस्थान की राजनीति को समझने वाले हर शख्स की नजरें इस क्षेत्र पर हैं, क्योंकि महारानी के लाड़ले दुष्यंत सिंह यहां से चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में आसानी से जीत संसद की देहरी चढऩे वाले दुष्यंत इस बार मुकाबले में फंस गए हैं। बेटे को फंसता देख एक बार तो वसुंधरा ने ही मैदान में उतरने की तैयारी कर ली थी, लेकिन खुद का बनाया हुआ एक नियम ही आड़े आ गया, जिसके तहत विधायकों को टिकट नहीं देने का फैसला हुआ था। हालांकि सूबे की सियासत में सक्रिय रहने का मोह भी इसकी एक वजह था। फिलहाल, दुष्यंत को ही झालावाड़-बारां सीट से मैदान में उतार दिया गया है और महारानी वोटरों को बेटे के पक्ष में मोडऩे के लिए दिन-रात एक कर रही हैं। करें भी क्यों नहीं, यदि दुष्यंत हार गए तो वसुंधरा की 20 साल पुरानी सियासी विरासत हाथ से निकल जाएगी।
झालावाड़ के साथ वसुंधरा के राजनीतिक रिश्ते की बात करें तो वे यहां से 1989 में पहली बार लोकसभा चुनाव लडऩे क्या आईं, यहीं की होकर रह गईं। यहां की जनता को वे और उन्हें यहां की जनता खूब रास आई। महारानी यहां से लगातार पांच बार सांसद का चुनाव जीतीं। कांग्रेस हर चुनाव में प्रत्याशी बदल उन्हें हराने का प्रयास करती रही, पर सफलता नहीं मिली। 2003 उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनका झालावाड़ जिले के प्रति प्रेम बरकार रहा। वे जिले की झालरापाटन सीट से विधायक का चुनाव लड़ीं। स्वयं के सूबे की सियासत में सक्रिय होने के बाद जब अपनी विरासत को संभालाने की बारी आई तो बेटे दुष्यंत से अच्छा विकल्प क्या हो सकता था। उन्हें राजनीति में लाने का इससे अच्छा मौका क्या हो सकता था। राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के पक्ष में चली लहर और तेज हो गई थी। लिहाजा उन्होंने दुष्यंत को झालावाड़ से मैदान में उतार दिया। इन चुनावों में झालावाड़ के मतदाताओं ने दुष्यंत को भी उतना ही समर्थन दिया जितना कि महारानी को मिलता था। वे आसानी से चुनाव जीत गए।
झालावाड़ के रास्ते संसद की सीढिय़ा चढ़ते ही दुष्यंत का राजनीति में सफल पदार्पण तो हो गया, पर इस एंट्री के मुताबिक प्रदर्शन करने का दबाव भी उन पर आ गया। राज्य की मुख्यमंत्री का बेटा होना उनके लिए फायदेमंद और नुकसानदायक, दोनों रहा। फायदा यह हुआ कि राज्य सरकार ने उनके क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए धन की कोई कमी नहीं आने दी। विकास के काम भी खूब हुए, पर सबका श्रेय मुख्यमंत्री को मिलता चला गया। सियासत के शुरूआती दौर में एक राजनेता के लिए इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है कि काम भी होता रहे और श्रेय भी नहीं मिले। महारानी को जब इसका आभास हुआ तो उन्होंने दुष्यंत का आगे करना शुरू किया, पर क्षेत्र में वसुंधरा की लोकप्रियता के सामने वे कहीं दिखे ही नहीं। वे अपनी मां के आभामंडल में ओझल ही होते चले गए। कुल मिलाकर वे अपनी अलग पहचान बनाने में नाकाम रहे।
क्षेत्र की जनता कई मुद्दों को लेकर दुष्यंत सिंह से खासी नाराज है। एक सांसद के रूप में वे ज्यादातर मोर्चों पर नाकाम साबित हुए। झालावाड़ को रेलवे लाइन से जोडऩे और अफीम काश्तकारों के पट्टों की बहाली में उन्होंने लोगों को निराश ही किया। पिछले लोकसभा चुनाव में दुष्यंत सिंह के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े संजय गुर्जर की मानें तो महारानी के बेटे ने सांसद धर्म का पालन ही नहीं किया। गुर्जर बताते हैं कि 'दुष्यंत सिंह राजस्थान की पूरी सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल से चुनाव जीते थे। जीतते पर उन्होंने सांसद धर्म का पालन करने की बजाय सरकार का कर्ज उतारना शुरू किया। यहां तक की सांसद कोष की राशि भी राजस्थान सरकार की योजनाओं में खर्च की गई। उन्होंने अपने क्षेत्र की कम राज्य सरकार के कामकाज की चिंता ज्यादा रहती थी।' दुष्यंत सिंह की ओर से विकास कार्यों के दावों पर गुर्जर कहते हैं, 'जिन विकास कार्यों की दुहाई देकर वोट मांग रहे हैं, उन्हें क्षेत्र की जनता विधानसभा चुनाव में ही नकार चुकी है। पूरे क्षेत्र में कांगे्रस ने भाजपा पर भारी बढ़त बनाई थी। लोकसभा चुनाव में भी वोटिंग का यही पैटर्न रहेगा और दुष्यंत सिंह चुनाव हारेंगे।' हालांकि दुष्यंत सिंह अपनी जीत के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नजर आते हैं। वे कहते हैं, 'मेरे संसदीय क्षेत्र में विकास से कोई भी अछूता नहीं रहा है। पर्यटन, पेयजल, कृषि और रोजगार समेत लगभग सभी क्षेत्रों में रिकॉर्ड विकास हुआ है। केंद्र सरकार की भारी उपेक्षा के बाद भी हम विकास की गंगा बहाने में कामयाब रहे हैं। केंद्र सरकार ने हर स्तर पर विकास का अवरुद्ध करने का प्रयास किया। मैंने बड़ी कोशिशों के बाद काली सिंध बांध के लिए चार सौ करोड़ रुपए मंजूर करवाए, लेकिन केंद्रीय जल आयोग ने ही इस पर अडंगा लगा दिया। अफीम काश्तकारों के पट्टे निरस्त करने में भी केंद्र सरकार की साजिश है, लेकिन क्षेत्र की जनता जागरुक है। वह असलियत जानती है। मुझे इस बार भी भारी समर्थन मिलेगा और मैं जीतूंगा।'
विकास के दावों और लोगों की नाराजगी को अपनी जगह छोड़ दें तो भी दुष्यंत की राह आसान नहीं है, क्योंकि परिसीमन के बाद उनके संसदीय क्षेत्र में शामिल हुए बारां जिले में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार में भारी कमी आई है। यह वही बारां जिला है, जहां विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को एक भी सीट नसीब नहीं हुई थी। मदन दिलावर और प्रताप सिंह सिंघवी सरीखे दिग्गज भाजपाई भी चुनाव हार गए थे। वसुंधरा राजे भी यह अच्छी तरह जानती हैं कि बारां जिले में अच्छा प्रदर्शन किए बिना दुष्यंत का जीतना संभव नहीं है। लिहाजा उन्होंने पूरा ध्यान यहीं लगा रखा है। कुछ दिन पहले ही वे यहां तीन दिन तक रुककर गई हैं। वे यहां क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्तियों से मिलीं और बेटे दुष्यंत के लिए समर्थन मांगा। भाजपा के प्रचार अभियान की शुरूआत भी उन्होंने न केवल यहां से की, बल्कि कई दिनों तक यहीं डटी रहीं। महरानी यहां मेहनत तो खूब कर रही हैं, पर उतनी सफलता नहीं मिल रही है। इसका बड़ा कारण यह है कि इस क्षेत्र में परंपरागत रूप से कांग्रेस के वोटर ज्यादा है।
क्षेत्र में गुर्जर मतदाताओं की भारी संख्या भी दुष्यंत के लिए चिंता का विषय है। आरक्षण आंदोलन के बाद इस बात की संभावना कम ही है कि गुर्जर भाजपा को वोट देंगे। भले ही उम्मीदवार के रूप में उनकी समधन का बेटा ही क्यों न हो। हालांकि कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला अभी भी महारानी के सुर में सुर मिला रहे हैं, पर आम गुर्जर उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के समय भी उन्होंने गुर्जरों से भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील की थी, लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ था। वैसे भी कर्नल बैंसला का इस क्षेत्र में उतना प्रभाव नहीं है। हालांकि गुर्जरों को मनाने के लिए दुष्यंत के साथ-साथ उनकी पत्नी निहारिका पिछले काफी समय से क्षेत्र में सक्रिय है। निहारिका गुर्जरों से बेटी की लाज रखने के लिए मिन्नते कर रही हैं। उनकी अपील कुछ काम कर सकती है।
बेटे की कमजोर स्थिति के चलते सल्तनत पर आए संकट से निपटने के लिए महारानी सभी रास्तों पर एक साथ चल रही हैं। चलना उनकी मजबूरी भी है और जिम्मेदारी भी। मजबूरी अपनी सल्तनत को बचाने की है और जिम्मेदारी दिक्कत में फंसे बेटे को निकालने की है। हार के खतरे से जूझ रहे दुष्यंत स्वयं कोई हल ढूंढऩे की बजाय एक बार फिर से महारानी के पीछे-पीछे चल रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि मां की अंगुली पकड़ कर वे एक बार फिर से संसद की सीढिय़ां चढ़ जाएंगे। वहीं, रास्ते में आ रही रुकावटों को देख महारानी शायद ये सोचने पर मजबूर हो रही कि 'इससे अच्छा तो मैं ही चुनाव लड़ लेतीं।'

रविवार, मार्च 15, 2009

जूझते जादूगर


अशोक गहलोत इन दिनों तीन-तीन मोर्चों पर एक साथ जूझ रहे हैं। सहयोगी साथ चलने के बजाय आगे चलने पर आमादा हैं, संगठन में कई नेता कुर्सी पाने का ख्वाब बुन रहे हैं और सरकार में अनुभवी मंत्रियों की कमी खल रही है। गहलोत कैसे पार पाएंगे इन मुश्किलों से? अंदर की कहानी!

सहयोगी, संगठन और सरकार, तीनों में से किसी का नाम सुनते ही अशोक गहलोत के माथे पर बल पड़ जाते हैं। पड़ें भी क्यों नहीं, तीनों ओर से संकट खड़े होते रहते हैं। सहयोगी आए दिन आंखे दिखाकर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि सरकार उन्हीं के सहारे चल रही है, संगठन यानी कांग्रेस के कई दिग्गज गहलोत के गद्दीनशीं होने के सच को अभी तक पचा नहीं पा रहे हैं और अनुभवी मंत्रियों की कमी के चलते सरकार चलाने में भी उन्हें दिक्कत आ रही है। एक साथ तीन-तीन मोर्चों पर जूझना गहलोत के लिए नया अनुभव है, क्योंकि पिछली सरकार वे भारी बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने थे। सहयोगी तो थे ही नहीं, संगठन में किसी ने उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं जुटाई और सरकार तो वे अपने ढंग से चलाते ही थे, लेकिन इस बार कहानी अलहदा है। लिहाजा, गहलोत के तेवर इस बार बदले-बदले से हैं। वे इन दिनों सियासत में सफल होने के लिए 'संतुलन' नाम का नया सलीका सीख रहे हैं।
गहलोत के सामने आए संकटों की फेहरिस्त में सबसे पहले सहयोगियों की बात करें तो राज्य में कांग्रेस पहली बार इनके सहारे सरकार चला रही है। हालांकि सरकार बनाते समय अशोक गहलोत को कोई परेशानी नहीं आई थी, क्योंकि साधारण बहुमत का आंकड़ा तो जीत कर आए कांग्रेस के बागियों के घर वापसी से ही पूरा हो गया। किरोड़ी लाल मीणा के समर्थन देने से बहुमत और पुख्ता हो गया। गहलोत ने भी सरकार बनाते ही यह सीख लिया कि समर्थन देने वालों को कैसे खुश रखना है। किसी को मंत्री बना दिया तो किसी को संसदीय सचिव। किरोड़ी लाल मीणा को भी मंत्री पद का प्रस्ताव दिया, लेकिन उन्होंने पत्नी गोलमा देवी को मंत्री बनवा दिया। ऐसा नहीं है कि किरोड़ी को मंत्री पद का मोह नहीं रहा, लेकिन उनका इरादा सांसद का चुनाव लडऩे का है। वो भी परिसीमन के चलते अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हुई दौसा सीट से। किरोड़ी की इस मंशा ने गहलोत के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है, क्योंकि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा भी यहीं से चुनाव लडऩा चाहते हैं। बात यहीं तक होती तो ठीक थी, लेकिन सूबे की सरकार के तीन मंत्रियों परसादी लाल मीणा, गोलमा देवी और रामकिशोर सैनी के रुख ने गहलोत को मुश्किल में डाल रखा है।
यूं तो परसादी लाल गहलोत मंत्रिमंडल में कैबीनेट मंत्री हैं, पर वे सरकार के साथ चलने की बजाय किरोड़ी के पीछे-पीछे चलना ज्यादा पसंद करते हैं। वैसे परसादी पुराने कांग्रेसी हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे किरोड़ी के समर्थन पर निर्दलीय ही मैदान में कूद पड़े और अच्छे मतों से जीत भी गए। जीतते ही उन्होंने साफ कर दिया कि वे किरोड़ी के कहे अनुसार सरकार को तो समर्थन दे रहे हैं, पर कांग्रेस में वापसी नहीं कर रहे हैं। मंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कई मौकों पर यह साबित किया कि उनके असली मुखिया अशोक गहलोत नहीं किरोड़ी लाल हैं। किरोड़ी के दौसा से लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छा पर भी उनका साफ रुख है। वे कहते हैं, 'कांग्रेस लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करना चाहती है तो दौसा से किरोड़ी लाल को उम्मीदवार बनाए, नहीं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे।' गहलोत को परसादी लाल इस चेतावनी भरी सलाह में गोलमा देवी भी सुर मिलाती हैं। उनसे तो उम्मीद भी यही है। वैसे भी वे पत्नी धर्म निभाकर गलत भी क्या कर रही हैं? किरोड़ी के सहारे ही वे विधायक बनीं, फिर मंत्री बनीं। अब पति को संसद पहुंचाने के लिए सरकार को आंख दिखाने का काम तो वे कर ही सकती हैं। रामकिशोर सैनी के साथ भी ऐसा ही है। किरोड़ी का हाथ थामकर ही वे विधानसभा चुनाव जीते और फिर मंत्री बने, फिर अब उनका साथ कैसे छोड़ सकते हैं। बहरहाल, किरोड़ी लाल के बाद अपनी सरकार के तीन मंत्रियों के जिद पर अडऩे के बाद उपजे हालातों से निपटना गहलोत के लिए बेहद मुश्किल है, वे किरोड़ी को दौसा से उम्मीदवार बनाए जाने की पैरवी करते हैं तो नमोनारायण नाराज होते हैं और नहीं करते हैं तो किरोड़ी के साथ-साथ स्वयं की सरकार के ही दो मंत्री नाराज होते हैं। अब यह गहलोत को तय करना है कि वे किसे नाराज करते हैं।
सहयोगियों की अलावा संगठन के स्तर पर भी गहलोत को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी के कई नेता अभी भी सीएम की कुर्सी को मोह नहीं त्याग पाए हैं। वैसे गहलोत विरोधी धड़े के नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है, लेकिन अभी सी.पी. जोशी उन्हें कड़ी चुनौती दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के समय गहलोत और जोशी के बीच पनपी खाई निरंतर चौड़ी ही होती जा रही है। जोशी को एक वोट से मिली शिकस्त और गहलोत की ताजपोशी के बाद दोनों के बीच की दूरियां और बढ़ गईं। पिछले दिनों राहुल गांधी और सोनिया गांधी के कार्यक्रमों में भी यह साफ तौर पर दिखाई दिया कि आने वाले दिनों में गहलोत की राह आसान नहीं होगी। मंत्रिमंडल विस्तार में हुई देरी से यह बात साबित हो जाती है कि न तो कांग्रेस में संगठन स्तर पर सब कुछ ठीक चल रहा है और न ही आलाकमान ने इस बार गहलोत को फ्रीहैंड दे रखा है। लाख कोशिशों के बाद भी गहलोत अपने कई चहेतों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दिला पाए, जबकि कई लोगों को मजबूरी में शपथ दिलवानी पड़ी। रघुवीर मीणा को ही लें। मीणा तीसरी बार विधायक बने हैं। उन्हें गहलोत का भी खास माना जाता है। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनते ही सभी ने कयास लगाए थे कि मीणा का कैबीनेट मंत्री बनना तय है, लेकिन गहलोत लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें उप मुख्य सचेतक ही बना पाए। वैसे विरोधी धड़ा चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करे, पर वे आज भी आलाकमान की पहली पसंद है और उनकी इस पोजीशन को हिलाना भी आसान नहीं है।
अशोक गहलोत को सहयोगियों और संगठन के स्तर पर ही समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ रहा है, सरकार के स्तर पर भी उन्हें कई परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं। कांग्रेस के ज्यादातर अनुभवी नेताओं के चुनाव हार जाने के कारण सरकार के सुचारू संचालन में गहलोत को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसी के चलते स्वयं को जनता का मुनीम और सरकार को जनता की ट्रस्टी बताने वाले गहलोत 39 विभागों का काम स्वयं ही देख रहे थे। हालांकि मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद इनमें से कई विभाग उन्होंने सहयोगियों को सौंप दिए हैं, लेकिन अभी भी उनके पास एक दर्जन से ज्यादा विभाग है। परेशानी अनुभवी मंत्रियों की कमी की ही नहीं है, सरकार के काम करने के तरीके को लेकर भी है। गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल से काफी सबक सीखा है। उन्होंने यह बात तो साफ तौर पर समझ में आ गई हैं कि सियासत में सफल होने के लिए चुस्त-दुरुस्त से ज्यादा लोकलुभावन सरकार ज्यादा कारगर रहती है। गौरतलब है कि गहलोत के पिछले कार्यकाल में शासन तो अच्छा किया था, लेकिन कर्मचारियों और युवा वर्ग से नाराजगी ले ली थी। गहलोत इस बार पिछला शासन दोहराना नहीं चाहते हैं। वे इस कलंक को भी धोना चाहते हैं कि गहलोत का शासन आर्थिक दृष्टि से राज्य पर भारी पड़ता है। हालांकि ऐसा करना चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि छठे वेतन आयोग की सिफारिश लागू करने, वैश्विक मंदी और घटते राजस्व के चलते लोकलुभावन घोषणाएं करना आसान नहीं होगा।
एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहे अशोक गहलोत ने कई मौकों पर यह साबित किया है कि वे इनसे निपट लेंगे। उनके पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि वे प्रत्येक चीज को सकारात्मक ढंग से लेते हैं। पिछले दिनों किए गए निर्णयों में इसकी साफ झलक देखने को मिलती है। सुरूर पर सख्ती, भू-माफियाओं पर शिकंजा और 17 हजार करोड़ रुपए की वार्षिक योजना बनाने व उसे क्रियान्वित करने के निर्णय इस बात के संकेत देते हैं कि वे सहयोगी, संगठन और सरकार के स्तर पर मिल रही चुनौतियों से पार पा लेंगे और राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी दूसरी पारी सफलतापूर्वक पूरी करेंगे।

शनिवार, मार्च 07, 2009

जाति की जय हो


सूबे की सियासत में फिर जाति का जोर दिखाई दे रहा है। अशोक गहलोत ने लोकसभा चुनाव की घोषणा होते-होते कांग्रेस की कास्ट केमिस्ट्री दुरुस्त कर दी है। पार्टी की ओर से जातियों को जुटाने के ये जतन टारगेट-25 के करीब पहुंचने के लिए किए जा रहे हैं। कितनी सफलता मिलेगी इन्हें, एक रिपोर्ट!

वसुंधरा राजे 2003 के विधानसभा चुनावों में राजपूतों की बेटी, जाटों की बहू और गुर्जरों की समधन के तौर पर मैदान में उतरी थीं। रिश्तों की इस जुगलबंदी के दम पर ही उन्होंने राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी को स्पष्ट बहुमत दिलाने का ऐसा कारनामा कर दिखाया जो भैरों सिंह शेखावत सरीखे दिग्गज नेता भी नहीं कर पाए। लेकिन, पिछले विधानसभा चुनाव में महारानी की कास्ट केमिस्ट्री गड़बड़ा गई और वे मात खा गईं। वसुंधरा राजे तो अभी तक हार के इस सदमे से उबर नहीं पाई हैं, पर सूबे के नए सरदार अशोक गहलोत ऐसी स्थिति आने से पहले ही चौकस हो गए हैं। उन्होंने लोकसभा चुनाव में पार्टी को 'टारगेट-25' के आस-पास पहुंचाने के लिए सुशासन के सपने को किनारे कर सोशल इंजीनियरिंग का सहारा लिया है। प्रशासनिक फेदबदल और मंत्रिमंडल विस्तार में गहलोत ने वरिष्ठता, योग्यता और क्षमताओं को ताक पर रखते हुए राजस्थान की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले चारों प्रेशर गु्रप्स जाट, मीणा, गुर्जर और राजपूतों के अलावा अन्य जातियों को भी संतुष्ट करने की कोशिश की है। लगता है जनता के मुनीम और सॉशल ऑडिट की बात करने वाले गहलोत को भी अब सियासत में सफल होने के लिए जाति की जय बोलने में ही समझदारी दिखाई देने लगी है।
अशोक गहलोत सरकार ने बड़े प्रशासनिक फेरबदल के तहत राज्य की मुख्य सचिव के रूप में महिला आईएएस अधिकारी कुशल सिंह को नियुक्त किया है। उनके इस निर्णय को जाटों को खुश करने की कवायद के रूप में देखा जा रहा है। इसके लिए 1973 बैच के आईएएस अधिकारी परमेश चंद्र की दावेदारी को भी सरकार ने दरकिनार किया। कुशल सिंह 1974 के बैच की आईएएस हैं। हालांकि राज्य में वरिष्ठता को दरकिनार करने का यह पहला मौका नहीं है। राज्य की पहली महिला मुख्य सचिव बनीं कुशल सिंह को वरिष्ठ कांग्रेसी व जाट नेता परसराम मदेरणा का करीबी माना जाता है। वे मुख्य सचिव बनने के बाद मदेरणा का आशीर्वाद लेने भी गईं। कुशल सिंह को मुख्य सचिव बनाए जाने के अलावा रामलाल जाट को राज्य मंत्री बनाया गया है। अब गहलोत मंत्रिमंडल में जाट मंत्रियों की संख्या चार हो गई है। जाट राज्य की राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये आठ से दस सीटों पर निर्णायक भूमिका में हैं। वैसे जाट कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं, लेकिन 2003 के विधानसभा चुनावों में इन्होंने भाजपा की ओर रुख कर लिया था। इसके पीछे दो वजह रहीं, पहली तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल करने का ऐलान किया था और दूसरी कांग्रेस के ही कई नेताओं ने अशोक गहलोत को जाट विरोधी नेता करार दे दिया था। गहलोत को जाटों की नाराजगी भारी पड़ी थी और वे सत्ता से बाहर हो गए। हालांकि धीरे-धीरे जाटों का भाजपा से मोहभंग होने लगा। 2008 में हुए विधानसभा चुनावों में जाटों ने कांग्रेस का साथ तो दिया, लेकिन पहले जितनी सक्रियता से नहीं। गहलोत चाहते हैं कि लोकसभा चुनाव में जाट पूरी तरह कांग्रेस के पक्ष में आ जाएं।
राजस्थान पुलिस का मुखिया बदलकर गहलोत सरकार कास्ट केमिस्ट्री दुरुस्त करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ी है। 1976 बैच के आईपीएस हरीश चंद्र मीणा को राज्य का नया डीजीपी बनाया है। मीणा को यह नियुक्ति आईपीएस एस.एस. गिल, पी.के. तिवारी और के.एस. बैंस की वरिष्ठता को नजरअंदाज कर दी गई है। मीणा को डीजीपी बना गहलोत ने कई हित साधे हैं। पहला तो मीणाओं का हिमायती होने का मैसेज दे दिया और दूसरा नमोनारायण मीणा की संभावित नाराजगी को दूर करने का प्रयास किया है। गौरतलब है कि सूबे के नए डीजीपी केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा के छोट भाई हैं। नमोनारायण मीणा इन दिनों सियासी संकट में घिरे हुए हैं। कारण और कोई नहीं बल्कि भाजपा छोड़ कांग्रेस के सामने कदमताल कर रहे किरोड़ी लाल मीणा हैं। किरोड़ी के भाजपा से हुए मोहभंग से कांग्रेस को तो फायदा हुआ है, लेकिन इससे नमोनारायण की उम्मीदें तीन-तेरह हो रही हैं। एक तो उनकी सवाई माधोपुर संसदीय सीट की परिसीमन में प्रकृति बदल गई है, दूसरे जिस दौसा सीट से वे दावेदारी जता रहे थे उस पर भी किरोड़ी आ धमके। इन दोनों मीणा नेताओं में छिड़े सियासी संघर्ष ने कांग्रेस को बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। पार्टी यह तय नहीं कर पा रही है कि दौसा से किसे टिकट दिया जाए। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस किरोड़ी लाल मीणा को दौसा से और नमोनारायण मीणा को उदयपुर अथवा टोंक-सवाई माधोपुर से टिकट दिए जाने के फॉर्मूले पर विचार कर रही है। ऐसा करने से दोनों मीणा नेता संतुष्ट हो जाएंगे। ऐसा करना कांग्रेस के लिए जरूरी भी है, क्योंकि लोकसभा चुनाव में छह से सात सीटों पर मीणा निर्णायक स्थिति में हैं।
गुर्जरों की अशोक गहलोत से यह शिकायत थी कि सरकार में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है, लेकिन हाल ही में किए मंत्रिमंडल विस्तार के बाद यह काफी हद तक दूर हो गई है। गुर्जर नेता डॉ. जितेंद्र सिंह को केबीनेट मंत्री बना ऊर्जा विभाग सौंपा है। वे गहलोत के पिछले कार्यकाल में भी मंत्री रहे थे। समाज में उनकी अच्छी पकड़ है। उल्लेखनीय है कि डॉ. सिंह से पहले गहलोत मंत्रिमंडल में एक भी गुर्जर मंत्री नहीं था। गुर्जर समाज के कई संगठन निरंतर प्रतिनिधित्व देने की मांग कर रहे थे। गहलोत सरकार लोकसभा चुनाव के समय भाजपा से खिन्न चले रहे गुर्जरों को नाराज नहीं करना चाहती। हालांकि गुर्जर आरक्षण आंदोलन संघर्ष समिति के अध्यक्ष कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला ने कांग्रेस पर आरक्षण विधेयक को लटकाने का आरोप लगाया है और लोकसभा चुनावों में सबक सिखाने का मन बनाया है। लेकिन, कांग्रेस बैंसला के कहे पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रही है, क्योंकि विधानसभा चुनाव में उनकी अपील के बावजूद गुर्जरों ने भाजपा को वोट नहीं दिए। राज्य में गुर्जर मतदाता परिसीमन के बाद तीन से चार सीटों पर हार-जीत तय करने की स्थिति में हैं। कांग्रेस लोकसभा चुनाव में गुर्जरों के एकमुश्त वोट हासिल करने के लिए भीलवाड़ा, झालावाड़, अजमेर एवं जयपुर ग्रामीण से गुर्जर नेताओं को टिकट देने की रणनीति पर विचार कर रही है।
अशोक गहलोत के राजपूत वोटों को पक्ष में करने के प्रयासों पर जाएं तो दिपेंद्र सिंह शेखावत को विधानसभा अध्यक्ष और भरत सिंह को सरकार के गठन के समय ही कैबीनेट मंत्री बना दिया गया था। सूत्रों के मुताबिक पार्टी लोकसभा चुनाव में चार से पांच राजपूत प्रत्याशियों को मैदान में उतारने की रणनीति पर काम कर रही है। गौरतलब है कि राजपूतों का एक धड़ा आरक्षण के मसले पर भाजपा से खासा नाराज है एवं कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाना चाहता है। इसी धड़े के लोकेंद्र सिंह कालवी विधानसभा चुनाव से ऐन पहले कांग्रेस में शामिल हुए थे। वे भी लोकसभा चुनाव लडऩा चाहते हैं। ब्राह्मण मतों को जोड़े रखने के मकसद से गहलोत ने मंत्रिमंडल के हालिया विस्तार में राजेंद्र पारीक को केबीनेट मंत्री बनाया है। पहले उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाने पर भी चर्चा चली थी। बृजकिशोर शर्मा सरकार में पहले से ही केबीनेट मंत्री हैं।
कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी के बढ़ते कदमों से भी खासी दिक्कतों में है। विधानसभा चुनावों में बसपा, कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रही थी। लोकसभा चुनाव में इसे रोकने के लिए अशोक गहलोत ने दलित वर्ग से संबंधित बाबू लाल नागर, भरोसी लाल जाटव एवं अशोक बैरवा को मंत्री बनया है। सूत्रों के मुताबिक इनमें से भरोसी लाल जाटव और अशोक बैरवा बसपा के प्रभाव को कम करने के लिए ही मंत्री बनाया गया है। इन दोनों के विधानसभा क्षेत्रों के आस-पास बसपा तेजी से पनप रही है। हालांकि लोकसभा चुनावों में बसपा ज्यादा नुकसान करने की स्थिति में नहीं है, लेकिन फिर भी कांग्रेस कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। गहलोत अल्पसंख्यक वोटों को भी डेमेज नहीं होने देना चाहते। मंत्रिमंडल में अमीन खां को शामिल कर उन्होंने अल्पसंख्यक कोटा पूरा कर दिया है। दुरू मियां पहले से केबीनेट मंत्री हैं। वहीं गुरमीत सिंह कुन्नर को राज्य मंत्री बना सिखों को भी रिझाने की कोशिश की है। कास्ट केमिस्ट्री दुरुस्त कर लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने की कांग्रेस की यह रणनीति कितनी कारगर रहती है, इसका पता तो चुनाव परिणाम के बाद ही लगेगा।

सोमवार, मार्च 02, 2009

शिकंजे में भू-माफिया


सुरूर पर सख्ती के बाद अब भू-माफिया गहलोत के निशाने पर हैं। सरकार ने भू-उपयोग परिवर्तन संबंधी नियमों में फेरबदल कर जमीन के दलालों के जमींदोज करने की तैयारी कर ली है। कितनी कारगर होगी उनकी ये मुहिम। एक रिपोर्ट!

शराब माफिया पर नकेल कसने के बाद अशोक गहलोत ने भू-माफिया पर शिकंजा कसने की कवायद शुरू कर दी है। सरकार ने नई आवासीय योजनाओं के लिए 90 बी से पूर्व ली जाने वाली एनओसी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया है। नई व्यवस्था के तहत अब यदि कोई डवलपर जमीन खरीदना चाहता है तो वह 5 हजार रुपए प्रति एकड़ या 2 लाख रुपए जमा करवाकर तकनीकी जानकारी ले सकता है। अब 90 बी, मानचित्र अनुमोदन और भू-परिवर्तन के लिए एक बार में ही आवेदन लिए जाएंगे और पूरी कार्रवाई एक साथ चलेगी। इसके लिए 60 और 120 दिन की अवधि तय की गई है। पहले भू-उपयोग परिवर्तन होगा, फिर 90 बी की कार्रवाई होगी और आजरी 15 दिन में नक्शे जारी कर दिए जाएंगे।
वसुंधरा सरकार के समय 90 बी भारी धांधलियां हुई थीं। इस नियम की आड़ में भू-माफियाओं ने जमकर मौज मनाई और अनाप-शनाप भू-उपयोग परिवर्तन कराए। दरअसल, पुरानी व्यवस्था में अनगिनत कमजोर कडिय़ां थीं जिनका डवलपर्स ने बेजां इस्तेमाल किया। खुलेआम भ्रष्टाचार हुआ और हजारों एकड़ जमीन उपयोग परिवर्तन कराया गया। भ्रष्टाचार की शुरुआत एनओसी लेने की प्रक्रिया से ही शुरू हो जाती थी। एनओसी स्थानीय निकाय या राज्य सरकार द्वारा जारी की जाती थी। एनओसी लेने के बाद डवलपर को 90 बी, भू-उपयोग परिवर्तन और मानचित्र अनुमोदन के लिए आवेदन करना होता था। ये आवेदन एक साथ न होकर अलग-अलग किए जाते थे। एक ही मामले की फाइल बार-बार सरकार के पास जाने से समय तो ज्यादा लगता ही था। भ्रष्टाचार की गुंजाइश भी बढ़ जाती थी। ज्यादा गफलत सरकार की ओर से मॉनीटरिंग के अभाव में होती थी। कई आवेदनों का निपटारा तो कुछ ही दिनों में हो जाता था और कई महीने तक लंबित रहते थे।
पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान में जमीनों में आए बूम पर नजर दौड़ाएं तो पूरी कहानी समझ में आ जाती है। हालांकि यह बूम पूरे देश में ही आया था, लेकिन वसुंधरा सरकार की ओर से बरती गई शिथिलता के चलते राज्य के बाहर के डवलपर्स और उद्योगपतियों के लिए राजस्थान पसंदीदा जगह बन गया। इसकी वहज अन्य राज्यों सीमावर्ती राज्यों के मुकाबले यहां जमीन की दरें काफी कम होना व क्षेत्रफल की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण यहां जमीन की कोई कमी नहीं होना भी रहा। धीरे-धारे यहां भी जमीन के भाव आसमान छूने लगे। फिर भी जमकर खरीद-फरोख्त हुई। हालात यह हो गए कि बड़े शहरों के कई किलोमीटर तक के दायरे में एक एकड़ जमीन भी किसानों के पास नहीं बची। यहीं स्थिति नेशनल हाइवे के किनारे भी है। यहां की भी ज्यादातर जमीन डवलपर्स ने खरीद ली। मामला जमीन खरीदने तक ही सीमित रहता तो ठीक था, लेकिन भू-उपयोग परिवर्तन को लेकर गजब की आपाधापी मच गई। खुले तौर पर भ्रष्टाचार हुआ। और देखते-देखते हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि आवासीय योजनाओं मे तब्दील हो गई। जहां न तो कोई सड़क थी और न ही कोई आधारभूत सुविधा।
पुरानी व्यवस्था आवासीय कॉलोनी विकसित करने वाले डवलपर्स लोगों को 90 बी की जानकारी देने के लिए बाध्य नहीं थे। कुई डवलपर्स तो भू-परिवर्तन हुए बिना ही आवासीय योजनाओं के भ्रामक विज्ञापन जारी कर देते थे। लोग इन्हें देखकर राशि जमा करा देते थे, लेकिन बाद में उन्हें कब्जा नहीं मिलता था। अब ऐसा करने पर डवलपर्स एवं निजी खातेदारों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई की जाएगी। गहलोत सरकार ने बड़े स्तर पर होने वाली धांधलियों को रोकने के लिए नया मास्टर प्लान मंजूर होने के बाद 2 साल तक राज्य सरकार की अनुमति के बिना भू-उपयोग परिवर्तन नहीं करने का निर्णय लिया है। सरकार आगामी 2-3 सालों में सभी 105 शहरों के मास्टर प्लान तैयार कर लेगी। जिन शहरों के मास्टर प्लान तैयार हो रहे है उनके ड्राफ्ट 30 जून तक प्रकाशित हो जाएंगे। एक अन्य बड़े कदम के तहत सरकार ने रूरल बैल्ट में भू-उपयोग परिवर्तन पर तुरंत प्रभाव से रोक लगा दी है। यह रोक इकोलॉजिकल व पेराफेरी क्षेत्र में भी लागू की गई है।
सरकार ने निजी योजनाओं में प्रोवीजल पट्टे और कब्जा पत्र जारी करने के लिए प्रारूप भी तय कर दिए हैं। अब स्थानीय निकाय भू- उपयोग परिवर्तन की आवश्यकता नहीं होने पर 10 हजार और गैर आवासीय योजना में 4 हजार वर्ग मीटर तक के पट्टे जारी करने का अधिकार दे दिया है। कार्य का विकेन्द्रीकरण करते हुए सरकार ने 25 हजार वर्ग मीटर जमीन तक के भू-उपयोग परिवर्तन का अधिकार राज्य स्तरीय समिति और 1500 वर्ग गज तक स्थानीय निगम को दे दिया है। नगरीय विकास मंत्री के पास 25 हजार वर्ग मीटर से ज्यादा जमीन के मामले ही जाया करेंगे। लोगों को होने वाली परेशानियों को ध्यान में रखते हुए सरकार ने बिना संपर्क सड़कों के 90 बी की कार्रवाई नहीं करने का फैसला किया है। अब 5 एकड़ की आवासीय योजना में 40 फीट, 10 एकड़ में 60 फीट, 50 एकड़ में 100 फीट एवं इससे अधिक में 100 फीट चौड़ी सड़क होना जरूरी है। इस पूरी व्यवस्था को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकार ने कोड नंबर सिस्टम बनाया है। आवेदक कोड नंबर के माध्यम से वेबसाइट या नागरिक सेवा केन्द्र पर अपने प्रकरण की प्रगति देख सकेगा। कुल मिलाकर सरकार ने एक प्रभावी व पारदर्शी व्यवस्था लागू की है उम्मीद है इससे भू-माफियाओं का सफाया होगा।

रविवार, मार्च 01, 2009

जादूगर की जय हो... (होली स्‍पेशल)


स्लमडॉग मिलियनेयर ने आठ ऑस्कर क्या जीते अचानक ही पुरस्कारों की डिमांड बढ़ गई। लॉस एंजिल्स में जय हो... की गूंज से अपने दिग्गज तो पगला ही गए। बोले, जिंदाबाद-जिंदाबाद बहुत हो चुका अब तो जय हो... का जमाना है। कैसे भी करो, पर जय हो... का जुगाड़ करो। दोनों ने खूब माथापच्ची की तो आखिर में एक आइडिया जम गया। ऑस्कर सरीखे एक कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार हो गई। बस एक अंतर रहा यहां पुरस्कार की एक ही कैटेगरी रखी गई। इसके पीछे उनका तर्क था, 'ज्यादा श्रेणियों से बादशाहत बंट जाती है।'
पुरस्कार के लिए एंट्री आने लगीं। सबसे पहले 'महारानी' ने दावेदारी जताई। बोलीं, यह अवॉर्ड तो बना ही मेरे लिए हैं। एक से बढ़कर एक कारनामे किए हैं मैंने। सब सूखा-सूखा चिल्लाते रहते थे। मैंने नदियां बहा दीं। गली-गली में खुलवा दीं। आखिर दवा-दारू पर इतनी बंदिश क्यों? लोग बहकेंगे नहीं तो सरकार कैसे चलेगी? हाथ वाली पार्टी वादों से बहकाती थी, हमने सुरूर में बहका दिया। लीक से हटकर काम किया मैंने, एकदम ओरिजिनल। और हां, विकास तो बेहिसाब हुआ मेरे जमाने में। अब हमारा स्टेट बीमारू नहीं रहा। लोगों की सेहत पर आप ध्यान न दें, उन्हें तो मामूली नजला-जुकाम है। पद को गरिमा दिलाने का काम भी मेरे जमाने में हुआ। वर्ना पहले यूं ही कोई ऐरा गैरा नत्थू खैरा मिलने चला आता था। लोगों के काम से क्या है? उसी से मिलो जो अपने काम का है।
महारानी काम गिना ही रही थीं कि 'बाबोसा' बोले पुरस्कार के असली हकदार तो हम हैं। महारानी का क्या है, इन्हें तो बनाया ही हमने है। हमारी नर्सरी में ही ये पली-बढ़ी हैं। हमारा निर्देशन नहीं होता तो कब का कोई भी पटकनी दे चुका होता। स्लमडॉग वाले निर्देशक का काम तो हमारे सामने कुछ भी नहीं है। उसने तो कहानी में किसी को करोड़पति बनाया है पर पर हमने तो यदि किसी कांच पर भी हाथ रख दिया तो वो कोहीनूर बन गया। यानी हम हुए किंगमेकर। वैसे हम किंग भी रहे हैं। उपराष्ट्रपति रहे और राष्ट्रपति बनते-बनते रह गए। तीन बार सीएम बनकर भी दिखाया। वो भी बिना पूरे बहुमत के। जोड़-तोड़ की राजनीति क्या होती है? पहले यहां जानता कौन था? सब हमने सिखाया।
बाबोसा आगे कुछ और बोलते उससे पहले ही 'जादूगर' मोर्चे पर आ गए। बोले, हमारा दावा एकदम धांसू है। हम धारावी की झोपड़पट्टी से भी कठिन परिस्थितियों यानी रेत के धोरों से निकल कर आगे बढ़े हैं। इस दौड़ में कई दावेदार थे, लेकिन हमने सबको पछाड़ दिया। गजब के एथलीट हुए ना हम। ऊंचाई पर पहुंच कर भी हम जनता को नहीं भूले हैं। हम तो जनता के मुनीम हैं। अब पिछली बार खजाना खाली था तो हम क्या करें? गलतियों से सीखने का गुण भी हमारे अंदर है। पिछली बार कर्मचारियों और जाटों को नाराज करने की गलती की थी, इस बार नहीं करेंगे। भगवान को भी नाराज नहीं होने देंगे, पिछले राज के चार अकाल अभी तक याद हैं। लिहाजा अभी से चोखट चूमना चालू कर दिया है। और हां, हमारे आज्ञाकारी होने के भी नंबर देना। हम दस जनपथ की एक भी बात नहीं टालते हैं।
जादूगर की बातें सुनते-सुनते गुस्से से लाल-पीला हुआ एक शख्स भी अपना दावा जताने आ धमका। वह एक वोट, एक वोट... से आगे कुछ बोल पाता इससे पहले ही ज्यूरी ने फैसला तैयार कर दिया। फैसला सुनाया गया, 'महारानी जिन कारनामों के दम पर दावा जता रही हैं, उन्हीं से वे मात खा गईं। बाबोसा न तो अब किंग रहे और न किंगमैकर और एक वोट से हारने वाले तो इस अवॉर्ड के लिए क्वालिफाई ही नहीं करते हैं। सो जय हो अवार्ड गोज टू जादूगर...।' पुरस्कार की घोषणा होते ही श्वेत-धवल कुर्ता-पायजामा पहने जादूगर स्टेज पर आते हैं तो सीधे दस जनपथ से दूधिया रोशनी का पुंज उनके ऊपर आकर गिरता है। धीरे-धीरे जादूगर की जय हो... गाने वालों का स्वर तेज होने लगता है। निराश मुद्रा में बाहर निकलते हुए महारानी और बाबोसा की नजरें मिलती हैं तो दोनों एक साथ बोलते हैं जय हो... पीछे से एक वोट से हारने वाला शख्स पूछता है, किसकी?