शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

शेखावत की सनसनी


सूबे की सियासत में भैरों सिंह शेखावत की सक्रियता से वसुंधरा खेमा स्तब्ध है। महारानी को राजनीति में 'एंट्री' दिलाने वाले शेखावत अब उन्हें 'आउट' करने में जुटे हैं। आखिर क्यों आई दोनों के मधुर रिश्तों में खटास?

भैरों सिंह शेखावत। ग्यारह बार विधायक चुने गए। तीन बार मुख्यमंत्री रहे। और फिर देश के उपराष्ट्रपति बने। राजनीति का ऐसे मंझे हुए खिलाड़ी से किसी गलती की उम्मीद करना बेमानी है। लेकिन उनसे गलती हुई। गलती सियासत का वारिस चुनने में। इस गलती को उन्होंने मान भी लिया है और ठीक करने की मुहीम भी शुरू कर दी है। संकेतों को छोड़ सीधी बात करें तो भैरों सिंह शेखावत ने वसुंधरा राजे को सूबे की सियासत से विदा करने के योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है। शेखावत ने वसुंधरा को राजस्थान से हटाने और पार्टी के शुद्धिकरण की बात कहकर भाजपा में भूचाल ला दिया है। उन्होंने वसुंधरा के नेतृत्व वाली पूर्व सरकार के खिलाफ 22 हजार करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में करा पूरा पैसा दोषियों से वसूलने की मांग करके पार्टी के लिए नया संकट खड़ा कर दिया है। शेखावत के राजस्थान से लोकसभा का चुनाव लडऩे की घोषणा करने के बाद भले ही राजनैतिक विश्लेषक इसे आडवाणी के लिए खतरा और राजनाथ सिंह के लिए चुनौती बता रहे हों, लेकिन भैरों सिंह को करीब से जानने वालों की मानें तो उनका निशाने पर केवल वसुंधरा हैं। वे उन्हें राजस्थान से विदा करके ही दम लेंगे। 'बाबोसा' के तीखे तेवरों से घबराई महारानी यह पता लगाने में जुटी हुई हैं कि शेखावत किस बात से नाराज हुए हैं? कौनसा फैसला उन्हें खटक गया है?
वसुंधरा राजे को सियासत में सफलता का स्वाद चखाने का श्रेय भैरों सिंह शेखावत को ही जाता है। वसुंधरा भिंड-मुरैना से लोकसभा का चुनाव हारने के बाद शेखावत के संपर्क में आईं। राजमाता विजयराजे सिंधिया की बेटी होने के कारण शेखावत ने भी उनकी तरफ पूरा ध्यान दिया और 1985 के विधानसभा चुनाव में धौलपुर से टिकट दिया। वसुंधरा यहां से जीत तो गईं, लेकिन शेखावत इससे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने वसुंधरा को लोकसभा में भेजने के लिए झालावाड़ में मैदान तैयार किया। यहां से 1989 में पहली बार जीतने के बाद महारानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे यहां से लगातार पांच बार सांसद रहीं। इस दौरान शेखावत उपराष्ट्रपति का चुनाव जीत गए। राजस्थान से विदा होने से पहले शेखावत ने एक ऐसे नेता की तलाश शुरू की जो उनकी राजनीतिक विरासत को संभाल सके। आखिर में वसुंधरा को उन्होंने अपना वारिस बनाया। युवा, तेजतर्रार और भरोसेमंद मानकर शेखावत अपनी विरासत उन्हें संभला गए। विधानसभा चुनाव नजदीक थे। पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया। चुनावों में महारानी का जादू चला और भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल करते हुए 120 सीटें हासिल कीं। वसुंधरा राज्य की पहली मुख्यमंत्री बनीं। शेखावत और महारानी के बीच गुरू-शिष्य परंपरा ने यहीं से दम तोडऩा शुरू कर दिया।
राजनीति में सत्ता का सुरूर बहुत जल्दी सिर चढ़ता है। वसुंधरा ने सत्ता संभालते ही पार्टी अपना अलग कैडर विकसित करने की चाहत से शेखावत समर्थकों को किनारे करना शुरू किया। शेखावत का दूत बनकर जसवंत सिंह ने कई बार रिश्तों में आई खटास में चाशनी घोलने की कोशिश की, लेकिन बात बनने की बजाय बिगड़ती ही गई। तवज्जो नहीं मिलने सेे जसवंत सिंह नाराज अलग से हो गए। उन्होंने विरोधी खेमे को लामबंद कर मोर्चा खोल लिया। शेखावत के विश्वस्त होने के नाते पार्टी के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी भी उनके साथ हो लिए। वसुंधरा सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की जाने लगी। सांसद कैलाश मेघवाल ने तो मुख्यमंत्री पर करोड़ों के घोटाले का आरोप जड़ दिया। मेघवाल, शेखावत के खास सिपेहसालार हैं। वे उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में तीनों बार मंत्री रहे। इन बयानों ने वसु मैडम के तेवरों को और तीखा कर दिया। उन्होंने ललित किशोर चतुर्वेदी की जगह महेश शर्मा को सूबे में पार्टी का निजाम बनवाकर विरोधियों को पस्त करने का कोशिश की, लेकिन इससे अदावत और तेज हो गई।
गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान दोनों खेमों के बीच रिश्ते और पेचीदा हो गए। सूत्रों के मुताबिक आंदोलन के दौरान उपजे हालातों से शेखावत काफी व्यथित थे। उन्होंने इसके लिए वसुंधरा राजे को जिम्मेदार ठहराते हुए केंद्रीय नेतृत्व से राज्य में मुख्यमंत्री बदलने की मांग भी की। राजस्थान के कई भाजपा नेताओं ने नेतृत्व परिर्वतन की मांग को लेकर दिल्ली में डेरा डाले रखा। राजनाथ सिंह तो एक बार वसुंधरा को विदा पर राजी हो गए थे, लेकिन आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हुए। मामले को दबाने के लिए फेरबदल के नाम पर महेश शर्मा की जगह ओम माथुर प्रदेशाध्यक्ष बना दिया। ओम माथुर के साथ काम करने में भी महारानी ने काफी ना-नुकर किया। लालकृष्ण आडवाणी तक से गुहार लगाई कि चुनाव से ऐन पहले कोई परिवर्तन करना सही नहीं है। लेकिन राजनाथ सिंह ने निर्णय नहीं बदला। विरोधी खेमा अभी भी महारानी की विदाई की कोशिश कर रहा था। एक-दूसरे की ओर से तल्ख टिप्पणियां भी हो रही थीं। वसुंधरा ने बोखलाहट में पार्टी के दिग्गज नेताओं को 'खंडहर' तक कह दिया। उनका सीधा इशारा भैरों सिंह शेखावत की ओर ही था। कुलीनों का कुनबा कही जाने वाली भाजपा में पार्टी स्तर पर इतनी तल्ख बयानबाजी पहली बार देखने को मिली।
उपराष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल समाप्त होने के बाद शेखावत समर्थकों ने उन पर फिर से राज्य की राजनीति में सक्रिय होने का दबाव बनाना शुरू किया, लेकिन वे इसे टालते रहे। राज्य के अलग-अलग हिस्सों से नेता और कार्यकर्ता बड़ी संख्या उनसे वसुंधरा सरकार की कार्यशैली का विरोध जताने आने लगे। कई लोग तो यहां तक उलाहना देते थे कि 'बाबोसा आप ही लाए थे इन्हें'। इस बीच चुनाव का समय नजदीक आ गया। टिकट की मारामारी शुरू हो गई। लाख कोशिशों के बाद भी शेखावत के कुछ ही समर्थक टिकट पाने में कामयाब रहे। उन्हें अपने दामाद नरपत सिंह राजवी को टिकट दिलवाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी। सूत्रों के मुताबिक शेखावत की गुहार पर राजनाथ सिंह के दखल के बाद राजवी का टिकट दिया गया। राजवी को यह कहकर टिकट देने में आनाकानी की गई कि किसी को भी सीट बदलने की इजाजत नहीं दी जाएगी। जबकि राजेंद्र सिंह राठौड़ का नाम बदली हुई सीट पर पहली लिस्ट में ही फाइनल हो गया। इतना ही नहीं राजवी को हराने के लिए भी कई भाजपाईयों ने खूब कोशिश की। पार्टी सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा नहीं चाहती थीं कि राजवी जीतें। अपने दामाद की हालत पतली होते देख आखिर में प्रचार अभियान की कमान शेखावत को संभालनी पड़ी। सभाएं की, जनसंपर्क किया, फोन किए। राजवी तो जीत गए, लेकिन शेखावत की टीस और गहरी हो गई।
विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद शेखावत ने वसुंधरा को राजस्थान की राजनीति से विदा करने का पूरा प्रयास किया। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने राजनाथ-आडवाणी के सामने भाजपा की हार के लिए जिम्मेदार वसुंधरा की कारिस्तानियों का तफसील से ब्योरा रखा। उन्होंने लोकसभा चुनावों का वास्ता देकर वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाने की बात भी कही। पर उनकी एक नहीं सुनी गई। पार्टी स्तर पर हर मोर्चे पर लगातर हुई उपेक्षा से आहत शेखावत का लावा उस समय फूट पड़ा जब कोटा में उनके समर्थकों ने वसुंधरा सरकार की कारगुजारियों के लिए उन्हें ब्लेम किया। शेखावत ने लोकसभा चुनाव लडऩे की घोषणा करते हुए वसुंधरा पर खूब बरसे। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि मैं ही उन्हें राजस्थान की राजनीति में लाया था, लेकिन उनके नेतृत्व में सरकार राह भटक गई और लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने वसुंधरा को विदा करने की बात भी कही। शेखावत को करीब से जानने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे जो कहते हैं कर गुजरते हैं। शेखावत बयान देकर ठहरने वालों में से नहीं हैं। अब सिर्फ यह देखना बाकी है कि वे अपने कहे को अंजाम तक कैसे पहुंचाते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें