शनिवार, जनवरी 23, 2010

पाकिस्तान का पागलपन


पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी ने यह कहकर एक बार फिर अपनी धूर्तता का परिचय दिया है कि वे भारत में मुंबई जैसे हमलों को रोकने की गारंटी नहीं ले सकते। उनके इस बयान पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, लेकिन इस बार उन्होंने अमेरिकी रक्षा मंत्री रॉबर्ट गेट्स के सामने यह राग अलापा है। पाकिस्तान गेट्स की मौजूदगी में यह कहने से भी नहीं चूका कि भारत ने मुंबई हमले के विश्वसनीय सुबूत उसे उपलब्ध नहीं कराए। स्पष्ट है कि पाकिस्तान ने जानबूझकर अपनी आंखों पर न केवल पट्टी बांध ली है, बल्कि फरेब को अपना हथियार भी बना लिया है। इसके संकेत इससे मिलते हैं कि वह बलूचिस्तान के आतंकवाद में भारत की कथित संलिप्तता दिखाने के लिए अमेरिका के कान भर रहा है। उसकी हरकतें काफी कुछ वैसी ही हैं, जैसी एक समय अफगानिस्तान पर कब्जा जमाए तालिबान के आतंकी शासन की थीं। एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान पागलपन दिखा रहा है। वह दिन प्रतिदिन लाइलाज होता जा रहा है। इसके लिए एक हद तक भारत भी जिम्मेदार है और रही-सही कसर विश्व समुदाय, खासकर अमेरिका ने पूरी कर दी है। भारत को इसका अहसास अच्छी तरह से हो जाना चाहिए कि पाकिस्तान की तरह से अमेरिका को भी हाल-फिलहाल सद्बुद्धि नहीं आने वाली। हालांकि यह शुभ संकेत है कि अमेरिका ने स्पष्ट कर दिया है कि मुंबई जैसा हमला हुआ, तो भारत के सब्र का बांध टूट जाएगा, लेकिन यह भी सच है कि अमेरिका पलक झपकते ही सुर बदल लेता है। अब यह आवश्यक है कि भारत पाकिस्तान से तो कड़ाई से निपटे ही, अमेरिका से भी दो टूक बात करे। अमेरिकी एजेंसियों ने कई बार यह तथ्य उजागर किया कि पाकिस्तानी सेना और आईएसआई आतंकवादियों को संरक्षण और बढ़ावा दे रही है, लेकिन अमेरिका ने इसे कभी गंभीरता से नहीं लिया। वह इस बात पर गौर करने के लिए भी तैयार नहीं है कि आतंकवाद को रोकने के लिए पाकिस्तान को वित्तीय और सैन्य सहायता उपलब्ध कराए जाने के बावजूद तालिबान की ताकत में बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका चाहता है कि अल कायदा के खिलाफ अभियान में उन्हें पाकिस्तान का सहयोग मिलता रहे, लेकिन उनका ध्यान इस बात पर नहीं है कि तालिबान अब लश्करे तैयबा जैसे संगठनों के जरिए दहशतगर्दी फैला रहे हैं। पाकिस्तान को उसके हुक्मरानों की दोहरी नीति की कीमत चुकानी पड़ रही है। इसी दोहरे रवैये ने आज ऐसी हालत पैदा कर दी है कि पाकिस्तान की सत्ता आतंकवादियों के सामने इस कदर असहाय नजर आती है। इस तेजी से फैल रही आग पर काबू पाने के लिए वहां के राजनीतिक नेतृत्व को अपनी दुविधा से उबरना होगा। वे भारत को नुकसान पहुंचाने के पागलपन में खुद को ही तबाह कर रहा है। निश्चित रूप से अमेरिका को भी अपना वह चश्मा बदलना होगा, जिससे उसे आतंकवाद सिर्फ दुनिया के उसी हिस्से में नजर आता है, जहां उसके सैनिक घिरे होते हैं। भारतीय नेतृत्व को विश्व समुदाय को सीधा संदेश देना चाहिए कि वह आखिर कब तक पाकिस्तान को माफ करता रहेगा? हमें यह साबित करना होगा कि पाकिस्तान का मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान आतंकवाद का समर्थक और संरक्षक हैं। पाकिस्तान की घेरेबंदी करने में युद्ध के अतिरिक्त अन्य सभी उपाय किए जाने चाहिए।

शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

माया मेमसाब अब तो शर्म करो...


स्मारकों, मूर्तियों और पार्र्कों के निर्माण में करोड़ों रुपये फूंकने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार का इनकी चौकीदारी के लिए 'स्टेट स्पेशल जोन सिक्युरिटी फोर्स' के गठन की कवायद यह साबित करने के लिए काफी है कि जनता के पैसे को कैसे बर्बाद किया जाता है। वैसे तो केंद्र से लेकर राज्यों तक कमोबेश सबकी यही कहानी है, लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री इसमें निश्चित रूप से अव्वल हैं। वे पूरे राज्य को मूर्तियों, स्मारकों और पार्र्कों से पाटकर न जाने किसका भला करना चाहती हैं? आज यदि राज्य में सड़क-बिजली-पानी सरीखी आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं, मजदूर-किसान बदहाल हैं, बेरोजगार युवकों को नौकरी नहीं है और उद्योग नहीं पनप रहे हैं, तो इसके लिए सूबे की मुखिया मायावती का मूर्ति प्रेम भी कम जिम्मेदार नहीं है। मायावती एक साथ दो मोर्र्चों पर गलती कर रही हैं। एक तो वे सरकारी खजाने को मूर्ति, पार्क और स्मारकों जैसे अनार्थिक क्षेत्रों पर खर्च कर रही हैं और दूसरे आर्थिक बदलाव के किसी बड़ी योजना को लागू नहीं कर रही हैं। उत्तर प्रदेश जैसे खस्ताहाल राज्य के मुखिया का यह रवैया किसी जुर्म से कम नहीं माना जाना चाहिए। वर्तमान में उत्तर प्रदेश का सारा राजस्व सरकारी खर्च में चला जाता है, उस पर कर्ज का भारी बोझ है और मानवीय या आर्थिक हर पैमाने पर वह देश के सबसे गए-बीते राज्यों में गिना जाता है। यदि सरकार इसी ढर्रे पर चलती रही, तो राजनीतिक रूप से देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य को दिवालिया होने से कोई नहीं बचा सकता। जाहिर तौर पर राजनेताओं का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि बदहाली भी उसका एक हथियार है, लेकिन उत्तर प्रदेश के लोगों को जो झेलना पड़ेगा, वह सियासत कतई नहीं होगी, वह मानवीय त्रासदी होगी।
यह तो समझ में आता है कि दलित हितों की पैरवी करने वाली मायावती अंबेडकर, महात्मा फुले या काशीराम आदि की मूर्तियां लगवाएं, लेकिन वे तो खुद की बुत भी लगवा रही हैं। इसमें संदेह नहीं कि मायावती आज देश के एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री हैं और दलित क्षमता व दलित उपलब्धि का एक प्रतीक हैं, लेकिन ये और ऐसे कारण उनकी आत्म-मुग्धता का औचित्य सिद्ध नहीं करते। यह सही है कि सवर्र्णों की तुलना में दलित महापुरुषों को देश में सम्मान नहीं मिला है, लेकिन यह मूर्तियों की संख्या से निर्धारित नहीं होगा। वह चाहे दलित हों, अल्पसंख्यक हों या फिर और कोई वंचित तबका, उनका भला करना है तो उन्हें प्रतीकात्मक रूप से शक्तिशाली दिखाने से कुछ नहीं होगा, उन्हें असल में वे सुविधाएं और संसाधन मुहैया कराने होंगे जिनसे वे बराबरी हासिल कर सकें। देश बदल रहा है, तो इसकी सबसे ज्यादा रोशनी उत्तर प्रदेश पर पडऩी चाहिए, लेकिन उजाला तब होगा जब उत्तर प्रदेश अपने पैरों पर खड़ा होगा। इतने बड़े राज्य का पिछड़ा रहना पूरे देश की तरक्की पर लगाम लगाता है। मायावती अक्सर केंद्र से मदद की गुहार करती हैं, लेकिन पहले वे खुद अपने खजाने का सही इस्तेमाल करना तो सीखें। वे जितना ध्यान सोशल इंजीनियरिंग के सहारे देश के बाकी हिस्सों में पैठ जमाने में लगाती हैं, यदि उसका थोड़ा भी उत्तर प्रदेश की तरक्की के लिए लगा दें, तो उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें बिना मूर्ति के ही पूजने को तैयार हो जाएगी। इसका मंत्र सीखने के लिए उन्हें दूर जाने की जरूरत नहीं है। उनके पड़ोस में ही नीतिश कुमार बिहार का कायाकल्प करने में लगे हैं।

गुरुवार, जनवरी 21, 2010

इन नेताओं की टैक्सी पंचर करो


यह विडंबना ही है कि महाराष्ट्र राजनीतिक दलों के लिए क्षेत्रवाद की प्रयोगशाला बनता जा रहा है और बाल ठाकरे व राज ठाकरे के पदचिह्नों पर चलते हुए सत्ताधारी कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन भी इसका सहारा लेकर अपने राजनीतिक हित साधना चाहता है। स्थानीय निकाय चुनावों में बढ़त हासिल करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने यह निर्णय किया है कि टैक्सी का लाइसेंस अब उन्हीं को दिया जाएगा जिन्हें मराठी अच्छी तरह से आती है और राज्य में कम से कम 15 साल से रह रहे हों। सरकार यह तालिबानी फरमान जारी कर किसका भला करना चाहती है? चुनाव नजदीक आते ही उसे 'मराठी माणुस' की याद क्यों आई है? यदि पूरा देश महाराष्ट्र की तर्ज पर चले तो आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में बंगाली, केरल में मलयाली, आंध्र प्रदेश में तेलगू, तमिलनाडु में तमिल और असम में असमिया ही रहेंगे? क्या यह देश के संघीय ढांचे को सीधे-सीधे चुनौती नहीं है? सत्ता के लिए देश का यह बंटवारा राजनीति की दुकान खोलकर बैठे जो लोग कर रहे हैं क्या उन्हें पता है कि अगर देश ही नहीं रहेगा तो वे खुद कैसे बचेंगे? राष्ट्रीय दलों का देश के पैमाने पर क्षेत्रीय दलों के सामने कमजोर पडऩा और बदले में की जा रही ओछी राजनीति ने देश को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया हैं जहां राष्ट्रीय कानून के होते हुए भी राष्ट्रीयता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इसके लिए मौजूदा दौर की राजनीति के वे दलाल दोषी हैं, जिन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि हिंदुस्तान की एकता को चुनौती देने के खिलाफ कड़े कानून बनाए जाने चाहिए जिससे ऐसे तत्व कभी सिर ही नहीं उठा सकें। महाराष्ट्र क्षेत्रीयता की आग में कुछ ज्यादा ही झुलस रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान में पूरे देश में कमोबेश यही हालात हैं। पश्चिम बंगाल में कभी मारवाडिय़ों पर टिप्पणी की जाती है, तो असम से बंगालियों को खदेड़ा जाता है। बंगाल में हिंदी माध्यम से पढ़ रहे छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र सिर्फ इसलिए नहीं दिए जाते हैं कि इससे बंगाली मानसिकता को सरकार भुनाती है। सुनील गंगोपाध्याय जैसे बांग्ला के प्रख्यात विद्वान-साहित्यकार हिंदी भाषियों को सरेआम खदेडऩे की बात करते हैं। दक्षिण में हिंदी व हिंदी भाषियों का विरोध जगजाहिर है। पंजाब और असम में सरेआम हिंदी भाषी मजदूरों को वहां के जातीय संगठन मार डालते हैं। लोग भागने और दरबदर होने को मजबूर होते रहते हैं, मगर इसे रोकने की जगह बड़े या क्षेत्रीय दल सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाएं तलाशते नजर आते हैं। क्या मानकर चला जाए कि एकछत्र भारत की अब किसी दल को जरूरत नहीं? शायद ऐसा ही लगता है। सभी राजनीतिक अवसरवादिता की रोटी सेक रहे हैं। आखिर हो क्यों नहीं? यही क्षेत्रीय क्षत्रप ही तो केंद्र में सरकारें चलवा रहे हैं और सत्ता के भागीदार हैं। मलेशिया जैसा छोटा देश भी आज भारत के सामने बड़ी आर्थिक ताकत इसलिए है, क्योंकि वहां किसी को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ की छूट नहीं है। वहां ऐसे कानून हैं जो किसी को भी राष्ट्रविरोधी होने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर कर देते हैं। क्या भारत को ऐसे कानून पर विचार नहीं करना चाहिए। आखिर यहां भी तो ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि क्षेत्र, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर चलाए जाने वाले राजनीतिक अभियान देश की अखंडता को सीधी चुनौती पेश करते हैं।

बुधवार, जनवरी 20, 2010

खेलों से खिलबाड़ कब बंद होगा?



बीजिंग ओलंपिक में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रचने वाले निशानेबाज अभिनव बिंद्रा को विश्वकप व राष्ट्रमंडल खेलों की टीम से बाहर किया जाना घोर निंदनीय है। भारतीय राष्ट्रीय रायफल संघ (एनआरएआई) से यह पूछा जाना चाहिए कि उसने क्या सोचकर यह बेतुका फरमान जारी किया है? महज इस आधार पर बिंद्रा को टीम से बाहर नहीं किया जा सकता कि उन्होंने एनआरएआई के 'ट्रायल' में हिस्सा नहीं लिया। जिस खिलाड़ी ने ओलंपिक में दुनिया के धुरंधर निशानेबाजों को पछाड़ते हुए स्वर्ण पदक जीता हो, उसकी योग्यता पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। रही बात नियमों की तो एनआरएआई किस मुंह से इनकी बात कर रही है? इसकी कार्यप्रणाली पर आए दिन अंगुलियां उठती रहती हैं। न्यायालय भी इस पर टिप्पणी कर चुका है। एनआरएआई ने खेल के विकास पर ध्यान दिया होता तो बिंद्रा को प्रशिक्षण के लिए जर्मनी जाने की जरूरत नहीं पड़ती। बिंद्रा के साथ हुए बर्ताव के लिए खेल मंत्रालय भी कम दोषी नहीं है। दरअसल, एनआरएआई भारतीय ओलंपिक संघ की प्राथमिकता सूची में आता है और सरकार उसकी प्रतियोगिताओं से लेकर विदेशी दौरों तक का पूरा खर्च उठाती है। खेल मंत्रालय की ओर से ऐसे सभी खेल संघों को आदेश दे रखा है कि टीमें ट्रायल से चुनी जाएं। ऐसे में एनआरएआई ने खुद को खेल मंत्रालय का वफादार साबित करने के लिए ट्रायल पर नहीं आए बिंद्रा को टीम से बाहर कर दिया। उसने यह भी नहीं सोचा कि यह वही अभिनव है, जिसने ओलंपिक की व्यक्तिगत स्पर्धा में भारत के स्वर्ण पदक जीतने के इंतजार को खत्म कर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि विश्वकप और राष्ट्रमंडल खेलों सरीखी महत्वपूर्ण स्पर्धाओं में देश का शीर्ष निशानेबाज हिस्सा नहीं ले पाएगा? अगर बिंद्रा इनमें हिस्सा लेते तो निश्चित ही भारतीय टीम के पदकों की संख्या में इजाफा होता और कई नौजवान उन जैसा बनने की प्रेरणा लेते, लेकिन जिस देश में खेल संघ राजनीति का अखाड़ा हो और सरकार के पास कोई स्पष्ट खेल नीति नहीं, वहां ऐसी उम्मीद करना बेमानी है। खेल मंत्रालय की अस्पष्ट नीति के कारण ही खिलाडिय़ों और खेल संघों के बीच मतभेद पैदा होते हैं, जिसका नुकसान खेल प्रतिभाओं को झेलना पड़ता है। नतीजतन एक अरब की आबादी का देश अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में एक अदद पदक और जीत के लिए तरसता रहता है। बिंद्रा मामले के बहाने देश की खेल नीति की बेशुमार कमजोर कडिय़ां एक बार फिर सामने आ गई हैं। खेल मंत्रालय कहता है कि बिना ट्रायल खिलाडिय़ों को टीम में न रखा जाए और बाद में उसके अधिकारी कहते हैं कि अगर संघ चाहे तो ऐसे खिलाडिय़ों को बिना ट्रायल के चुन सकते हैं, जबकि सबसे बड़ा पेच यही है। दुर्भाग्य से देश में खेल के साथ खिलवाड़ करने और खिलाडिय़ों के भविष्य को बर्बाद करने वाली ऐसी घटनाओं की फेहरिस्त दिनोंदिन लंबी होती जा रही है। यदि सरकार ने अपनी खेल नीति और खेल संघों ने अपने कामकाज के तरीके को नहीं सुधारा तो स्थिति और भयावह होगी। जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलों में प्रतिस्पर्धा कड़ी होती जा रही है, तब यदि हमें कहीं ध्यान देने की जरूरत है तो वह है सुविधाओं का विकास और खिलाडिय़ों को प्रोत्साहन, ताकि वे मैदान पर भी भारत की बुलंदी के झंडे गाड़ सकें।

शनिवार, जनवरी 16, 2010

अब तो सरहद को संभाल लो


रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी के बाद थलसेना प्रमुख जनरल दीपक कपूर का यह कहना कि सरहद पार से बड़ी संख्या में आतंकी घुसपैठ की तैयारी में हैं, देश की सुरक्षा के सम्मुख गंभीर खतरा है, भले ही यह दावा किया जाए कि हम इनसे निपटने के लिए पूरी तरह मुस्तैद हैं। सुरक्षाबलों के तमाम दावों के बावजूद न केवल घुसपैठ बदस्तूर जारी है, बल्कि दिनोंदिन इसमें इजाफा भी हो रहा है। आखिर कड़े इंतजामों के बाद भी यह सिलसिला खत्म क्यों नहीं होता? अमूमन हर साल जिस तरह से सर्दियों में घुसपैठ बढ़ती है, उससे तो यही लगता है कि हाड कंपा देने वाली ठंड में भारतीय सीमा रक्षकों की मुस्तैदी भी ठंडी पड़ जाती है। मुमकिन है ऐसा न हो, लेकिन इसमें कोई दोराय नहीं है कि सरहद और खासकर जम्मू-कश्मीर में सैनिकों की तादाद कम करने की कवायद घुसपैठ बढ़ाती है। रक्षा मंत्री और थलसेना प्रमुख स्वीकार कर चुके हैं कि 2008 में जहां महज 57 आतंकियों ने घुसपैठ की थी, वहीं 2009 में 30 नवबंर तक यह आंकड़ा 110 तक पहुंच चुका है। इस अवधि के दरम्यान ही जम्मू-कश्मीर में सैनिकों की संख्या को लेकर सर्वाधिक हो-हल्ला हुआ था। तो क्या यह माना जाए कि सैनिकों की संख्या में कटौती से आतंकियों के लिए घुसपैठ का माहौल बना? राज्य में आतंकी हिंसा का स्तर घटाने में पुलिस सक्षम हुई होगी, लेकिन क्या महज इस आधार पर ही सीमा क्षेत्र में निगरानी कम कर दी जाए? सब चाहते हैं कि जम्मू-कश्मीर में शांति बहाल हो, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के इस सर्वाधिक संवेदनशील राज्य के एक ओर पाकिस्तान और दूसरी ओर चीन गिद्ध दृष्टि गड़ाए बैठा है। खासकर पाकिस्तान यह कभी नहीं चाहेगा कि जम्मू-कश्मीर में जिंदगी पटरी पर लौटे। यदि सूबे के तेजी से सुधरते हालात देखकर पाकिस्तान में रहकर नेटवर्क संचालित कर रहे आतंकी संगठनों की बेचैनी बढ़ रही है, तो इस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उनसे और कोई उम्मीद भी नहीं की जा सकती, लेकिन मानवाधिकारों की दुहाई देकर सीमाओं की चौकसी कम कर देना उनका स्वागत करने जैसा है। जम्मू-कश्मीर की आवाम और उनके निजाम उमर अब्दुल्ला को यह समझना होगा कि सेना रात के अंधेरे में अपनी कार्रवाई इस बात की तस्दीक करते हुए नहीं कर सकती कि कौन घुसपैठिया है और कौन बेगुनाह। सेना की विवशता को भी समझना जरूरी है। उसकी नागरिकों से कोई दुश्मनी नहीं है। वह वहां आतंक के खात्मे के लिए तैनात है न कि आम आदमी की दुश्वारियां बढ़ाने के लिए। सैनिकों की संख्या में कटौती करने से पहले इस पहलू पर विचार कर लेना जरूरी है कि आतंकी इसका कोई फायदा तो नहीं उठाएंगे। पाकिस्तान से सटी सीमा पर ही पूरा ध्यान केंद्रित करना बड़ी भूल हो सकता है, क्योंकि चीन की चालें भी कम खतरनाक नहीं हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि भारतीय भूमि पर उसकी टेडी नजर है। चीनी हुक्मरानों ने कभी नहीं चाहा कि भारत में अमन-चैन रहे और वह तरक्की की राह पर चले। पाकिस्तान के साथ उसका गठजोड़ इसी का नतीजा है। दोनों ओर खतरा जिस तेजी से बढ़ रहा है, उससे निपटने के लिए न केवल सुरक्षाबलों की संख्या बढ़ाना जरूरी है, बल्कि उन्हें अत्याधुनिक संसाधन उपलब्ध कराना भी आवश्यक है। शातिर आतंकियों को परंपरागत संसाधन बोने साबित हो रहे हैं।

फिर वही सुरक्षा का आवश्वासन


ऑस्ट्रेलियाई सरकार का यह ताजा भरोसा कि भारतीयों के लिए ऑस्ट्रेलिया सुरिक्षत स्थान है, तब तक महज एक कोरा बयान माना जाएगा, जब तक भारतीय नागरिकों पर हो रहे हमले पूरी तरह से थम न जाएं। वहां की सरकार इस तरह के आश्वासन पहले भी दे चुकी है, लेकिन इसके बावजूद भी भारतीय लगातार निशाना बन रहे हैं। सरकार की ओर से अब तक भारतवासियों की सुरक्षा के लिए न तो कोई विशेष प्रबंध किए गए हैं और न ही ऐसा कुछ करने के संकेत दिए हैं। उल्टे कुछ दिन पहले दो नौजवानों का कत्ल होने पर सरकार की ओर से यह बयान आया कि हत्या होना कोई नई बात नहीं है, ऐसा दिल्ली और मुंबई में भी होता है। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि ऑस्ट्रेलियाई सरकार को भारतीयों की पूर्ण सुरक्षा का आश्वासन देना पड़ा। दरअसल, भारतीय छात्र ऑस्ट्रेलिया के शिक्षा उद्योग की रीढ़ हैं और हमलों के बाद इनकी संख्या में भारी कमी आ रही है। वहां की सरकार को भारतीयों की सुरक्षा से ज्यादा इस बात की चिंता है कि कहीं देश के शिक्षा उद्योग को करोड़ों डॉलर का चूना न लग जाए। यही वजह है कि अपने तल्ख बयानों के लिए जानी जाने वाली ऑस्ट्रेलियाई उप प्रधानमंत्री जुलिया गिलार्ड का सुर बदला हुआ है और वे यहां तक कह रही हैं, 'मैं इस बात को समझ सकती हूं कि अगर भारत में आपका परिवार है और आप अपने किसी छोटे सदस्य को दूसरे देश में भेज रहे हैं, तो आप इस बात को लेकर सबसे अधिक चिंतित होंगे कि वह वहां कितना सुरक्षित है।' क्या उनके इतने कहने भर से ही भारतीयों पर हो रहे हमले रुक जाएंगे? ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हमले की कोई एकाध घटना नहीं हुई है। पिछले एक साल में भारतीय छात्रों पर 100 से ज्यादा हमले हुए हैं। पिछले दिनों हमलावरों से दो छात्रों को तो जान से ही मार डाला। इस दौरान वहां की पुलिस एकाध मौकों पर सक्रिय दिखी और कुछ हमलावरों को पकड़ा भी गया, लेकिन ऑस्ट्रलियाई सरकार यह सफाई देने में ही उलझी रही कि ये नस्लवादी हमले नहीं हैं, ये अपराध की सामान्य घटनाएं हैं, जिनमें अपराधियों ने नाइट शिफ्ट में काम करने वाले और अपने महंगे आईपॉड, मोबाइल फोन और लैपटॉप का प्रदर्शन करने वाले भारतीय छात्रों को अपना निशाना बनाया है। यह जवाबदेही से मुंह चुराने जैसा है। जिस तरह ऑस्ट्रेलियाई के शिक्षण संस्थान भारत में कैंप लगाकर शिक्षा और रोजगार के सुहाने सपने दिखाकर भारतीय छात्रों को अपने यहां बुलाते हैं, उसी तरह यह जिम्मेदारी वहां की सरकार की है कि वह उनकी सुरक्षा का भी ख्याल रखे। ऐसा करना उसके हित में भी है। इस समय ऑस्टे्रलिया में लगभग एक लाख भारतीय छात्र हैं। इनकी फीस के रूप में वहां के शिक्षण संस्थानों को हर साल सीधे-सीधे करीब दो अरब डॉलर प्राप्त होते हैं। यह रकम उनके लिए संजीवनी से कम नहीं है, क्योंकि वैश्विक मंदी के कारण भारी वित्तीय दबावों से गुजर रही सरकार ने उन्हें दिए जाने वाले अनुदान में भारी कटौती की हुई है। ऑस्ट्रेलियाई सरकार यह तो चाहती है कि विदेशी छात्रों की आमद न रुके, लेकिन उनकी सुरक्षा का सवाल उठने पर वह इसका दोष छात्रों पर ही मढ़ देती है। यदि यही रवैया जारी रहा तो ऑस्टे्रलिया के शिक्षा उद्योग का ठप होना तय है। वहां के नीति-नियंताओं को चाहिए कि वे कोरे आश्वासन देना छोड़, दूर देश से पढऩे आने वाले छात्रों की सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम करें।

शनिवार, जनवरी 02, 2010

आओ संकल्प करें

रफ्ता-रफ्ता समय की सीढिय़ों से गुजर गया साल 2009, छोड़ गया अपने पीछे उल्लास के अनगिनत पल। साथ ही दर्द और वेदनाओं की भी लंबी फेहरिस्त। अब हम नए साल 2010 में हैं। परंपरा रही है- बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध लेय, लेकिन बीते साल की कई घटनाओं ने हमें इतना झकझोरा कि उन्हें भुलाकर नए साल में बेहतरी की उम्मीद करना बेमानी है। ऐसे में यह हम सबकी जिम्मेदारी है कि पुरानी चूकों से सबक लेते हुए आगे बढऩे का ताना-बाना बुनें। जरूरत केवल संकल्प लेने की ही नहीं, बल्कि उन पर अमल करने की भी है। वो भी बिना वक्त गंवाए, आज ही से, या यूं कहें अभी से। इन दिनों पूरा देश रुचिका मामले पर उद्वेलित है, इसलिए पहला संकल्प न्यायपालिका से जुड़ा हुआ- न्याय में देरी न हो और कानून सबको एक ही चश्मे से देखे। यह फख्र की बात है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, लेकिन जिन्हें इसे सींचने का जिम्मा दिया हुआ है वे ही उजाडऩे में लगे हैं। पिछले कुछ दिनों में ही राजनेताओं ने अपने व्यवहार से कई बार शर्मसार किया, लिहाजा दूसरा संकल्प राजनीति को सही राह पर लाने के लिए- नेता सत्ता के मोह में राष्ट्रहित को तिलांजलि न दें। देश की बात चली तो सुरक्षा का मसला भी चिंताजनक है। पाकिस्तान और चीन से तो खतरा था ही तेजी से पैर पसारते नक्सलवाद ने समस्या को और बढ़ा दिया है। इसलिए तीसरा संकल्प सुरक्षा के मोर्चे पर- चौकसी इतनी चाकचौबंद हो कि परिंदा भी पर न मार पाए। सीमाओं पर ही नहीं देश के भीतर भी सुरक्षा व्यवस्था में सुधार की बहुत गुंजाइश है।
आम लोगों को हमेशा शिकायत रहती है कि प्रशासन रसूखदारों की अर्दली करता है, उसकी आवाज तो नक्कारखाने में तूती ही साबित होती है। जनता की इस पीड़ा को दूर करने का चौथा संकल्प लेना होगा- प्रशासन मुस्तैदी से रखे आम आदमी का ख्याल। बीते साल मीडिया भी खूब सवालों के घेरे में रहा। खबरों के स्तर पर हुई बहस को चुनाव के दौरान 'पेड न्यूज' के मुद्दे ने और तीखा कर दिया। पांचवां संकल्प मीडिया के लिए ही कि जिस तेजी से वह अपनी पहुंच बढ़ा रहा है, विश्वास की 'टीआरपी' भी उसी रफ्तार से बढ़े। 2009 में आम आदमी महंगाई से सबसे ज्यादा त्रस्त रहा। सरकार उपाय करने की बजाय मुद्रास्फीति के आंकड़ों में ही उलझी रही। यह स्वीकारने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए कि हमारी तरक्की की पूरी तस्वीर ही आंकड़ों में उलझी हुई है। छठा संकल्प अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में लेने की जरूरत है कि विकास आंकड़ों में ही न उलझा रहे, आमजन तक भी पहुंचे। भारतीय क्रिकेट टीम ने पिछले साल खूब धूम मचाई। टेस्ट क्रिकेट में बादशाहत कायम की। सातवां संकल्प खेल की दुनिया में कि ऐसी कामयाबी अन्य खेलों में भी मिले। मनोरंजन की दुनिया में देश ने पिछले साल खूब यश कमाया। बॉलीवुड की गूंज विदेश तक सुनाई दी। 2010 में इस स्वर को और ऊंचा करने के लिए आठवां संकल्प- हर विधा में सशक्त हो परदे की फंतासी। खुशी के हजार लम्हों के बीच स्वाइन फ्लू कहर बनकर आया। नवां संकल्प स्वास्थ्य के मोर्चे पर कि परंपरागत ढांचा तो सुधरे और कोई मर्ज देशवासियों पर भारी न पड़े। अंतिम दसवां और सर्वाधिक महत्वपूर्ण संकल्प यह कि बाकी नौ संकल्पों पर ईमानदारी से अमल हो। यदि हम ऐसा कर पाए तो देश का हर शख्स तो खुशहाल होगा ही भारत भी महाशक्ति बनने की दिशा में अग्रसर हो जाएगा।