सोमवार, दिसंबर 14, 2009

अब तो शर्म करो चिकने घड़ों

संसद पर हमले की आठवीं बरसी की श्रद्धांजलि सभा में मात्र ग्यारह सांसदों की उपस्थिति अपने फर्ज से उदासीन होते राजनेताओं की एक और शर्मनाक दास्तां है। यह संसद और सदस्यों की रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले जांबाजों की शहादत का तो अपमान है ही, लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं हैं। हालांकि माननीय सांसदों के लिए श्रद्धांजलि सभा में जाना अनिवार्य नहीं था, लेकिन वे जाते तो देश की हिफाजत करने वाले जवानों का हौसला बढ़ता और यह संदेश भी जाता कि आतंक के खिलाफ युद्ध में देश की संसद पूरी तरह से एकजुट है। पिछले कुछ दिनों में ही राजनेताओं के व्यवहार की बानगी पूरे देश ने देखी। सदस्यों की अनुपस्थिति के चलते लोक सभा में प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा, राज्यसभा में जब लगातार छह सांसद प्रश्नकाल में गैरहाजिर रहे, तो सभापति को कहना पड़ा कि लोक सभा का वायरस राज्यसभा में भी आ गया है और पंजाब विधानसभा में तो सदस्यों ने सदन को अखाड़ा ही बना दिया और आपस में ही पिल पड़े। अलबत्‍ता नेताओं ने लोक तंत्र को कलंकित करने वाली इनसे भी बड़ी ढेरों कारगुजारियां की हैं, लेकिन इन दिनों न केवल इनकी संख्‍या में इजाफा हुआ है, बल्कि इस मर्ज की गिरफ्त में आने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्‍या में भी खासा इजाफा हुआ है। इस तरह के नेता अब कम ही बचे हैं, जिनके आचरण को मिसाल के तौर पर पेश कि या जा सके । ऐसा करके नेता जनता के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं। आखिर जनता ऐसे नुमाइंदों को कब तक बर्दाश्त करेगी, जो अपने कर्तव्यों को निभाने की बजाय लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं।
सवाल यह है कि जनप्रतिनिधि अपनी जिस्मेदारियों से मुंह क्‍यों चुरा रहे हैं? वे न तो सदन में नजर आते हैं, न ही सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ करने वाले कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते हैं। यह देश की राजनीति के बदलते चेहरे और चरित्र की विसंगतियां हैं। सत्‍तर के दशक तक यह माना जाता था कि राजनीति सेवा का एक माध्यम है और राजनेता जनसेवक । चुनाव जीतने का एक ही नुस्खा था - जनता के बीच रहो और काम करो, लेकिन अब राजनीति, चुनाव और नेता तीनों के मायने बदल गए हैं। आम राजनेता का न तो उद्देश्य जनसेवा रह गया है और न ही उसके चरित्र में इतना बल बचा है कि वह काम और जनसंपर्क के दम पर चुनाव जीत लें। राजनीति में टिके रहने के लिए वे अपने कार्यों की बजाय हथकंडों पर निर्भर रहते हैं। ये हथकंडे तरह-तरह से मतदाताओं को लुभाने से लेकर शक्ति प्रदर्शन, सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे और अंतत: बूथों पर कब्‍जे तक जाते हैं। हैरत इस बात पर होती है कि राजनेताओं का लोकतंत्र के विरुद्ध अमर्यादित आचरण रोकने के लिए मीडिया, आयोग या न्यायपालिका जितने उपाय निकालते हैं, राजनेता अमर्यादित आचरण करने के उससे ज्यादा तरीके निकाल लेते हैं। इस सांप-सीढ़ी के खेल से देश कब तक बच पाएगा? जब नेताओं के आचरण पर हो-हल्ला मचता है, तो वे ऐसा बहाना बनाते हैं कि उनकी बुद्धिमता पर हंसी आती है। जाहिर है, यह सच से मुंह मोडऩे का एक उपाय भर है। इससे उबरना तभी संभव है जब राजनेता खुद अपनी नैतिक जिस्मेदारी महसूस करें। आचरण और चरित्र की पवित्रता में वे रुचि लें और इसके लिए संकल्पबद्ध हों। अनुशासित होना इसकी पहली शर्त है। क्‍या देश के नेताओं से आम जनता को ऐसी उम्‍मीद करनी चाहिए?

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

फिर न हो पुरानी चूक


प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा से बातचीत में केंद्र की ओर से बरती जा रही सावधानी पूरी तरह से जायज है। असम में आतंक के पर्याय रहे इस संगठन पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है। सरकार 1992 के अपने कड़वे अनुभवों को दोहराना नहीं चाहती। उस समय बातचीत को जरिया बनाकर उल्फा ने अपने पांच नेताओं को रिहा करवा लिया था। अनूप चेतिया के नेतृत्व में वार्ता के लिए जेल से रिहा किए गए ये पांचों नेता तब बांग्लादेश भाग गए थे और आतंकी गतिविधियों को फिर से शुरू कर दिया था। अच्छी बात है कि सरकार ने अपनी पिछली गलती से सबक लिया है, लेकिन असम में शांति स्थापित करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। यह वह समय है जब सरकार की चतुराई उल्फा को जमींदोज कर सकती है। संगठन के कमांडर इन चीफ परेश बरुआ को छोड़कर वर्तमान में इस संगठन के लगभग सभी शीर्ष नेता सुरक्षा एजेंसियों के कब्जे में हैं। उल्फा को खड़ा करने वाले अरविंद राजखोवा भी भारत के सामने हथियार डाल चुके हैं। उनका आत्मसमर्पण यह साबित करने के लिए काफी है कि लगातार कमजोर हो रहा यह संगठन अब समझौते की राह पर है। यह ऐसी स्थिति है जब सरकार अपनी शर्र्तों के आधार पर समझौता करवा सकती है। असम के मुख्यमंत्री के सुझाव पर भी गौर करना जरूरी है। वे चाहते हैं कि उल्फा नेताओं को सुरक्षित रास्ता दे दिया जाए, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि वे आजाद होने के बाद फिर से उल्फा को मजबूत कर कत्लेआम नहीं मचाएंगे? क्या उल्फा के सरगनाओं को माफी देना उन लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं है, जो बरसों से जारी हिंसा का शिकार हुए हैं?
केंद्र सरकार ने इस मसले पर जो रुख अपना रखा है, उसे देखकर तो यह लगता है कि वह इस बार दबाव में कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। वार्ता शुरू करने से पहले यह तय कर लेना समझदारी है कि बातचीत किनसे की जानी है और किन मुद्दों पर होनी है। जब तक अरविंद राजखोवा संप्रभुता की मांग को नहीं छोड़ते हैं, बातचीत का कोई अर्थ नहीं है। परेश बरुआ की भूमिका को भी सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है। वे वर्तमान में सबसे अधिक ताकतवर हैं और अब तक भारत की पकड़ से बाहर हैं। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजखोवा की ओर से किए गए समझौते को वे मानने से इनकार कर दें। ध्यान रहे ऐसा पहले भी हो चुका है। 2005 में उल्फा ने वार्ता के लिए 11 सदस्यीय दल पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप (पीसीजी) बनाया था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने इस समूह के साथ तीन दौर की बातचीत की थी, लेकिन इसमें उल्फा के किसी बड़े नेता के शामिल नहीं होने से कोई नतीजा नहीं निकला। सरकार को पता होना चाहिए कि उल्फा अब इतना मजबूत नहीं रहा है कि उसकी शर्र्तों के सामने झुका जाए। सरकार को वार्ता के लिए तब ही तैयार होना चाहिए, जब उल्फा हिंसा और संप्रभुता की मांग छोड़ दे। असम में शांति स्थापित करने के लिए उन अपराधियों को माफी नहीं दी जा सकती, जिनके हाथ हजारों बेगुनाहों के खून से रंगे हैं। केंद्र सरकार को इसी रुख पर कायम रहना चाहिए कि आत्मसमर्पण करने वाले उल्फा नेताओं को न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा और बातचीत संविधान के दायरे में रहकर ही की जाएगी।

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

पुरानी चाल का नया चोला


अफगानिस्तान-पाकिस्तान मुद्दा अमेरिका के लिए गले की फांस बनता जा रहा है। उसने कभी नहीं सोचा होगा कि इन दोनों मुल्कों में संघर्ष इतना लंबा खिंचेगा। वह यहां पर कार्रवाई रोक भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा मिट्टïी में मिल जाएगी। अपनी नाक बचाए रखने के लिए जीतना उसकी मजबूरी है। अमेरिका जीत सुनिश्चित करने के लिए पुराने ढर्रे पर लौट आया है। बराक ओबामा ने ना-नुकुर करते हुए आखिरकार अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने की इजाजत दे दी है। नई अफ-पाक नीति बनाने में अमेरिकी रणनीतिकारों ने खूब माथापच्ची की है, लेकिन इसकी सफलता पर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं।
अफगानिस्तान में तालिबान को मात देने के लिए अमेरिका ने 30 हजार नए सैनिक उतारने का फैसला किया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इस बार लड़ाई निर्णायक होगी और जीतने पर डेढ़ साल में उनके सैनिक वापस घर लौट आएंगे। यह पहला मौका है, जब अमेरिका ने सैनिकों की तैनाती के साथ, उनकी वापसी के लिए कोई समय सीमा निर्धारित की है। अफगानिस्तान में अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती से अमेरिकी सैनिकों की संख्या करीब एक लाख हो जाएगी। एक साल में इस पर 30 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 13 अरब रुपये) का खर्च आएगा। सैनिकों की तैनानी और बढ़ते खर्चे से ज्यादा चिंता अमेरिका को आठ साल से जारी जंग को जीतने की है। अफगानिस्तान में फतह हासिल करना अमेरिका के लिए नाक का सवाल बन गया है। ओबामा भी स्वीकार करते हैं कि अफगानिस्तान दूसरा वियतनाम नहीं है। जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वह इतिहास की गलत व्याख्या कर रहे हैं। अफगानिस्तान छोड़ देना अल-कायदा और तालिबान के हौसले को बुलंद करेगा। इससे अमेरिका और उसके सहयोगियों पर तथा हमलों का जोखिम पैदा हो जाएगा।
ओबामा अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने के हिमायती नहीं रहे हैं, पर उन्हें मजबूरी में यह फैसला लेना पड़ा। अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सेना के शीर्ष कमांडर जनरल स्टैनली मैकक्रिस्टल ने चेतावनी दी थी कि तालिबान के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अभियान में यदि अतिरिक्त सैनिक नहीं भेजे गए तो अफगानिस्तान में अमेरिका का यह अभियान संभवत: असफल हो जाएगा। मैकक्रिस्टल ने ओबामा को भेजी गुप्त आकलन रिपोर्ट में कहा था कि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जारी संघर्ष में अमेरिका की असफलता बढ़ रही है और आने वाले समय में आतंकवादी गतिविधियां फिर से तेज हो सकती हैं। ओबामा प्रशासन ने मैकक्रिस्टल के तर्र्कों पर सहमत होते हुए सैनिकों की संख्या तो बढ़ा दी है, लेकिन डेढ़ साल के भीतर फतह हासिल करना उसके लिए आसान नहीं है। अफगानिस्तान में स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। पाकिस्तान में छिपे आतंकियों ने दुबारा मोर्चा संभाल लिया है। फिलहाल उनके निशाने पर नाटो सेना के अड्डे और विदेशी दूतावास हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले एक साल में ही 500 से ज्यादा नाटो सैनिक आत्मघाती हमलों में हताहत हो चुके हैं। अमेरिका द्वारा सैनिकों की संख्या बढ़ाने से ये हमले और बढ़ सकते हैं। ओबामा प्रशासन को अफगान नागरिकों के गुस्से की चिंता भी खाए जा रही है। पिछले दस साल से हिंसा का दंश झेल रही जनता अमेरिका की भूमिका से कतई खुश नहीं है। मैकक्रिस्टल ने अपनी रिपोर्ट में भी इसका खुलासा किया था। इसी का नतीजा है कि अमेरिका ने सैनिक बढ़ाने के फैसले के साथ इस तर्क को जोड़ा है कि वे अफगानी नागरिकों को बेहतर जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में काम करेंगे। अमेरिका ने राष्ट्रपति हामिद करजई को भी चेतावनी भरे लहजे में कह दिया है कि वे नतीजे दें या हटने को तैयार रहें।
अमेरिका पाकिस्तान की स्थिति पर भी खासा परेशान है। ओबामा ने अपने भाषण में जिस तरह से कहा कि पाकिस्तान आतंकियों का सुरक्षित ठिकाना बन गया है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि वह अब नरमी बरतने वाला नहीं है। अमेरिका को यह अहसास होने लगा है कि पाकिस्तान हुक्मरान भलमनसाहत के लायक नहीं हैं। अमेरिका ने आतंकियों के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए ड्रोन हमले बढ़ाने के आदेश तो दे दिए हैं, लेकिन इसका विपरीत असर भी पड़ सकता है। आतंकी पलटवार करते हुए आत्मघाती हमलों की संख्या में और इजाफा कर सकते हैं। पहले ही यहां की जनता हिंसा से त्रस्त है और अमेरिका से नाराज है। आने वाले वक्त में यह गुस्सा और भड़क सकता है। ओबामा प्रशासन भी इस खतरे से वाकिफ है। वो आतंकियों का सफाया करने के साथ-साथ आम जनता से हमदर्दी जताना नहीं भूल रहे हैं। पाकिस्तान को दी जानी वाली सहायता मेें की गई भारी वृद्धि को इस रूप में देखा जा सकता है। पाकिस्तानी जनता और सेना इस बात को अच्छी तरह जानती है कि अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक सहायता का क्या मतलब है? यदि मदद नहीं मिलती है, तो पाकिस्तान की स्थिति क्या हो सकती है? अमेरिका के लिए परेशानी की बात यह है कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों को जिन्हें पहले आईएसआई बढ़ावा दे रही थी, अब कई राज्यों में विद्रोह कर रहे हैं। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई इस बात को लेकर काफी आत्मविश्वास में थे कि वे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों को काबू में कर लेंगे, लेकिन आतंकवादी संगठनों का इतिहास बताता है कि इस तरह के संगठनों को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता है। अमेरिका इस बात की काफी नजदीक से जांच-पड़ताल करेगा कि आईएसआई इस तरह के संगठनों को किसी तरह की आर्थिक सहायता न पहुंचा पाए। साथ ही इस बात को भी देखेगा कि इस तरह के संगठन जनता से पैसों की उगाही के लिए कोई खतरनाक तरीका न अपना सकें। यदि पाकिस्तानी सेना और सरकार अमेरिका और दूसरे अन्य देशों से आर्थिक सहायता हासिल करना चाहती है, तो उसे जिहादी संगठनों के खिलाफ प्रतिबंध लगाना होगा।
नई अफ-पाक नीति में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत का संदर्भ भले ही न दिया हो, लेकिन दोनों मुल्कों को आतंक का सुरक्षित ठिकाना बताकर उन्होंने दिल्ली को राहत पहुंचाई है। यही नहीं पाकिस्तान में मौजूद परमाणु अस्त्र आतंकियों के हाथ लगने की आशंका जताकर भी ओबामा ने वही किया है, जिसकी उम्मीद भारतीय खेमे को थी। अफगानिस्तान क्षेत्र में सैन्य दबाव बढ़ाने के अमेरिकी फैसले पर भारत को संतोष होना चाहिए। भारत फिलहाल यही चाहता है कि अमेरिका कहीं से भी पाक और अफगानिस्तान में अपना दबाव कम न करे, जहां आतंकी भारत विरोधी करतूतों की साजिश रच रहे हैं। यह तय है कि अफ-पाक नीति में भारत की दिलचस्पी दो स्तर पर ज्यादा होती है। पहला, पाक में मौजूद आतंकी संगठनों पर अमेरिकी शिकंजा कसने की झलक इस नीति में भारत हमेशा तलाशता है। दूसरा, अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया। इस लिहाज से ओबामा की नई अफ-पाक नीति भारत की इच्छा के मुताबिक है।

पृथ्वी को बचाने की पहल


भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी कमी करने की घोषणा कर साबित कर दिया है कि वह धरती को बढ़ते ताप से बचाने की दिशा में पूरी ईमानदारी से जुटा हुआ है। यह कमी 2005 की तुलना में होगी और इसके लिए 2020 तक का समय तय किया गया है। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले अहम सम्मेलन से पहले भारत का कार्बन उत्सर्जन में कटौती का फैसला मायने रखता है। हालांकि इसकी इस आधार पर आलोचना की जा सकती है कि भारत अमेरिका और चीन के दबाव के सामने झुक गया है, फिर भी व्यापक दृष्टिकोण से भारत की सराहना होनी चाहिए। कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से भारत दुनिया में चौथे पायदान पर है, लेकिन वह ग्लोबल वार्र्मिंग पर लगाम कसने के लिए शीर्ष तीनों देशों- चीन, अमेरिका और रूस से न केवल ज्यादा फ्रिकमंद है, बल्कि संजीदा भी है। भारत इस दिशा में पहले से ही नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) पर काम कर रहा है, जिसमें आठ अभियान - सौर, उन्नत ऊर्जा दक्षता, हिमालय के पर्यावरण को बनाए रखने, हरा-भरा भारत, कृषि और तापमान परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान शामिल है। इसके विपरीत चीन और अमेरिका कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मसले पर गाहेबगाहे आनाकानी करते रहे हैं। हालांकि उन्होंने कटौती के लक्ष्य निर्धारित कर दिए हैं, लेकिन इन्हें हासिल कैसे किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। क्या जलवायु परिवर्तन इतनी छोटी समस्या है कि इससे निपटने के लिए महज दिखावा किया जाए? आखिर चीन और अमेरिका अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? क्या ये देश नाममात्र का कार्बन उत्सर्जन करने वाले मुल्कों पर दबाव बनाकर दुनिया को विनाश की ओर नहीं धकेल रहे हैं?
अमेरिका ने 2020 तक उत्सर्जन में 17 फीसदी तक की कटौती का लक्ष्य रखा है, जो 2005 के स्तर से कम है। चीन ने कहा है कि वह 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद की प्रति यूनिट ऊर्जा तीव्रता में 40-45 फीसदी तक की कमी करेगा। अगर 1990 के स्तर की बात करें, तो अमेरिका द्वारा उत्सर्जन में की गई यह कटौती महज तीन फीसदी बैठती है। इसके अलावा अमेरिका घरेलू लक्ष्यों तक ही सीमित बना हुआ है और बहुराष्ट्रीय कानूनी बाध्यता को लेकर किए गए समझौते से दूरी बनाए हुए है। चीन का भी यही हाल है। उसने संकेत दिया है कि कार्बन उत्सर्जन में इजाफा तो बरकरार रहेगा, लेकिन इसकी रफ्तार में कमी आएगी। इसमें चीनी अर्थव्यवस्था के विकास की गति की शर्त अलग से जुड़ी हुई है। यदि चीन की अर्थव्यवस्था सात फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है, तो उसका उत्सर्जन 50 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से अधिक है। अगर अर्थव्यवस्था 10 फीसदी की दर से विकास करती है, तो यह उत्सर्जन 150 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से काफी अधिक है। क्या ये आंकड़े साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि चीन और अमेरिका पृथ्वी को बचाने के लिए कोरी गप्पबाजी कर रहे हैं? यदि इन दोनों मुल्कों का यही रवैया रहा, तो कोपेनहेगन में भी कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। ऐसी स्थिति में जब जब पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है, तो विकसित देशों को संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठते हुए बढ़ते ताप पर लगाम कसने के लिए ईमानदार प्रयास करने चाहिए। इसमें जितनी देर होगी खतरा उतना ही बड़ा होता जाएगा।

गुरुवार, दिसंबर 03, 2009

चिंतन से आगे


गहलोत सरकार की ओर से दो दिन के चिंतन के बाद की गई घोषणाएं सुशासन के स्वप्न को साकार करने में मददगार साबित हो सकती हैं, बशर्ते इन पर ईमानदारी से अमल हो। यह अच्छी बात है कि सरकार अपने एक साल के कामकाज की समीक्षा कर रही है, लेकिन इसकी सार्थकता खामियों को दुरुस्त करने की दिशा में पहल करने पर ही है। सरकार ने गांव, गरीब और किसान को केंद्र में रखते हुए हर क्षेत्र में विकास का इरादा जाहिर किया है। भले ही इसका मकसद पंचायत चुनावों में मतदाताओं का लुभाना हो, लेकिन इनके दम पर राज्य में विकास को गति तो दी ही जा सकती है। अच्छा काम कर राजनीतिक लाभ हासिल करने में बुराई ही क्या है? सरकार की ओर से की गई घोषणाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'नई कृषि नीतिÓ बनाने का फैसला है। राज्य में किसान जिस तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं, उन्हें देखते हुए लंबे समय से पृथक कृषि नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। देर से ही सही सरकार ने किसानों की सुध तो ली। इस घोषणा से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सरकार इसमें ऐसे उपायों को शामिल करे, जिससे किसानों को अपना जीवन त्रासद नहीं लगे। हर गांव के लिए अलग मास्टर प्लान बनाने का निर्णय भी अपने आप में ऐतिहासिक है। जनसंख्या की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए गांवों का नियोजित विकास समय की मांग है। मास्टर प्लान बनने से गांवों की बसावट तो व्यवस्थित होगी ही, पानी के निकास की भी समुचित व्यवस्था होगी। निजी अस्पतालों में गरीबों के ऑपरेशन की घोषणा कर सरकार ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि राज्य में इलाज की कमी की वजह से किसी की मौत नहीं हो।
सरकार ने नगरीय विकास की प्रतिबद्धता को भी दोहराया है। हर शहर के लिए 'सिटी डवलपमेंट प्लानÓ बनाने की घोषणा बेतरतीब ढंग से बढ़ रहे शहरों को नियोजित करने में कारगर साबित हो सकती है। अवैध रूप से विकसित हो रही कॉलोनियों पर लगाम कसने के लिए 'नई टाउनशिप पॉलिसीÓ की घोषणा भी एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे न केवल भूमाफियाओं पर लगाम कसेगी, बल्कि शहरों को योजनाबद्ध ढंग से विकसित करने में भी मदद मिलेगी। सरकार 26 जनवरी से 'प्रशासन शहरों के संगÓ अभियान भी शुरू करने जा रही है। यह एक सफल प्रयोग है, जिसमें आम जनता को छोटे-छोटे कामों के लिए दफ्तरों में चक्कर नहीं काटने पड़ते। क्या सरकार हमेशा के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकती कि लोगों को प्रशासन एक ही स्थान पर सहज रूप से उपलब्ध हो जाए? शहरों में ही नहीं, गांवों में भी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि प्रशासन गांवों से ही सबसे अधिक दूर होता है। पटवारियों और ग्रावसेवकों को मोबाइल देने से संवाद जरूर कायम होगा, लेकिन महज इससे दूरी पटने वाली नहीं है। दो दिन के गहन चिंतन-मनन के बाद लोकलुभावन घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि इन्हें पूरा नहीं करना आत्मघाती साबित होता है। जनता वोट की चोट से एक बार में ही हिसाब बराबर कर लेती है। सरकार का मुखिया होने के नाते यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह मंत्रियों और अधिकारियों को इन घोषणाओं को मूर्त रूप देने के लिए पाबंद करें। सिर्फ उनके जवाबदेह बनने से काम नहीं चलेगा, सरकार से जुड़े हर शख्स की जिम्मेदारी तय करना भी उन्हीं का काम है। जब तक यह नहीं होगा न तो चिंतन का कोई अर्थ है और न ही घोषणाओं का।

बुधवार, दिसंबर 02, 2009

अपूरणीय क्षति


राज्यपाल एस.के. सिंह का निधन न केवल राजस्थान, बल्कि समूचे देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। राजस्थान के राज्यपाल के तौर पर वे यह साबित करने में कामयाब रहे कि राज्यपाल का पद महज संवैधानिक प्रधान का नहीं होता। वे मुख्यमंत्री व मंत्रियों को शपथ दिलाने और राजकीय मेहमानों के स्वागत-सत्कार तक ही नहीं सिमटे, बल्कि राज्य के जनजीवन से जुडऩे में सफल रहे। इस उपक्रम में उन्होंने सरकार का विरोध झेलने से भी परहेज नहीं किया। जनहित से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी और साफगोई से बोलने का साहस उनके पास ही था। चाहे प्रदेश में शिक्षा के स्तर की बात हो या आरक्षण का मुद्दा, वे पूरी शिद्दत से सक्रिय रहे। विश्वविद्यालयों में शोध के स्तर पर वे खासे चिंतित थे। उन्होंने इसके सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव भी प्रस्तुत किए थे। शोध ही नहीं, शिक्षण पद्धति, परीक्षा प्रणाली आदि पर वे समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहे। निजी विश्वविद्यालयों की बेतरतीब स्थापना पर उन्होंने कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी। आरक्षण व्यवस्था में आई विकृतियों पर उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए, उनसे असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे इस मायने में भी खास थे कि वे शिकायत करने से ज्यादा ध्यान समस्या के समाधान करने पर देते थे। उनका मकसद जनमानस को उद्वेलित करने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वे उसे बदलाव के लिए भी तैयार करते थे। असल में उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल रहते हुए भारतीय लोकतंत्र के इस पद की गरिमा व मान बढ़ाने के साथ-साथ इसकी प्रासंगिकता को भी सिद्ध किया।
एस. के. सिंह जहां भी रहे, उन्होंने अपने काम की छाप छोड़ी। उनकी गिनती देश के शीर्ष राजनयिकों में होती थी। विदेश सेवा में रहते हुए उन्होंने शानदार काम किया। जिस समय कश्मीर मसले पर पाकिस्तान ने राजनीति शुरू की थी, तो सिंह अमेरिका जाकर इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र को तटस्थ बनाने में न केवल कामयाब हुए, बल्कि यह आश्वासन लेने में भी सफल रहे कि संयुक्त राष्ट्र संघ शिमला समझौते का समर्थक है, जिसमें सभी मुद्दों पर द्विपक्षीय चर्चा का प्रावधान है। सिंह पाकिस्तान में सर्वाधिक समय तक राजदूत रहे, वह भी उस दौर में जब दोनों देशों के बीच संबंधों में तनाव चरम पर था। उन्होंने न केवल कश्मीर में पाकिस्तान की दखलंदाजी से संबंधित कई महत्वपूर्ण सूचनाएं भारत को दीं, बल्कि दोनों के संबंधों को पटरी पर लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चीन को कूटनीतिक मोर्चे पर घेरने में भी उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने इस क्रम को बरकरार रखा। अरुणाचल समेत समूचे पूर्वोत्तर में आधारभूत ढांचे के विकास में उनका सक्रिय योगदान रहा। महात्मा गांधी के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात कर उन्होंने पूरी दुनिया में मानवाधिकार के क्षेत्र में काम किया। एक मायने में उन्होंने गांधी के दूत के रूप में कार्य करते हुए गांधी दर्शन को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। अपने काम के दम पर उन्होंने पाकिस्तान, अफगानिस्तान, जॉर्डन, लेबनान व साइप्रस में भारतीय राजदूत रहते हुए इन देशों अपने अनगिनत शुभचिंतक पैदा किए। व्यापक कार्यक्षेत्र और बहुमुखी प्रतिभा के धनी एस. के. सिंह का असामयिक निधन से जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भर पाना नामुमकिन है।

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

जनप्रतिनिधियों का आचरण


भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सोमवार को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पहली बार कार्यवाही इसलिए स्थगित करनी पड़ी, क्योंकि प्रश्न पूछने वाले अधिकांश सांसद अपने सवाल का जवाब जानने के लिए सदन में उपस्थित नहीं थे। सांसदों का बंक मारना अब कोई नई बात नहीं रही है, लेकिन कम से कम उनसे यह उम्मीद तो की जाती है कि अपने प्रश्न का जवाब सुनने के लिए वे सदन में हाजिर रहें। माननीय सदस्यों के सवाल का जवाब तैयार करने के लिए सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ती है और इसके लिए संबंधित विभागों के मंत्रियों को तैयारी भी करनी पड़ती है। इस समूचे प्रकरण का शर्मनाक पहलू यह रहा कि माननीय सदस्यों ने लोकसभा अध्यक्ष को अपने नहीं आने की सूचना देना भी उचित नहीं समझा। इस संदर्भ में देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद से लेकर राज्य विधानसभा और ग्राम पंचायत तक में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का यह गैर जिम्मेदाराना आचरण एक 'फैशनÓ का रूप अख्तियार कर चुका है, जो लोकतंत्र की सेहत के लिए एक खतरनाक बीमारी से किसी तरह कम नहीं है। नेताओं की इस प्रवृत्ति से सभी दल दुखी हैं और कांग्रेस व भाजपा सहित सभी दलों के प्रमुख अपनी पार्टी से चुनकर आने वाले सभी सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने की कई बार सख्त हिदायतें दे चुके हैं। लोकसभा अध्यक्ष और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष भी निर्वाचित सदस्यों को बार-बार चेता रहे हैं कि उनकी अनुपस्थिति से कई महत्वपूर्ण निर्णय अटक जाते हैं। इन तमाम प्रयासों के बावजूद नेताओं के आचरण में सुधार नहीं आना चिंता का विषय है।
नेताओं के इसी आचरण से दुखी होकर सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए कहा था, 'संसद में अब न तो कोई प्रश्न करता है और न ही कोई किसी मुद्दे पर बहस करता है। बस शोर-शराबा करता है और धरना देता है, क्योंकि सांसदों को ऐसा लगता है कि शोर-शराबा करने और धरना देने से मीडिया का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित होगा और इसका उन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा।Ó संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर औसतन 26,035 रुपए खर्च आता है। ऐसे में समय और जनता के धन की कीमत हमारे जनप्रतिनिधियों को भलीभांति समझनी चाहिए। बेलगाम होते जनप्रतिनिधियों के इस आचरण का उपचार न तो दंडात्मक कार्रवाई में है और न ही पार्टी प्रमुखों की हिदायतों में। आम मतदाता ही नेताओं की बैठकों से नदारद रहने की गैर जिम्मेदाराना प्रवृत्ति को सुधार सकता है। अब लोगों के पास सूचना के अधिकार का एक ऐसा हथियार है, जिसके जरिए अपने प्रतिनिधि की पाई-पाई का हिसाब रखा जा सकता है। जब लोगों में जागरुकता आएगी और वे ऐसे लोगों को चुनाव में नकारना शुरू करेंगे, तो नेताओं की अक्ल अपने आप ठिकाने आ जाएगी। जनता को प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, लेकिन वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। ऐसे में वापस बुलाने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए, ताकि जनहित की अनदेखी करने वाले प्रतिनिधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके। मतदाताओं की जागरुकता और जनप्रतिनिधियों की कर्तव्यनिष्ठा के बिना भारत के महाशक्ति बनने के देशवासियों के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता है।

गुरुवार, सितंबर 10, 2009

मैं अधूरा तुम बिन

सफलता के कंगूरों को देखते वक्त क्या आपके मन में यह नहीं आता कि इसके नींव के पत्थर से मुलाकात की जाए कहा जाता है कि हर इंसान की जिंदगी में उसकी पत्नी कहीं प्रेरणा बनकर, कहीं साथ चलकर तो कहीं सहयोग देकर नींव के पत्थर का काम करती है। पति के मंजिल तक पहुंचने के बाद भी न तो ये थकी हैं, और न ही रूकी है। पूरी शिद्दत से जुटी हैं, अपने पतियों को और आगे बढाने में। आइए रूबरू होते हैं अलग-अलग क्षेत्रों की ऎसी ही कुछ दिग्गज हस्तियों से-

गायक बनाया आपने

गीतों को अपनी मखमली आवाज से हिट बनाने वाले गायक रूपकुमार राठौड को इस मुकाम तक पहुंचाने में उनकी पत्नी और मशहूर गायिका सोनाली राठौड का खास योगदान रहा है। अपने गायन के शुरूआती दिनों को याद करते हुए वे कहते हैं, 'संगीत की दुनिया में मैंने जितना भी नाम कमाया है, सब मेरी पत्नी सोनाली की वजह से है। यदि सोनाली मेरी जिंदगी में नहीं आती, तो मैं कभी भी गायक नहीं बन पाता। मेरी रूचि तो तबला वादन में थी। गजलों के स्वर्णिम काल यानी अस्सी के दशक में मैं मशहूर गजल गायकों का चहेता तबला वादक था। सोनाली ने मुझे गाने के लिए प्रेरित किया। मैंने शुरूआत की और आज सबकुछ आपके सामने है। यह सोनाली की मेहनत का ही नतीजा है कि हमारी जोडी संगीत की दुनिया में हिट है। हमने 1991 में साथ काम करना शुरू किया था और अब तक पच्चीस से ज्यादा एलबम निकाल चुके हैं।'

हर जीत के पीछे अरुणा है

शतरंज की दुनिया के शहंशाह विश्वनाथन आनंद की चतुर चालों से विपक्षी खिलाडी हैरत में पड जाते हैं। शतरंज के क्षेत्र की हर ऊंचाई को साथ देने में साथ छुपा है उनकी पत्नी अरूणा का। अपनी सफलता में अरूणा के योगदान के बारे में आनंद कहते हैं, 'अरूणा को शतरंज की बारीकियों का ज्यादा ज्ञान नहीं है, लेकिन मेरा कॉन्फिडेंस बढाना उन्हें अच्छे-से आता है। मुझे अच्छी तरह याद है पिछले साल वल्र्ड रेपिड चैंपियनशिप के फाइनल में मेरा मुकाबला क्रैमेनिक से था। मैं बेहद घबराया हुआ था। अरूणा ने मुझे समझाना शुरू किया तो क्रैमेनिक का हौवा मेरे दिमाग से निकल गया और मुझे केवल मेरी ताकत ही याद रही। इसी का नतीजा था कि मैंने कै्रमेनिक को खिताबी दौर की तीन बाजियों में मात दी, जबकि वे पूरे साल में भी तीन बाजियां नहीं हारते हैं। अरूणा ने ऎसा पहली बार नहीं किया था। मेरी हर जीत में उनका योगदान होता है।' अरूणा ने पब्लिक रिलेशंस में मास्टर डिग्री हासिल की है और वे आनंद का हौसला बढाने के अलावा इस काम को भी बखूबी अंजाम दे रही हैं।

वो संवारती है मेरा अभिनय

आशुतोष राणा ने अपने दमदार डायलॉग और शानदार अभिनय से बॉलीवुड में अलग जगह बनाई है। राणा थिएटर से निकले हुए कलाकार हैं, पर बडी साफगोई से स्वीकार करते हैं कि उन्हें अभिनय सिखाने वाली सबसे बडी टीचर उनकी पत्नी रेणुका शहाणे हैं। वे कहते हैं, 'मैंने थिएटर से अभिनय सीखा, लेकिन उसे तराशा रेणुका ने। उन्होंने बडी सहजता से मेरे कमजोर और मजबूत पक्षों के बारे में बताया। रियल चैनल के चर्चित शो 'सरकार की दुनिया' में मेरे किरदार के पीछे रेणुका की कडी मेहनत है। इसी के चलते मैं सरकार के कैरेक्टर के साथ न्याय कर पाया। मैं उनसे हर रोज कुछ न कुछ सीखता हूं। वे मेरी सबसे बडी मार्गदर्शक हैं।' मोहक मुस्कान से अपने जलवे बिखरने वाली रेणुका शहाणे खुद एक मंझी हुई कलाकार हैं। टेलीविजन इतिहास के सबसे चर्चित धारावाहिकों में से एक 'सुरभि' में उनकी एंकरिंग आज तक लोगों को याद है। 'हम आपके हैं कौन' फिल्म में उनका निभाया भाभी का किरदार लंबे समय तक लोगों को याद रहेगा। रेणुका इन दिनों निर्देशन का काम भी कर रही हैं और अपने पति को ध्यान में रखकर एक फिल्म की स्क्रिप्ट भी लिख रही हैं।

शनिवार, अगस्त 15, 2009

अधूरा अफसाना

वतन आजाद हुआ, तो हर शख्स ने चुन-चुनकर इसकी राहों में कुछ ख्वाब बिछाए। और जिन लोगों ने हमें आजादी की मंजिल तक पहुंचाया, उनकी भी ख्वाहिश थी कि हर ख्वाब को हकीकत में बदला जाए, हर आंख के आंसू को मुस्कान में बदला जाए......लेकिन तब से अब तक एक लंबा अर्सा गुजर चुका है.... और आज ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि यह वो मुल्क नहीं है, जिसका सपना कभी बापू या नेहरू ने देखा था या जिसके लिए हमारे वीर सिपाही हंसते-हंसते शहीद हो गए थे। क्या आजादी वाकई एक ऎसा अधूरा अफसाना है, जिसके हर लफ्ज में कोई दर्दभरी दास्तान छिपी है इसी अहम सवाल का जवाब तलाशने के लिए आजादी की सालगिरह पर हमने तीन ऎसे लोगों को चुना, जिनका आजादी की लडाई के साथ सीधा रिश्ता रहा है। ये हैं महात्मा गांधी के पडपोते तुषार गांधी, सुभाषचंद्र बोस के पडपोते सूर्यकुमार बोस और भगतसिंह के भांजे प्रो। जगमोहन। उनके जवाब में हमें देश और समाज की एक धुंधली तस्वीर तो नजर आती है, पर साथ ही यह उम्मीद भी मौजूद है कि अगर इरादे बुलंद हों, तो कोहरे के पार एक विशाल नीले आसमान को भी हम छू सकते हैं।
बापू, सुभाष और भगत के सपनों का देश
तुषार गांधी- आजादी के बाद हमने बापू के सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए विकास का जो मॉडल अपनाया, उसने देश के भीतर ही दो देश बना दिए हैं। एक तरफ कुछ ऎसे लोग हैं, जो करोडों रूपए की बेंटले कार चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बैलगाडी चलाने वाले लोग भी हैं। लेकिन जहां पहले वर्ग की तादाद बेहद सीमित है, वहीं दूसरा वर्ग तेजी से बढ रहा है। इस खाई को पाटने के लिए हमें बापू के कहे मुताबिक शासन की नीतियां अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनानी होंगी।
सूर्यकुमार बोस- मेरा भी कुछ ऎसा ही मानना है। नेताजी सरीखे हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के सपने का भारत अभी तक नहीं बन पाया है। आतंकी हमलों से दहशत का माहौल है। राजनेता आतंकवाद पर लगाम कसने की बजाय अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने और जेब भरने में लगे हुए हैं। संसद और विधानसभाओं को तो इन्होंने अखाडा बना दिया है। सिस्टम की खामियों को देखकर मन में कभी-कभी विद्रोह का विचार आता है।
प्रो.जगमोहन-मुझे दुख तो इस बात का है कि इस बार हमारे सामने अंग्रेज नहीं, बल्कि अपने ही लोग हैं। कहने को तो भारत आजाद हो गया है, लेकिन देश के नीति-निर्माता अभी भी इसे गुलाम रखना चाहते हैं। अंग्रेजों के अपने फायदे के लिए चलाई गई परिपाटियों को हम आज तक ढोते आ रहे हैं। हम अपने शहीदों के लिए अलग से स्मारक तक नहीं बना पाए और इंडिया गेट को वह दर्जा देने की भूल करते चले जा रहे हैं।
समाज की दशा और दिशा
तुषार गांधी- बेहद शर्मनाक है कि हम अभी तक समाज से कुरीतियों को खत्म नहीं कर पाए। समाज धर्म और जाति के दुष्चक्र में फंसता चला जा रहा है। इस तरह का वैमनस्य देश की एकता और अखंडता के लिए घातक है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने समाज का यह वीभत्स रूप देखने के लिए कुर्बानी नहीं दी थी और आज हम इसी का नाम लेकर देश के टुकडे-टुकडे कर रहे हैं।
सूर्यकुमार बोस- देखिए, समाज का ताना-बाना जितना सुलझा हुआ होगा, देश उतना ही आगे बढेगा। विकास की रफ्तार को बढाने के लिए हमें बदलते वक्त के मुताबिक चलना होगा। ऎसी घटनाएं देखकर ठेस पहुंचती है कि आज इक्कीसवीं सदी में एक युवक को उन्मादी भीड ने पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाला, क्योंकि उसने अपने गौत्र की लडकी से शादी कर ली थी। समाज के ठेकेदारों को परंपराओं के नाम पर रूढियों को थोपना बंद करना चाहिए।
प्रो.जगमोहन-मैं सोचता हूं कि समाज का विकास तभी होता है, जब उसमें स्वनियंत्रण हो। पश्चिम की संस्कृति ने समाज को उन्मुक्त तो बनाया है, लेकिन कई विकारों के साथ। रिश्ते जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। इस भटकाव से समाज का पूरा ढांचा चरमरा गया है। नाउम्मीदी के बीच यह राहत की बात है कि देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों में स्थिति फिर भी ठीक है।
महिला अधिकारों की बात
तुषार गांधी- अब महिलाओं की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधरी है, लेकिन अभी लंबी लडाई लडना बाकी है। महिलाओं को शासन के स्तर पर ही नहीं, समाज के स्तर पर भी सच्ची भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है। हालांकि यह सब इतना सहज नहीं है। पीढियों से समाज के जिस तबके को अबला समझते आए हों, उसे बराबरी का दर्जा देने में जोर तो आएगा। सुकून की बात है कि महिलाएं अपने हकों को हासिल करने के लिए उठ खडी हुई हैं।
सूर्यकुमार बोस- मेरे मुताबिक देश की आबादी के आधे हिस्से को दरकिनार कर विकास के बारे में सोचना बेमानी है। आज की नारी यह साबित कर चुकी है कि वह कमजोर और लाचार नहीं है। ऎसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे नहीं गाडे हों, फिर क्यों उसे बराबरी का हक देने में आनाकानी की जा रही है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण का मामला चंद नेताओं की जिद की वजह से लंबे समय से अटका पडा है।
प्रो.जगमोहन-झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण हम सबके सामने है। उन्होंने ऎसे समय में गुलामी की जंजीरों को तोडने का हौसला दिखाया था, जब पूरा देश निराशा में डूबा हुआ था। देश में लक्ष्मीबाई आज भी हैं, बस हम उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका नहीं देते। कितने शर्म की बात है कि लोग लडकी को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का पाप करने से भी नहीं हिचकते हैं। समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए कन्या भू्रण हत्या पर जल्द से जल्द लगाम लगाना जरूरी है।
हमारा एक सपना है
तुषार गांधी- मैं तो चाहता हूं कि देश में समानता आधारित समाज की स्थापना हो। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों से भेदभाव नहीं किया जाए। यह भेदभाव समाप्त हो जाएगा तो आधी समस्याएं तो वैसे ही हल हो जाएंगी। हमें देश की 'विविधता में एकता' को बरकरार रखना होगा। इसके अलावा मेरा प्रयास रहेगा कि बापू से जुडी हर चीज को देश में लाया जाए, ताकि उनकी अनमोल धरोहर को नीलामी जैसी शर्मसार करने वाली प्रक्रिया से नहीं गुजरना पडे।
सूर्यकुमार बोस- इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर क्षेत्र में देश का विकास हो। यहां की प्रतिभाएं देश के विकास में अपना योगदान दें। सरकार इस तरह के इंतजाम करे कि प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन नहीं करें। युवा भी इस ओर ध्यान दें। वे महज ऊंचे वेतन के आकर्षण में अपना वतन नहीं छोडें। यदि मजबूरी में बाहर जाना भी पडे, तो अपनी मातृभूमि को नहीं भूलें। बाहर रहते हुए भी अपने देश की तरक्की में भागीदार बनने का प्रयास करें।
प्रो.जगमोहन-आप यूं क्यों नहीं सोचते कि यदि हम शहीदों के सपनों को पूरा कर पाएं, तो देश का कल्याण तो अपने आप हो जाएगा। लोगों को यह बताने की जिम्मेदारी हमारी है कि स्वतंत्रता सेनानी देश के बारे में क्या सोचते थे। स्वतंत्रता संग्राम का आधा-अधूरा सच ही लोगों का पता है। इतिहास का यह अनछुआ पक्ष बहुत रोमांचक है। और हां, हमें आजादी की जंग में कुर्बान हुए वीरों की याद में ऎसे स्मारक को मूर्त रूप देना है जो हमारी जमीन पर, हमने ही बनाया हो।

शनिवार, अगस्त 08, 2009

सिमटता संघ


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ऐसी उम्मीद कभी न थी। आठ दशक से भी ज्यादा पुराने इस दरख्त की हर शाख दरकने लगी है। हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन राह भटक गया है, शाखाएं सूनी हो गई हैं, अनुशासन खो गया है, बुद्धिजीवियों ने मुंह मोड़ लिया है और भाजपा का एक धड़ा अकेले चलने पर आमादा है। संघ चक्रव्यूह में फंसता ही चला जा रहा है। वह इससे निकलने के लिए एक रास्ता ढूंढ़ता है तो कई नए घेरों में फंस जाता है। क्या संघ सिमटने लगा है? क्या संघ को जंग लग गई है। संघ के अंदरूनी हालातों का जायजा लेती आवरण कथा।
मोहन राव भागवत। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छठे सर संघचालक। इसी साल 21 मार्च को जब उन्हें के. सुदर्शन का उत्तराधिकारी बनाया गया था तो उम्मीद थी कि वे संघ के कील-कांटों को दुरुस्त करने में कामयाब होंगे। भागवत के सामने सबसे बड़ी चुनौती संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों, विशेषकर भाजपा से बिगड़ते रिश्तों को पटरी पर लाना और संगठनों में फैली अराजकता, वैचारिक भटकाव, व्यक्तिवादी राजनीति के चलते सत्ता संघर्ष और एक-दूसरे के खिलाफ गलाकाट प्रतिद्वंदिता पर लगाम लगाना था। भागवत में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की छवि देखने वाले प्रचारकों को उम्मीद थी कि जल्दी ही भाजपा और संघ के ऐसे नेताओं को हाशिए पर डाला जाएगा जिन्होंने हिंदुत्व पर व्यक्तित्व को हावी कर रखा है। संघ के भीतर तो उन्होंने इसकी कवायद भी शुरू की, पर लोकसभा चुनावों के चलते भाजपा में नेताओं का कद छांटने की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। चुनाव हुए तो परिणामों से मामला और उलझ गया। हार के हाहाकार के बीच भाजपा के कई नेताओं ने संघ को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। संघ से तौबा कर करने की वकालत करने वाले भाजपाईयों की फेहरिस्त बढऩे लगी। इस पूरे घटनाक्रम से भागवत की उस मुहिम को विराम लग गया जिसे वे संघ को संवारने के मकसद से शुरू कर चुके थे।
भाजपा के साथ रिश्तों को अपने हाल पर छोड़ दें तो भी संघ के लिए समस्याएं कम नहीं हैं। संघ की स्थापना 1925 में हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन के साथ हुई थी, लेकिन आठ दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी यह अपने अंजाम तक पहुंच पाया। दरअसल, यह आंदोलन कभी एक दिशा में नहीं चल पाया। शुरूआत में इसके अंतर्गत हिंदू धर्म का एक ऐसा नया स्वरूप उभारने की कोशिश की गई जो राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के एकदम अनुरूप था। इसमें धर्म के एक ऐसे पहलू को विकसित करने की कोशिश की गई जिससे जुडऩा पूरे भारत के लिए सहज हो। शुरूआत में तो यह सफल रहा, लेकिन जब यह आंदोलन हिंदू राष्ट्रवाद की ओर मुडऩे लगा तो दिक्कतें बढऩा शुरू हो गईं। जल्दी ही यह सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की ओर मुड गया। यह ऐसा समय था जब देश में जाति व्यवस्था तेजी से मजबूत हो रही थी। हिंदू समाज जाति के अलावा क्षेत्र और भाषा के आधार पर तेजी से बंट रहा था। संघ ने इस दिशा में ध्यान नहीं दिया और वह हिंदुओं को अन्य धर्मों का भय दिखाकर संगठित करने का असफल प्रयास करता रहा।
1951 में जनसंघ की स्थापना के बाद हिंदुत्व की जो व्याख्या प्रस्तुत की जाने लगी वह हिंदू समाज के बड़े वर्ग को स्वीकार्य नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद उपजे हालातों से ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी। अब तो हालात यह हैं कि संघ तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर उसके लिए हिंदुत्व के क्या मायने हैं। इसकी संगठन स्तर पर व्याख्या होने की बजाय संघ से जुड़ा हर व्यक्ति इसकी अलग ढंग से व्याख्या करता है। कोई गुजराज और कंधमाल में जो हुआ, उसे हिंदुत्व कहता है तो कोई इसकी व्यापक और सकारात्मक अर्थों में व्याख्या करता है। संघ के प्रवक्ता राम माधव तो यहां तक कहते हैं कि हिंदुत्व को बनाने वाल संघ नहीं है। वे बताते हैं, 'हिंदुत्व को बनाने वाले हम नहीं हैं। ऐसे में हम इसमें कोई बदलाव कैसे कर सकते हैं। संघ ने हिंदुत्व को स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो और दयानंद सरस्वती से लिया है। यह भारत की खास पहचान है जिसे हम हिंदुत्व कहते हैं। यह हजारों साल से चली आ रही है, हम तो इसे मजबूत बनाने का काम कर रहे हैं। हिंदुत्व के जिस अर्थ की बात राम माधव कर रहे हैं, संघ शायद ही कभी उस पर चला हो।
यह तय है कि संघ किसी भी कीमत पर हिंदुत्व को नहीं छोड़ेगा, लेकिन सवाल यह है कि वह कितने समय तक इस मुद्दे को जीवित रख पाएगा। क्या वह उस हिंदुत्व के आगे बढ़ाने के लिए काम करेगा जिसकी व्याख्या राम माधव कर रहे हैं या फिर उस पर जिसकी बात बजरंग दल और विश्व हिंदु परिषद करते हैं। दबे स्वर में ही सही संघ अब यह स्वीकारने लगा है कि गुजराज और कंधमाल वाला हिंदुत्व वर्तमान परिस्थितियों में ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सकता। इसकी बानगी वरुण गांधी के भाषण के बाद आए बयानों में देखी जा सकती है। संघ ने वरुण गांधी के भाषण पर असहमति प्रकट करते हुए इससे पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया था। विवादों से रहे अभिनव भारत, श्रीराम सेना, हिंदू जागृति मंच और सनातन प्रभात सरीखे कट्टर हिंदुवादी संगठनों के बारे में संघ पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि इनसे संघ का कोई वास्ता नहीं है। संघ के रवैये में आए इस परिवर्तन से एक बात तो स्पष्ट है कि वह अब हिंदुत्व के नाम पर अन्य धर्मों के खिलाफ गैर कानूनी तरीके से लामबंद होने के खिलाफ है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का संगठन शाखातंत्र पर चलता है। इसी के दम पर संघ ने अपनी पहचान कायम की। देश में आई आपदाओं और संकटों में फंसे नागरिकों की स्वयंसेवकों ने खूब सेवा की। यह दौर अभी भी जारी है, पर इसकी धार कुंद हो चुकी है। वहज है, शाखातंत्र का विफल होना। देश में शाखाओं की संख्या और उनमें आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या तेजी से गिर रही है। संघ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में माना है कि शाखाओं की संख्या में कमी आ रही है। दरअसल, संघ नए खून को शाखाओं से जोडऩे में बुरी तरह से विफल रहा है। युवाओं को शाखाओं में जाने से कोई फायदा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। वहां जो चीजें बताई और सिखाई जाती हैं, वे उसके मानसिक स्तर से ऊपर निकल जाती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आठ दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी संघ ने अपनी शाखा प्रणाली में कोई खास तब्दीली नहीं की है। शाखाओं की घटती संख्या के बारे में संघ से जुड़े देवेंद्र स्वरूप बताते हैं, 'जिस शाखातंत्र को संघ ने मनुष्य निर्माण और संगठन का मुख्य साधन बनाया था, वह स्वयं अपनी गतिशीलता और तेज खोकर जड़ता का बंदी बनता जा रहा है। शाखा प्रक्रिया में बीते आठ दशकों में निर्मित स्वयंसेवकों का एक बड़ा वर्ग काल कलवित हो चुका है और जो विद्यमान हैं, उनमें से ज्यादातर दैनिक शाखातंत्र में सहभागी नहीं हैं। यद्यपि वे गुरूदक्षिणा के कार्यक्रम में आग्रहपूर्वक उपस्थित होकर अपनी संघनिष्ठा का प्रमाण देते हैं। टूटते बिखरते और चारित्रिक भ्रष्टता की दलदल में धंसते समाज में संघ का शाखातंत्र एक बहुत छोटा द्वीप बनकर रह गया है।
शाखातंत्र का विफल होना संघ के लिए खतरे की घंटी है। हालांकि संघ को भी इस बात का अहसास है, पर इससे निपटने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है। यदि समय रहते इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब संघ प्रौढ़ और वृद्ध लोगों की जमात बन जाएगा। शाखातंत्र की विफलता के अलावा संघ को बौद्धिक स्वरूप को बचाए रखने के लिए भी जूझना पड़ रहा है। वैचारिक दृष्टि से संघ की बेहद समृद्ध परंपरा रही है। संघ के सर संघचालक सदैव से बौद्धिक जगत के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। वर्तमान सर संघचालक मोहन भागवत उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। उन्होंने प्रचारक बनने से पहले कुछ समय तक डॉक्टर के रूप में अपनी सेवाएं भी दी हैं। के. सुदर्शन तो देश के उन गिने-चुने बुद्धिजीवियों में से हैं जो भाषा की सीमा को लांघ चुके हैं। सुदर्शन 13 भाषाओं के ज्ञाता हैं। उनसे पहले सर संघचालक रहे डॉ. हेडगेवार, माधव गोलवकर और बाला साहब देवरस भी बड़े विचारक रहे हैं। बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग का सीधे तौर पर भी संघ से जुड़ाव रहा है, लेकिन लंबे समय से इसमें आशातीत वृद्धि नहीं हुई है। इस तबके के जो लोग संघ से जुड़ रहे हैं उनका मकसद दूसरा है। वे भाजपा में अपना ग्राउंड तैयार करने के लिए संघ को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
शाखातंत्र के कमजोर होने और बुद्धिजीवियों की घटती संख्या के कारण समाज पर संघ प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। किसी भी संगठन की सफलता में अनुशासन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कड़ा अनुशासन संघ की विशेषता रही है, लेकिन अब ये ढीला पड़ता जा रहा है। संघ के आला व्यक्ति भी स्वयंसेवकों के लिए नजीर पेश नहीं कर पा रहे हैं। कई ऐसे प्रचारकों के मामले सामने आए हैं जिन्होंने संघ के नियमों को तोड़ अनुशासन को तार-तार किया। प्रचारकों की इस व्यवहार का स्वयंसेवकों पर बेहद बुरा असर पड़ा है। स्वयंसेवक को निष्क्रिय होना संघ के लिए घातक हो सकता है, क्योंकि आम लोगों के बीच तो वहीं जाकर काम करता है। बातचीत में संघ प्रवक्ता राम माधव ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि हिंदू समाज में संघ का प्रभाव कम हो रहा है। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि संघ की विचारधारा किसी भी नजरिए से कमजोर नहीं हुई है। वे बताते हैं, 'शाखाएं संघ का कार्यक्रम है न कि विचारधारा। कहीं-कहीं शहरी क्षेत्रों में शाखाओं में कार्यकर्ताओं की संख्या कम होने का अर्थ यह नहीं कि लोगों ने संघ की विचारधारा को ठुकरा दिया है। साध्वी उमा भारती भी उनकी बात में सुर में सुर मिलाते हुए कहती हैं कि 'संघ में लोगों का गहरा विश्वास है। इतने बड़े संगठन में इस तरह की छोटी-मोटी बातें चलती रहती हैं। इन सबसे संगठन कमजोर होने की बजाय परिष्कृत होकर मजबूत होता है।
संघ की कमजोरियों की चर्चा हो रही हो और भाजपा को जिक्र नहीं हो तो बात अधूरी रहती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना उन्हीं लोगों ने की जो संघ द्वारा चलाए जा रहे हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन में शरीक थे। कुछ सक्रिय स्वयंसेवकों के दबाव में एक सामाजिक संगठन राजनीति में कूद पड़ा। चाहे भारतीय जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी, दोनों की कमान संघ ने हमेशा अपने पास रखी। सत्ता का स्वाद चखने का बाद भी यह नियंत्रण जारी रहा। अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे संघ के वफादार शख्स की सरकार के समय भी यह धारणा स्थिर और सिद्ध थी कि संघ की अनुमति के बिना कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। याद कीजिए संघ के दबाव में किस तरह से वाजपेयी को जसवंत सिंह का मंत्रालय बदलना पड़ा। वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते हुए इस बात की पूरी कोशिश की कि वे ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे संघ की नाराजगी झेलनी पड़े। इतना कुछ करने के बाद भी संघ उनके कार्यकाल से संतुष्ट नहीं हुआ। बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कामकाज की खूब बखिया उधेड़ी।
लालकृष्ण आडवाणी द्वारा जिन्ना को सेकुलर बताना संघ को इतनी बुरी तरह अखर गया कि आडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाकर ही मानें। ऐसे कई उदाहरण है जब संघ भाजपा नेताओं के सामने नहीं झुके और अपनी बात मनवाकर ही दम लिया। संघ की राजनीति में इस अति सक्रियता ने उस सामाजिक संगठन का गला घोंटने का काम किया जो लाखों स्वयंसेवकों की वर्षों की मेहनत से खड़ा हुआ था। संघ में सक्रिय रहने वाले कई स्वयंसेवकों को भी सत्ता का स्वाद मुंह लगा तो सेवा दूसरे पायदान पर चली गई। धीरे-धीरे कार्यकर्ता भी इसी ओर अग्रसर होने लगा। संघ के नेता अब मानने लगे हैं कि राजनीति में ज्यादा दखलंदाजी से संगठन को नुकसान ही हुआ। भविष्य में भाजपा के साथ रिश्तों को लेकर संघ में बहस तेज हो गई है। संघ का एक बड़ा समूह राजनीति से तौबा करने की वकालत कर रहा है। के.एन. गोविंदाचार्य की मानें तो संघ अब आंख मूंद कर भाजपा को समर्थन नहीं देगा। वे कहते हैं, 'अब संघ, भाजपा से साफ शब्दों में बात करके पूछेगा कि पार्टी भविष्य में उसके साथ किस तरह का संबंध रखना चाहती है। वर्तमान में दोनों के बीच जो रिश्ता है, उस पर नए सिरे से चर्चा करना जरूरी है। यदि भाजपा अकेले आगे चलना चाहती है तो संघ को इससे कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन यदि हमारे साथ चलना है तो हमारे हिसाब से ही चलना होगा। दोनों में से किसी को बोझ ढोने की जरूरत नहीं है। संघ को भाजपा की बेखासी न तो आज चाहिए न कल।
भाजपा और संघ के रिश्तों में जारी द्वंद्व का नुकसान संघ को ही ज्यादा हो रहा है। मोहन भागवत अपना पूरा ध्यान संघ की गतिविधियों पर नहीं लगा पा रहे हैं। उन्होंने चुनाव के बाद अपनी टीम बनाने का निश्चय किया था, पर सबकुछ अटका पड़ा है। भाजपा के कई नेता लोकसभा चुनावों में हार का ठीकरा संघ के सिर फोड़ संगठन की छवि को अलग से नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन नेताओं का मानना है कि यदि भाजपा संघ के बिना चुनावों में ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। संघ के लिए चिंता की बात यह है कि पिछले 15 सालों में भाजपा के भीतर ऐसे लोगों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। पंद्रहवीं लोकसभा में भाजपा के टिकट पर जीतकर आए सांसदों की सूची पर नजर डाले तो कुल 116 में से 40 से 50 सांसद ही ऐसे हैं जिनका संघ से कोई जुड़ाव रहा है। बाकी 65 से 75 सांसद तो संघ की विचारधारा से भी वाकिफ नहीं है। ये सांसद भविष्य में संघ की मानने और सुनने वाले नहीं हैं। कुल मिलाकर जिस भाजपा को संघ ने खड़ा किया, अब वही उसके गले की फांस बनता जा रहा है। संघ को स्वयंसेवकों के सत्ता के प्रति रुझान को नियंत्रित करने में पसीना आ रहा है। स्वयंसेवकों को अनुभव होता है कि संघ की मेहनत के कारण ही बीजेपी और हिंदूवादी राजनीतिक दल सत्ता का सुख भोग रहे हैं और उसका भाग उन्हें भी मिलना चाहिए। संघ से जुड़े लोग जिस तरह से सत्ता के पीछे भाग रहे हैं उससे संगठन के दूसरे सर संघचालक गोलवलकर की सत्ता को समाज का टॉयलट मानने की बात सही साबित हो गई है। उनका मानना था कि व्यक्ति घर में कहीं भी फिसल सकता है, लेकिन टॉइलट में फिसलने की आशंका ज्यादा होती है। इसी वजह से वह राजनीतिक पार्टी बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। ऐसे में यह कई संकटों से जूझ रहे संघ को तय करना है कि वह भाजपा के साथ भविष्य में किस तरह का रिश्ता रखता है और बाकी समस्याओं को हल करने के लिए किस तरह के कदम उठाता है।
भागवत की लचीली कार्यशैली उनके लिए नुकसानदायक साबित हो सकती है। उनसे पहले जितने भी सर संघचालक रहे हैं वे विचारधारा और प्रक्रिया पर अडिग रहे हैं जबकि मोहन भागवत विचारधारा के साथ ही निर्णय लेने में लचीलापन रखते हैं और किसी भी प्रकरण को उसकी परिणति तक पहुंचाने में विश्वास रखते हैं। यह मोहन भागवत ही थे कि जिनके सुझाव पर संघ के नेता विवाद सुलझाने के लिए आडवाणी के निवास पर गए। उससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि संघ अपने पारिवारिक घटकों के नेताओं के घर गया हो। संघ नेतृत्व की परंपरा रही है कि 'अपनी बात कह दो और आपकी बात कोई माने या न माने, यह उस पर छोड़ दो। मोहन भागवत इसके विपरीत धारा पर चलते हैं। उनका मानना है कि 'स्वयंसेवक, चाहे वह कद या आयु में कितना भी ऊंचा क्यों न हो, उसे इस बात की समझ होनी चाहिए कि उसे जो कहा गया है, वह आज्ञा ही है। संघ में आ रहे परिवर्तन पर राम माधव कहते हैं कि 'हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र है, इस सिद्धांत को छोड़कर संघ में कोई भी परिवर्तन हो सकता है। इसमें मुख्य रूप से आईटी प्रोफशनलों की रात्रिकालीन शाखाएं ध्यान आकर्षित करती हैं। ये पारंपरिक शाखाओं से हट कर हैं। ऐसी शाखाओं में रात को ग्यारह से बारह बजे तक विचार विमर्श होता है और आईटी को अधिक से अधिक संपर्क का साधन बनाने पर विचार होता है। इस प्रकार की शाखाओं के मोहन भागवत पूरी तरह से पक्षधर रहे हैं जो मोहन भागवत की आधुनिकता को स्वीकार करने की छवि की ओर संकेत करती है। लेकिन इन सबके उलट मोहन भागवत की कार्यशैली संघ परिवार के घटकों के बीच होने वाले तनाव को कम करने में कितना सहायक होगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

साक्षात्कार । के. सुदर्शन । पूर्व सर संघचालक, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
के.एस. सुदर्शन संघ के लोकप्रिय व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। नौ साल तक सर संघचालक रहे सुदर्शन स्वाभाव में लचीलापन और विमर्श में तत्परता के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर संघ के शारीरिक प्रमुख और बौद्धिक प्रमुख, दोनों रूपों में कार्य किया है। संघ के हालातों पर अवधेश आकोदिया ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश -
लोकसभा चुनावों में हार के लिए भाजपा के कई नेता राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेदार बता रहा हैं। इस बारे में आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
- जो ऐसा कह रहे हैं वे संघ की विचारधारा को जानते और समझते ही नहीं हैं। संघ भाजपा को क्यों हराएगा? वैसे भी इन चुनावों में मतदाता की तो कोई अहमियत रही ही नहीं। यह चुनाव पूरी तरह से इलोक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का गड़बड़ी का खेल था जिसे कांग्रेस ने पूरी तरह से अपनी इच्छानुसार खेला। कांग्रेस को जितनी सीटें मिली, उनका अनुमान किसी विश्लेषक ने यहां तक स्वयं कांग्रेस ने भी नहीं लगाया था। कांग्रेस इवीएम मशीनों के दुरूपयोग से जीती है। मैं आपको कई उदाहरण दे सकता हूं कि जहां यह साबित हो जाता है। पी. चिदंबरम के मामले में भी ऐसा ही हुआ।
यदि ऐसा है तो आपकी ओर से शिकायत क्यों नहीं की गई?
- इसके कानूनी पहलुओं पर विचार करने के बाद जल्दी ही ऐसा किया जाएगा। हम तो चाहते हैं कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं वहां इवीएम की बजाय मतपत्रों से ही मतदान हो।
क्या भाजपा संघ और हिंदुत्व से तौबा करना चाहती है?
- इसमें से ज्यादातर वे लोग है जो सत्ता के आकर्षण से भाजपा में हैं न कि विचारधारा से प्रभावित होकर। यह उनकी मर्जी है। हमने किसी को बांध थोड़े ही रख रखा है। यदि उन्हें लगता है कि संघ और हिंदुत्व के बिना वे सत्ता में आ सकते हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। जो भी हो, सभी बातें स्पष्ट रूप से हो जाएं तो अच्छा है। किसी के मन में शंका नहीं रहनी चाहिए। शंका समस्या पैदा करती है। उसे जितना जल्दी हल कर लें उतना अच्छा है। जहां तक हिंदुत्व की बात है तो यह तो एक जीवन पद्धति है, भाजपा इसे क्यों छोडऩा चाहेगी।
आप हिंदुत्व को कैसे परिभाषित करते हैं?
- हिंदुत्व पांच मूल तत्वों से बना है। पहला, उपासना की प्रत्येक पद्धति का सम्मान करना। दूसरा, जड़ है या चेतन सब बराबर हैं। तीसरा, मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है न कि स्वामी। चौथा, महिलाओं का सम्मान और पांचवा जीवन का मकसद भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने तक ही सीमित नहीं है। इन पांचों तत्वों का समग्र रूप हिंदुत्व है।
भाजपा इस पर कहां तक खरी उतरी है?
जाहिर तौर पर पूरी तरह से तो खरी नहीं उतरी है। यदि वह ऐसा कर पाती तो देश में उसके समर्थन में कमी नहीं आती। कहीं न कहीं तो चूक हुई है। मेरे ख्याल से भाजपा यह तय नहीं कर पाई कि उसे किसी दिशा में चलना है। मूल विचार के विपरीत काम करने का प्रयास हुआ। यह सब उन लोगों की वजह से हुआ जो सत्ता की खातिर भाजपा में आए हैं।
भाजपा के अलावा संघ की और क्या समस्याएं हैं?
- पहली बात तो भाजपा हमारे लिए कोई समस्या नहीं है। जहां तक संघ की अन्य समस्याओं का प्रश्न है तो इतने विशाल संगठन में सब कुछ एक साथ ठीक रखना मुश्किल काम है। फिलहाल कोई बड़ी समस्या तो नहीं है। कुछ कार्यक्रमों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है।
संघ की वार्षिक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि शाखाओं व उनमें आने वाले लोगों की संख्या...
- शहरी क्षेत्रों की कुछ शाखाओं में ऐसा हुआ है, लेकिन आप इसका सामान्यीकरण नहीं कर सकते हैं। आप ये भी तो देखिए कि हमारी ज्यादातर शाखाएं बहुत अच्छी तरह से संचालित हो रही हंै। हर आयु और वर्ग के लोग इनमें आ रहे हैं। शहरों की कुछ शाखाओं का ठीक ढंग से नहीं चलना चिंता का विषय है। जल्दी ही इसका समाधान निकाल लिया जाएगा।
युवा और बुद्धिजीवी वर्ग आपसे दूर क्यों होता जा रहा है?
- हमसे न युवा दूर हो रहे हैं और न ही बुद्धिजीवी। दोनों वर्ग हमसे निरंतर जुड़ रहे हैं। हां, यह जरूरी कहा जा सकता है कि जीवन में कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते युवा अब उतनी सक्रियता से हमारे कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं ले रही है। हमारा प्रयास है कि वे प्रतिस्पर्धा और अपने सामाजिक दायित्वों के बीच संतुलन बनाते हुए कार्य करें।
संघ के भीतर अनुशासनहीनता बढऩे की क्या वजह है?
- अनुशासन तो संघ का आधार है। कई जगह पर अनुशासनहीनता की जानकारी मुझे भी मिली है। अनुशासन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि लोगों का पूर्णत: आप पर विश्वास हो। अनुसरणकर्ता का नीतियों और तौर-तरीकों से सहमत होना जरूरी है। हम देख रहे हैं कि दिक्कत कहां पर है।
संघ को राजनीति में सक्रिय होने का कितना नुकसान हुआ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सामाजिक संगठन है। हम राजनीति में कभी सक्रिय नहीं हुए। सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरूर जनसंघ और जनता पार्टी बनी। इनमें ज्यादातर संघ से जुड़े हुए ही लोग थे। हमारी विचाराधारा भी समान थी, इसलिए संघ ने इनका समर्थन किया। इसका मकसद राजनीति करने का बिल्कुल नहीं था।

सोमवार, जुलाई 13, 2009

नए निजाम, पुरानी मुसीबतें

सूबे में भाजपा के नए निजाम अरुण चतुर्वेदी आते ही पुरानी मुसीबतों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। उनके आते ही पार्टी के भीतर चल रहा घमासान और तेज हो गया है। पार्टी का कोई भी बड़ा नेता उन्हें स्वीकार करने के मूड में दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में क्या चतुर्वेदी भाजपा के कील-कांटों को दुरुस्त कर पाएंगे? एक रिपोर्ट!

अरुण चतुर्वेदी। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के नए निजाम। हाईकमान ने उन्हें नियुक्त तो किया सूबे में पार्टी को पटरी पर लाने के लिए, लेकिन उनके आते ही असंतोष थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज नेताओं की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। विधायक व पूर्व मंत्री देवी सिंह भाटी ने तो चतुर्वेदी की नियुक्ति का विरोध करते हुए भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से ही इस्तीफा दे दिया है। भाटी के बाद विधायक रोहिताश्व ने भी बागी तेवर दिखाते हुए कहा है कि नए अध्यक्ष एक कमजोर व्यक्ति हैं उनकी राजस्थान में कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। चतुर्वेदी को पूरे प्रदेश के भूगोल तक का ज्ञान नहीं है। पार्टी उनके नेतृत्व में मजबूत नहीं हो सकती। हालांकि चतुर्वेदी सबको साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं। वे पार्टी के आला नेताओं से मिलकर सहयोग करने की गुजारिश कर रहे हैं, पर संघ के अलावा कोई भी उनके साथ चलने को तैयार नहीं है।

हम पहले ही बता चुके है कि राजस्थान में भाजपा वसुंधरा राजे, वसुंधरा विरोधी और संघ के रूप में तीन खेमों में बंटी है। अरुण चतुर्वेदी संघ खेमे से हैं। प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए संघ ने ही उनका नाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास भेजा था। हालांकि उनके साथ मदन दिलावर और सतीश पूनिया का नाम भी शामिल था, लेकिन मुहर चतुर्वेदी के नाम पर लगी। संघ और पार्टी के प्रति वफादारी के अलावा युवा होने का फायदा उन्हें मिला। विवादों से दूर रहना भी उनके काम आया। गौरतलब है कि प्रदेशाध्यक्ष बनने से पहले वे पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी थे। उनके इन पदों पर रहते हुए पार्टी के भीतर खूब घमासान मचा। खेमेबंदी भी जमकर हुई, पर चतुर्वेदी ने इनसे दूरी ही बनाए रखी। वे 'सबके साथ और किसी के साथ नहीं वाली नीति पर चले। संघ के प्रति जरूर उनका 'साफ्ट कॉर्नर' रहा। राज्य में संघ के भीतर भी कई धड़े बने हुए हैं, पर चतुर्वेदी के सभी से अच्छे संबंध हैं।

अरुण चतुर्वेदी को जिनती आसानी से पार्टी अध्यक्ष पद मिला है, काम करना उतना ही मुश्किल है। वे स्वयं भी मानते हैं कि इस जिम्मेदारी को संभालना आसान नहीं है। विशेष बातचीत में उन्होंने माना कि लगातार दो हार झेलने के बाद पार्टी में शक्ति का संचार करना आसान काम नहीं है। वे कहते हैं, 'हार का ज्यादा असर कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। वे बहुत जल्दी मायूस हो जाते हैं। सबसे ज्यादा जरूरी काम कार्यकर्ताओं को ही सक्रिय करना है, क्योंकि पार्टी के उन्हीं के दम पर कायम है। कार्यकर्ताओं में जोश भरने का पूरी योजना मेरे दिमाग में है। स्थानीय निकायों के चुनावों को देखते हुए हम जल्दी ही इस पर काम शुरू करेंगे।' चतुर्वेदी कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में भले ही कामयाब हो जाएं, लेकिन बड़े नेताओं के बीच लगातार चौड़ी खाई को भरने में उन्हें पसीना आ जाएगा। उन्हें पद संभालने से पहले ही इसका ट्रेलर मिल गया। आमतौर पर नए अध्यक्ष की नियुक्ति की घोषणा होते ही बधाई देने और स्वागत करने के लिए नेताओं मजमा लगना शुरू हो जाता है, लेकिन चतुर्वेदी के साथ ऐसा नहीं हुआ। पार्टी का कोई भी आला नेता उन्हें बधाई देने नहीं पहुंचा। बाद में वे स्वयं एक-एक करके सभी नेताओं के यहां गए और सहयोग मांगा।

सूबे में भाजपा के नए निजाम के लिए कदम-कदम पर मुश्किलें हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती नियुक्ति के बाद पनपे असंतोष को थामना है। चतुर्वेदी के लिए देवी सिंह भाटी का पार्टी छोड़ देना और रोहिताश्व की खुली खिलाफत से ज्यादा घातक उन्हें पटकनी देने के लिए अंदरखाने बन रही रणनीतियां हैं। उनके विरोधियों, खासतौर पर वसुंधरा खेमे में नए अध्यक्ष को लेकर खलबली मची हुई है। सूत्रों से जो जानकारियां मिल रही हैं वे चतुर्वेदी के लिए खतरनाक हैं। महारानी इस मसले पर केंद्रीय नेतृत्व के संपर्क में हैं और उन्होंने अपने समर्थकों को फिलहाल चुप रहने को कहा है। साथ ही चतुर्वेदी की अध्यक्षता में होने वाली बैठकों से दूर रहने को कहा है। जरूरत पडऩे पर वे अपने लमावजे के साथ दिल्ली भी जा सकती हैं। यहां हालत कुछ-कुछ वैसे ही हो रहे जो ओम माथुर के अध्यक्ष बनने के समय हुए थे। उस समय वसुंधरा नहीं चाहती थीं कि उनके विश्वस्त डॉ। महेश शर्मा को हटाकर ओम माथुर को प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी जाए, लेकिन राजनाथ सिंह ने माथुर को राजस्थान भेज दिया। महारानी ने उनकी वापसी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, पर वे सफल नहीं हुईं। इस मामले में आडवाणी भी उनकी कुछ मदद नहीं कर पाए। माथुर राजस्थान आ तो गए, लेकिन महारानी ने उन्हें ज्यादा तवज्जों नही दी। पार्टी के नितिगत निर्णयों में माथुर की ज्यादा नहीं चली।

महारानी अच्छी तरह जानती हैं कि एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व फिलहाल अपना फैसला नहीं बदलेगा। नए अध्यक्ष का विरोध वे उन्हें हटाने के लिए नहीं, बल्कि उन पर दबाव बनाने के लिए कर रही हैं। वे हाईकमान के सामने ये साबित करना चाहती हैं कि चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले से राज्य में पार्टी के ज्यादातर लोग सहमत नहीं हैं। इससे केंद्रीय नेताओं के सामने चतुर्वेदी का कद छोटा हो जाएगा, महारानी चाहती भी यही हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा खेमा चतुर्वेदी के लिए ओम माथुर से भी बदतर हालात पैदा करने की योजना बना रहा है। इसके तहत उन पर एक साथ हमला बोलने की बजाय धीरे-धीरे वार किया जाएगा। वे जितने समय भी अध्यक्ष पद पर रहे, असंतोष बरकरार रहे। जरूरत के हिसाब से यह कम-ज्यादा होता रहे।

महारानी खेमे को अपनी जगह छोड़ दें तो भी चतुर्वेदी की राह आसान नही हैं। वसुंधरा विरोधी खेमा उनके लिए दिक्कतें खड़ी कर सकता है। हालांकि इनमें से कई नेताओं से चतुर्वेदी के अच्छे संबंध हैं। पक्का संघी होने के कारण भैरों सिंह शेखावत, हरिशंकर भाभड़ा और ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे वरिष्ठ नेता भी उनका विरोध नहीं करेंगे। इन दिग्गजों के कहने से और भी कई नेता नए अध्यक्ष का सहयोग कर सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा विरोधी ज्यादातर नेता चतुर्वेदी का सहयोग करने तो तैयार हैं, लेकिन इस शर्त पर कि वे वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत करने की उनकी मुहीम का हिस्सा बनें। गौरतलब है कि ये नेता लंबे समय से महारानी के खिलाफ सक्रिय है। इनकी लाख कोशिशों के बाद भी वसुंधरा ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर चुनावों में पार्टी की हार के बाद वे नेता प्रतिपक्ष बनने में सफल रही। वसुंधरा के विरोधी उन्हें पटकनी देने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। यदि प्रदेशाध्यक्ष उनके पक्ष का रहा तो वे महारानी हटाओ मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने में सफल हो सकते हैं। वसुंधरा विरोधी खेमें में एक ही व्यक्ति हैं जो चतुर्वेदी के लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं। वे हैं घनश्याम तिवाड़ी। तिवाड़ी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं हैं। जिस समय महारानी मुख्यमंत्री थीं और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही थी तो तिवाड़ी कुर्सी की दौड़ में सबसे आगे थे। प्रदेशाध्यक्ष को लेकर उनके नाम की चर्चा इस बार तो थी ही ओम माथुर के समय भी रही। यदि वे लोकसभा चुनाव नहीं हारते तो अध्यक्ष पद के लिए वे ही सबसे तगड़े दावेदार थे।

वैसे भले ही अरुण चतुर्वेदी आते ही मुश्किलों में घिर गए हों, पर मुसीबतें महारानी के लिए भी कम नहीं है। जिस तरह से अन्य राज्यों में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व परिवर्तन कर रहा है, उसी क्रम में राजस्थान से वसुंधरा का नंबर भी आ सकता है। ओम माथुर के इस्तीफे के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़े जाने को दबाव उन पर पहले से ही है। पार्टी में यह स्वर मुखर होने लगा है कि हार के लिए ओम माथुर से ज्यादा जिम्मेदार वसुंधरा हैं। इसलिए माथुर की तर्ज पर उन्हें भी इस्तीफा देना चाहिए। वसुंधरा को भी इसका अहसास है। वे इस बात के लिए लॉबिंग कर रही है कि राजस्थान में एक साथ दो परिवर्तन पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित होंगे। अरुण चतुर्वेदी के खिलाफ असंतोष को हवा देकर वे पार्टी के आला नेताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि यदि उन्हें बदलकर किसी और को जिम्मेदारी दी गई तो इसी तरह से विरोध के स्वर उभरेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबियों की मानें तो राजस्थान की जिम्मेदारी अरुण चतुर्वेदी को सौंपकर पार्टी ने वसुंधरा को भविष्य के कदम का संकेत दे दिया है। राजनाथ सिंह तो महारानी को हटाने के लिए पूरा मन बना चुके हैं, पर लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। आडवाणी के आशीर्वाद से महारानी भले ही नेता प्रतिपक्ष पद पर बनी रहें, लेकिन राज्य भाजपा में मचा घमासान कम होने वाला नहीं है।

शनिवार, जुलाई 11, 2009

आदर्श नहीं बन पाए माइकल जैक्सन

संगीत और डांस के अनूठे संगम से समां बांध देने वाले माइकल जैक्सन की मृत्यु के बाद कला जगत को हुई क्षति की भरपाई शायद ही कभी हो पाए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि माइकल जैक्सन एक बेहतरीन कलाकार थे। उनकी द थ्रिलर एलबम हो या डेंजरस टूर या फिर उनका मून वॉक डांस, सबने रिकॉर्ड बनाए और खूब लोकप्रियता हासिल की। उनकी सभी एलबमों को मिला दिया जाए तो साढ़े सात करोड़ से ज्यादा प्रतियां तो उनके रहते हुए बिक चुकी थीं। संगीत की दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार 'ग्रेमी अवॉर्ड' उन्होंने 13 बार जीता। दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है जहां उन्हें दीवानगी की हद तक चाहने वाले नहीं हों। वे जहां भी जाते छा जाते। इतना कुछ होते हुए माइकल जैक्सन का जीवन लोगों के लिए आदर्श नहीं बन पाया। उनके जीवन से संगीत को निकाल दिया जाए तो याद करने लायक शायद ही कुछ बचे।

माइकल जैक्सन और विवादों का चोली दामन का साथ रहा। कॅरियर के शुरूआती दौर में जब उन्होंने अपना रंग-रूप बदलने के लिए सर्जरी करवाई तो उनकी काफी आलोचना हुई। यह सर्जरी उनके लिए सिरदर्द ही साबित हुई। शरीर में कई तरह के विकार पैदा हो गए। इन्हें ठीक करवाने के लिए उन्होंने खासी मशक्कत की, पर सफलता नहीं मिली। पिछले कुछ सालों से तो वे दवाईयों के सहारे ही जिंदा थे। 1993 में एक 13 साल के लड़के ने माइकल जैक्सन पर यौन शोषण का आरोप लगाया। हालांकि बाद में यह मामला आपसी समझौते में सुलझ गया। बताया जाता है कि इसके लिए माइकल को बड़ी रकम चुकानी पड़ी। 2003 में टेलीविजन पर प्रसारित एक डोक्यूमेंट्री में माइकल जैक्सन द्वारा किए गए यौन उत्पीडनों को सिलसिलेवार ढंग से दिखाया गया। इसके प्रसारण के बाद उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि वे ऐसा करते रहे हैं। 2005 में उनके लिखाफ एक 11 साल के लड़के का अपहरण कर यौन दुराचार करने का मामला दर्ज हुआ। माइकल जैक्सन नशे के भी आदी थे। इसी के चलते उन्हें अपने मशहूर एलबम 'डेंजरस' का वर्ल्‍ड टूर भी रद्द करना पड़ा। माइकल जैक्सन का वैवाहिक जीवन भी सफल नहीं रहा वे अपनी पत्नियों के साथ बहुत कम समय तक रहे। अपने अनाप-शनाप खर्चों के चलते वे एक बार तो दिवालिया होने की स्थिति में आ गए थे। कुल मिलाकर विवादों का बंवडर हमेशा उनके साथ चला। उन्होंने विवादों से स्वयं को बचाने की खूब कोशिश की, पर विवाद थमने की बजाय बढ़ते ही गए।

दुनिया की चर्चित शख्शियतों में माइकल जैक्सन अकेले नही हैं जो अपने विवादास्पद क्रियाकलापों के चलते किसी के 'आइडियल' नहीं बन पाए। इस फेहरिस्त में कई बड़े नाम शामिल हैं। इन लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र में तो खूब नाम कमाया, पर जिंदगी के बाकी मोर्चों पर ये फिसड्डी साबित हुए। सवाल यह उठता है कि ऐसी कौनसी वजह हैं कि ये लोग विवादों में फंसते चले जाते हैं? जितना अनुशासन ये अपने काम में दिखाते हैं, उतना बाकी जगह क्यों नहीं दिखा पाते? इसका बड़ा वजह यह है कि ऊंचा मुकाम हासिल करने के बाद इन लोगों को किसी की फ्रिक नहीं होती है। इतनी शोहरत पाने के बाद वे दुनिया के हिसाब से नहीं बल्कि दुनिया को अपने हिसाब से चलाने के बारे में सोचते हैं। समाज के नियम-कायदों की इनकी नजर में कोई अहमियत नहीं होती है। कई लोग जानबूझकर विवाद पैदा करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे कम से कम वे 'लाइम लाइट' में तो रहते हैं। हालांकि माइकल जैक्सन के मामले में ऐसा नहीं है। उन्होंने शायद ही कभी सुर्खिया बटोरने के लिए किसी विवाद को जन्म दिया हो। उन पर तो सफल होने का जूनून सवार था, लेकिन जब सफल हुए तो जीवन जीना ही भूल गए। इसी का नतीजा है कि आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उन्हें श्रद्धांजलि देने वाली करोड़ों नम आंखों के साथ विवादों के किस्सों, संपत्ति, कर्ज और बेटे-बेटियों के भरण-पोषण को लेकर ढेरों सवाल भी हैं। इन सवालों के बीच उन जैसा कलाकार तो हर कोई बनना चाहेगा, पर उन जैसा विवादों से भरा व कष्‍टप्रद जीवन कोई नहीं जीना चाहेगा।
(11 जुलाई को डेली न्‍यूज़ में प्रकाशित)

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

सक्रिय हुए सूरमा


ओम माथुर का प्रदेशाध्यक्ष पद से मोहभंग क्या हुआ उनकी जगह लेने वालों की कतार लग गई। कई धड़ों में बंटी भाजपा के आला नेता एकाएक सक्रिय हो गए हैं। सब किसी अपने को जिम्मेदारी दिलाना चाहते हैं। सूबे की भाजपा में अध्यक्ष पद के लिए चल रही रस्साकशी के छोर खोजती रिपोर्ट!


भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश कार्यालय। पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद यहां सन्नाट पसरा रहता था, पर पिछले कुछ दिनों से अचानक पुरानी रौनक लौट आई है। नेताओं की आवाजाही तो बढ़ी ही है, कार्यकर्ताओं का आना-जाना भी शुरू हो गया है। पार्टी दफ्तर में हुई इस हलचल की वजह प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर की विदाई तय होना है। कोई उनकी जगह लेने के लिए तो कोई नए निजाम की टीम में शामिल होने के लिए लाबिंग में जुटा है। आलाकमान ने भी राजस्थान में पार्टी का नया कप्तान तलाशने की कवायद शुरू कर दी है। पार्टी किसी ऐसे चेहरे की तलाश में है जो महारानी की मर्जी का हो, जिसके नाम पर संघ मुहर लगाए, जिसे भैरों सिंह शेखावत का भी आशीर्वाद प्राप्त हो और जो वसुंधरा विरोधियों की नजरों में भी नहीं खटकता हो।


वैसे भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी राजस्थान में बदलाव करने के मूड में नहीं था, लेकिन ओम माथुर काम करने को राजी नहीं हुए। उन्होंने मौजूदा हालातों में पद पर बने रहने से साफ तौर पर इंकार कर दिया। माथुर को मनाने में नाकाम रहने के बाद पार्टी नए प्रदेशाध्यक्ष को लेकर पशोपेश में है। आलाकमान ऐसे नेता को राजस्थान की जिम्मेदारी देना चाहता है जिससे किसी को ऐतराज नहीं हो और जो पार्टी में चल रही खींचतान को खत्म करने की दिशा में काम कर सके, पर फिलहाल ऐसे किसी नाम पर सहमति बनती दिखाई नहीं दे रही है। प्रदेशाध्यक्ष के चयन को लेकर भाजपा तीन खेमों वसुंधरा राजे, संघ और संघ समर्थित वरिष्ठ नेताओं में बंटी हुई है। इनमें से महारानी का खेमा अभी भी सबसे मजबूत है। विरोधी मान रहे थे कि दो चुनावों में मिली हार और माथुर के इस्तीफे के बाद महारानी पर नेता प्रतिपक्ष पद छोडऩे का दबाव बनेगा, लेकिन पार्टी राज्य में दोहरा बदलाव करना नहीं चाहती है।


वर्तमान परिस्थितियों इस बात की संभावना ज्यादा है कि प्रदेशाध्यक्ष पद महारानी की मर्जी से ही किसी को दिया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक वे किसी जाट पर दांव खेलना चाहती हैं। गौरतलब है कि चुनावों में भाजपा की पराजय के पीछे जाटों की नाराजगी को बड़ी वजह माना जा रहा है। प्रदेशाध्यक्ष पद पर जाट नेताओं के तौर पर डॉ। दिगंबर सिंह, रामपाल जाट और सुभाष महरिया के नामों की चर्चा है। दोनों वसुंधरा के करीबी हैं, पर महरिया के नाम पर संघ ऐतराज कर सकता है। ऐसे में दिगंबर सिंह का दावा मजबूत है। वसुंधरा के करीबियों की मानें तो महारानी ने दिगंबर को अध्यक्ष बनने के लिए तैयार रहने को कहा है। इसी के चलते पार्टी कार्यालय में उनका आना-जाना अचानक बढ़ गया है। आजकल वे अपना ज्यादातर वक्त यहीं बिता रहे हैं। दिगंबर के साथ दिक्कत एक ही है कि जाटों पर उनका प्रभाव भरतपुर तक ही सीमित है। शेखावाटी क्षेत्र में उनकी इतनी पकड़ नहीं है। यही परेशानी रामपाल जाट के साथ भी है।


यदि किसी गैर जाट को मौका दिया जाता है तो महारानी के विश्वस्तों में से रामदास अग्रवाल की लॉटरी खुल सकती है। सूत्रों के मुताबिक वे इसके लिए लॉबिंग भी कर रहे हैं। उन्हें महारानी का समर्थन तो हासिल है ही, संघ से भी उनके अच्छे संबंध हैं। भैरों सिंह शेखावत से उनकी ट्युनिंग उस जमाने से है जब बाबोसा मुख्यमंत्री और वे स्वयं प्रदेशाध्यक्ष थे। डॉ। किरोड़ी लाल मीणा के भाजपा छोड़ देने के बाद वसुंधरा विरोधियों में उनकी खिलाफत करने वाले ज्यादा नहीं हैं। केंद्रीय नेताओं से मधुर रिश्ते अग्रवाल के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। अग्रवाल के लिए उम्र एक बाधा हो सकती है। पार्टी नेतृत्व अग्रवाल सरीखे पुरानी पीढ़ी के नेता को जिम्मेदारी देने की बजाय किसी नए नेता को राज्य का जिम्मा सौंपना ज्यादा पसंद करेगा। संघ ने भी पार्टी को यही राय दी है कि राजस्थान में भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले बेहतर खड़ा करने के लिए किसी नए चेहरे को दायित्व सौंपा जाए।


संघ समर्थक दावेदारों की बात करें तो पूर्व मंत्री मदन दिलावर, प्रदेश उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और सतीश पूनिया का नामों की चर्चा है। संघ के सूत्रों की मानें तो ये तीन नाम पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भेज दिए गए हैं। संघ ने सूबे की 'कास्ट केमिस्ट्री' और पार्टी के भीतर अब तक के कामकाज की समीक्षा के आधार पर ये नाम भेजे हैं। इन नामों से में मदन दिलावर को दलित होने का फायदा मिल सकता है। लेकिन पार्टी के आला नेताओं का एक धड़ा उनके नाम पर हामी भरने को तैयार नहीं है। इनका मानना है कि दिलावर की धार्मिक कट्टरता पार्टी के लिए कभी भी संकट खड़ा कर सकती है। वसुंधरा के शासनकाल में मंत्री रहते हुए वे कई मर्तबा सरकार को परेशानी में डाल चुके हैं। स्वाभाव से तल्ख दिलावर के लिए वसुंधरा के साथ कड़वे संबंध नुकसानदायक साबित हो सकती है। अरुण चतुर्वेदी के साथ भी यही है। महारानी से उनका शुरू से छत्तीस का आंकड़ा है। विधानसभा चुनावों के समय चतुर्वेदी ने सिविल लाइन क्षेत्र से टिकट हासिल करने में अपना पूरा दम लगा दिया, पर कामयाब नहीं हुउ। वसुंधरा ने उनकी जगह युवा मोर्चा के अध्यक्ष अशोक लाहोटी को उम्मीदवार बना दिया, जो भैरों सिह शेखावत के भतीजे और कांग्रेस उम्मीदवार प्रताप सिंह खाचरियावास से हार गए। चतुर्वेदी पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी है, पर शायद ही ऐसा कोई मौका हो जब उन्होंने वसुंधरा की तारीफ की हो। ऐसे में यदि आलाकमान चतुर्वेदी को जिम्मेदारी देता है तो खींचतान कम होने की बजाय और बढ़ जाएगी।


जहां तक सतीश पूनिया की दावेदारी का सवाल है तो इनके साथ भी वही दिक्कत है जो मदन दिलावर और अरुण चतुर्वेदी के साथ है। पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए महारानी ने पूनिया को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, पूनिया चूरु क्षेत्र की राजनीति से निकल कर आए हैं। यहां राजेंद्र सिंह राठौड़ और उनके बीच शुरू से ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही है। वसुंधरा ने इसका फायदा उठाने की रणनीति पर काम किया। पूनिया का पटकनी देने के लिए उन्होंने राजेंद्र राठौड़ को अपने खेमें में शामिल कर लिया। महारानी का वरदहस्त प्राप्त होते ही राठौड़ ने पूनिया की जड़े खोदना शुरू किया। राठौड़ की मुहीम कामयाब रही और आज हालत यह है कि पूनिया खुद की ही पार्टी में पूरी तरह से हाशिए पर हैं। वसुधंरा कभी नहीं चाहेंगी कि पूनिया प्रदेशाध्यक्ष बन पहले से भी ज्यादा ताकतवर बन जाएं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनकी हालत जख्मी शेर सरीखी है। मौका मिला तो शिकार को बख्शने का सवाल ही पैदा नहीं होता।


इन तीन नामों के अलावा संघ की ओर से घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया का नाम लंबे समय से चल रहे हैं। ये दोनों नेता वसुंधरा विरोधी खेमे का अहम हिस्सा हैं। जसवंत सिंह को इनका सरदार माना जाता है और भैरों सिंह शेखावत को सलाहकार। इस खेमें लंबे से समय से महारानी के खिलाफ मुहीम छेड़ रखी है। प्रदेशाध्यक्ष पद से माथुर के इस्तीफे के बाद यह खेमा फिर से सक्रिय हो गया है। ये लोग पार्टी के आला नेताओं से मिलकर वसुंधरा पर नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे के लिए दबाव बना रहे हैं। इनका कहना है कि जिस तरह से माथुर ने पार्टी की हार की जिम्मेदारी ली है, उसी तरह से महारानी को भी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दे देना चाहिए। आलाकमान से जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि महारानी से इस्तीफा देने के लिए कहा जाएगा। ऐसे में वसुंधरा के विरोधियों ने अपना पूरा ध्यान प्रदेशाध्यक्ष के पद को झटकने में लगा दिया है।


लोकसभा चुनाव से पहले तक गुलाबचंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी में से तिवाड़ी की दावेदारी ज्यादा मजबूत नजर आ रही थी, पर जयपुर से गिरधारी लाल भार्गव की विरासत बचाने में नाकाम रहने के बाद वे कमजोर पड़ गए हैं। हालांकि अभी भी उन्हें संघ का समर्थन प्राप्त है, लेकिन उनके काम करने के तरीके से खिन्न होकर कल तक उनके साथ रहने वाले कई लोग खिलाफत करने लगे हैं। लोकसभा चुनावों में अतिआत्मविश्वास तिवाड़ी को अब तक दुख दे रहा है। दरअसल, अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होने के कारण तिवाड़ी ने दूसरी पंक्ति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जों नहीं दी। चुनाव परिणाम तो उनके लिए निराशाजनक रहे ही, समर्थक भी नाराज हो गए। वसुंधरा विरोधी होने का ठप्पा तो उन पर पहले से ही लगा हुआ है। इन हालातों में आलाकमान तिवाड़ी को मौका देकर खींचतान का नया मैदान तैयार करने की भूल शायद ही करे।


ओम माथुर के विकल्प के तौर पर गुलाबचंद कटारिया की दावेदारी की चर्चा भले ही आखिर में की जा रही हो, पर वर्तमान में वे सबसे मजबूत स्थिति में हैं। कल तक जिस 'भोली छवि' और 'ढुलमुल व्यक्तित्व' को उनकी कमजोरी बताया जाता था, अब वही उन्हे सूबे में भाजपा का मुखिया बनवा सकती है। संघ तो उनका साथ देने के लिए पहले से ही तैयार है। कई गुटों में बंटी पार्टी समझौते के रूप में कटारिया के नाम पर सहमत हो सकती है। कटारिया भले ही वसुंधरा विरोधी मुहीम में शामिल रहे हो, लेकिन उन्होंने कभी उनसे व्यक्तिगत बैर नहीं बांधा। वसुंधरा उनके नाम पर इसलिए राजी हो सकती है कि कटारिया उनके लिए भविष्य में ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले नहीं हैं। कटारिया को करीब से जानने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कठोर निर्णय लेने और विवादों में पडऩे से परहेज है। यदि कटारिया अध्यक्ष बनते हैं तो वे शायद ही महारानी के कामकाज में कोई दखल दें।


दावेदारों की भीड़ के बीच भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह आखिर किस पर भरोसा करे। आलाकमान की दुविधा यह है कि वह किस धड़े की बात मानें और किसे अनदेखा करे। पार्टी का प्रयास है कि राज्य के बड़े नेता किसी एक नाम पर सहमत हो जाएं और टकराव टल जाए। सूत्रों के मुताबिक आलाकमान पार्टी नेताओं को यही समझाने का प्रयास कर रहा है कि अध्यक्ष कोई भी बने सब मिलकर फिर से खड़ा करने का काम करें। नेताओं के लिए भी यही करना ठीक है, क्योंकि पार्टी से ही उनकी अहमियत है।

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

बिके सब, कोई कम कोई एकदम!

हरमोहन धवन जी ने अपनी आप बीती में मीडिया के कड़वे सच से एक बार फिर परदा उठाया है। मैं इसे थोड़ा और उपर खिसकाने की जुर्रत कर रहा हूं। मैं यहां अपने पत्रकार मित्रों के मुंह से सुनी बातें भी नहीं करुंगा। मैं आपको वहीं बता रहा हूं जो अपनी आंखों से देखा है। मेरा इरादा पत्रकारों की जमात, जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं को कठघरे में खड़ा करने का नहीं है, पर इतना जरूर कहना चाहता हूं कि जो व्‍यापारी करोड़ों का निवेश करेगा वह तो केवल लाभ के बारे में ही सोचेगा, लेकिन पत्रकार द्वारा उसकी हां में हां मिलाना कहां तक जायज है? सवाल आपके सामने है जबाव भी आपको ही खोजना है...

बात लोकसभा चुनावों की है। जगह है राजस्थान के एक दैनिक अखबार का न्यूज़ रूम। यहां रोज की तरह समाचारों को अंतिम रूप दिया जा रहा है, पर माहौल कुछ बदला-बदला है। न्यूज़ एडीटर की टीम में आज एक नया शख्स दिखाई दे रहा है। यह व्यक्ति संस्थान में काम नहीं करता है, लेकिन समाचार बनाने में खूब दखल दे रहा है। समाचार बन जाते हैं, पर यह व्यक्ति वहीं डटा रहता है। पेज बनने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद जब अखबार छपने चला जाता है तभी वह रवाना होता है। जी हां, लोकसभा चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के मीडिया मैनेजरों की पहुंच इसी तरह से राज्य के बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्रों तक रही। हालांकि संस्करणों के हिसाब से इसमें ऊंच-नीच देखने को मिली। पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए ज्यों ही पार्टी ने उम्मीदवारों की घोषणा की मीडिया समूह 'मोटी कमाई' के लिए सक्रिय हो गए। बाकायदा पैकेज बनाए गए। पैकेज का मोटा या छोटा होना चुनाव लड़ने वाले की व्यक्तिगत हैसियत और उसकी पार्टी पर निर्भर था। औसत रूप से इसकी राशि 5 से 15 लाख रूपए के बीच में रही।

मीडिया समूहों की एक पूरी टीम उम्मीदवारों को पैकेज का मजमून समझाने आती। इन्हें उम्मीदवारों के चुनाव कार्यालयों तक में आने से गुरेज नहीं रहता। हैरत की बात तो यह रही कि इसमें मार्केटिंग के लोगों के अलावा पत्रकार भी शामिल होते थे। जब बात पैसों पर आ जाए तो डीलिंग में सारी बातें खुलकर होती। कितना कवरेज मिलेगा, कैसे मिलेगा, दूसरी पार्टी के प्रत्याशी से क्या डील हुई है या होगी, उसने भी इतने ही पैसे दे दिए तो क्या होगा सरीखे सवाल उम्मीदवार या उनके नुमाइंदों की ओर से दागे जाते। टीम हर सवाल का जबाव देने की कोशिश करती। आखिर में मोलभाव होता। इतना तो कीजिए...थोड़ा और....जैसी मिन्नतों के बीच टीम की ओर से पैकेज को अधिकतम रखने का प्रयास होता, लेकिन कम मिलने पर भी डील होती। कुल मिलाकर इस टीम का एक ही उद्देश्य था, किसी को बख्शा नहीं जाए सबसे कुछ न कुछ लिया जाए। किसी से खबरें प्लांट करने के नाम पर तो किसी से विज्ञापन के नाम पर। कहते हैं बेईमानी का काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है, लेकिन कई उम्मीदवारों को शिकायत रही कि पैकेज देते वक्त उनसे जो वादे किए उन्हें पूरा नहीं किया गया। जब इसकी शिकायत की जाती तो एक ही जबाव मिलता, 'इतने पैकेज में यही मिलेगा, ज्यादा चाहिए तो ओर पैसे दो।'
जब बड़े अखबारों की यह हालत रही तो छोटों की स्थिति तो बदतर होनी ही थी। पीत पत्रकारिता के दम पर जिंदा रहने वाले इन अखबारों से तो वैसे भी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। बड़े अखबारों की तर्ज पर इस बार इन्होंने भी पैकेज सिस्टम शुरू किया था, लेकिन यह कारगर नहीं रहा। इन्हें जिस उम्मीदवार से जितना पैसा मिल गया उसी से संतोष करना पड़ा। हालांकि इन्होंने अपने काम में पूरी ईमानदारी बरती। जिससे दाम मिला उसका पूरा काम किया और जिससे नहीं मिला उसका काम तमाम किया। इन अखबारों में ऐसे उम्मीदवारों को जीतता हुआ बताया गया जिन्हें पांच हजार वोट भी नहीं मिले और उन उम्मीदवारों को मुकाबले से बाहर बताया गया जो लाखों वोटों के अंतर से चुनाव जीते। समाचारों को अतिशियोक्तिपूर्ण तरीके से लिखे जाने की सारी हदें इन अखबारों ने पार कीं।
वैसे तो यह सब पत्रकारिता के मूल्यों को मिट्टी में मिलाने वाले कार्यकलाप थे, पर राहत की बात यह रही कि राज्य का कोई भी बड़ा समाचार पत्र किसी पार्टी विशेष का पोस्टर या मुख पत्र नहीं बना। उन खबरों को छोड़ दिया जाए जो उम्मीदवारों ने पैसे देकर प्लांट कराई थीं, तो बाकी समाचारों के कंटेंट में ज्यादा बेईमानी नहीं की गई। जो खबरें प्लांट कराई गईं, उनमें भी सब कुछ उम्मीदवार की मर्जी से या अतिशियोक्तिपूर्ण नहीं था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि पाठक को वह समाचार ही लगे, विज्ञापन नहीं। हां, उम्मीदवारों के चुनावी दौरों या किसी बड़े नेता की सभा के कवरेज में जरूर भेदभाव देखने को मिला। मसलन, किसी बड़े नेता की सभा में खूब भीड़ आई, लेकिन पार्टी के कुछ स्थानीय नेता उसमें नहीं आए। अगले दिन अखबारों में यह खबर उम्मीदवार के साथ उनकी ट्यूनिंग के हिसाब से ही आई। जिनसे अच्छे पैकेज की डील हुई उन्होंने खबर छापी 'सभा में उमड़ा जनसैलाब' और जिनसे नहीं हुई उन्होंने खबर छापी 'पार्टी की फूट उजागर'।
कितने शर्म की बात है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाला मीडिया लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों को मजबूत करने की झूठी मुहिम में स्वयं ही ध्वस्त होता जा रहा है। इससे ज्यादा दुखद बात क्या होगी कि एक तरफ मीडिया मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान चला स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान की बातें करता है और दूसरी तरफ उन्हीं उम्मीदवारों या पार्टियों के हाथों बिक जाता है। कुल मिलाकर मीडिया एक मंडी में तब्दील हो चुका है, जहां बिकते सब हैं, कोई कम तो कोई एकदम!
(पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम पवक्ता’ में प्रकाशित)

झुग्गियों में जश्न


महाराष्ट्र के पिंपरी चिंचवाड शहर में रहने वाली सुलभ उबाले इन दिनों बेहद खुश हैं। उनकी कंपनी को एक बड़ा ऑर्डर जो मिला है। उबाले न तो कोई उद्योगपति हैं और न ही किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की प्रबंधक हैं। वे तो स्वावलंबन की नई इबारत लिखने वाले सामूहिक प्रयासों की एक कड़ी हैं। पिंपरी चिंचवाड में उनकी जैसी 160 महिलाएं हैं जिन्होंने अपने दम पर 'स्वामिनी बचत गट अखिल संघ लिमिटेड' यानी एसएमबीजीएएस नामक कंपनी बनाई है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं झुग्गियों में रहती हैं और कुछ दिन पहले तक दूसरों के घरों में काम किया करती थीं। इन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा काम शुरू कर पाएंगी जिस पर उनका मालिकाना हक तो होगा ही, दूसरों को को रोजगार मुहैया कराने का अवसर भी मिलेगा।


'स्वामिनी' को 1 करोड़ रुपये के निवेश के साथ शुरू किया गया है। मामूली हैसियत रखने वाली महिलाओं के लिए इतनी बड़ी रकम जुटाने का सफर किसी जंग जीतने जैसा था। दिक्कतों के कई दौर आए, पर इरादा कमजोर नहीं पड़ा। सबसे पहले इन महिलाओं ने अपने पास जमा पूंजी को एकत्रित करना शुरू किया। शुरूआत में इसे इतनी सफलता नहीं मिली, क्योंकि बरसों की मेहनत और परिवार का पेट काटकर की गई बचत के जाया जाने का डर सबके मन में था। धीरे-धीरे इस संदेह को दूर कर जब आत्मनिर्भर होने का सपना दिखाया तो कारवां बढ़ता गया और 20 लाख रुपए इक्कटृठा हो गए। इससे समूह की सदस्यों का हौंसला बढ़ा और बाकी पैसों के लिए प्रयास करना शुरू किया। कई संस्थाओं और महकमों को अपनी योजना के बारे में समझाया। आखिर में मेहनत रंग लाई और इस पूरी परियोजना से प्रभावित होकर पिंपरी चिंचवाड नगर निगम ने 'स्वामिनी' को 30 लाख रुपये की सब्सिडी देने का फैसला किया। बाकी बचे 50 लाख रुपए का बैंक ऑफ बड़ौदा से अग्रिम कर्ज ले लिया। इसे सात साल की अवधि में चुकता करना है।


'स्वामिनी' ने अपनी पहली इकाई तलवाड के औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित की है और यहां प्लास्टिक के बैग बनाए जाते हैं। ईकाई शुरू हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं और कंपनी को बड़ा ऑर्डर भी मिल गया। पुणे की प्लास्टिक बनाने वाली एक कंपनी ने आगामी सात साल के लिए 700 किलोग्राम प्रतिदिन के हिसाब से 250 दिनों तक प्लास्टिक बैग बनाने का करार किया है। कंपनी चलाने वाली महिलाओं की खुशी उस समय दोगुनी हो गई जब उन्हें पता लगा कि उनके यहां का उत्पाद अमरीका और दुबई के बाजारों में बेचा जाएगा। वे इसे एक चुनौती भी मानती हैं। कंपनी की सदस्य स्वाती मजूमदार बताती हैं कि 'विदेशी बाजार में माल का निर्यात किए जाने की वजह से हमारे सामने बेहतर गुणवत्ता वाले बैग तैयार करने की चुनौती होगी। इसलिए फिलहाल हम मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहे हैं।' पुणे की कंपनी के ऑर्डर की आपूर्ति करने के लिए कंपनी में जोर-शोर से काम चल रहा है।


महिलाओं के सामूहिक प्रयासों खड़ी हुई 'स्वामिनी' लोगों के लिए किसी कौतूहल से कम नहीं है। क्षेत्र के लोगों तो क्या, इन महिलाओं के परिवारजनों को भी इस बात का यकीन नहीं हो रहा है कि कल तक घरेलू कामकाज में सिमटी रहने वाली औरत इतनी काबिल है। समूह की एक सदस्य सुलभ उबाले कहती हैं, 'पहले ये महिलाएं गरीब थीं और समाज में इनकी स्थिति भी अच्छी नहीं थी, पर अब इस रोजगार के जरिए उनकी हालत सुधरी है। कई लोगों को तो अब भी यह विश्वास नहीं होता है कि इन महिलाओं ने खुद की एक औद्योगिक इकाई खोली है।' साथ मिलकर काम करने की मिसाल कायम करने वाली ये महिलाएं यहीं रुकना नहीं चाहती है, उनकी मंजिल बहुत आगे है। अभी उनकी 'स्वामिनी' ने प्लास्टिक बैग बनाने की एक इकाई लगाई है, भविष्य में इन्हें बढ़ाने की भी योजना है। अब तो इलाके के लोगों को भी यकीन होने लगा है कि 'स्वामिनी' का सफर यहीं थमने वाला नहीं है।


'स्वामिनी' सदस्य महिलाओं के लिए ही नहीं, इलाके की उन महिलाओं के लिए भी वरदान साबित हो रही है जो काम करने की कूवत तो रखती हैं, पर जिन्हें उचित अवसर नहीं मिलता है। प्लास्टिक बैग बनाने वाली इकाई में इस समय तकरीबन 70 महिलाएं काम कर रही हैं। इन्हें यहां न केवल काम करने का बढिय़ा माहौल मिल रहा है, बल्कि अच्छी तनख्वाह भी मिल रही है। इनमें से ज्यादातर वही हैं जो मामूली वेतन पर घरों में काम करती थीं। 'स्वामिनी' ने इनके हुनर को पहचाना और घरेलू कामकाज करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देकर कुशल कामगार बना दिया। पुणे की प्लास्टिक बनाने वाली कंपनी के ऑर्डर को पूरा करने का जिम्मा इन्हीं के ऊपर है। 'स्वामिनी' से जुड़े हर शख्स को उम्मीद है कि जुलाई के दूसरे हफ्ते में जब उत्पादन की पहली खेप आएगी तो हर कोई उसकी तारीफ करेगा। देश तो क्या सात समंदर पार भी उसे वाहवाही मिलेगी।
(5 जुलाई को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)

शनिवार, जून 27, 2009

मिशन सुशासन


विधानसभा चुनावों की मामूली जीत को लोकसभा चुनावों में 'क्लीन स्वीप' में तब्दील करने के बाद अशोक गहलोत सब्र और साहस के नए सियासतदां के रूप में उभरे हैं। अब उनका ध्यान सूबे में सुशासन के सपने को साकार करने की ओर है। क्या है उनका मिशन सुशासन? एक रिपोर्ट!

बात 18 जून की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हरित राजस्थान योजना का पहला पौधा लगाते हुए कहते हैं, 'मैंने आज असली माली का काम किया है। हम सबको इसी जिम्मेदारी के साथ काम करना चाहिए।' यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने आम लोगों को सरकार से कनेक्ट करने की असरदार अपील की हो। राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी दूसरी पारी के दौरान गहलोत आए दिन कुछ न कुछ ऐसा करते हैं कि विरोधी भी वाह-वाह करने लगते हैं। ऐसा ही नजारा पिछले दिनों जाट समाज द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में देखने को मिला जब भाजपा नेता व राज्यसभा सदस्य डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया ने गहलोत की तारीफों के जमकर पुल बांधे। कार्यक्रम में गहलोत और राज्य के तमाम दिग्गज जाट नेताओं की उपस्थित में पिलानिया ने गहलोत के कामकाज की सराहना करते हुए यहां तक कहा कि गहलोत मारवाड़ के ही नहीं समूचे राजस्थान के गांधी हैं। ये वही पिलानिया हैं जिन्होंने राजस्थान में जाटों को ओबीसी आरक्षण दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी और वाजपेयी सरकार द्वारा इसकी घोषणा के बाद वे भाजपा को दामन थाम राज्यसभा पहुंच गए। एक समय था जब पिलानिया, गहलोत को जाट विरोधी साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते थे, पर आज वे ही उन पर कायल हैं।
चुनाव की थकान मिटाने के बाद अब अशोक गहलोत का पूरा ध्यान सुचारू रूप से सरकार चलाने पर है। राज्य की जनता को उनसे उम्मीदें भी खूब हैं, क्योंकि इस बार सरकार के पास काम न करने का कोई बहाना नहीं है। विधासनसभा में उन्हें पूर्व बहुमत तो प्राप्त है ही केंद्र में भी कांग्रेस नीत सरकार होने के कारण धन की कमी भी आड़े नहीं आएगी। गहलोत स्वयं भी जानते हैं कि लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना आसान नहीं है। लिहाजा, वे इन दिनों वे सरकार के कील-कांटों को दुरूस्त करने में लगे हैं, ताकि सरकार पूरी ताकत के साथ काम कर सके। सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री कुछ मंत्रियों के कामकाज से संतुष्ट नहीं है। आने वाले दिनों में वे ऐसे मंत्रियों के विभागों में फेरबदल किए जाने की संभावना है। इसमें आधा दर्जन कैबीनेट व कई राज्यमंत्री शामिल हैं। इन मंत्रियों में से ज्यादातर के पर कतरे जाने की संभावना है। माना जा रहा है कि फेरबदल के तहत स्वायत्त शासन व गृह मंत्री शांति धारीवाल, वन एवं खनिज मंत्री रामलाल जाट, जनजाति व तकनीकी शिक्षा मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय का एक-एक विभाग बदला जा सकता है। सार्वजनिक निर्माण राज्यमंत्री प्रमोद जैन भाया का विभाग बदले जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। वहीं, बसपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले छह विधायकों में से कम से कम एक को मंत्री बनाए जाने की चर्चा है। इसके लिए राजकुमार शर्मा और राजेंद्र गुढ़ा का नाम चल रहा है।

मंत्रालयों में बदलाव के अलावा गहलोत का ध्यान राजनीतिक नियुक्तियों की ओर भी है। सूत्रों के मुताबिक आने वाले कुछ दिनों में ही ये नियुक्तियां होनी है। संगठन की ओर से इस प्रक्रिया को जल्दी पूरा करने के काफी दिनों से दबाव आ रहा है। प्रदेशाध्यक्ष डॉ।सी.पी. जोशी तो कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि जब तक आम कार्यकत्र्ता की सरकार में भागीदारी नहीं होगी सत्ता हासिल करने का जश्न अधूरा है। इन नियुक्तियों के माध्यम से गहलोत संगठन के लिए अच्छा काम करने वालों को ईनाम देने की कोशिश करेंगे। इसके लिए पिछले कई दिनों से कांग्रेसी नेता जयपुर में डेरा डाले हुए हैं और अपने-अपने पक्ष में लॉबिंग कर रहे हैं। बात संगठन की चली तो बताते जाएं कि राज्य में पार्टी अध्यक्ष भी बदला जाना है। वर्तमान अध्यक्ष डॉ.सी.पी.जोशी केंद्र की मनमोहन सरकार में कैबीनेट मंत्री बनने के बाद वे संगठन के लिए पूरा समय नहीं दे पा रहे हैं। प्रदेशाध्यक्ष के लिए कई नेताओं का नाम चल रहा है। कास्ट केमिस्ट्री को ध्यान में रखते हुए गहलोत किसी जाट, दलित अथवा अल्पसंख्यक पर दांव खेल सकते हैं।

अशोक गहलोत स्वाभाव से शांत हैं, पर अधिकारियों से काम लेने के मामले में उन्हें चतुर राजनेता माना जाता है। वे कभी भी ब्यूरोक्रेट्स को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। वे आक्रामक तरीके से काम नहीं करते, पर उन्हें काम निकालना आता है। अनुशासन तो उन्हेंं शुरू से ही पसंद रहा है, अधिकारियों से भी वे इसकी अपेक्षा करते हैं। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को साफ शब्दों में हिदायत दी है कि काम को सही तरीके से व सही समय पर पूरा करने में किसी भी तरह की कौताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। लगता है ब्यूरोक्रेट्स से निपटने के मामले में गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल की गलतियों से काफी-कुछ सीखा है। उन्होंने पिछली बार अधिकारियों पर जरूरत से ज्यादा यकीन किया, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। इस बार उनकी एक ही रणनीति है, जो अच्छा काम करे उसे ईनाम दो और जो बुरा करे उसे दंड। उनकी इस रणनीति की बानगी कलक्टरों की तबादला सूची में मिल जाती है। सरकार के लिए दिक्कतें खड़े करने वाले कलक्टरों को कुछ महीनों में ही बदल दिया गया, पर साथ ही सरकार का काम आसान करने वाले कलक्टरों को अच्छी पोस्टिंग का ईनाम भी मिला। पिछले दिनों बुलाई गई कलेक्टर्स कांफ्रेंस में गहलोत ने अधिकारियों को सीधी भाषा में समझा दिया कि आमजन को गुड गवर्नेंस देने के लिए अधिकारियों को बातें कम और काम ज्यादा करनी चाहिए।

सरकारी मशीनरी को दुरूस्त कर गहलोत ऐसे कामों को ज्यादा तवज्जों देना चाहते हैं जो लोकलुभावन हों। पिछली कार्यकाल की तरह वे कठोर निर्णय लेकर लोगों को नाराज करने के मूड में नहीं हैं। उन्होंने किसानों के लिए पांच साल तक बिजली की दरें नहीं बढ़ाने और शराब की दुकानों के समय व संख्या में कटौती की घोषणा कर इसकी शुरूआत भी कर दी है। वे इस बार कर्मचारी विरोधी होने के कलंक को भी धोना चाहते हैं। उन्होंने राज्य में छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू करने के बाद ऐसे कर्मचारियों को स्थाई करने के आदेश दिए हैं जो पिछले दस सालों से संविदा के आधार पर काम कर रहे हैं। इसके अलावा विदेशी में नौकरी के इच्छुक लोगों को सरकार द्वारा बनाई गई प्लेसमेंट एजेंसी के मार्फत दूसरों देशों में भेजा जाएगा। इससे लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही कबूतरबाजी और धोखाधड़ी से भी निजात मिलेगी। युवाओं को रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकार रिक्त पदों के मुताबिक नौकरिया देने की बात पहले ही कह चुकी है।

लोकलुभावन निर्णयों के अलावा गहलोत कुछ ऐसे निर्णय भी करना चाहते हैं जो उनके कार्यकाल में मील का पत्थर साबित हों। मसलन, वे राज्य को विशेष दर्जा दिलाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी शुरू कर दिए हैं। यदि वे इस मुहिम में सफल होते हैं तो राज्य को केंद्र से अनुदान के रूप में ज्यादा वित्तीय सहायता मिल जाया करेगी, जो यहां की माली हालत के लिए संजीवनी का काम करेगी। उल्लेखनीय है कि विशेष श्रेणी के राज्यों को केंद्रीय योजना सहायता का 90 फीसदी हिस्सा अनुदान के रूप में मिलने से इन राज्यों की वित्तीय स्थिति में तेजी से सुधार आया है। देश में फिलहाल ऐसे राज्यों की संख्या 11 है। वैसे तो बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य विशेष श्रेणी की मांग कर रहे हैं, पर इस मामले में राजस्थान के दावे में काफी दम है। विस्तृत क्षेत्र, मरुस्थल, कम वर्षा, कमजोर आधारभूत ढांचा, पेयजल की समस्या, अकाल व सूखा, बदहाल अर्थव्यवस्था सरीखे कई कारणों से राजस्थान को विशेष राज्य का दर्जा मिल सकता है।

सरकार राज्य के हितों से जुड़े उन मुद्दों को सुलझाने में काफी रुचि ले रही है जो पड़ौसी राज्यों से विवाद के कारण हल नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में गहलोत को एक बड़ी सफलता उस समय मिली जब पंजाब ने राजस्थान के हिस्से का शेष बचा 2670 क्यूसेक पानी देना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि 1981 में भाखड़ा व्यास प्रबंधन बोर्ड के साथ हुए समझौते के तहत पंजाब के हरिके बैराज से राजस्थान को रोजाना 9770 क्यूसेक पानी देना तय हुआ था, लेकिन कभी भी 7100 क्सूसेक से ज्यादा पानी नहीं दिया गया। पिछली कई सरकारों ने इसे सुलझाने की कोशिश की थी, पर सफलता नहीं मिली। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पिछले दिनों इस बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मदद की अपील की थी। प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद राजस्थान को पूरा पानी मिलना शुरू हो गया है। इससे नहरी क्षेत्र में चार लाख हैक्टेयर सिंचाई क्षेत्र बढ़ जाएगा।

पंजाब के साथ विवाद सुलझाने के बाद गहलोत ने हरियाणा से राजस्थान के हिस्से का पानी लेने की कवायद शुरू कर दी है। इस बारे में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ गहलोत की मीटिंग भी हो चुकी है, जिसमें मामले को जल्दी सुलझाने के लिए दो सदस्यीय कमेटी बनाई गई है। हरियाणा के साथ जल ववाद पर जाएं तो पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच हुए समझौते में राजस्थान को 0।47 एमएफ पानी दिया जाना तय हुआ था, लेकिन भाखड़ा मेनलाइन के सिद्धमुख प्रोजेक्ट से राज्य को महज 0.30 एमएफ पानी मिल रहा है। मामले को हल करने के लिए कई बार वाताएं हो चुकी है, पर नतीजा सिफर ही रहा है। जहां राजस्थान अपने हिस्से को पानी देने पर अड़ा हुआ है वहीं, हरियाणा सरकार का कहना है कि राजस्थान अपने खर्चे पर सतलुज-यमुना नहर का निर्माण कर लेता है तो वह पानी देने को तैयार है। मुख्यमंत्री गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल में इस बाबत एक प्रस्ताव भी बनाकर भेजा था, लेकिन हरियाणा सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।

मिशन सुशासन के तहत इन तमाम कामों को अंजाम तक पहुंचाने में गहलोत का ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि राजस्थान में उनका हाथ बंटाने वालों की कमी नहीं है। गहलोत की खिलाफत करने वालों को जिस सहज ढंग से मात मिली है, उसे देखकर शायद ही कोई विरोध करने की हिम्मत जुटा पाए। राज्य के कांग्रेसी कुनबे को अच्छी तरह समझ में आ गया है कि गहलोत के साथ चलकर ही राजनीति को परवान चढ़ाया जा सकता है। उनसे वैर लेने वालों की राजनीति का रास्ता तो रसातल की ओर ही जाता है। लिहाजा, इन दिनों उनके समर्थकों का कारवां बढ़ता ही जा रहा है। इस बीच गहलोत कांग्रेस के वोट बैंक को बनाए रखने और उसे बढ़ाने के प्रयास भी कर रहे हैं। राज्य की राजनीति में जाति के महत्व को ध्यान में रखते हुए वे आजकल विभिन्न जातियों के दिग्गज नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे हैं। राज्य में जातिगत सम्मेलनों की संख्या भी एकाएक बढ़ गई है। इनमें से कमोबेश सभी में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उपस्थित होते हैं। अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए अल्पसंख्यक मामलात विभाग बनना पहले ही तय हो गया है। ऐसा होने से अल्पसंख्यकों के सभी मामले एक ही विभाग के अंतर्गत आ जाएंगे। फिलहाल अल्पसंख्यकों के कई विषय वित्त, कला, संस्कृति, गृह, राजस्व, सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग में आते हैं। सूत्रों की मानें तो चिकित्सा मंत्री दुर्रु मियां को इसकी जिम्मेदारी दी जा रही है।

रविवार, जून 21, 2009

जाति का जिन्न

चुनावों का मौसम जाने के बाद भी राजस्थान में जाति का जोर कम नहीं हुआ है। अपना राजनीति वजूद कायम रखने की जुगत में नेता सूबे के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जाति के इस जिन्न से निपटना गहलोत सरकार के लिए एक चुनौती है। एक रिपोर्ट!

अपनी सामाजिक समरसता के लिए विख्यात राजस्थान रह-रह कर उपज रहे जातिगत तनावों को झेलने के लिए अभिशप्‍त है। नेताओं ने अपने सियासी सपनों को सच करने के लिए ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि जातियों के बीच भाईचारा पनपने की बजाय कटुता और कलह बढ़ती ही जा रही है। तनाव यूं ही बढ़ता रहा तो कभी भी कोई अनिष्ट हो सकता है और राज्य में हिंसा फैल सकती है। अशोक गहलोत सरकार को भी इसका अहसास है। सरकार ने मीणा और गुर्जरों के बीच चौड़ी होती खाई को पाटने के मकसद से दोनों जातियों के आला नेताओं के साथ मिलकर एक रोड मेप तैयार किया है। कमाल की बात तो यह है कि माहौल को ठीक करने के लिए अपनी-अपनी जाति के पेरोकार नेता सरकार के साथ तो सुर में सुर मिलाते हैं, पर जमीनी स्तर पर द्वेष बढ़ाने वाले काम ही ज्यादा करते हैं।
राजस्थान में जाति की जाजम पर बैठकर अपनी सियासत चलाने वाले नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। इनमें से कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला इन दिनों खासी चर्चाओं में है। गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए दो बड़े आंदोलनों के सूत्रधार रहे बैंसला भाजपा का दामन थाम संसद में पहुंचना चाहते थे, लेकिन मामूली अंतर से चुनाव हार गए। इस हार के बाद अपनी राजनीति सिमटती देख बैंसला फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ गए हैं और गुर्जरों को एसटी आरक्षण का दिए जाने का राग अलापने लगे हैं। वे गुर्जरों की सहानूभति और समर्थन बटोरने का कोई भी मौका नहीं चूकते। पिछले दिनों सवाई माधोपुर जिले के बामनवास में गुर्जर और मीणाओं के बीच हुई हिंसक झड़पों के तुरंत बाद वे घटनास्थल पर पहुंच धरने पर बैठ गए थे। वे जहां भी जाते हैं लोकसभा चुनावों में महज 300 वोटों से मिली हार का जिक्र करना नहीं भूलते। वे इसकी वजह मतदान और मतगणना में भारी धांधली बताते हैं और इसके लिए विजयी रहे नमोनारायण मीणा के अलावा समूची मीणा बिरादरी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं।
ये सब बैंसला की उस रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत वे गुर्जरों का खोया हुआ वि’वास पाने की मुहिम में जुटे हैं। दरअसल, भाजपा का दामन थाम लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद से गुर्जर बैंसला से खुश नहीं हैं। विशेष रूप से गुर्जरों की युवा पांत बैंसला पर स्वयं की राजनीति के लिए समाज का इस्तेमाल करने का आरोप लगा रही है। इन लोगों में बैंसला के प्रति गुस्सा इस बात को लेकर है कि कर्नल उस पार्टी में शामिल हो गए जिसकी सरकार ने 70 गुर्जरों को मौत के घाट उतारा। समाज के लोग अब कर्नल और वसुंधरा सरकार के समझौतों पर भी अंगुलियां उठा रहे हैं। गौरतलब है कि इन समझौतों की ज्यादातर बातों पर अमल नहीं पाया है। मसलन, मृतकों के आश्रितों को सरकारी नौकरी, मुकदमों की समाप्ति और आंदोलनकारियों की रिहाई। वैसे गुर्जरों को दो बड़े आंदोलन करने के बाद भी सिवाय तबाही के कुछ हासिल नहीं हुआ। उन्हें वसुंधरा सरकार द्वारा घोषित विशेष श्रेणी के तहत पांच फीसदी आरक्षण का लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है। इस आशय के विधेयक को विधानसभा में तो पारित कर दिया था, पर यह अभी तक राजभवन में ही अटका हुआ है।
सूत्रों की मानें तो कर्नल बैंसला गुर्जरों को अपनी अगुवाई में संगठित कर फिर से एक बड़ा आंदोलन करना चाहते हैं। उनकी योजना तो 10 जून को भरतपुर जिले के महरावर गांव में महापंचायत के साथ ही आंदोलन शुरू करने की थी, पर क्षेत्र के गुर्जरों की ओर से अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के कारण उन्होंने इसमें बदलाव कर दिया है। नई रणनीति के तहत बैंसला ने कई जातियों के प्रतिनिधियों को साथ लेकर आंदोलन को व्यापक बनाने की कोशिश की है। बैंसला के कहे को सही मानें तो अगला आंदोलन पश्‍िचमी राजस्थान से शुरू होगा और इसे शांतिपूर्ण तरीके से देश भर में चलाया जाएगा। जब कर्नल बैंसला से आंदोलन के मकसद के बारे में पूछा तो वे इधर-उधर की बातें छोड़ तुरंत ही पुराने ढर्रे पर आ गए और कहा कि ‘हमने गुर्जरों को एसटी में शामिल करने की मांग के साथ आंदोलन शुरू किया था और आज भी हम उसी पर कायम है। यह सरकार को तय करना है कि वह गुर्जरों को एसटी दर्जा कैसे देती है। आने वाले कुछ दिनों में कोर कमेटी मुख्यमंत्री से मिलकर अपना पक्ष रखेगी। यदि सरकार हमारी बात मानती है तो ठीक, नहीं तो हम आंदोलन करेंगे। यह अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन होगा और ठोस निर्णय होने पर ही पूरा होगा।’
विश्‍लेषकों के मुताबिक कर्नल बैंसला के क्रियाकलापों से साफ झलकता है कि वर्तमान हालातों में उनका इरादा गुर्जरों का सिरमौर बने रहने के सिवा कुछ नहीं है। यदि वे कोई आंदोलन करेंगे तो गुर्जरों के बीच रहते हुए और गुर्जरों के दम पर करेंगे। आरक्षण आंदोलन को देशव्यापी बनाने और अन्य जातियों को इसमें शामिल करने की बातें बैंसला तभी तक कर रहे हैं जब तक गुर्जर पुराने समर्पण के साथ उनके पीछे खड़े नहीं हुए हैं। जिस दिन गुर्जर पहले की तरह कर्नल के एक इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार हो गए, आंदोलन शुरू हो जाएगा और सिर्फ गुर्जरों के हक की बात होगी। यदि बैंसला गुर्जरों को आंदोलन के लिए तैयार कर लेते हैं तो भाजपा उनका साथ देने के लिए तैयार खड़ी है। सूत्रों की मानें तो भाजपा और विशेष रूप से वसुंधरा राजे गुर्जरों का एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने के लिए बैंसला की किसी भी हद तक मदद करने को तैयार हैं। प्रह्लाद गुंजल के रूप में एक आक्रामक गुर्जर नेता की घर वापसी भी महारानी के लिए मुफीद साबित होगी। कुल मिलाकर आने वाले समय में राजस्थान को एक और आंदोलन झेलना पड़ सकता है।
जाति के दम पर राजनीति करने वालों की चर्चा हो और डॉ. किरोड़ी लाल मीणा का जिक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है। मीणा समाज में इनके बराबर कद का कोई नेता नहीं है। डॉ. किरोड़ी को नजदीक से जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे जाति के मामले में वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जब गुर्जरों ने एसटी आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन किया था तो किरोड़ी ने खूब हंगामा किया था। इन दिनों उनके बंगले पर मीणा समाज के लोगों का मजमा लगा रहता था। सब डॉ. किरोड़ी के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थे। इन लोगों के दम पर वे आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी की सरकार के उपर ही पिल पड़े। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने महारानी को साफ तौर पर चेतावनी दी थी कि गुर्जरों को आरक्षण देकर एसटी कोटे से छेड़छाड़ की गई तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। इस दौरान हुई तनातनी इतनी आगे बढ़ गई कि किरोड़ी को भाजपा से विदा होना पड़ा। भाजपा के बिना भी उन्होंने अपना सियासी वजूद कायम रखा और पहले विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव जीतने में सफल रहे। दोनों दफा उन्होंने जमकर ‘कास्ट कार्ड’ खेला। किरोड़ी ने इन चुनावों को पूरी मीणा बिरादरी की प्रतिष्ठा का प्र’न बनाते हुए वोट मांगे। लोगों ने उन्हें जमकर वोट दिए और वे अच्छे अंतर से जीतने में सफल हुए।
सियासत की आक्रामक शैली को पसंद करने वाले किरोड़ी इन दिनों खूब गरज रहे हैं। इस बार उनका निशाना वसुंधरा राजे नहीं होकर अशोक गहलोत और केंद्र की मनमोहन सरकार है। कर्नल बैंसला द्वारा गुर्जर आरक्षण का ’शिगूफा छोड़े जाने के बाद डॉ. किरोड़ी ने एक बार फिर से चेतावनी देना शुरू कर दिया है कि एसटी कोटे से छेड़छाड़ किसी भी सूरत में बर्दाश्‍त नहीं की जाएगी। उनके ये तल्ख बयान मीणा समाज में तो उनकी खास बढ़ा रहे हैं, पर गुर्जर समाज के लिए तो वे खलनायक ही साबित हो रहे हैं। गुर्जर ही नहीं अन्य कई जातियों को भी किरोड़ी का मीणाओं के पक्ष में कट्टर स्वाभाव नहीं भा रहा है। पिछले दिनों दौसा में एक युवती के अपहरण की घटना के बाद क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों ने डॉ. किरोड़ी पर अपहरणकर्ताओं को बचाने का आरोप लगाया था।
केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा को भी बड़ा मीणा नेता माना जाता है। हालांकि कट्टरता के मामले में वे किरोड़ी के पासंग भी नहीं हैं। उनकी छवि एक ‘सोफ्ट कास्ट लीडर’ की है। वैसे जाति के दम पर खम ठोकने वाले गुर्जर और मीणा नेता ही नहीं हैं, इसमें जाट, राजपूत और ब्राह्मण नेता भी शामिल हैं। हालांकि ये लोगों को उस स्तर का तनाव देने में सक्षम नहीं हैं। सरकार या राजनीतिक दलों के लिए इन नेताओं को काबू में करना भले ही मुश्‍िकल हो, पर लोग इनकी तरफ से निश्‍िचंत रहते हैं। कांग्रेस की ही बात करें तो राज्य व केंद्र में मंत्री पद की मलाई बंट जाने के बाद प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर खींचतान हो रही है। जहां शीशराम ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने के बाद कई जाट नेता अपनी दावेदारी जता रहे हैं वहीं, ब्राह्मण और दलित अपनी बारी बता रहे हैं। कुछ दिनों में होने वाली राजनीतिक नियुक्तियों का भी यही हाल है। जाति के आधार पर प्रतिनिधत्व मांगा जा रहा है। अशोक गहलोत प्रदेशाध्यक्ष और राजनीतिक नियुक्तियों के मसले को मो सुलझा लेंगे पर राजनीति के चलते फैले जातिगत वैमनस्य को कब तक दुरूस्त कर पाएंगे, यह देखना होगा।

गुरुवार, जून 18, 2009

धांधली या पश्‍िचम की धौंस

ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में महमूद अहमदीनेजाद का दुबारा चुने जाने की घोषणा के बाद उपजा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पराजित प्रत्याशी मीर हुसैन मुसावी ने चुनावों में भारी धांधली का आरोप लगाते हुए परिणामों को खारिज कर दिया है। वे इस चुनाव को रद्द कर फिर से मतदान की मांग कर रहे हैं। उनके समर्थक देशभर में प्रदर्शन कर रहे हैं। कई जगह प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया है और लोगों के मारे जाने की भी खबरें आ रही हैं। मामला बिगड़ता देख गार्डियन काउंसिल ने चुनाव परिणामों को अस्थाई घोषित कर दिया है। इस रोक को अहमदीनेजाद की कमजोर होती पकड़ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। वैसे देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई अभी भी अहमदीनेजाद के पक्ष में हैं। गार्डियन काउंसिल के ज्यादातर मौलवी भी उनके पक्ष में हैं। ऐसे में इस बात की संभावना बहुत कम है कि परिणामों को निरस्त किया जाएगा और देश में फिर से चुनाव होंगे।
चुनावों में अहमदीनेजाद की भारी जीत को विपक्षी खेमा पचा नहीं पा रहा है। मुसावी लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि वोटों की गिनती के दौरान भारी हेराफेरी की गई है। हालांकि राष्ट्रपति अहमदीनेजाद और गार्डियन काउंसिल ने ऐसे इलाकों में वोटों की दुबारा गिनती करवाने के हामी भर दी है जहां गड़बड़ी की आशंका जताई जा रही है, लेकिन मुसावी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि मतदान के दौरान ही लाखों मतपत्रों का गायब कर दिया गया था और बड़ी संख्या में लोग अपना वोट नहीं डाल पाए तो दुबारा वोट गिने जाने का क्या अर्थ है? उल्लेखनीय है कि ईरान की जनता ने इन चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 85 प्रतिशत से भी ज्यादा तमदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, जो कि एक रिकॉर्ड है। हालांकि मतदान के दौरान कई जगह मतपत्र समाप्त हो जाने और कई लोगों के वोट नहीं डाल पाने की खबरें मीडिया में आई थीं। मुसावी ने भी इस तरह की अनियमितताएं होने का बयान दिया था, पर उन्होंने उस समय चुनाव आयोग से ऐसे मतदान केंद्रों पर फिर से मतदान कराने की गुजारिश नहीं की।
दरअसल, मुसावी को अपनी जीत का पूरा भरोसा था, पर परिणामों ने उन्हें हैरत में डाल दिया है। उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में भी वे अहमदीनेजाद से बड़े अंतर से पिछड़े हैं। इन चुनावों में मुसावी ने देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को और अहमदीनेजाद ने ईरान की संप्रभुता तथा प्रतिष्ठा को मुद्दा बनाया था। चूंकि अहमदीनेजाद एक भावनात्मक मसले पर चुनाव लड़ रहे थे इसलिए उन्हें जनता का ज्यादा समर्थन मिला। पिछले कुछ सालों में अमरीका और इजराइल की खुली खिलाफत करने के कारण ईरान में अहमदीनेजाद की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। इसी साल अप्रैल में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के नस्लभेद सम्मेलन में जब उन्होंने इजराइल को नस्लभेदी बताया था तो ईरान वापसी पर उनका हीरो सरीखा स्वागत हुआ था। परमाणु कार्यक्रम के मसले पर अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के भारी दबाव के बाद भी अहमदीनेजाद टस से मस नहीं हुए। चुनावों में भी उनके यही भावनात्मक मुद्दे कारगर साबित हुआ और जनता ने उन्हें भारी समर्थन दिया।
अहमदीनेजाद को मिले भारी मतों के बावजूद मुसावी की काबिलियत पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। वे एक अच्छे आर्थिक सुधारक हैं। 1981 से 89 तक ईरान के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अच्छा काम किया। इस दौरान उनकी आर्थिक नीतियों की सभी ने सराहना की। यह इराक के साथ टकराव का दौर था, लेकिन मुसावी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी। मुसावी ने अहमदीनेजाद की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए देश की जनता से वोट मांगे थे। उन्हें उम्मीद थी कि जिस प्रकार 1997 में सुधारवादी नेता मोहम्मद खातमी 70 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट पाकर राष्ट्रपति बने थे, ठीक वैसा ही समर्थन उन्हें हासिल होगा। चुनाव के दौरान खातमी ने मुसावी के पक्ष में जमकर प्रचार भी किया था। लाख कोशिशों के बाद भी मुसावी देश की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने के सपने को लोगों की भावनाओं के साथ जोडऩे में असफल रहे और उन्हें राष्ट्रपति बनने लायक समर्थन नहीं मिला। चुनाव में मिली हार के बाद मुसावी जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह समझ से परे हैं। वे अपनी हार के लिए उसी सिस्टम को दोष दे रहे हैं जिसका वे वर्षों तक हिस्सा रहे हैं। 8 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहने के बाद वे 6 साल तक राष्ट्रपति के सलाहकार रहे। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने चुनाव के दौरान होने वाली गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने की मुहिम नहीं छेड़ी और न ही लोकतंात्रिका प्रक्रिया को पारदर्शी और जबावदेह बनाने का काम किया।
ईरान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव की दौरान अनियमितताएं नहीं हुई होंगी, पर इस बात की कोई गारंटी नही है कि फिर से चुनाव कराने पर ये स्वतंत्र और निष्पक्ष ही होंगे। देश में जब तक सत्ता सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल के पास केंद्रित रहेगी, ज्यादातर निर्णय और प्रक्रियाएं संदेहास्पद ही रहेंगी। बस, इस पर अगुंली उठाने वाले हाथ बदल जाएंगे। ईरान के लोकतंत्र में कई खामियां हैं। यहां शासन की वास्तविक शक्ति जनता से चुने प्रतिनिधियों के पास नहीं बल्कि मौलवियों और रूढ़ीवादियों के पास रहती है। संविधान के मुताबिक तो राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है, पर सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल की सहमति के बिना वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकता है। रक्षा और विदेश मामलों के बारे में सभी फैसले का अधिकार सर्वोच्च नेता के पास होता है। इसके अलावा कार्यपालिका का वास्तविक संचालन गार्डियन काउंसिल करती है। मजलिस यानी संसद में पेश होने वाले विधेयकों को इस काउंसिल से अनुमोदित कराना होता है। यहां तक कि चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के नामों को भी काउंलिस हरी झंडी देती है। हालिया चुनावों में उसने ऐसे 2005 में चुनाव लडऩे वाले सैकड़ों उम्मीदवारों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
ईरान में उपजे हालातों पर पश्चिम देशों के रुख का जिक्र करना भी जरूरी है। ईरान के चुनावों परिणामों से मुसावी के बाद सबसे ज्यादा दुख ये देश ही मना रहे हैं। परिणाम आते ही यहां के मीडिया ने अहमदीनेजाद की जीत को कट्टरपंथ की जीत बताते हुए चिंता जाहिर करना शुरू कर दिया। अहमदीनेजाद हमेशा से इन देशों की आंख का कांटा रहे हैं। परमाणु कार्यक्रम के अलावा कई मौकों पर उन्होंने इन देशों की बादशाहत की हंसी उड़ाई है। दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी वे कह चुके हैं कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में ये देश ऐसा कोई मौका नहीं चूकना चाहते जिसमें अहमदीनेजाद को सत्ता से बाहर होने की संभावना बनती हो। इसी के तहत ईरान में हो रहे विरोध प्रदर्शन को पश्चिम जगत का मीडिया कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है। मंगलवार को तेहरान में हुई रैली को ईरान के इतिहास की सबसे बड़ी रैली के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि तस्वीरों और वीडियो फुटेज से तो ऐसा कुछ प्रतीत नहीं होता है। प्रदर्शनकारियों की भारी भीड़ और सुरक्षाकर्मियों के कड़े रुख की खबरों के बीच जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वे और भी ज्यादा हास्यास्पद लग रहे हैं। बताया जा रहा है कि रैली में सुरक्षाकर्मियों की ओर से की गई गोलीबारी में एक व्यक्ति की मौत हो गई और सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लाखों की भीड़ पर गोली चलाई जाए और एक ही व्यक्ति की मौत हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
पश्चिमी मीडिया अपने हितों की खातिर पहले भी ऐसा भ्रामक कवरेज करता आया है। वह तथ्यों को इस तरह से पेश करता है कि शेष विश्व को लगता है कि यहां तो हालत बहुत ज्यादा खराब है। इस मामले में इराक का उदाहरण लिया जा सकता है। पश्चिमी मीडिया ने यहां किस तरह से अपने मुताबिक सच को तोड़ा-मरोड़ा। ईरान की स्थिति की भ्रामक तस्वीर पेश करने में अमरीकी मीडिया जितना तत्परता दिखा रहा है उसका पासंग भी इराक में अमरीकी सेना के अत्याचारों को दिखाने में लगाया होता तो दुनिया का दादा बनने वाला देश कब का नंगा हो चुका होता। बहरहाल, ईरान ने बहुत जल्दी पश्चिमी देशों के इरादों का भांप लिया है और सरकार ने विदेशी मीडिया पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं। सरकार की अनुमति के बिना अब कोई भी विदेशी मीडियाकर्मी यहां से रिपोर्टिंग नहीं कर पाएगा और न ही प्रदर्शन स्थल पर मौजूद रहेगा। कड़ी पाबंदियों के चलते विदेशी मीडियाकर्मी प्रदर्शन स्थल पर तो नहीं जा रहे हैं, पर माहौल को भयावह बताने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसके लिए अब सबसे ज्यादा इस्तेमाल साइबर मीडिया हो रहा है। ईरानी सरकार अब इस पर नजर लगाए हुए है और प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है।