शनिवार, मार्च 28, 2009

सिमटते सीपी


प्रदेश के कांग्रेसी मुखिया डॉ। सी.पी. जोशी एक बार फिर संकट में हैं। मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद लोकसभा में पहुंचने की उनकी उम्मीदें भी तार-तार हो सकती हैं। कांग्रेस ने उन्हें उम्मीदवार तो बनाया है, पर चाही गई सीट से नहीं। आखिर क्यों सिमट रही है सीपी की सियासत? अंदर की कहानी!

राजनीति को यदि खेल माना जाए तो यह क्रिकेट के काफी करीब है। गौर से देखें तो क्रिकेट के कई केरेक्टर राजनीति की पिच पर खेलते हुए मिल जाएंगे। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी उन्हीं धुरंधरों में से एक हैं। सूबे के कांग्रेसी निजाम डॉ. सी.पी. जोशी के नजरिए से देखें तो उनके लिए गहलोत 'स्लो डेथ' यानी वेस्टइंडीज के अंपायर स्टीव बकनर से कम नहीं हैं। वैसे बकनर की माफिक गहलोत कई नेताओं के लिए घातक साबित हुए हैं, लेकिन डॉ. जोशी के साथ उनका वैर ठीक वैसा ही है जैसा वेस्टइंडीज के अंपायर का मास्टर ब्लास्टर सचिन तेंदुलकर के साथ। संकेतों को छोड़ सीधी भाषा में बात करें तो कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी एक बार फिर दिक्कत में हैं। वजह एक बार फिर अशोक गहलोत की सक्रियता बनी है। दरअसल, जोशी चित्तौडग़ढ़ से लोकसभा का चुनाव लडऩा चाहते थे, पर पार्टी ने उन्हें भीलवाड़ा से टिकट दे दिया। जोशी के लिए यहां के रास्ते लोकसभा में पहुंचना बेहद कठिन साबित हो रहा है। प्रदेश में कांग्रेस का मुखिया होते हुए भी उनकी बात नहीं मानने का यह वाकया पहली बार नहीं हुआ है। पहले भी उन्हें साइड लाईन करने के कई प्रयास होते रहे हैं।
लोकसभा के टिकट वितरण में जोशी हर स्तर पर कमजोर नजर आए। प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते पार्टी ने उनसे सलाह-मशविरा प्रत्येक सीट के लिए किया, लेकिन उनकी चली कितनी इसका अंदाजा स्वयं को मिले टिकट के आधार पर लगाया जा सकता है। जोशी ने चित्तौडग़ढ़ से टिकट पाने के लिए पूरा जोर लगाया था। वे इसके लिए पूरी तरह आश्वस्त भी हो गए थे, पर उनका मुकाबला राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष गिरिजा व्यास से होने से पूरी गणित बिगड़ गई। दस जनपथ की चहेती होने लाभ स्पष्ट रूप से व्यास को मिला। कल तक जोशी के पीछे खड़े रहने वाले केंद्रीय नेता एक-एक करके व्यास के साथ हो लिए और वे टिकट हासिल करने में कामयाब हो गईं। उनकी उम्मीदवारी में अशोक गहलोत की भूमिका सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण रही। शुरूआत में गहलोत कांग्रेस की इस नेत्री के समर्थन में आने से ठिठक रहे थे। वहज थी विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए हुई रस्साकशी। गौरतलब है कि गिरिजा व्यास भी मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में थीं। गहलोत को जब इसका अंदाजा हुआ कि वे गिरिजा की पैरवी नहीं कर जोशी को मदद पहुंचा रहे हैं तो उन्होंने रुख बदल लिया।
चित्तौडग़ढ़ से टिकट नहीं मिलने से तिलमिलाए जोशी पर भीलवाड़ा सीट निकालने का भारी दवाब है। यहां से जीतने के लिए वे कोई कसर नहीं छोडऩा चाहते, पर विरोधी उन्हें हर चाल पर मात देने पर जुटे हैं। भीलवाड़ा में गुर्जर मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं। जोशी ने इन्हें रिझाने के लिए गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल से संपर्क किया तो वे मदद करने की एवज में कोटा से कांग्रेस के टिकट की जिद पर अड़ गए। जोशी को गुंजल की इस जिद को पूरा करने में पसीना आ रहा है। पार्टी के ज्यादातर नेता गुंजल को टिकट दिए जाने की खिलाफत कर रहे हैं। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी इनमें शामिल हैं। सूत्रों के मुताबिक जोशी की तो पिछले दिनों में मंडावा में आयोजित मुख्यमंत्री की सभा में गुंजल को पार्टी में शामिल करने की योजना थी, पर संभावित विरोध को देखते हुए उन्होंने ऐन वक्त पर इरादा त्याग दिया। मीडियाकर्मियों ने जब इस बारे में गहलोत से पूछा तो उन्होंने 'इस बारे में सीपी जी ही बता सकते हैं' कहते हुए पूरी बात जोशी के ऊपर डाल दी। गुंजल की पैरवी करने के चक्कर में पार्टी के कई नेता तो उनसे नाराज हो ही गए हैं, कई जातियां भी उनके खिलाफ लामबंद हो रही हैं। ऐसी खबरें हैं कि भीलवाड़ा संसदीय क्षेत्र में कई जगह मीणा जाति के लोगों ने गुंजल को कोटा से कांग्रेस प्रत्याशी बनाए जाने की स्थिति में जोशी के विरूद्ध मतदान करने का निर्णय लिया है। सूत्रों के मुताबिक डॉ. किरोड़ी लाल मीणा भी गुंजल का खैरख्वाह बनने के कारण जोशी से खासे नाराज हैं। यदि मीणा वोटरों ने जोशी का साथ नहीं दिया तो वे मुश्किल में पड़ सकते हैं। वैसे भी इस बात की संभावना कम ही है कि गुंजल, जोशी को गुर्जर वोट दिला पाएंगे, क्योंकि विधानसभा चुनावों में गुंजल गुर्जर बाहुल्य हिण्डोली से तीसरे स्थान पर रहे थे। यदि वोटों के गणित पर जाएं तो उन्हें पूरे गुर्जर मत भी नहीं मिले। ऐसे में वे जोशी की नैया कैसे पार लगा पाएंगे? गौरतलब है कि हिण्डोली विधानसभा क्षेत्र भीलवाड़ा संसदीय सीट का ही एक हिस्सा है।
जोशी की मुश्किलें यहीं तक सिमट जाती तो भी ठीक था, लेकिन उन्हें और भी कई मुश्किलों से रूबरू होना पड़ रहा है। दरअसल, अशोक गहलोत बड़े सलीके के साथ जोशी को किनारे कर रहे हैं। टिकट वितरण में जो कुछ भी अच्छा हुआ उसका पूरा श्रेय तो गहलोत ले गए और विवादों का ठीकरा जोशी के सिर फोड़ दिया। उम्मीदवारों के चयन को लेकर जहां भी विवाद पैदा हो रहे हैं, सबके लिए जोशी को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, क्योंकि प्रदेश में पार्टी प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते वे ही संभावितों के पैनल बनाने व नाम फाइनल करने में सक्रिय नजर आए। यह बात अलग है कि इसमें उनकी ज्यादा चली नहीं। जिन नेताओं के टिकट कटे हैं, उनसे तो जोशी का वैर बंध ही गया है। कुल मिलाकर निर्णय लेने की प्रक्रिया में जोशी नीचे के पायदानों पर खिसकते चले गए और गहलोत ऊपर चढ़ते गए। किरोड़ी लाल मीणा का ही मामला लें। किरोड़ी लंबे समय से कांग्रेस को आदेश देने वाली भाषा में बात कर रहे थे। वे सात सीटों पर अपने अनुसार कांग्रेस के टिकट दिलवाना चाहते थे। इससे पहले कि जोशी कुछ बोलते गहलोत के एक बयान ने ही पूरा श्रेय लूट लिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि 'किरोड़ी जिस तरह से बात कर रहे हैं वह कांग्रेस की परंपरा नहीं है। अभी तो वे हमारी पार्टी में ही नहीं हैं। यह तय करना बाकी है कि वे पार्टी में आ रहे हैं या पार्टी उन्हें ले रही है। उनके कहने से पार्टी टिकट नहीं देने वाली है। जहां तक उनकी पत्नी गोलमा देवी, परसादी लाल मीणा और रामकिशोर सैनी की बात है तो वे हमारे साथ हैं। ये तीनों मंत्री किरोड़ी की बात नहीं मानेंगे।'
ऐसा नहीं है कि जोशी हमेशा गहलोत के कोप से पीडि़त रहे हैं। एक समय पार्टी में दोनों की दोस्ती की मिसालें दी जाती थीं। हालांकि राजनैतिक हैसियत के नजरिए से गहलोत हमेशा जोशी से उन्नसी ही रहे। वे उनसे पहले प्रदेश अध्यक्ष बने और फिर मुख्यमंत्री। गहलोत के मुख्यमंत्रित्वकाल में जोशी एक सक्रिय सिपेहसालार की भूमिका में रहे। सूबे के सीएम के रूप में उन्होंने काम तो अच्छा किया, पर वे लोकलुभावन साबित नहीं हुए। चुनावों में जनता ने उन्हें नकार वसुंधरा के सिर ताज सजा दिया। चुनावों में करारी शिकस्त के बाद कांग्रेस का भी वही हश्र हुआ जो सत्ता चली जाने के बाद सभी पार्टियों का होता है। पार्टी का संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह से चरमरा गया। कार्यकर्ता निष्क्रिय हो गए तो नेता हतोत्साहित। आलाकमान ने पार्टी में जान फूंकने के लिए एक के बाद एक कई अध्यक्ष बदले, लेकिन पार्टी पटरी पर नहीं आई। आखिर में सी.पी. जोशी को अध्यक्ष बनाया गया। उन्होंने पार्टी को संगठनात्मक रूप से पुनर्गठित तो किया, पर उनके मन में मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब पलने लगा। इस दौरान विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। कांग्रेस के प्रदेश मुख्यालय में टिकट के दावेदारों की भीड़ बढऩे लगी। स्वाभाव से तल्ख जोशी की भौंहें उस समय तन गईं जब दावेदार उनकी बजाय गहलोत की इर्दगिर्द घूमने लगे। जोशी को इस बात के संकेत मिल गए थे कि गहलोत उनकी मेहनत को मटियामेट करने में जुटे हैं। विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान राज्य में कांग्रेस की पूरी कमान गहलोत ने ली। उनके धुंआधार प्रचार के सामने जोशी बेबस नजर आए। अभी भी उन्होंने मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद नहीं छोड़ी थी, लेकिन चुनाव परिणामों ने जोशी की उम्मीदों को तबाह कर दिया। वे स्वयं महज एक वोट से चुनाव हार गए। हालांकि इसके बाद भी उन्होंने प्रयास किए, पर तब तक गहलोत उनसे कोसों आगे निकल गद्दीनशीं हो चुके थे।
मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद जोशी ने एक बार राजनीति से तौबा करने की ठान ली थी। उन्होंने इसकी तैयार भी कर ली थी, पर पार्टी आलाकमान से मिले सकारात्मक संकेतों के बाद उन्होंने मन बदल लिया। पहले राहुल गांधी और फिर सोनिया गांधी के राजस्थान दौरे के समय जोशी को जिस तरह से अहमियत मिली, उसे देखकर लगता था कि पार्टी नेतृत्व उन पर पूरी तरह से मेहरबान है। इसी आशा के सहारो जोशी फिर से जोश में आ गए। लोकसभा चुनावों के लिए 'टारगेट-25' बना डाला। आलाकमान को राज्य की पूरी सीटें जिताने का दावा करने वाले जोशी अब स्वयं अपनी सीट पर जीत के लिए जूझ रहे हैं। लगता है हर कदम पर हार जाना ही उनकी किस्मत में है, लेकिन यदि वे अब हारे तो कहीं के नहीं रहेंगे। जोशी को भी इसका अहसास है, इसलिए वे पूरी ताकत लगा रहे हैं।

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