शनिवार, मई 30, 2009

ओला के बहाने


शीशराम ओला को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलना सूबे की जाट राजनीति में बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है। राजस्थान में कांग्रेस की नई जाट लॉबी जन्म ले चुकी है। पार्टी पुराने चेहरों से तौबा कर युवाओं पर दांव खेल रही है। किसका दिमाग है इसके पीछे? अंदर की कहानी!

शेखावाटी। राजस्थान का जाट बाहुल्य इलाका। देश की सेना में ही नहीं, राजनीति में भी यहां की तूती बोलती है। सरकार चाहे किसकी भी हो शेखावाटी की भागीदारी हमेशा दमदार रहती है। परंपरागत रूप से इस क्षेत्र को कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में भाजपा इसमें सेंध लगाने में कामयाब रही। हालांकि हाल ही में हुए आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने पुराने गढ़ पर फिर से कब्जा जमा लिया है। कांग्रेस के प्रदर्शन में आए उतार-चढ़ाव के बीच एक ऐसे नेता भी रहे जिन्होंने अपने क्षेत्र में हमेशा पार्टी का झंडा बुलंद रखा। जी हां, हम बात कर रहे हैं दिग्गज जाट नेता शीशराम ओला की। ओला झुंझुनूं से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं। इससे पहले पहले वे दो दफा विधायक भी रह चुके हैं। दो-दो बार केंद्र व राज्य में मंत्री भी रहे हैं।
पंद्रहवीं लोकसभा के नतीजे आ रहे थे तो ओला के घर जश्न का माहौल था। जश्न महज सांसद बनने का नहीं था, बल्कि कैबीनेट मंत्री बनने की संभावनाओं का था। जो भी बधाई देने आ रहा था वो यह ही कह रहा था, 'इस बार तो कैबीनेट मिनिस्ट्री पक्की है।' स्वयं ओला को भी इस बात का पूरा यकीन था कि चुनावों में कांग्रेस के बेहद अच्छे प्रदर्शन का इनाम उन्हें भी मिलेगा और प्रमोशन के तौर पर उन्हें कैबीनेट मंत्रालय मिलेगा, लेकिन हुआ इसका उलट। कैबीनेट की उम्मीद लगाए बैठे ओला को सरकार में राज्य मंत्री के रूप में भी जगह नहीं मिली। उन्होंने अपने स्तर पर खूब हाथ-पांव मारे, लेकिन कोई भी उनका साथ देने को कोई तैयार नहीं हुआ। वे जहां भी गए उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
ओला के दरकिनार होने के एक नहीं कई कारण हैं। अशोक गहलोत के साथ छत्तीस का आंकड़ा उन्हें इस बार भारी पड़ गया। गौरतलब है कि ओला और गहलोत में कभी नहीं बनी। कई मौकों पर तो दोनों के बीच की खींचतान सार्वजनिक तौर पर दिखी गई। ताजा उदाहरण विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर हुई दावेदारी का है। इस दौरान ओला ने न सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश की, बल्कि उनके समर्थकों ने पार्टी पर्यवेक्षकों के सामने गहलोत के विरोध में जमकर नारेबाजी भी की। दरअसल, ओला की राजनीति महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं है। उनके मन में राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का सपना आज से नहीं, बरसों से है। अशोक गहलोत के आने से उनके इस सपने को ग्रहण लग गया। इसलिए वे हमेशा गहलोत विरोधी खेमे की ओर ही रहे। उन्होंने गहलोत को सूबे की सियासत से रुखसत करने की जी तोड़ कोशिश की। गहलोत पर जाट विरोधी होने का ठप्पा लगाना भी इसी मुहीम का एक हिस्सा था, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
मुख्यमंत्री बनने तक गहलोत, ओला के खिलाफ सुरक्षात्मक मुद्रा में रहे, लेकिन इसके बाद वे आक्रामक हो गए। लोकसभा चुनावों में टिकट वितरण के समय ही गहलोत ने ओला को किनारे करने की पूरी व्यूह रचना रच ली थी। सूबे में जितने भी जाट नेताओं को टिकट दिया गया, ओला को छोड़कर सभी गहलोत की पसंद के थे। ये सब जीतने में भी सफल रहे। केंद्र में सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो मंत्री बनने-बनाने की लॉबिंग में ओला के साथ इनमें से कोई जाट नेता खड़ा नजर नहीं आया। गहलोत ने इस बात का भी ख्याल रखा कि ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने से कहीं जाट नाराज न हो जाएं, इसलिए उन्होंने सीकर सांसद महादेव सिंह खंडेला को मंत्री बनवा दिया। खंडेला, गहलोत के खास सिपेहसालार हैं।
ओला को साइडलाइन कर खंडेला को मंत्री बनवाकर गहलोत ने विधानसभा चुनाव के दौरान शुरू की गई रणनीति को ही आगे बढ़ाया है। इसके तहत गहलोत राजस्थान में नई जाट लॉबी को सक्रिय करने पर काम कर रहे हैं। उन्हें इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है। शीशराम ओला के अलावा नारायण सिंह, कमला बेनीवाल, हरेंद्र मिर्धा, कर्नल सोनाराम, रिछपाल मिर्धा, डॉ. हरि सिंह, रामेश्वर डूडी, राजेंद्र चौधरी सरीखे गहलोत विरोधी नेताओं को कांग्रेस में किनारे किया जा रहा है। कुछ विधानसभा चुनाव में अलग-थलग हो गए, तो कुछ को लोकसभा चुनाव ने पीछे धकेल दिया है। इन नेताओं ने कभी भी गहलोत का समर्थन नहीं किया, उल्टे विधानसभा चुनाव से पहले आलाकमान तक भी ऐसी खबरें पहुंचाई थीं कि गहलोत के रहते जाट कांग्रेस के साथ नहीं आएंगे। नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर भी इन नेताओं ने गहलोत का विरोध किया था, लेकिन आखिर में आलाकमान ने उन्हीं के नाम पर मुहर लगाई। मुख्यमंत्री बनने के बाद जाट राजनीति पर भी गहलोत का जादू असरकारी साबित हो रहा है। गहलोत के साथ अब जाट नेताओं की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी है। महादेव सिंह खंडेला, हरीश चौधरी, ज्योति मिर्धा, बद्रीराम जाखड, लालचंद कटारिया, विश्वेंद्र सिंह, डॉ. चंद्रभान, रामलाल जाट, महेंद्र चौधरी, वीरेंद्र बेनीवाल, रीटा चौधरी, रूपाराम डूडी सरीखे जाट नेता गहलोत के बेहद करीबी हैं। राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील को वे पहले ही उनके पाले में आ चुके हैं। गहलोत के साथ खड़े जाट नेता संख्या और ताकत दोनों में ही विरोधी खेमें से मजबूत हैं। ये नेता युवा हैं और लोगों में इनकी अच्छी पकड़ है। गहलोत के लिए सबसे बड़ी राहत की बात यह है कि इनमें से कई राहुल गांधी की भी पसंद हैं।
प्रदेश की जाट राजनीति को अपने हाल पर छोड़ शीशराम ओला पर वापिस आएं तो इस बार मंत्री पदों को लेकर कांग्रेस ने डीएमके के साथ जिस तरह से कड़ा रुख अपनाया उससे साफ हो गया था कि मनमोहन सिंह और राहुल गांधी मंत्रियों की योग्यता पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। ओला के पास कोई विशेष शैक्षणिक योग्यता नहीं है। वे महज मेट्रिक पास हैं। 82 साल की उम्र भी उनके लिए नुकसानदायक साबित हुई। राहुल गांधी इनते बुजुर्ग नेता को मंत्री बनाने के लिए राजी नहीं हैं। मनमोहन सिंह तो पहले से ही मंत्री रहते हुए ओला के प्रदर्शन से नाखुश थे। पार्टी सूत्रों के मुताबिक पिछली सरकार में ओला का प्रदर्शन औसत से भी नीचे रहा, इसलिए किसी ने भी उनको वापिस मंत्री बनाए जाने की पैरवी नहीं की। पिछली बार भी उन्हें मजबूरी में ही मंत्री बनाया गया था, क्योंकि राजस्थान से कांग्रेस के वे ही इकलौते जाट सांसद थे। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी उनसे खुश नहीं बताई जाती हैं। ओला का राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी पेश करना उन्हें काफी अखरा था। ओला समर्थकों द्वारा पर्यवेक्षकों के सामने की गई नारेबाजी की रिपोर्ट भी सोनिया गांधी को मिली थी।
ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने के लिए कोई कितने भी तर्क दे, लेकिन वे उन्हें मानने को तैयार नहीं हैं। उनके अनुसार यह सब उनकी सियासत को समेटने की साजिश है। जब हमने उनसे यह पूछा कि यह साजिश कौन रच रहा है तो उन्होंने अशोक गहलोत का नाम तो नहीं लिया, पर उनकी ओर इशारा जरूर कर दिया। वे स्वयं तो गहलोत के खिलाफ कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके बेहद करीबी माने जाने वाले एक शख्स ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर हमें बताया कि 'अशोक गहलोत के कहने पर ही ओला साहब को मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया है, वर्ना उनका कैबीनेट मंत्री बनना पक्का था। गहलोत ने विधानसभा चुनाव में ओला साहब की ओर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी किए जाने का बदला लिया है। मुख्यमंत्री उनकी राजनीति खत्म कर स्वयं के लोगों को आगे लाना चाहते हैं।' मंत्री नहीं बनाए जाने से ओला बेहद गुस्से में हैं, पर फिलहाल चुप रहना ही बेहतर समझ रहे हैं।
सूत्रों के मुताबिक पार्टी उन्हें राज्यपाल बनाकर सम्मानजनक विदाई देना चाहती है। आलाकमान की ओर से ओला को इसकी सूचना भी भिजवाई गई है, पर ओला इस पर राजी नहीं है। वे सक्रिय राजनीति में ही रहना चाहते हैं। वे अभी भी गहलोत के साथ दो-दो हाथ करने के मूड में हैं। इसके लिए उन्होंने यह रणनीति भी बनाई थी कि गहलोत की वजह से एक जाट मंत्री नहीं बन पाया, लेकिन महादेव सिंह खंडेला को मंत्री बनवाकर गहलोत ने उनसे यह मौका भी छीन लिया है। खंडेला न केवल जाट हैं, बल्कि उनके शेखावाटी से ही हैं। खंडेला के मंत्री बनने के बाद ओला समर्थकों का एक वर्ग उनके ऊपर राज्यपाल बनने के लिए हामी भरने के लिए दबाव बना रहा है। उनका मानना है कि उम्र के इस पड़ाव पर पार्टी की खिलाफत करके उन्हें फजीहत के अलावा और कुछ हासिल नहीं होगा। देर से ही सही, धीरे-धीरे ओला को भी ये समझ में आ रहा है।
ओला एपीसोड के बाद यह पूरी तरह साफ हो गया है कि राजस्थान में गहलोत को चुनौती देने वाला कोई नेता नहीं है। ओला के बहाने उन्होंने अपने कई विरोधियों की बोलती बंद कर दी है। गहलोत राजनीति के एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह चीजों को अपने पक्ष में कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में गठन में जिस तरह से उनकी तूती बोली, उससे साफ हो गया है कि राजस्थान में से किसी कांग्रेसी को आगे बढऩा है तो गहलोत के साथ बिना ऐसा होना संभव नहीं है। इसलिए गहलोत विरोधी खेमे के हौंसले पस्त होते जा रहे हैं और उनके समर्थकों को कारवां बढ़ता जा रहा है। कुल मिलाकर गहलोत ने राजस्थान में एकछत्र राज कायम कर लिया है जिसे हिलाने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं है।


गुरुवार, मई 28, 2009

गुफ्तगु - देश के सबसे युवा सांसद हमदुल्‍ला सईद से...


देश के सबसे छोटे लोकसभा क्षेत्र लक्षद्वीप से जीतकर आए 26 वर्षीय हमदुल्ला सईद पंद्रहवीं लोकसभा में सबसे युवा चेहरे हैं। हमुदल्‍ला के दिवंगत पिता पी.एम. सईद ने इस लोकसभा सीट का लगातार 37 साल तक प्रतिनिधित्‍व किया। चौदहवीं लोकसभा के चुनावों में वे महज 71 वोटों से हार गए थे, पर उनके बेटे ने पूरा हिसाब चुकता कर लिया है। कानून की पढ़ाई पढ़ चुके हमदुल्‍ला अपने पिता के कामों को तो आगे बढ़ाने से इतर बहुत कुछ करना चाहते हैं। पिछले दिनों हुई बातचीत में उन्‍होंने इन्‍हीं का जिक्र किया। प्रस्‍तुत है उनसे हुई गुफ्तगु के मुख्‍य अंश-


लोकसभा में सबसे कम उम्र सांसद होने के नाते आप सेलिब्रिटी बन गए हैं, कैसा अनुभव कर रहे हैं?

- मुझे बहुत अच्छा फील हो रहा है। सबका अटेंशन मुझे मिल रहा है। मीडिया, बाकी सांसद सब मुझसे बात कर रहे हैं और मेरी योजनाओं के बारे में पूछ रहे हैं। शुरूआत में थोड़ा दबाव महसूस कर रहा था, पर अब एकदम सहज हूं।


पढ़ाई करते-करते राजनीति में आने का मन कैसे बना?
- इंडियन सोसायटी कॉलेज पुणे से लॉ में ग्रेजुएशन करने के बाद मैं मास्टर्स डिग्री के लिए यूनाइटेड किंगडम जाने वाला था, लेकिन इतने में ही पिताजी की मृत्यु हो गई। उनके चले जाने के बाद क्षेत्र की जनता ने मुझ पर काफी प्रेशर बनाया कि मैं अपने पिता के कामों को आगे बढ़ाऊं। आखिरकार लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए मैंने चुनाव लडऩे का फैसला किया। राहुल गांधी तो काफी दिनों से चुनाव लडऩे के लिए पहले से ही कह रहे थे। वैस राजनीति मेरे लिए नई नहीं है। मेरे पिता लक्षदीप से लगातार 37 साल तक सांसद रहे। मैं स्वयं स्टूडेंट रहते हुए राजनीति में सक्रिय रहा।


राजनीति में आने का मकसद क्या है?
- जनप्रतिनिधि का एक ही काम होता है, लोगों की सेवा करना। क्षेत्र की जनता बड़ी उम्मीदों के साथ अपना नेता चुनती है। मैं किसी चमत्कार का दावा तो नहीं करता, पर जनता के लिए हमेशा उपलब्ध रहूंगा और उनकी समस्याओं के शीघ्र निराकरण का अपनी पूरी क्षमता के साथ प्रयास करुंगा।


इस बार लोकसभा में युवाओं की भागीदारी बढ़ी है, इसे आप किस रूप में देखते हैं?
- यूथ हमारे देश का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। जब वह वाकी क्षेत्रों में देश का नाम रोशन कर रहा है तो राजनीति इससे क्यों अछूती रहे। यदि नौजवान लोग राजनीति में ज्यादा आएंगे तो देश का कायाकल्प हो जाएगा, क्योंकि उनमें जोश होता है और काम करने का जज्बा भी। मैं यह नहीं कह रहा कि बुजुर्ग नेताओं को राजनीति से संन्यास ले लेना चाहिए, वे भी हमारे साथ रहें। मेरे हिसाब से तो युवा और अनुभवी नेता मिलकर देश में बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं।


तो क्या आप युवाओं को राजनीति में आने के लिए प्रेरित करेंगे?
- युवाओं को अपनी जिम्मेदारी खुद समझनी चाहिए। राजनीतिक दल सिर्फ मौका दे सकते हैं। काम तो युवाओं को ही करना है। वैसे हमारी पार्टी युवाओं पर पूरा फोकस कर रही है। लोकसभा चुनाव में भी नौजवानों को खूब टिकट दिए गए, इनमें से ज्यादातर जीत कर भी आए। राहुल गांधी चाहते हैं की ज्यादा से ज्यादा युवा राजनीति में आए। मैं भी उनकी मुहिम से जुड़ा हुआ हूं। हम देश भर में ऐसे युवाओं को तलाश रहे हैं जो राजनीति में अच्छा कर सकते हैं।


देश के विकास को लेकर आपका क्या सपना है?
- दुनिया में हमारे देश की स्थिति लगातार मजबूत होती जा रही है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि आने वाला समय हमारा है, लेकिन इसके लिए हमें शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, कृषि व परिवहन की दिशा में बहुत काम करने की जरूरत है। करोड़ो लोग अभी भी शिक्षा से वंचित हैं, कुपोषण के शिकार हैं और बेरोजगार हैं। एक कृषि प्रधान देश के लिए इससे बदतर और क्या हो सकता है कि अभावों में उसे आत्महत्या करनी पड़ती है। यह सच्चाई है जिसे हमें स्वीकारना होगा और सुधार करना होगा।


महिलाओं के उत्थान के लिए आप क्या करना चाहेंगे?
- देश में महिलाओं की स्थिति निश्चित रूप से दयनीय है। मेरे हिसाब से महिला उत्थान के लिए सबसे अच्छा जरिया शिक्षा है। शिक्षा का स्तर बढऩे पर बाकी चीजे अपने आप ठीक होने लगती हैं। मेरे स्वयं के सात बहिनें हैं। सबने अच्छी पढ़ाई की तो अच्छी पोजीशन पर हैं, चार तो डॉक्टर हैं।


आप काफी धार्मिक प्रवृत्ति के लगते हैं, आपके मोबाइल नंबर की अंतिम तीन अंक भी 786...
- मेरे नजरिए से धार्मिक होना अच्छी बात है। मैं नियमित रूप से नमाज पढ़ता हूं। इससे मुझे शांति तो मिलती ही है और मैं अनुशासित भी रहता हूं। जहां तक मोबाइल नंबर में 786 का सवाल है, मुझे यह नंबर लेने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।

राजनीति के अलावा और क्या अच्छा लगता है?
- मुझे पढऩा काफी पसंद है। वक्त मिलने पर मैं घंटों तक पढ़ता हूं। नामचीन लेखकों के अलावा नए लेखकों को भी मैं खूब पढ़ता हूं। अरविंद अडिगा ने मुझे काफी प्रभावित किया। इसके अलावा म्युजिक सुनना भी पसंद है। लाइट म्युजिक सुनना अच्छा लगता है।


चुनाव जीतने के बाद आपकी लाइफ स्टाइल में कितना बदलाव आया?
- मैं काफी बदलाव महसूस कर रहा हूं। जाहिर तौर पर पहले से ज्यादा व्यस्त हो गया हूं। लोग मिलने भी खूब आते हैं और मोबाइल पर काल्स भी। व्यस्त होना मुझे पहले से ही पसंद है, इसलिए सब अच्छा लग रहा है। एक बदलाव मेरे पहनावे में भी आया है। पहले जींस-टीशर्ट पहनता था, अब कुर्ता-पायजामा पहनता हूं।


शादी के बारे में क्या सोचा है?
- अरे यार! अभी शादी की उम्र ही कहां हुई है। इस बारे में अब तक कुछ भी नहीं सोचा है। अभी काफी जिम्मेदारियां हैं, पहले उन्हें निभाना है फिर शादी के बारे में देखेंगे।

शनिवार, मई 23, 2009

छप्पर फाड़ के


विधानसभा चुनावों में महज एक वोट से मात खाने वाले डॉ। सी.पी. जोशी की केबीनेट मंत्री के रूप में ताजपोशी यही साबित करती है कि देने वाल जब भी देता है छप्पर फाड़ के देता है। स्थितियां बदलीं तो गहलोत भी जोशी के साथ हो लिए। आखिर कैसे हुआ ऐसा? एक अंतर्कथा।

डॉ. सी.पी. जोशी। राजस्थान में कांग्रेस के निजाम। तीन बार विधायक रहे। एक बार मंत्री भी बने, पर देश भर में उन्हें इन सबसे ज्यादा पिछले विधानसभा चुनाव में महज एक वोट से मिली हार के लिए जाना जाता है। यह हार जोशी की उम्मीदों को तीन-तेरह करने वाली थी। कहां वे मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे और विधायक भी नहीं बन पाए, लेकिन लोकसभा चुनाव में उन्होंने पूरा हिसाब चुकता कर लिया वह भी सूद समेत। मनमोहन की दूसरी पारी की टीम ट्वंटी में जोशी राजस्थान से इकलौते हैं। जोशी ने गिरिजा व्यास, शीशराम ओला, नमोनारायण मीणा, चंद्रेश कुमारी और सचिन पायलट सरीखे दिग्गजों को पछाड़ते हुए कैबीनेट मंत्री बनकर सबको चौंका दिया है।
केंद्र की मनमोहन सरकार में डॉ. जोशी की कैबीनेट मंत्री के रूप में ताजपोशी कई तरह से मायने रखती है। इससे जोशी का कद तो बड़ा ही है, मुख्यमंत्री गहलोत भी मजबूत हो गए हैं। अब राज्य में उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा है। गौरतलब है कि जोशी, गहलोत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने हुए थे। विश्लेषकों की मानें तो यदि जोशी विधानसभा चुनाव जीत जाते तो गहलोत का गद्दीनशीं होना इतना आसान नहीं होता। वे उन्हें कड़ी टक्कर देते। हालांकि दस जनपथ पर अच्छे रसूखों के चलते पलड़ा गहलोत का ही भारी रहता, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बनने पर भी जोशी उनके लिए पूरे पांच साल तक गले की फांस ही बने रहते। एक वोट से विधानसभा चुनाव हार जाने पर मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद भी जोशी ने गहलोत के लिए कम समस्याएं पैदा नहीं की। अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलने के लिए जोशी ने गहलोत को खबर दिए बिना जयपुर में राहुल गांधी का कार्यक्रम रखवा दिया और फिर लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए 'टारगेट-25' भी बना डाला।
गहलोत को टकराव की राजनीति कम ही भाती है। उन्होंने जोशी से कई बार सुलह करने का कोशिश की, पर बात नहीं बनी। कभी जोशी की उम्मीदें आड़े आती तो कभी तल्ख मिजाजी, लेकिन जब जोशी ने लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छा जाहिर की तो गहलोत को एक और मौका मिल गया। हालांकि जब जोशी को चित्तौडग़ढ़ की बजाय भीलवाड़ा से टिकट दिया गया तो लगा कि गहलोत उन्हें एक और पटकनी देना चाहते हैं। चुनाव प्रचार के शुरूआती दिनों में भी यही प्रतीत हो रहा था, पर मतदान का दिन नजदीक आते-आते गहलोत ने जोशी को जिताने के लिए पूरी ताकत झौंक दी। वे खुद तो वहां गए ही पार्टी के कई नेताओं को जोशी को जिताने की जिम्मेदारी के साथ भेजा गया। भितरघात कर रहे क्षेत्रीय नेताओं को भी गहलोत ने व्यक्तिगत तौर पर जोशी के पक्ष में पाबंद किया। आखिरकार विधानसभा चुनाव में एक वोट से हारने वाले जोशी लोकसभा चुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से विजयी रहे।
जोशी तो जीते ही पूरे राजस्थान में भी कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया। जब इसका श्रेय लेना का समय आया तो इस बार माहौल कुछ बदला-बदला सा था। गहलोत ने पहली बार जोशी को सामने किया और प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते उन्हें भी जीत का श्रेय दिया। गौरतलब है कि गहलोत और जोशी के रिश्तों में कड़वाहट 'श्रेय' लेने की होड़ में ही आई थी। प्रदेशाध्यक्ष बनते ही उन्होंने सूबे में मृतप्राय पड़ी कांग्रेस को फिर से खड़ी करने के लिए खूब मेहनत की, लेकिन आलाकमान के सामने इसका पूरा श्रेय अशोक गहलोत ले जाते। विधानसभा चुनावों में मिली जीत के समय भी ऐसा ही हुआ। पूरा श्रेय गहलोत हड़प गए। जोशी को तो हर मोर्चे पर हार ही हाथ लगी। विश्लेषकों के मुताबिक जोशी की स्पष्टवादिता ही उन पर भारी पड़ी। साम्यवादी चे-गुवेरा से प्रभावित जोशी जो भी करते गहलोत के सामने गा देते। और जब आलाकमान से शाबासी लेने की बारी आती तो गहलोत बड़ी चतुराई से जोशी को किनारे कर अपनी पीठ आगे कर देते। हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद गहलोत ने इस आदत को छोड़ दिया और वे जोशी के साथ सुलह के मूड में नजर आए। ज्यादातर मौकों पर उन्हें साथ रखने की कोशिश की। शुरूआत में जोशी के कदम कुछ ठिठके हुए थे, पर लोकसभा चुनाव में गहलोत की ओर से की गई मदद से वे गदगद हो गए। उदयपुर की सुखाडिय़ा यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे जोशी, गहलोत की मनोदशा भांपने में कामयाब रहे और साथ हो लिए।
गहलोत को नजदीक से जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे जिस पर मेहरबान होते हैं पूरी तरह से होते हैं। जोशी को मनमोहन सिंह सरकार के कैबीनेट में शामिल करवाकर उन्होंने इसे एक बार फिर से साबित कर दिया है। सहयोगी दलों के दबाव के बीच जब यह तय हुआ कि महमोहन सिंह के साथ छोटा मंत्रिमंडल शपथ लेगा तो यह तय माना जा रहा था कि राजस्थान से शायद ही किसी की बारी आए। कयास लगाए जा रहे थे कि एकाध का नंबर आया तो शीशराम ओला या गिरिजा व्यास हो सकते हैं। राहुल गांधी की ज्यादा चली तो सचिन पायलट का नाम लिस्ट में हो सकता है, लेकिन सी.पी. जोशी के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में राजस्थान से चार मंत्री होंगे। इनमें एक ब्राह्मण, एक जाट, एक गुर्जर और एक एससी या एसटी से संबंध रखने वाले सांसद होंगे।
ब्राह्मणों में गिरिजा व्यास की दावेदारी को सबसे पुख्ता माना जा रहा था। गिरिजा पहले भी मंत्री रही हैं और दस जनपथ पर भी उनकी अच्छी पहुंच है। इस हिसाब से सी.पी. जोशी उनसे कद में काफी छोटे हैं। वे एक विधायक और राज्य सरकार में मंत्री की हैसियत से तो राजनीति अनुभव रखते हैं, पर सांसद पहली बार ही बने हैं। वैसे भी लोकसभा चुनावों में टिकट वितरण में भी वे जोशी पर भारी पड़ी थीं। चित्तौडग़ढ़ से गिरिजा को जोशी के मुकाबले तरजीह दी गई थी। पर कैबीनेट मंत्री बन जोशी ने पूरा हिसाब चुकता कर लिया। गहलोत के करीबी सूत्रों के मुताबिक उन्होंने जोशी की ताजपोशी का मन केंद्र में यूपीए की जीत के साथ ही बना लिया था। गहलोत ने काफी पहले ही पार्टी आलाकमान को जोशी का नाम दे दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कह दिया था कि जोशी का नाम पहली लिस्ट में ही होना चहिए।
गहलोत के अलावा राहुल गांधी ने भी जोशी की पूरी मदद की। सूत्रों के मुताबिक राहुल, जोशी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हैं और उन्होंने काफी पहले से ही उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देने का मन बना रखा था। केंद्र में यूपीए की सरकार नहीं भी आती तो राहुल उन्हें संगठन में अच्छा पद देने के मूड में थे। सूत्रों के मुताबिक राहुल ने जोशी के लिए मंत्रालय भी तय कर रखा है। वे संभवतया ग्रामीण विकास मंत्रालय संभालेंगे। वैसे तो राहुल गांधी और सी.पी. जोशी की नजदीकियों की चर्चाएं काफी पहले से होती रही हैं, पर जयपुर में हुए कार्यक्रम में यह पहली बार सार्वजनिक हुईं थी। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने के कुछ दिन बाद हुए इस कार्यक्रम के बारे में मुख्यमंत्री गहलोत को कानों-कान खबर नहीं थी। पूरे कार्यक्रम में राहुल गांधी साए की तरह सी.पी. जोशी के साथ रहे। लोकसभा चुनाव में राहुल ने जोशी का पूरा ध्यान रखा। वे राज्य में सात लोकसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए गए, इनमें एक सी.पी. जोशी की सीट भीलवाड़ा भी थी।
सी.पी. जोशी को दिल्ली भेजकर गहलोत ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। जोशी से प्रतिद्वंद्विता समाप्त होने के बाद उन्हें यहां चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा है साथ ही प्रदेशाध्यक्ष भी अब उनकी मर्जी का होगा। यानी राजस्थान में अब गहलोत का एकछत्र राज चलेगा। वैसे जोशी को मनाने के फेर में गहलोत को नई दिक्कतों से रूबरू होना पड़ सकता है। शपथ ग्रहण के पहले दौर में जोशी को शामिल करने से मंत्री बनने का ख्बाव सजाए बैठे कई नेताओं की उम्मीदें चकनाचूर हुई हैं। ये नेता गहलोत के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। जोशी के कैबीनेट में शामिल होने से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालेे नेताओं में गिरिजा व्यास और शीशराम ओला हैं। दोनों नेता गहलोत के विरोधी माने जाते हैं। विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के दावेदारों में भी ये दोनों नेता शमिल थे। गहलोत के लिए राहत की बात यह है कि केंद्र में अभी मंत्रिमंडल का विस्तार होना है। इसमें इन नेताओं को समायोजित किया जा सकता है। फिर भी सभी को संतुष्ट करना संभव नहीं होगा, क्योंकि राजस्थान के हिस्से में शायद ही चार से ज्यादा मंत्रालय आएं और कैबीनेट मंत्रालय की संभावना तो नहीं के बराबर है।
सूबे के दिग्गज नेताओं की नाराजगी के अलावा गहलोत पर एक बार फिर से जाट विरोधी होने का ठप्पा भी लग सकता है। शीशराम ओला को पहली सूची में जगह नहीं मिलने को उनका विरोधी खेमा जाटों के अपमान के तौर पर प्रचारित कर सकता है। सूत्रों के मुताबिक गहलोत को भी इसका अंदेशा है और इसे एनकाउंटर करने के लिए उन्होंने तरकीब भी सोच रखी है। वे किसी जाट नेता को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के बारे में सोच रहे हैं। ऐसा करके वे जाटों में तो अच्छा संदेश देने में कामयाब होंगे, लेकिन शीशराम ओला की नाराजगी को दूर नहीं कर पाएंगे। तमाम तरह के कयासों के बीच यह देखना रोचक होगा कि गहलोत क्या कदम उठाते हैं। उनका हर कदम उम्मीद से आगे होता है और हालात के अनुसार नपा-तुला। जादूगर जो ठहरे, वो भी खानदानी।

शनिवार, मई 16, 2009

फिर चला जादू


सूबे में गहलोत का तिलिस्म फिर चला और भाजपा को चारों खाने चित्त कर दिया। चुनाव परिणामों ने जहां गहलोत को फ्रीहैंड दे दिया है वहीं, वसुंधरा के हाथ बांध दिए हैं। एक और मात खाने के बाद महारानी के सामने संकटों का नया सिलसिला शुरू हो सकता है।

अशोक गहलोत द्वारा विधानसभा चुनाव में दिया गया जुमला 'मुझे जादू करना आता है' लोकसभा चुनाव में और भी असरदार साबित हुआ। हालांकि इसमें गहलोत की जादूगरी के अलावा राहुल गांधी का हुनर भी काम आया। प्रचार के दौरान राहुल राज्य की 7 लोकसभा सीटों पर गए थे। इनमें से 6 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है। बारां-झालावाड़ ही एकमात्र ऐसी सीट रही जहां राहुल गांधी प्रचार के लिए आए और कांग्रेस प्रत्याशी जीतने में कामयाब नहीं रहा। कुल मिलाकर राजस्थान के रण में भाजपा के बड़े-बड़े दावे कांग्रेस की आंधी में उड़ गए और पिछली बार 25 में 21 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 4 सीटों पर ही सिमट गई। पार्टी के ज्यादातर गढ़ ढह गए और बड़े-बड़े दिग्गज को मुंह की खानी पड़ी। दूसरी और 20 सीटें हासिल कर कांग्रेस ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि विधानसभा चुनावों में मिली जीत तुक्का नहीं थी। लोकसभा चुनावों के परिणाम सूबे की सियासत में खलबली मचा सकते हैं। जहां कांग्रेस अशोक गहलोत के नेतृत्व में और स्थायित्व हासिल करेगी वहीं, भाजपा में प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर और नेता प्रतिपक्ष वसुंधरा राजे को बदलने की मांग फिर से जोर पकड़ेगी।
सूबे में सरकार बनाते ही मुख्यमंत्री गहलोत ने लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल से सबक लिए और एक के बाद एक लोक कल्याणकारी निर्णय किए। लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से पहले मिले 72 दिनों में कांग्रेस सरकार ने 71 छोटे-बड़े कार्य कर जनता में अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शराब की दुकानें खुलने के समय में कटौती करने के निर्णय तुरूप का इक्का साबित हुआ। इससे आमतौर पर भाजपा के साथ रहने वाला शहरी वोटर ने भी कांग्रेस की ओर रुख किया। इन चुनावों में गहलोत ने कर्मचारी और किसान विरोधी होने के कलंक को भी धो दिया। जहां डीए बढ़ाने की घोषणा कर कर्मचारियों को खुश किया गया वहीं, पांच साल तक बिजली की रेट नहीं बढ़ाने का ऐलान कर किसानों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की गई। नतीजतन, इस बार कर्मचारी गहलोत के खिलाफ मुखर नहीं हुए और किसानों का तो एकतरफा साथ मिला।
राज्य में कांग्रेस की जीत में गहलोत सरकार के कामकाज के अलावा मुख्यमंत्री का चुनाव मैनेजमेंट भी बड़ा योगदान है। गहलोत ने सत्ता और संगठन में बेहतरीन तालमेल बिठाया। कांग्रेस ने एकजुट होकर पूरी ताकत से चुनाव लड़ा। पार्टी में विभिन्न स्तरों पर धड़ेबंदी होने के कयासों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं रहा। कांग्रेस की पूरी टीम गहलोत के पीछे खड़ी रही। गहलोत ने पूरे राज्य में धुंआधार प्रचार किया और बड़ी चतुराई से वसुंधरा सरकार के समय हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बना दिया। दूसरी ओर मतदान से एक दिन पहले गहलोत द्वारा नाराज नेताओं को व्यक्तिगत रूप से समझाने की रणनीति पूरी तरह से कामयाब रही। गहलोत उन नेताओं की नाराजगी दूर करने में सफल रहे जो पार्टी प्रत्याशी के वोटों में सेंध लगाने की की स्थिति में थे। इन नेताओं का देर से ही सही पार्टी के पक्ष में जुट जाना निर्णायक साबित हुआ। बसपा के सभी छह विधायकों का कांग्रेस में शामिल होना भी कांग्रेस के लिए मुफीद साबित हुआ। बसपा के उम्मीदवार कांग्रेस को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाए।
कुल मिलाकर सूबे के सरदार बनने के बाद से गहलोत का हर तीर निशाने पर लग रहा है। लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने से आलाकमान की नजरों में तो उनका कद बढ़ा ही है, राज्य की राजनीति में भी उनके वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई नेता नहीं बचा है। राहत की बात यह है कि कई मौकों पर गहलोत के प्रतिद्वंद्वी साबित हो रहे डॉ. सी.पी. जोशी भीलवाड़ा से चुनाव जीत गए हैं। मुख्यमंत्री के दावेदारों में शामिल रहे शीशराम ओला एक बार फिर से चुनाव जीत चुके हैं। ऐसे में गहलोत डंके की चोट पर अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। इस बार उनके पास अच्छा प्रदर्शन करने का बेहतर अवसर भी है, क्योंकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने से धन की कोई कमी नहीं आने वाली है।
विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा प्रदेश नेतृत्व यह खुले तौर पर स्वीकारता था कि लोकसभा चुनाव में 2004 की स्थिति को बरकरार रखना संभव नहीं है, लेकिन ऐसे परिणाम की उम्मीद तो किसी को न थी। यदि विधानसभा चुनाव के पैटर्न पर ही वोटिंग होती तो भी भाजपा को 10 से 12 सीटें मिलनी चाहिए थीं, पर पार्टी महज 4 सीटों पर सिमट गई। भाजपा की बदतर स्थिति के लिए ज्यादातर वे ही कारण जिम्मेदार हैं जो विधानसभा चुनावों में थे। वसुंधरा राजे के पूरी ताकत से सक्रिय न होना एक अलग वजह जरूर रही। महारानी चुनाव प्रचार के दौरान अपने बेटे दुष्यंत की बारां-झालावाड़ में ही अटकी रहीं। वे बाकी सीटों पर गहलोत की बराबर सघनता से प्रचार नहीं कर पाईं। वसुंधरा जैसे-तैसे कर दुष्यंत की सीट निकालने में तो कामयाब रहीं, पर बाकी जगह स्थिति और बदतर हो गई। वैसे इस बार महारानी के प्रचार में पहले जैसी धार भी नहीं दिखी। आक्रामक तेवरों की आदी महारानी पूरे चुनाव के दौरान सुरक्षात्मक नजर आईं। वे गहलोत के भ्रष्टाचार के आरोपों का एक भी जबाव नहीं दे पाईं। उनके पास गहलोत सरकार को घेरने के लिए कोई मुद्दा भी नहीं था।
बद से बदतर होता संगठनात्मक ढांचा भी भाजपा की हार की बड़ी वजह है। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपाई दिग्गजों की बीच की दरारें खाई में तब्दील हो गईं। प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर और वसुंधरा राजे के बीच मनमुटाव सार्वजिनक होने लगा। महारानी ने अपनी मर्जी से टिकट दिए। इसमें ओम माथुर की भी ज्यादा नहीं चली। टिकट वितरण से नाराज आला नेताओं ने खुले तौर पर अपनी नाराजगी तो जाहिर नहीं की, पर चुनावों से अपने-आपको दूर ही रखा। नेताओं के बीच बढ़ती दूरियों का लब्बोलुआब यह रहा कि कार्यकर्ताओं ने पार्टी से कटते चले गए। उम्मीदवारों को समर्पित कार्यकर्ताओं की खासी कमी खली। भाजपा सरीखी कैडर बेस पार्टी के लिए इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता था। झुलसा देने वाली गर्मी और शादियों के सीजन में भाजपा के वोटर को घर से निकालने के लिए कार्यकर्ताओं की फौज किसी भी प्रत्याशी के पास नहीं थी। लिहाजा, कम वोटिंग हुई और भाजपा को भारी नुकसान हुआ।
लोकसभा चुनाव में भाजपा का सफाया कई बवंडर खड़े कर सकता है। वसुंधरा राजे और ओम माथुर के विरोधियों को उन्हें यहां से रुखसत करने का एक और मौका मिल गया है। वे इसे किसी भी कीमत पर हाथ से जाने देने के मूड में नहीं हैं। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने वसुंधरा और माथुर की खुली खिलाफत शुरू कर दी है। पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा ने बताया कि 'प्रदेश में पार्टी की हार का कारण कुछ नेताओं का खुद को पार्टी से ऊंचा मानना है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कम सीटें मिलीं तो जनता ने तय कर लिया था कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत से जिताना है, लेकिन भाजपा इसे भांप नहीं पाई।' राज्यसभा सांसद और प्रदेशाध्यक्ष रहे ललित किशोर चतुर्वेदी भाजपा की हार का जिक्र करते ही पार्टी नेतृत्व पर पिल पड़ते हैं। वे कहते हैं, 'बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होए। भाजपा की हार के लिए संगठन स्तर पर वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा और कुछ लोगों की दादागीरी जिम्मेदार है। दो-तीन लोगों के कारण पार्टी का यह हाल हुआ है। इन नेताओं ने विधानसभा चुनावों में मिली हार से कोई सबक नहीं लिया।' पूर्व मुख्य सचेतक महावीर प्रसाद जैन ने भी पार्टी नेतृत्व पर जमकर भड़ास निकाली। जैन ने बताया कि 'लोकसभा चुनाव में पार्टी एकजुट नहीं रह पाई। पूरा काम दो-तीन लोगों ने अपने हाथ में ले लिया। इन्होंने पार्टी को अपनी जागीर समझ लिया। इससे कार्यकर्ता और जमीन से जुड़े नेता पार्टी से कटते चले गए और पार्टी की करारी हार हुई।'
मुखर होते विरोध के स्वरों के बीच भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के साथ दिक्कत यह है कि वे फेरबदल करे तो क्या करे? ओम माथुर के बदलने में तो ज्यादा दिक्कत नहीं है, पर वसुंधरा राजे का कोई सर्वमान्य विकल्प पार्टी के पास नहीं है। कोई भी ऐसा कद्दावर नेता दिखाई नहीं दे रहा है जिसका कोई विरोध नहीं करे और जो पार्टी में फिर से प्राण फूंक सके। गुलाब चंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी का नाम काफी समय से चल रहा है। कटारिया की संभावना ज्यादा बनती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद पार्टी तिवाड़ी को शायद मौका नहीं दे। वैसे पार्टी का एक धड़ा अभी भी यह मानता है कि राजस्थान में भाजपा की कमान वसुंधरा राजे के हाथ में ही रहेगी, क्योंकि राजस्थान इकलौता राज्य नहीं है जहां भाजपा हारी है। वसुंधरा राजे के लिए भाजपा का हारना उतना नुकसानदायक नहीं है जितना लालकृष्ण आडवाणी का कमजोर होना। महारानी, आडवाणी की खास सिपेहसालार रही हैं। कई मौकों पर आडवाणी ने उनका खुला समर्थन किया है। यदि आडवाणी ने सक्रिय राजनीति से तौबा की तो इसका असर वसुंधरा के कद पर भी पड़ेगा।

शुक्रवार, मई 08, 2009

सियासत में सिमटा सौहार्द


बरसों तक भाई-भाई की तरह रहे गुर्जर और मीणा अब एक-दूसरे के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। सियासतदां तनाव को मिटाने की बजाय इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। दहशत भरे इस माहौल के लिए कौन जिम्मेदार है?

गुर्जर आरक्षण आंदोलन से पहले दौसा को राजेश पायलट और मेहंदीपुर बालाजी के लिए जाना जाता था। 2007 में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की अगुवाई में शुरू हुआ गुर्जर आरक्षण आंदोलन अपने दो पड़ावों के बाद अब थम चुका है, लेकिन इसकी लपटें अब तक उठ रही हैं। हालांकि अब मुद्दा गुर्जर आरक्षण का नहीं, बल्कि दो जातियों बीच अस्तित्व की लड़ाई का है। मीणा और गुर्जर जातियों के बीच बढ़ती झड़पों ने क्षेत्र में तनाव बढ़ा दिया है। लोगों में दहशत है। सियासतदां इसे को दूर करने की बजाय, अपना-अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं। निर्दलीय चुनाव लड़े डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, मीणा जाति और कश्मीर से आए कमर रब्बानी चेची गुर्जर जाति के झंडाबरदार बने हुए हैं। जातिगत पंचायतों में दोनों नेता एक-दूसरे के खिलाफ जमकर जहर उलग रहे हैं।
परिसीमन में दौसा सीट के अनुसूचित जनजाति के आरक्षित होते ही कई मीणा नेताओं की इस सीट पर नजर थी। कांग्रेस के नमोनारायण मीणा ने तो यहां बाकायदा तैयारियां भी शुरू कर दी थी, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद बदली परिस्थितियों किरोड़ी लाल मीणा ने भी यहां से दावेदारी जता दी। किरोड़ी ने कांग्रेस के ऊपर समर्थन देने का दबाव भी बनाया, पर कांग्रेस अपने सिंबल पर किरोड़ी को चुनाव लड़ाना चाहती थी। लंबी जद्दोजहद के बाद किरोड़ी निर्दलीय ही मैदान में उतर गए। किरोड़ी के आने पर नमोनारायण ने यहां से दावेदारी छोड़ दी और वे सामान्य हो चुकी टोंक-सवाई माधोपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े। कांग्रेस ने यहां से पुलिस अधिकारी रहे लक्ष्मण मीणा को प्रत्याशी बनाया तो भाजपा ने रामकिशोर मीणा को प्रत्याशी बनाया। इन उम्मीदवारों के बीच ही मुकाबला रहता तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन काफी पहले मैदान में कूद चुके कमर रब्बानी चेची के टक्कर में आने से माहौल तनावपूर्ण हो गया।
राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर मीणाओं का ही वर्चस्व रहा है। पहली बार किसी अन्य जाति के नेता ने मीणाओं को उन्हीं के गढ़ में आकर चुनौती दी। चेची कश्मीरी मुसलमान हैं, पर इनके वंशज गुर्जर रहे हैं। दौसा में चेची ने स्वयं को एक गुर्जर के तौर पर ही प्रचारित किया। चेची को गुर्जरों का एकतरफा समर्थन मिलने लगा ही मुसलमान भी उनके साथ हो लिए। सवर्ण जाति के वोटों में भी वे सेंध लगाते नजर आए। उधर, मीणा वोटों के तीन जगहों पर बंटते हुए दिखाई दे रहे थे। किरोड़ी को यह रास नहीं आया। उन्होंने चेची को कश्मीर से आया प्रशिक्षित आतंकवादी बताना शुरू कर दिया। हालांकि दौसा में आतंक फैलाने का काम किराड़ी समर्थकों ने किया। जगह-जगह लोगों को धमकाया गया, पर बात बनती हुई दिखाई नहीं दी। कांग्रेस उम्मीदवार लक्ष्मण मीणा की मानें तो किरोड़ी हिंसा फैलाकर चुनाव जीतना चाहते हैं। मीणा कहते हैं, 'किरोड़ी लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते हैं। उनके पक्ष में माहौल हो तो ठीक है नहीं तो वे गुंडागिर्दी पर उतर आते हैं। विधानसभा चुनाव में भी वे ऐसे ही जीते।'
मतदान के दिन मीणा और गुर्जरों के बीच कई जगह झड़पें हुईं। किरोड़ी के काफिले पर हमला हुआ, लेकिन सूत्रों के मुताबिक यह सब सुनियोजित था ताकि किरोड़ी को मीणाओं की सहानुभूति मिल जाए। मीणा वोटों में हो रहे बटवारे को रोकने के लिए उन्होंने इलाके के पुलिस स्टेशन में दिनभर हुडदंग मचाया। किरोड़ी अपने समर्थकों के साथ चेची की गिरफ्तारी की मांग को लेकर दिन भर पुलिस स्टेशन पर ही बैठे रहे। वे बार-बार अपने पैर में आई खरोंच को दिखाना भी नहीं भूल रहे थे। आखिर में चेची के खिलाफ रिपोर्ट लिखे जाने और अधिकारियों की ओर से चेची पर कार्रवाई के आश्वासन के बाद ही वे वहां से रवाना हुए। मतदान का अगला दिन भी क्षेत्र के लोगों के लिए दहशत भरा रहा। नांगल प्यारीवास गांव में मीणा समाज की महापंचायत के बाद लोगों ने जमकर उपद्रव मचाया। ऐसे हालातों में गुर्जर भी कहां चुप रहने वाले थे। अगले ही दिन उन्होंने भी आरक्षण आंदोलन के दौरान चर्चा में आए सिकंदरा चौराहे पर महापंचायत कर किरोड़ी लाल की गिरफ्तारी की मांग की और आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया है।
आम गुर्जर और मीणा यहां शांति से रहने चाहते हैं, लेकिन कुछ लोगों की सियासत में क्षेत्र का सौहार्द्र सिमटता ही जा रहा है। चुनाव परिणाम आने पर यहां स्थिति और बिगड़ सकती है। चेची की हार पर शायद कम बबाल हो, पर किरोड़ी अपनी हार नहीं पचा पाएंगे। प्रचार के दौरान भी किरोड़ी ने चेची के खिलाफ जमकर जहर उगला था। जब हमने उनसे इस बारे में बात की तो वे भड़क उठे और बोले, 'चेची कश्मीर में टे्रनिंग लिया हुआ आतंकवादी है। वो यहां गूजर बनकर लोगों को बरगला रहा है। उसने मेरे ऊपर हमला करवाया। प्रशासन भी उसका साथ दे रहा है। अब क्षेत्र की जनता ही उन्हें सबक सिखाएगी। ऐसे लोग जनप्रतिनिधि तो क्या नागरिक बनने लायक भी नहीं हैं।' चेची उन पर पलटवार करते हुए कहते हैं कि 'आतंकवादी वह है जो आतंक फैलाए। आप दौसा की जनता से पूछ लीजिए कि आतंक कौन फैला रहा है। किरोड़ी के लोगों ने बूथ केप्चरिंग की, लोगों को वोट नहीं डालने दिया और फिर हमले का ड्रामा किया। जनता सब जानती है, परिणाम सबके सिखा देंगे।'
ऐसा नहीं है कि गुर्जर और मीणा जातियों के बीच द्वेषता शुरू से रही है। आरक्षण आंदोलन के पहले तक दोनों जातियों के बीच बेहद अच्छे संबंध रहे। कई मौकों पर दोनों जातियों ने आपसी भाईचारे का परिचय दिया। धाधरेन गांव के 80 वर्षीय लक्खी मीणा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'गुर्जर और मीणाओं में कभी कोई लड़ाई नहीं रही। एक-दूसरे के सुख-दुख में खूब काम आते थे। इतिहास में भी उल्लेख है कि हम आपस में रिश्तेदार रहे हैं, लेकिन आरक्षण की लड़ाई ने सब तबाह कर दिया। गलतियां दोनों तरफ से हुई हैं। कुछ लोगों के बहकावे में आकर दोनों जातियां भ्रमित हो रही हैं।' एक-दूसरे से सटे दोनों जातियों के गांवों में लोगों को थोड़ा सा कुरेदने पर ही पता लग जाता है कि मीणा और गुर्जरों के बीच संबंध कितने प्रगाढ़ रहे हैं। 72 साल के गोविंद गुर्जर कहते हैं कि 'गुर्जर-मीणा एकता के किस्सों की कमी नहीं हैं। महावीर जी में शोभायात्रा का रथ दोनों जातियों के लोग मिलकर खींचते हैं, सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं और शादी-समारोह में आते-जाते हैं।'
देश की सबसे बड़ी पंचायत में कई बार दौसा की नुमाइंदगी करने वाले स्वर्गीय राजेश पायलट ने गुर्जर-मीणा रिश्तों में मिठास घोलने के लिए खूब काम किया। कभी-कभार दोनों जातियों के बीच तनाव होता तो पायलट बड़ी सहजता से हल कर देते। आरक्षण आंदोलन में अपना एक हाथ गंवा देने वाले जगन कहते हैं, 'पायलट साहब होते तो आंदोलन में इतना खून-खराबा नहीं होता। दोनों जातियों में उनकी पकड़ थी। गुर्जरों के वोट तो उन्हें मिलते ही थे, मीणाओं के भी वोट भी एकतरफा उन्हें ही मिलते थे। एक बार किरोड़ी लाल उनके खिलाफ चुनाव लड़े थे, तब भी मीणाओं ने पायलट को वोट दिए थे। सब उनकी बात मानते थे। कोई कितने भी गुस्से में हो वे उसे शांत कर देते थे।'
मीणा-गुर्जरों में पनपी इस कटुता के कारणों पर जाएं तो इसके लिए विशुद्ध रूप से कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार हैं। आरक्षण आंदोलन की अगुवाई करने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के भाजपा का दामन थाम लोकसभा चुनाव लडऩे से यह बात साबित हो गई हैं। आंदोलन के दौरान कर्नल बार-बार यह कहते थे कि यह एक गैर राजनीतिक आंदोलन है। वे इसमें शामिल होने वाले नेताओं के सामने शर्त रखते थे कि भविष्य में चुनाव नहीं लडऩा हो तो आंदोलन में शिरकत कर सकते हैं। आज वही कर्नल स्वयं राजनीति में कूद चुके हैं। वो भी उस पार्टी से जिसकी सरकार को वे तानाशाह और हत्यारी कहते हुए नहीं थकते थे। कर्नल के एक इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार रहने वाले ज्यादातर गुर्जर उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा से अभी तक अनभिज्ञ हैं। गुर्जरों का बहुमत आज भी बैंसला के पीछे है जो यह मानता है कि कर्नल गुर्जरों की भलाई के लिए ही राजनीति में आए हैं, लेकिन एक वर्ग जो पढ़ा-लिखा है उनसे खासा खफा है। पत्रकारिता का कोर्स कर रहे राजेश खटाना कहते हैं कि 'कर्नल साहब ने राजनेताओं के साथ रहते-रहते जल्दी ही राजनीति सीख ली। 71 लोगों की लाशों पर चढ़कर वे संसद में पहुंचना चाहते हैं। ये किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा की अति है। कर्नल साहब के इस कदम से साफ हो गया है कि अपने फायदे के लिए उन्होंने समाज का इस्तेमाल किया।'
बरसों से साथ रहते आ रहे मीणा-गुर्जरों के बीच चौड़ी होती खाई के बीच डॉ. किरोड़ी लाल मीणा का जिक्र करना जरूरी है। किराड़ी हमेशा शीर्ष पर रहने के आदी हैं। मात खाना उन्हें पसंद नहीं है। वे अपना मकसद पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। आरक्षण आंदोलन के दौरान मीणाओं को उकसाने वालों में वे सबसे ऊपर थे। गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के प्रवक्ता रहे डॉ. रूप सिंह की मानें तो किरोड़ी ने ही मीणा और गुर्जरों के बीच नफरत के बीज बोए। वे कहते हैं, 'किरोड़ी ने गांवों में जा-जाकर मीणा भाइयों से कहा कि गुर्जरों को आरक्षण मिल गया तो उनके बच्चों को नौकरियां नहीं मिलेंगी। गुर्जर आरक्षण मांग कर हमारा हक मार रहे हैं।' वे आगे कहते हैं कि 'आम मीणाओं को गुर्जरों को आरक्षण मिलने पर कोई आपत्ति नहीं थी, दिक्कत तो किरोड़ी सरीखे नेताओं को थी जिनकी सियासत संकट में आ सकती थी, ऐसे नेताओं ने ही लोगों को बरगलाया।'

शनिवार, मई 02, 2009

पानी न कंठ को न खेत को


पश्चिमी राजस्थान में बाड़मेर जिले के तिलवाड़ा गांव की 48 वर्षीय भूरी देवी पेड़ के नीचे छितराई हुइ छांव में पानी के टैंकर का इंतजार कर रही है। यह जगह उसके घर से पांच किलोमीटर से भी ज्यादा दूर है। वह पिछले दो घंटे से टैंकर आने की उम्मीद लगाए बैठी है। वह यहां एक घंटे और रुकेगी, यदि टैंकर आ जाता है तो ठीक नहीं तो उसे तीन किलोमीटर आगे बने टांके पर जाकर पानी लाना होगा। यानी अपने परिवार की प्यास बुझाने के लिए भूरी देवी सिर पर 25 लीटर वजन लिए हुए आठ किलोमीटर से भी ज्यादा पैदल चलकर घर पहुंचेंगी। इस इलाके में पीने का पानी जुटाने के लिए इतनी मशक्कत करने वाली भूरी देवी अकेली महिला नहीं हैं। पश्चिमी राजस्थान के ज्यादातर इलाकों में पेयजल की यही स्थिति है। हालांकि इंदिरा गांधी नहर के आने से कई जिलों में हालात पहले से बेहतर जरूर हुए हैं।
वैसे पश्चिमी राजस्थान ही नहीं समूचे राज्य में ही पीने के पानी की समस्या है। गांव ही नहीं शहरी क्षेत्र भी इससे अछूते नहीं हैं। सैकड़ों शहर ऐसे हैं जहां सात दिन में एक बार जलापूर्ति होती है। फिर भी शहरों में तो लोग जैसे-तैसे करके पीने का पानी जुटा लेते हैं, पर गांवों में स्थिति बेहद खराब है। गांव हो या शहर, यहां पेयजल की आपूर्ति भूमिगत जल स्रोतों से होती है। गर्मियां आते-आते इनमें से अधिकांश जलस्रोत पूरी तरह से सूख जाते हैं। दरअसल, बीते सालों में भूमिगत का अंधाधुंध दोहन होने से जलस्तर तेजी से नीचे गिरा है। वर्षा की मात्रा कम होने के कारण किसानों को सिंचाई के लिए भूमिगत जलस्रोतों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। राज्य में कुओं और नलकूपों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है और भूमिगत जल के दोहन की गति बढ़ती ही जा रही है, जबकि धरती में जल समाने की गति उससे आधी भी नहीं है। ऐसी स्थिति में आने वाले समय में हालात बेहद खराब होने वाले हैं, क्योंकि एक सीमा के बाद भूमिगत जल भी समाप्त हो जाएगा।
सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड के आंकड़ों पर गौर करें तो समस्या की बिकरालता का अंदाजा लग जाता है। बोर्ड के मुताबिक राज्य के 236 ब्लॉकों में से 140 में भूमिगत जल का दोहन अपनी सीमा को कब का पार कर चुका है। 50 ब्लॉकों में यह खतरनाक स्तर है और 14 में अद्र्धखतरनाक स्थिति में। यदि समय रहते नहीं चेते तो इन ब्लॉकों में ऐसा समय आने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा जब यहां सिंचाई के पानी तो दूर पीने का पानी भी नसीब नहीं होगा। राजस्थान में समस्या महज भूमिगत जल तक ही सीमित नहीं है। जो पानी यहां उपलब्ध है, उसका अधिकांश भाग सिंचाई करने व पानी पीने के लिए उपयुक्त नहीं है। राज्य के 32 में से 30 जिले किसी न किसी रूप से पानी में फ्लोराइड की समस्या से ग्रस्त हैं। कई जिलों में तो हालात बेहद खराब है और लोग इससे गंभीर रूप से प्रभावित हो रहे हैं। खारे पानी की समस्या भी यहां व्यापक स्तर पर है। राजस्थान में जल संकट को दूर करने के लिए परंपरागत जल स्रोतों को फिर से ध्यान देकर जल संग्रहण क्षेत्रों को बढ़ाना होगा। जल पुरूष राजेंद्र सिंह ने यह सब करके दिखाया है। जब वे अलवर जिले में इसका सफल प्रयोग कर सकते हैं तो राज्य के बाकी हिस्सों या यूं कहें देश भर में इस तरह का अभियान क्यों नहीं चलाया जाता। इसके अलावा इस समस्या के समाधान का और कोइ रास्ता भी नहीं है।