शनिवार, मई 30, 2009

ओला के बहाने


शीशराम ओला को केंद्रीय मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलना सूबे की जाट राजनीति में बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहा है। राजस्थान में कांग्रेस की नई जाट लॉबी जन्म ले चुकी है। पार्टी पुराने चेहरों से तौबा कर युवाओं पर दांव खेल रही है। किसका दिमाग है इसके पीछे? अंदर की कहानी!

शेखावाटी। राजस्थान का जाट बाहुल्य इलाका। देश की सेना में ही नहीं, राजनीति में भी यहां की तूती बोलती है। सरकार चाहे किसकी भी हो शेखावाटी की भागीदारी हमेशा दमदार रहती है। परंपरागत रूप से इस क्षेत्र को कांग्रेस का गढ़ माना जाता है, लेकिन पिछले कुछ चुनावों में भाजपा इसमें सेंध लगाने में कामयाब रही। हालांकि हाल ही में हुए आम चुनावों में कांग्रेस ने अपने पुराने गढ़ पर फिर से कब्जा जमा लिया है। कांग्रेस के प्रदर्शन में आए उतार-चढ़ाव के बीच एक ऐसे नेता भी रहे जिन्होंने अपने क्षेत्र में हमेशा पार्टी का झंडा बुलंद रखा। जी हां, हम बात कर रहे हैं दिग्गज जाट नेता शीशराम ओला की। ओला झुंझुनूं से लगातार पांचवीं बार सांसद चुने गए हैं। इससे पहले पहले वे दो दफा विधायक भी रह चुके हैं। दो-दो बार केंद्र व राज्य में मंत्री भी रहे हैं।
पंद्रहवीं लोकसभा के नतीजे आ रहे थे तो ओला के घर जश्न का माहौल था। जश्न महज सांसद बनने का नहीं था, बल्कि कैबीनेट मंत्री बनने की संभावनाओं का था। जो भी बधाई देने आ रहा था वो यह ही कह रहा था, 'इस बार तो कैबीनेट मिनिस्ट्री पक्की है।' स्वयं ओला को भी इस बात का पूरा यकीन था कि चुनावों में कांग्रेस के बेहद अच्छे प्रदर्शन का इनाम उन्हें भी मिलेगा और प्रमोशन के तौर पर उन्हें कैबीनेट मंत्रालय मिलेगा, लेकिन हुआ इसका उलट। कैबीनेट की उम्मीद लगाए बैठे ओला को सरकार में राज्य मंत्री के रूप में भी जगह नहीं मिली। उन्होंने अपने स्तर पर खूब हाथ-पांव मारे, लेकिन कोई भी उनका साथ देने को कोई तैयार नहीं हुआ। वे जहां भी गए उन्हें निराशा ही हाथ लगी।
ओला के दरकिनार होने के एक नहीं कई कारण हैं। अशोक गहलोत के साथ छत्तीस का आंकड़ा उन्हें इस बार भारी पड़ गया। गौरतलब है कि ओला और गहलोत में कभी नहीं बनी। कई मौकों पर तो दोनों के बीच की खींचतान सार्वजनिक तौर पर दिखी गई। ताजा उदाहरण विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर हुई दावेदारी का है। इस दौरान ओला ने न सिर्फ मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदारी पेश की, बल्कि उनके समर्थकों ने पार्टी पर्यवेक्षकों के सामने गहलोत के विरोध में जमकर नारेबाजी भी की। दरअसल, ओला की राजनीति महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं है। उनके मन में राजस्थान का मुख्यमंत्री बनने का सपना आज से नहीं, बरसों से है। अशोक गहलोत के आने से उनके इस सपने को ग्रहण लग गया। इसलिए वे हमेशा गहलोत विरोधी खेमे की ओर ही रहे। उन्होंने गहलोत को सूबे की सियासत से रुखसत करने की जी तोड़ कोशिश की। गहलोत पर जाट विरोधी होने का ठप्पा लगाना भी इसी मुहीम का एक हिस्सा था, पर उन्हें सफलता नहीं मिली।
मुख्यमंत्री बनने तक गहलोत, ओला के खिलाफ सुरक्षात्मक मुद्रा में रहे, लेकिन इसके बाद वे आक्रामक हो गए। लोकसभा चुनावों में टिकट वितरण के समय ही गहलोत ने ओला को किनारे करने की पूरी व्यूह रचना रच ली थी। सूबे में जितने भी जाट नेताओं को टिकट दिया गया, ओला को छोड़कर सभी गहलोत की पसंद के थे। ये सब जीतने में भी सफल रहे। केंद्र में सरकार बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई तो मंत्री बनने-बनाने की लॉबिंग में ओला के साथ इनमें से कोई जाट नेता खड़ा नजर नहीं आया। गहलोत ने इस बात का भी ख्याल रखा कि ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने से कहीं जाट नाराज न हो जाएं, इसलिए उन्होंने सीकर सांसद महादेव सिंह खंडेला को मंत्री बनवा दिया। खंडेला, गहलोत के खास सिपेहसालार हैं।
ओला को साइडलाइन कर खंडेला को मंत्री बनवाकर गहलोत ने विधानसभा चुनाव के दौरान शुरू की गई रणनीति को ही आगे बढ़ाया है। इसके तहत गहलोत राजस्थान में नई जाट लॉबी को सक्रिय करने पर काम कर रहे हैं। उन्हें इसमें काफी हद तक सफलता भी मिली है। शीशराम ओला के अलावा नारायण सिंह, कमला बेनीवाल, हरेंद्र मिर्धा, कर्नल सोनाराम, रिछपाल मिर्धा, डॉ. हरि सिंह, रामेश्वर डूडी, राजेंद्र चौधरी सरीखे गहलोत विरोधी नेताओं को कांग्रेस में किनारे किया जा रहा है। कुछ विधानसभा चुनाव में अलग-थलग हो गए, तो कुछ को लोकसभा चुनाव ने पीछे धकेल दिया है। इन नेताओं ने कभी भी गहलोत का समर्थन नहीं किया, उल्टे विधानसभा चुनाव से पहले आलाकमान तक भी ऐसी खबरें पहुंचाई थीं कि गहलोत के रहते जाट कांग्रेस के साथ नहीं आएंगे। नतीजों के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर भी इन नेताओं ने गहलोत का विरोध किया था, लेकिन आखिर में आलाकमान ने उन्हीं के नाम पर मुहर लगाई। मुख्यमंत्री बनने के बाद जाट राजनीति पर भी गहलोत का जादू असरकारी साबित हो रहा है। गहलोत के साथ अब जाट नेताओं की लंबी-चौड़ी फौज खड़ी है। महादेव सिंह खंडेला, हरीश चौधरी, ज्योति मिर्धा, बद्रीराम जाखड, लालचंद कटारिया, विश्वेंद्र सिंह, डॉ. चंद्रभान, रामलाल जाट, महेंद्र चौधरी, वीरेंद्र बेनीवाल, रीटा चौधरी, रूपाराम डूडी सरीखे जाट नेता गहलोत के बेहद करीबी हैं। राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील को वे पहले ही उनके पाले में आ चुके हैं। गहलोत के साथ खड़े जाट नेता संख्या और ताकत दोनों में ही विरोधी खेमें से मजबूत हैं। ये नेता युवा हैं और लोगों में इनकी अच्छी पकड़ है। गहलोत के लिए सबसे बड़ी राहत की बात यह है कि इनमें से कई राहुल गांधी की भी पसंद हैं।
प्रदेश की जाट राजनीति को अपने हाल पर छोड़ शीशराम ओला पर वापिस आएं तो इस बार मंत्री पदों को लेकर कांग्रेस ने डीएमके के साथ जिस तरह से कड़ा रुख अपनाया उससे साफ हो गया था कि मनमोहन सिंह और राहुल गांधी मंत्रियों की योग्यता पर विशेष ध्यान दे रहे हैं। ओला के पास कोई विशेष शैक्षणिक योग्यता नहीं है। वे महज मेट्रिक पास हैं। 82 साल की उम्र भी उनके लिए नुकसानदायक साबित हुई। राहुल गांधी इनते बुजुर्ग नेता को मंत्री बनाने के लिए राजी नहीं हैं। मनमोहन सिंह तो पहले से ही मंत्री रहते हुए ओला के प्रदर्शन से नाखुश थे। पार्टी सूत्रों के मुताबिक पिछली सरकार में ओला का प्रदर्शन औसत से भी नीचे रहा, इसलिए किसी ने भी उनको वापिस मंत्री बनाए जाने की पैरवी नहीं की। पिछली बार भी उन्हें मजबूरी में ही मंत्री बनाया गया था, क्योंकि राजस्थान से कांग्रेस के वे ही इकलौते जाट सांसद थे। पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी भी उनसे खुश नहीं बताई जाती हैं। ओला का राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर दावेदारी पेश करना उन्हें काफी अखरा था। ओला समर्थकों द्वारा पर्यवेक्षकों के सामने की गई नारेबाजी की रिपोर्ट भी सोनिया गांधी को मिली थी।
ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने के लिए कोई कितने भी तर्क दे, लेकिन वे उन्हें मानने को तैयार नहीं हैं। उनके अनुसार यह सब उनकी सियासत को समेटने की साजिश है। जब हमने उनसे यह पूछा कि यह साजिश कौन रच रहा है तो उन्होंने अशोक गहलोत का नाम तो नहीं लिया, पर उनकी ओर इशारा जरूर कर दिया। वे स्वयं तो गहलोत के खिलाफ कुछ नहीं बोले, लेकिन उनके बेहद करीबी माने जाने वाले एक शख्स ने नाम नहीं छापे जाने की शर्त पर हमें बताया कि 'अशोक गहलोत के कहने पर ही ओला साहब को मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया है, वर्ना उनका कैबीनेट मंत्री बनना पक्का था। गहलोत ने विधानसभा चुनाव में ओला साहब की ओर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी किए जाने का बदला लिया है। मुख्यमंत्री उनकी राजनीति खत्म कर स्वयं के लोगों को आगे लाना चाहते हैं।' मंत्री नहीं बनाए जाने से ओला बेहद गुस्से में हैं, पर फिलहाल चुप रहना ही बेहतर समझ रहे हैं।
सूत्रों के मुताबिक पार्टी उन्हें राज्यपाल बनाकर सम्मानजनक विदाई देना चाहती है। आलाकमान की ओर से ओला को इसकी सूचना भी भिजवाई गई है, पर ओला इस पर राजी नहीं है। वे सक्रिय राजनीति में ही रहना चाहते हैं। वे अभी भी गहलोत के साथ दो-दो हाथ करने के मूड में हैं। इसके लिए उन्होंने यह रणनीति भी बनाई थी कि गहलोत की वजह से एक जाट मंत्री नहीं बन पाया, लेकिन महादेव सिंह खंडेला को मंत्री बनवाकर गहलोत ने उनसे यह मौका भी छीन लिया है। खंडेला न केवल जाट हैं, बल्कि उनके शेखावाटी से ही हैं। खंडेला के मंत्री बनने के बाद ओला समर्थकों का एक वर्ग उनके ऊपर राज्यपाल बनने के लिए हामी भरने के लिए दबाव बना रहा है। उनका मानना है कि उम्र के इस पड़ाव पर पार्टी की खिलाफत करके उन्हें फजीहत के अलावा और कुछ हासिल नहीं होगा। देर से ही सही, धीरे-धीरे ओला को भी ये समझ में आ रहा है।
ओला एपीसोड के बाद यह पूरी तरह साफ हो गया है कि राजस्थान में गहलोत को चुनौती देने वाला कोई नेता नहीं है। ओला के बहाने उन्होंने अपने कई विरोधियों की बोलती बंद कर दी है। गहलोत राजनीति के एक मंझे हुए खिलाड़ी की तरह चीजों को अपने पक्ष में कर रहे हैं। केंद्रीय मंत्रिमंडल में गठन में जिस तरह से उनकी तूती बोली, उससे साफ हो गया है कि राजस्थान में से किसी कांग्रेसी को आगे बढऩा है तो गहलोत के साथ बिना ऐसा होना संभव नहीं है। इसलिए गहलोत विरोधी खेमे के हौंसले पस्त होते जा रहे हैं और उनके समर्थकों को कारवां बढ़ता जा रहा है। कुल मिलाकर गहलोत ने राजस्थान में एकछत्र राज कायम कर लिया है जिसे हिलाने वाला दूर-दूर तक कोई नहीं है।


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