रविवार, फ़रवरी 22, 2009

रणछोड़ शेखावत


भाजपा को हिला देने वाले बाबोसा के बवंडर ने राह बदल ली है। शेखावत ने लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर मैदान से हटने के संकेत दे दिए हैं। उन्होंने महारानी से हार मान ली है या आडवाणी की वेटिंग क्लियर करने के लिए ऐसा किया है? भैरों सिंह के बदलते रुख की असल वजह तलाशती अंतर्कथा!

उस दिन भैरों सिंह शेखावत कुछ घंटे के लिए ही दिल्ली में 31, औरंगजेब रोड स्थित अपने सरकारी आवास पर रुके थे, पर बड़ा धमाका कर गए। धमाका भी ऐसा जिससे समूची भाजपा थर्रा गई। सबसे ज्यादा असर हुआ लालकृष्ण आडवाणी पर। वैसे शेखावत के निशाने पर वे कभी नहीं थे। उनका निशाना तो वसुंधरा राजे पर था। महारानी को राजस्थान की राजनीति से रुखसत करने के मकसद से ही बाबोसा बवंडर बने थे। बवंडर तेजी से आगे भी बढ़ा। एक बार तो लगा राजपूताने इस के इस ठाकुर की फतह पक्की है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। असल लड़ाई में उतरने से पहले ही उन्होंने एक कदम पीछे हटते हुए लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे का ऐलान कर दिया है। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने संभावित हारे से बचने के लिए यह निर्णय लिया है, क्योंकि उम्र और सियासत के इस पड़ाव पर शेखावत सरीखे कद्दावर राजनेता से यह आशा नहीं की जा सकती है कि वे राजनीति में फुलझडिय़ां छोड़ेंगे और तमाशा करेंगे अथवा प्रतिक्रिया में बोलेंगे।
भैरों सिंह शेखावत को शुरूआत से ही चतुर राजनीतिज्ञ माना जाता है। 11 बार विधायक, तीन बार राजस्थान के मुख्यमंत्री और देश के उपराष्ट्रपति बनने तक उन्होंने कई बार अपनी इस चतुराई को सफलतापूर्वक काम में लिया। एक जमाना था जब जोड़-तोड़ की राजनीति में सिद्धहस्त भाजपाईयों में शेखावत शीर्ष में गिने जाते थे। पर राष्ट्रपति चुनाव में राजनीति के इस मंझे हुए खिलाड़ी की पूरी गणित गड़बड़ा गई और हार गए। इस हार से उन्होंने यह सबक तो सीख ही लिया कि राजनीति में फंसने की स्थिति से बचना चाहिए। महारानी को मात देने के मामले में उन्होंने इसे काम में भी लिया। उन्होंने वसुंधरा पर निशाना साधते वक्त 'यदि स्वास्थ्य ने साथ दिया तो चुनाव जरूर लडूंगा।' कहते हुए बड़ी चतुराई से सक्रिय राजनीति में आने की मंशा जाहिर की थी। हालांकि चुनाव लडऩे के लिए सेहत से ज्यादा राजनीतिक स्वास्थ्य का सही होना ज्यादा जरूरी है। शेखावत के मामले में तो दोनों ही साथ नहीं दे रहे हैं। लिहाजा उन्होंने चुनाव नहीं लडऩे की घोषणा कर दी।
शेखावत के चुनाव नहीं लडऩे के फैसले के पीछे उनके स्वास्थ्य से ज्यादा महत्त्वपूर्ण और कई वजह हैं। दरअसल, महारानी को मात देने की मुहीम में शेखावत की शुरूआत तो शानदार रही, लेकिन बाद में वे अपनी व्यूह-रचना में खुद ही उलझते चले गए। उन्होंने लोकसभा चुनाव लडऩे का ऐलान तो इस मकसद से किया था कि वे राजस्थान की राजनीति में एक बार फिर से सक्रिय हो वसुंधरा का पत्ता साफ कर देंगे, पर उनका यह कदम लालकृष्ण आडवाणी और राजनाथ सिंह के लिए चुनौती बन गया। शेखावत के बयान 'यदि जनता ने चाहा ता प्रधानमंत्री भी बनूंगा' से आडवाणी के कान खड़े हो गए। उधर, राजनाथ सिंह को एक बड़े राजपूत नेता के फिर से पार्टी में सक्रिय होने से स्वयं की सियासत पर संकट नजर आने लगा। हालांकि शेखावत ने कई मर्तबा स्पष्ट किया कि आडवाणी से उनके मित्रवत संबंध हैं और वे प्रधानमंत्री बनने के लिए उनके साथ दौड़ में नहीं हैं। राजनाथ सिंह से वे जरूर 'गंगा स्नान और कुए के पानी' संबंधी बयान से नाराज थे। लिहाजा उन्हें 'जब राजनाथ सिंह पैदा भी नहीं हुए थे, तब से राजनीति में हूं' कहते हुए आड़े हाथों भी लिया। शेखावत के तल्ख रुख को देखते हुए राजनाथ सिंह ने मामले को रफा-दफा करने की कोशिश भी की। शेखावत यह समझ कर बात को भूल गए कि पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार महारानी को मात देने में उनकी मदद करेंगे। लेकिन आडवाणी और राजनाथ सिंह ने उन्हें हाशिए पर रखने की रणनीति पर पहले से ही काम शुरू कर दिया था। जिस समय शेखावत, गहलोत सरकार से वसुंधरा राजे के खिलाफ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच की मांग कर रहे थे, उस समय भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने महारानी का साथ देने का फैसला दिया था। इतना ही नहीं लोकसभा चुनाव में शेखावत को पार्टी की ओर से उम्मीदवार बनाए जाने की संभावना पर भी किसी नेता ने हामी नहीं भरी।
शेखावत की रणनीति को एनकाउंटर करने के लिए वसुंधरा राजे का तरीका पूरी तरह कारगर रहा। वैसे उन्हें शेखावत की सक्रियता से आडवाणी और राजनाथ सिंह को नुकसान होने की आशंका का भी फायदा मिला। बाबोसा ने कितनी भी कोशिश कर ली, लेकिन भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व उनके पीछे ही खड़ा रहा। शेखावत के न चाहते हुए भी महारानी को नेता प्रतिपक्ष बना दिया और फिर लोकसभा चुनाव के लिए फ्रीहैंड भी दे दिया। विधानसभा चुनाव तक शेखावत के खिलाफ तल्ख टिप्पणी करने वाली वसुंधरा बदले हालातों में चुप्पी साधे रहीं। जब उनसे शेखावत के बारे में पूछा जाता तो वे इतना ही कहती कि 'वे हमारे वरिष्ठ नेता हैं, हमारे मार्गदर्शक हैं।' गहलोत सरकार द्वारा उनके कार्यकाल में हुए कथित भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोग गठित करने पर भी उन्होंने इतना ही कहा कि 'मुझे जांच से कोई आपत्ति नहीं है, मैं तो पहले भी चांज के लिए कहती रही हूं।' इसी दौरान वसुंधरा खेमे ने शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी के उस प्रस्ताव को भी सार्वजनिक कर दिया जिसमें उन्होंने राजनाथ सिंह से उन्हें नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने की स्थिति में भाजपा की सरकार बनाने का दावा किया था। सांसद रामदास अग्रवाल ने तो इसके लिए एक पत्र भी राजनाथ सिंह को लिखा। इससे लोगों में यह मैसेज गया कि भैरों सिंह दामाद को मुख्यमंत्री बनाने के मकसद से काम कर रहे हैं। राजनीति में शुद्धता की बात तो वे यूं ही कर रहे हैं।
शेखावत ने जब महारानी के खिलाफ अभियान छेड़ा था तो उन्हें उम्मीद थी कि उनके विरोधी एक-एक करके उनके पाले में आते जाएंगे, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। वसुंधरा विरोधी खेमें ने उनसे संपर्क तो साधा, पर खुले तौर पर साथ नहीं दिया। ऐसे में शेखावत के पास चुनाव लडऩे से इंकार करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था, क्योंकि यदि वे निर्दलीय चुनाव लड़ते तो जीत की संभावनाएं काफी क्षीण हो जाती। शेखावत उम्र के इस पड़ाव पर हार बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं हैं। जब हमने चुनाव नहीं लडऩे की वजह जाननी चाही तो वे तपाक से बोले 'मैंने तो पहले भी कहा था, स्वास्थ्य ने साथ दिया तो चुनाव लडूंगा। तबियत कई दिन से नासाज है, इसलिए लोकसभा चुनाव नहीं लडऩे का फैसला किया है। वैस भी मेरा ज्यादा ध्यान चुनाव लडऩे की बजाय राजनीति से भ्रष्टाचार का सफाया करने की ओर है। भ्रष्टाचार के खिलाफ मैं अपनी मुहिम जारी रखूंगा।' आडवाणी से प्रतिद्वंद्विता के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने अगर-मगर कह इतना ही कहा कि 'आडवाणी मेरे पुराने मित्र हैं, उनसे प्रतिद्वंद्विता कैसी। मैंने कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री की दौड़ में हूं। प्रधानमंत्री वही बनेगा जिसे जनता चाहेगी।'

रविवार, फ़रवरी 08, 2009

ऑपरेशन 'एम'


जहां ललित मोदी को राजस्थान क्रिकेट संघ से बाहर का रास्ता दिखाकर सरकार वसुंधरा राजे को एक और शिकस्त देना चाहती है वहीं, मोदी आरसीए में स्वयं का वजूद बचाए रखने के साथ-साथ महारानी की नाक बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। समूचे विवाद की परतें खोलती रिपोर्ट!

विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस का नारा 'मोदी, मुद्रा, मदिरापान याद रखेगा राजस्थान' खासा चर्चित रहा था। पार्टी के सत्ता में आते ही इस बात के संकेत मिल गए थे कि वसुंधरा राजे के कार्यकाल का पोस्टमार्टम इन तीन 'एम' के इर्द-गिर्द होना तो तय है। लिहाजा, ऑपरेशन 'एम' शुरू हुआ। पहले दौर में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने शराब की दुकानों के समय में कटौती कर नशे पर नकेल कसी। दूसरे दौर में पिछली सरकार में हुए भ्रष्टाचार की जांच के लिए आयोग का गठन हुआ। मदिरा और मुद्रा के बाद अब तीसरे 'एम' यानि मोदी की बारी है। जी हां, ललित मोदी को राजस्थान क्रिकेट संघ (आरसीए) से विदा करने की पूरी तैयारी हो गई है। हालांकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने यह कहते हुए समूचे मसले से पल्ला झाडऩे की कोशिश की है कि सरकार खेलों में राजनीति हस्तक्षेप नहीं करेगी। लेकिन, कल तक मोदी के दाएं-बाएं रहने वाले आरसीए सचिव सुभाष जोशी शायद ही कभी अपने दम पर बगावत का झंडा बुलंद कर पाते। जाहिर तौर पर सरकार उनके पीछे है। इसकी वजह भी है। पिछले चार साल में ललित मोदी कांग्रेस की आंखों में नश्तर की तरह चुभते रहे। हालांकि मोदी जिला संघों के पदाधिकारियों को अपने पाले में ही रखने के लिए पूरा दम लगा रहे हैं, लेकिन पिछली बार की तरह सरकार उनके साथ नहीं है।
ललित मोदी का क्रिकेट प्रेम नया नहीं है। 1990 में तो उन्होंने बीसीसीआई के तत्कालीन अध्यक्ष माधवराव सिंधिया के सामने इंडियन प्रीमियर लीग का पहला प्रस्ताव रख दिया था। हालांकि उस समय उनका यह आइडिया पूरी तरह फ्लॉप हो गया था। मोदी ने कई बार दुबारा भी कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी। इस दौरान उनकी नजदीकियां इंद्रजीत सिंह बिंद्रा से बढ़ गईं। बिंद्रा ने उन्हें एक ही मंत्र दिया, 'कुछ करना है तो बीसीसीआई में घुस जाओ।' मोदी ने जब बीसीसीआई में जाने की संभावनाओं को तलाशा तो नजरें राजस्थान पर आकर अटक गईं। इसकी बड़ी वजह वसुंधरा राजे का मुख्यमंत्री होना था। गौरतलब है कि महारानी और मोदी के बीच पारिवारिक संबंध हैं। मोदी ने राजस्थान में क्रिकेट का कर्ता-धर्ता बनने की ठान ली। जिला संघों के पदाधिकारियों से संपर्क साधा। अपने पक्ष में करने के लिए साम-दाम का जमकर प्रयोग किया। सरकार ने भी पूरा साथ दिया। कानून तक बदल डाला। आरसीए में वोटर की हैसियत रखने वाले अधिकारियों को मोदी के पक्ष में वोट डालने के लिए कहा गया। आखिरकार वे राजस्थान की क्रिकेट में वर्षों से चले आ रहे रूंगटा राज को समाप्त करने में सफल रहे और 21 फरवरी, 2005 को हुए आरसीए के चुनाव में अध्यक्ष बन गए। आरसीए अध्यक्ष बनते ही उनकी किस्मत ही पलट गई। उस समय शरद पवार की अगुवाई में जगमोहन डालमिया को बीसीसीआई से विदा करने की तैयारी चल रही थी। मौके की नजाकत को समझते हुए मोदी पवार के साथ हो लिए। पवार ने जीतते ही उन्हें बीसीसीआई का उपाध्यक्ष बना दिया। उन्होंने जल्द ही आईपीएल पर भी बोर्ड की मुहर लगवा ली। आईपीएल को जबरदस्त कामयाबी मिली और ललित मोदी 'हीरो' बन गए।
क्रिकेट में मोदी की सफलता को यहीं छोड़ बात राजस्थान की ही करें तो पिछले चार साल में वे कई कारणों से विवादों में घिरे रहे। ज्यादातर विवाद वसुंधरा राजे की नजदीकियों के चलते ही हुए। दरअसल, सरकार मोदी पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान रही। भाजपा के एक बड़े नेता ने नाम नहीं छापने की शर्त पर बताया कि 'वसुंधरा राजे कॉर्पोरेट सबंधी मसलों को ललित मोदी के मशवरे के बिना नहीं निपटाती थीं। कई मामलों में तो अकेले मोदी ने ही निर्णय लिया। मुख्यमंत्री के निर्देश पर सरकारी अफसर तक फाइल लेकर मोदी के पास जाते थे... कई मामलों में वे वसुंधरा राजे का दूसरा चेहरा थे।' वसुंधरा सरकार ने आमेर की कई बेशकीमती हवेलियां ओने-पोने दामों में मोदी के पारिवारिक सदस्यों के नाम कर दीं। एक बड़ा हंगामा पाकिस्तान क्रिकेट टीम के दौरे के समय हुआ। दौरे का अंतिम मैच जयपुर के सवाई मान सिंह स्टेडियम में था। मैच शुरू होना वाला था। लोग स्टेडियम में प्रवेश कर रहे थे। मोदी मेहमानों का स्वागत करने के लिए मुख्य द्वार पर खड़े थे। तभी वरिष्ठ आईएएस अधिकारी महेंद्र सुराणा के प्रवेश को लेकर विवाद खड़ा हो गया। मोदी ने सुराणा से गाली-गलोच करते हुए कहा कि 'यह स्टेडियम मेरा है, मैं जिसे चाहूं उसे ही एंट्री मिलेगी।' हाथापाई पर आमादा मोदी ने यह कहते हुए सीएम को फोन मिलाया कि 'आईएएस है... मेरे राज में दादागिरी करता है... अभी सीएम को कहता हूं... अभी संस्पेंड कराता हूं।' दरअसल, महेंद्र सुराणा अपने एक रिश्तेदार के साथ मैच देखने आए थे। जयपुर में क्रिकेट एकेडमी चलाने वाला उनका यह रिश्तेदार रूंगटा गुट का व्यक्ति माना जाता है। अपने विरोधी गुट के व्यक्ति को देखकर मोदी तिलमिला गए और आपा खो बैठे। आईपीएल के दौरान जयपुर में हुए मैच भी विवादों से नहीं बच पाए। एक मैच के दौरान आरसीए की ओर से मेहमानों को खुले तौर पर शराब परोसी जा रही थी। कुछ विदेशी मेहमानों ने तिरंगे के ऊपर रखकर खूब जाम छलकाए। जब मीडिया में यह बात आई तो हंगामा खड़ा हो गया। मोदी के खिलाफ मुकदमे भी दर्ज हुए।
सार्वजनिक हुए विवादों को छोड़ हमने जब मोदी के कार्यकाल की पड़ताल की तो कई कमजोर कडिय़ां सामने आईं। मोदी के आरसीए अध्यक्ष का चुनाव लडऩे में आई कानूनी अड़चन को दूर करने के मकसद से उनके नाम नागौर में खरीदी गई जमीन पर भी संदेह हो रहा है। जमीन के सौदे के दौरान मोदी कभी भी नागौर नहीं गए, फिर रजिस्ट्री में उनके हस्ताक्षर किसने किए और अंगूठे का निशान किसने लगाया? अब आरसीए के ही एक पदाधिकारी ने मोदी के खिलाफ फर्जी रजिस्ट्री का मामला दर्ज कराया है। आरसीए अध्यक्ष बनने के बाद मोदी ने मनमाफिक संविधान बनाने के लिए संघ की बैठक बुलाई। इस बैठक में भीलवाड़ा, डूंगरपुर, जयपुर, झुंझुनू व जोधपुर जिलों के पदाधिकारी नहीं आए थे, लेकिन इनके हस्ताक्षर संविधान पर हो गए, ये हस्ताक्षर किसने किए? फटाफट क्रिकेट के संस्करण आईपीएल में भी ललित मोदी की भूमिका संदेहास्पद रही। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने अफ्रीका में रहने वाले अपने बहनोई एवं अन्य रिश्तेदारों के माध्यम से राजस्थान रॉयल्स, किंग्स इलेवन एवं कोलकाता नाइट राइडर्स में पैसा लगाया।
ललित मोदी यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि 'मैंने आज तक क्रिकेट का एक पैसा नहीं खाया, जबकि राजस्थान में क्रिकेट सुविधाओं के विकास पर करोड़ों रुपए लगा चुका हूं।' यह बात सही है कि मोदी के कार्यकाल में ही सवाई मान सिंह स्टेडियम को विश्वस्तरीय स्वरूप मिला और अंतरराष्ट्रीय स्तर की क्रिकेट एकेडमी का निर्माण हुआ, लेकिन यह सब मोदी ने अपने पैसे से नहीं किया। पूरा पैसा बीसीसीआई ने दिया। यह बात अलग है कि मोदी के बीसीसीआई उपाध्यक्ष और आईपीएल कमिश्नर होने की वजह से आरसीए को अन्य राज्यों के क्रिकेट संघों से ज्यादा पैसा मिला। राज्य में क्रिकेट की सत्ता संभालते वक्त मोदी ने कहा था कि वे राजस्थान में कम से कम पांच टैस्ट क्रिकेटर बनाएंगे, पर फिलहाल तो राज्य की रणजी टीम एलीट गु्रप से खिसक कर प्लेट ग्रुप में पहुंच गई है। प्रत्येक सत्र में मोदी ने अपनी मर्जी से बाहरी खिलाडिय़ों को राजस्थान की टीम में खेलने के लिए भेजा। टीम के सदस्यों से पूछा तक नहीं गया। वर्तमान सत्र में वेणुगोपाल राव को खेलने के लिए बुलाया गया। आरसीए ने खूब पैसा भी दिया। पर प्रदर्शन बेहद खराब रहा। बीच में उन्हें हटाने की मांग भी उठी, लेकिन मोदी ने किसी की नहीं सुनी। मोदी ने राजस्थान में क्रिकेट के विकास के नाम पर जो सुविधाएं विकसित कीं, उनका भी जमकर दुरूपयोग हुआ। फ्यूचर अकेडमी खिलाडिय़ों की नर्सरी की जगह अय्याशी का अड्डा बन गई। कोई भी पैसे देकर यहां ठहरने लगा।
सूबे की सत्ता कांग्रेस के हाथों में आते ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि मोदी का आरसीए में टिक पाना मुश्किल होगा। केबीनेट मंत्री हेमाराम चौधरी को आरसीए का संरक्षक बना सुभाष जोशी ने एक तरह से सरकार की मदद मांगी। सूत्रों के मुताबिक सरकार के आश्वासन के बाद ही जोशी ने बगावत की है, लेकिन गहलोत खुलकर मोदी की खिलाफत करने से बच रहे हैं। दरअसल, गहलोत के काम करने का तरीका ही यही है। वे अति सक्रिय होकर लोगों की नजरों में सरकार को पार्टी नहीं बनाना चाहते। वैसे मोदी को आरसीए से बाहर करना आसान नहीं है, क्योंकि मोदी के भाजपा ही नहीं कांग्रेस के भी कई बड़े नेताओं से अच्छे संबंध हैं। बीसीसीआई में भी उनकी तूती बोलती है। जहां मोदी अपने इन रसूखों के सहारे आरसीए अध्यक्ष पद पर बरकरार रहने का विश्वास जता रहे हैं वहीं, विरोधी खेमा उनकी विदाई की तैयारी कर रहा है। आरसीए में अस्तित्व की यह लड़ाई पूरे क्लाइमेक्स पर है। इसका हैप्पी एंड किसके लिए होगा, यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा।