शनिवार, नवंबर 22, 2008

बागियों ने बिगाड़ी गणित


मरुधरा का चुनावी चमन बागियों से गुलजार है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ही अदावत पर उतर आए नेताओं से त्रस्त हैं। मान-मनौव्वल के सारे जतन बेअसर साबित हो रहे हैं। विद्रोहियों के तीखे तेवरों के बीच कौन बनेगा सियासत का सिरमौर? विश्लेषण।

सूबे की सियासत में इन दिनों भूचाल आया हुआ है। टिकट वितरण के बाद उपजे असंतोष ने भाजपा और कांग्रेस, दोनों को मुश्किल में डाल दिया है। संख्या में कांग्रेस के बागी ज्यादा दिखाई दे रहे हैं, लेकिन नुकसान पहुंचाने वाले भाजपा में ज्यादा है। मोटे तौर पर दोनों पार्टियों को हर चौथी सीट पर अपनों की खिलाफत झेलनी पड़ रही है। विद्राहियों की इतनी बड़ी संख्या राजस्थान की राजनीति में पहली बार देखने को मिली है। भारी संख्या में बागियों के मैदान में कूदने से सियासी समीकरण बुरी तरह से उलझ गए हैं। कांग्रेस के लिए बगावत नई बात नहीं है, लेकिन कुलीनों का कुनबा कही जाने वाली भाजपा इसमें पहली बार इतनी बुरी तरह उलझी है। विश्वेंद्र सिंह के बाद किरोड़ी लाल मीणा और देवी सिंह भाटी सरीखे दिग्गजों के विरोध में ताल ठोकने से दूसरी पारी की तैयारी कर रही महारानी की दिक्कते और बढ़ गई हैं।
भाजपा में बगावत का बिगुल पहली सूची आने के बाद ही बज गया था, लेकिन पहला बड़ा झटका विश्वेंद्र सिंह ने दिया। सिंह ने कांग्रेस में वापसी कर डांग-बृज क्षेत्र की एक दर्जन से ज्यादा सीटों पर भाजपा के लिए संकट खड़ा कर दिया है। पार्टी ने विश्वेंद्र सिंह की बगावत को काउंटर करने के लिए नटवर सिंह और जगत सिंह को कमान सौंपी है, लेकिन कांग्रेस के बाद बसपा से ठुकराए पिता-पुत्रों का क्षेत्र में विश्वेंद्र सरीखा जनाधार नहीं है। नुकसान को कम करने के लिए गुर्जर वोटों को लामबंद करने की रणनीति भी बनी, लेकिन कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला ने हाथ खड़े कर दिए। बैंसला ने महाराजा विश्वेंद्र सिंह की खिलाफत करने से साफ इनकार कर दिया है। समूचे मसले में भाजपा का थिंक टैंक पूरी तरह से नाकाम रहा। पार्टी विश्वेंद्र की राजनीतिक हैसियत और मजबूरी, दोनों नहीं समझ पाई। दरअसल, भरतपुर संसदीय क्षेत्र परिसीमन के तहत अनुसूचित जनजाति को आरक्षित होने से विश्वेंद्र के सामने सियासी संकट खड़ा हो गया था। नए क्षेत्र से सांसद का चुनाव लडऩे की बजाय उन्हें विधानसभा चुनाव में उतरना ज्यादा मुफीद लगा। उन्होंने पार्टी के सामने डीग-कुम्हेर से चुनाव लडऩे की इच्छा जाहिर कर दी, लेकिन पार्टी ने वहां से विश्वेंद्र की जगह उनके धुर विरोधी दिगंबर सिंह को उम्मीदवार बना बगावत के बीज बो दिए। भाजपा चाहती थी कि क्षेत्र के दोनों दिग्गज अलग-अलग सीट से चुनाव लड़ें, लेकिन दिगंबर सिंह को बराबर की तवज्जों मिलना विश्वेंद्र सिंह को रास नहीं आया। और उन्होंने भाजपा से नाता तोड़ डीग-कुम्हेर सीट से कांग्रेस प्रत्याशी की हैसियत से दिगंबर सिंह के खिलाफ ताल ठोक दी है।
पार्टी को विश्वेंद्र सिंह से भी बड़ा झटका किरोड़ी लाल मीणा ने दिया है। उन्होंने भाजपा के खिलाफ खुली जंग छेड़ते हुए चुनाव में पार्टी का सफाया करने का ऐलान कर दिया है। मीणा के साथ छोडऩे से भाजपा को कम से कम 30 सीटों पर सीधा नुकसान होगा। गौरतलब है कि किरोड़ी लंबे समय से अदावत पर आमादा थे। गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान वे मुख्यमंत्री पर खूब बरसे। ओम माथुर प्रदेशाध्यक्ष बनें तो मीणा ने उन्‍हें बाहरी और थोपा हुआ करार दिया। रामदास अग्रवाल से भी उनका हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा। कई बार पार्टी को कठघरे में खड़ा करने वाले मीणा की मान-मनौव्वल भी खूब हुई। उन्हें मनाने के लिए भैरों सिंह शेखावत ने भी मध्यस्ता की। सुलह के संकेत भी मिले थे। सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री के साथ उनकी पटरी बैठने लगी थी कि उम्मीदवारों की घोषणा ने आग में घी का काम किया। पार्टी ने सवाई माधोपुर से उनका टिकट काटकर उनकी धुर विरोधी जसकौर मीणा को उम्मीदवार बना दिया। इतना ही उनके द्वारा सुझाए नामों को भी तवज्जों नहीं दी। सूत्रों के मुताबिक यह सब किरोड़ी को किनारे करने की तयशुदा रणनीति के तहत किया गया। पार्टी उन पर सीधी कार्रवाई करके मीणा वोटरों की नाराजगी मोल लेना नहीं चाहती । किरोड़ी इसे उनके राजनीति वजूद को समाप्त करने की साजिश करार देते हैं। विशेष बातचीत में उन्होंने कहा, 'जिस पार्टी को हमने तीस साल में खून-पसीने से सींच कर खड़ा किया है कुछ लोग उसका सत्यानाश कर रहे हैं। पार्टी पर ऐसे लोगों ने कब्जा कर लिया जिनका कोई जनाधार नहीं है। ओम माथुर और रामदास अग्रवाल की हैसियत वार्ड पंच का चुनाव जीतने की नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य से ये लोग ही फैसला कर रहे हैं कि कौन कहां से चुनाव लड़ेगा। कांग्रेस छोड़कर आए लोगों को टिकट देकर पार्टी ने कार्यकर्ताओं के साथ धोखा किया है। बरसों तक हमें गालियां देते रहे लोगों के लिए हम वोट कैसे मांग सकते हैं। पार्टी ने पेराशूटी उम्मीदवारों को टिकट देकर बहुत बड़ी गलती की है। मुख्यमंत्री ने भ्रष्टाचारियों को पनाह देने के अलावा कुछ नहीं किया है। उनकी हठधर्मिता की कीमत पार्टी को चुकानी होगी। मेरे प्रभाव की तीस साटों पर भाजपा प्रत्याशियों की जमानत भी नहीं बचेगी। पार्टी ने मेरी ही नहीं, जमीन से जुड़े हर कार्यकर्ता की अनदेखी की है।'
कांग्रेस भी बागियों से कम परेशान नहीं है। टिकट कटने से नाराज कई नेताओं ने पार्टी प्रत्याशी की जीत की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए हैं। हालांकि पार्टी ने किसी बड़े नेता की अवमानना नहीं की है, इसलिए विद्रोह स्थानीय स्तर तक ही है। टिकट वितरण के बाद कई क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं में असंतोष है, लेकिन उन्हें किसी बड़े नेता का समर्थन नहीं मिल रहा है। कांग्रेस में बगावत का झंडा बुलंद करने वाले ज्यादातर ऐसे नेता हैं जो पिछले चुनावों में हार चुके हैं या उम्र की आखरी पड़ाव पर हैं। नुकसान रोकने के लिए पार्टी के आला नेता बागियों को मनाने में जुटे हुए हैं। कुछ हद तक सफलता भी मिली है, लेकिन नाम वापसी की आखरी तारीख निकलने के बाद भी 56 सीटों पर विद्रोही डटे हुए हैं। इनकी सक्रियता से पार्टी को तकरीबन 24-26 सीटों नुकसान होने का अनुमान है। कांगे्रस को ढूंढाड़, मारवाड, शेखावाटी और मेरवाड़ा में भितरघात का ज्यादा सामना करना पड़ रहा है। कई पूर्व मंत्रियों व विधायकों के पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ मैदान में उतरने से सत्ता में वापसी का प्रयासों कर रही कांग्रेस को करारा झटका लगा है। पार्टी प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी इससे इत्तेफाक नहीं रखते हैं। जोशी ने बताया, 'दो-चार लोगों को छोड़कर कांग्रेस में कोई बागी नहीं है। कुछ लोगों में नाराजगी है जो धीरे-धीरे दूर हो जाएगा। टिकट नहीं मिलने पर निराशा सबको होती है। हम लगातर ऐसे लोगों के संपर्क में हैं। कुछ ही दिनों में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह से एकजुट होकर प्रचार अभियान में पूरी ताकत से लग जाएंगे और वसुंधरा सरकार को उखाड़कर ही दम लेंगे।'
चुनावी महासमर में बागियों की रणभेरी के बीच सियासी पार्टिर्यों को उस तारणहार की तलाश है जो रूठों को मनाकर 'डेमेज कंट्रोल' कर सके और थोक मतों को उनके पक्ष में मोड़ सके। तमाम सियासी कसरतों के बीच मतदाता राजनीति के उस स्याह सच को देखने में मशगूल है जिसमें पल भर में सौतन सहेली और दोस्ती दुश्मनी में तब्दील हो जाती है। राजनीति का यह रंग देखकर पार्टियों के साथ-साथ वोटर भी चिंतित हैं।

मंगलवार, नवंबर 18, 2008

मौन हुईं महारानी


ताबड़तोड़ सियासत में माहिर महारानी ने चुप्पी साध रखी है। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के चलते गहलोत भी खामोश हैं। मुद्दों की भरमार होते हुए भी दोनों दल 'डिफेंसिव गेम' खेल रहे हैं। क्या है वजह? विश्लेषण।


राजस्थान में सत्ता की खातिर चल रहे सियासी संघर्ष का रुख बदल रहा है। भाजपा के साथ कांग्रेस ने भी सुरक्षात्मक रणनीति अपना ली है। भाजपा की तैयारियों से विकास का मुद्दा 'नहीं रुकेगा राजस्थान' के होर्डिंग्स तक ही सिमट गया है। लगता है चौतरफा हमले झेल रहीं मुख्यमंत्री के राजनीतिक कौशल की धार भी कुंद हो गई है। 'परिवर्तन यात्रा' सरीखे कोई अभियान चलाना अब उनके साथ वक्त के बूते से भी बाहर है। कांग्रेस की स्थिति बिना कप्तान की टीम जैसी हो रही है। भाजपा के कारनामों की पोल खोलने का दावा करने वाली पार्टी सत्ता विरोधी लहर की उम्मीद पाले बैठी है।
चुनावी महासमर में भाजपा की कमान इस बार भी वसुंधरा राजे के पास है। मुख्यमंत्री की सीरत बेहद आक्रामक है। उन्हें अपने ढंग से सियासत करना पसंद है। महारानी अपने काम में किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करतीं। उनके इसी अंदाज के चलते कई भाजपाई तो उन्हें इंदिरा गांधी का क्लोन तक कहते हैं। लेकिन, पिछले कुछ समय से उनका दूसरा ही रूप सामने आ रहा है। चुनाव अभियान में उनके और आक्रामक होने की आस लगाए बैठे पार्टी के नेता महारानी के मौन से हतप्रभ हैं। मुख्यमंत्री के इस व्यवहार परिवर्तन की कई वजह हैं। पिछले कुछ समय से महारानी के सारे दांव उल्टे पड़ रहे हैं। वे पिछली चुनावों की तरह 'परिवर्तन यात्रा' की तर्ज पर प्रचार करना चाहती थीं। पूरा कार्यक्रम बन गया था। तैयारियां भी पूरी हो गई थीं, लेकिन गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने सब चौपट कर दिया। वहीं, गुर्जरों को मनाने की सारी कोशिशें भी विफल साबित होती दिखाई दे रही हैं। कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के लाख कहने पर भी गुर्जर भाजपा के पक्ष में जुटने को राजी नहीं हैं। गुर्जर को मनाने के चक्कर में किरोड़ी लाल मीणा से दूरियां अलग से बढ़ गईं, यानि 'माया मिली न राम'। विश्वेंद्र सिंह के मामले में भी मुख्यमंत्री की रणनीति कारगर नहीं रही। भरतपुर के दो दिग्गजों की लड़ाई में दिगंबर सिंह का साथ देना उन्हें भारी पड़ गया है। विश्वेंद्र सिंह कांग्रेस का दामन थाम भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाने की तैयारी में हैं। एंटीइंकंबेंसी के असर को कम करने के मकसद से 'मोदी मॉडल' की तर्ज पर विधायकों व मंत्रियों के टिकट काटने का फैसला भी उल्टा पड़ गया है। टिकट नहीं मिलने पर ज्यादातर नेता खुली बगावत पर उतर आए हैं। दरअसल, मुख्यमंत्री गुजरात और राजस्थान के सियासी समीकरणों में के भेद को नहीं पाईं। गुजरात में नरेंद्र मोदी का एकछत्र राज्य है। वहां उनके खिलाफ कोई चूं बोलने को तैयार नहीं है। वहां क्षेत्रीय मुद्दे इतने हावी नहीं हैं।
मुख्यमंत्री बीते पांच सालों में पार्टी के ही एक खेमे के लगातार निशाने पर रही। विरोधियों ने उनके खिलाफ दिल्ली दरबार के भी खूब कान भरे। राज्य की राजनीति से बेदखल करने की कोशिश भी खूब हुईं। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व हमेशा वसुंधरा के सुर में ही बोला, लेकिन राजनाथ सिंह को महारानी के तेवर रास नहीं आ रहे थे। सिंह ने मुख्यमंत्री के खास समझे जाने वाले महेश शर्मा की जगह ओमप्रकाश माथुर को पार्टी का मुखिया बनाकर संकेत दे दिया कि सब कुछ उनके हिसाब से नहीं चलेगा। मजबूरी में ही सही माथुर के साथ उनकी ट्युनिंग बैठने ही लगी थी कि टिकट वितरण में बढ़े विवाद ने सब मटियामेट कर दिया। सूत्रों के मुताबिक माथुर ने टिकट बांटने में महारानी पर मनमानी का आरोप लगाकर दूरी बना ली है। पहली सूची तक तो सब ठीक था, लेकिन दूसरी सूची के नामों को लेकर तनातनी हो गई। गुस्साए माथुर पार्टी नेतृत्व से शिकायत कर भूमिगत हो गए हैं। वैसे पार्टी के आला नेता उन्हें मनाने में लगे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि माथुर अब नहीं मानेंगे। माथुर का नाराज होना दूसरी पारी की तैयारी कर रही मुख्यमंत्री के लिए भारी पड़ सकता है।
कांग्रेस की कहानी जरा हटके है। पार्टी के आला नेता दबे स्वर में यह मानते हैं कि सरकार के खिलाफ हम आक्रामक नहीं हो पाए हैं। पार्टी के ज्यादातर नेता यह मानते हैं कि वसुंधरा सरकार खुद के कारनामों से ही डूब जाएगी। हालांकि डूबने लायक पानी सूबे में कहीं मयस्सर नहीं है। बीते पांच सालों में कांग्रेस सरकार के खिलाफ कोई जनआंदोलन खड़ा नहीं कर पाई। विपक्ष के तौर पर कांग्रेस की सरगर्मी कहीं नोटिस में नहीं आई। ऐसा नहीं है कि सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा नहीं मिला हो। मुद्दों की तो भरमार रही। जगह-जगह हुए गोलीकांड, आबकारी नीति, जमीन घोटाले, कानून व्यवस्था, दूषित पेयजल सरीखे किसी भी मामले को उठाकर कांग्रेस सत्ता के खिलाफ माहौल बना सकती थी। वहज साफ है, पार्टी में किसी ने नेतृत्व की कमान नहीं संभाली। अशोक गहलोत की धरती पकड़ खामोशी के कई अर्थ निकलते हैं। सूत्रों के मुताबिक गहलोत सबकुछ योजनाबद्ध तरीके से कर रहे हैं। गहलोत दो कारणों से सक्रिय नहीं रहे। पहला, पार्टी का एक धड़ा उन्हें दोहराने के मूड में नहीं है और दूसरा, जाट समाज की नाराजगी। दरअसल, आलाकमान नहीं चाहता कि चुनावों से पहले ही पार्टी में गुटबाजी उभर कर आए। भाजपा से नाखुश चल रहे जाटों को नाराज करने की जुर्रत भी पार्टी नहीं करना चाहती। अलबत्ता गहलोत अच्छी तरह जानते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के लिए सक्रियता नहीं दस जनपथ का आशीर्वाद जरूरी है। लिहाजा वे वहां पूरी तरह से सक्रिय हैं। वैसे सरकार के खिलाफ कुछ मुद्दों पर मौन रहना कांग्रेस की मजबूरी भी रही। गुर्जर आरक्षण आंदोलन को ही लें। कांग्रेस ने चुप रहने में ही फायदा समझा। पार्टी का मानना है कि आंदोलन में 70 से ज्‍यादा लोगों के मारे जाने के बाद गुर्जर तो वैसे भी भाजपा को वोट नहीं देंगे। पार्टी गुर्जरों के पक्ष में बोलकर पार्टी मीणाओं से बेर लेना नहीं चाहती।
महारानी के मौन और गहलोत की खामोशी के बीच जनता भी चुप्पी साधे सारा माजरा देख रही है। चरम की और बढ़ रहे चुनावी माहौल में सबसे अहम सवाल यह है कि कांग्रेस और भाजपा को पलट-पलट कर सत्ता का स्वाद चखाने वाले मतदाता इस बार क्या जनादेश देंगे? देखते हैं सूबे की जनता किसे सियासी विरासत संभलाती है और किसे सबक सिखाती है।

मंगलवार, नवंबर 11, 2008

गुफ्तगु - पूर्व मुख्‍यमंत्री अशोक गहलोत के साथ

इस बार टिकट वितरण में आपकी और सी. पी. जोशी की ज्यादा चली?
- ऐसा कुछ नहीं है। कांग्रेस में टिकट वितरण एक पारदर्शी प्रक्रिया के तहत किया जाता है। पहले पर्यवेक्षक अपनी रिपोर्ट के आधार पर पैनल बनाया जाता है। पैनल में से स्क्रीनिंग कमेटी जिताऊ उम्मीदवार का नाम तय करती है। कोई एक व्यक्ति टिकट तय नहीं करता है।

फिर इतना विरोध क्यों हो रहा है?
- देखिए, यह विरोध नहीं कार्यकर्ताओं की भावनाएं हैं। एक स्थान से कई लोग चुनाव लडऩा चाहते हैं। जीतने की स्थिति में भी कई लोग हैं, लेकिन टिकट तो एक व्यक्ति को ही मिलेगा। टिकट नहीं मिलने पर थोड़ी-बहुत निराशा सबको होती है।

उनका क्या जिन्होंने बागी के रूप में चुनाव लडऩे की घोषणा कर दी है?
- ऐसा कोई नहीं है। यह भावनात्मक विरोध है। पार्टी के लिए सब महत्त्पूर्ण है। हम उन्हें मना लेंगे। सब मिलकर चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस को सत्ता में लाकर रहेंगे। जनता भारतीय जनाता पार्टी के कुशासन से तंग आ चुकी है। लोग बदलाव चाहते है। इस बदलाव के लिए कांग्रेस ही एकमात्र विकल्प है....

कोई विरोध नहीं है तो कांग्रेस मुख्यालय में तोडफ़ोड़ क्यों हो रही है?
- कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने कोई तोडफ़ोड़ नहीं की। हमारी पार्टी का वर्कर गांधी-नेहरू की तस्वीरों के साथ तोडफ़ोड़ कैसे कर सकता है? यह सब अराजकता फैलाने वाले तत्वों का काम है। हमने उनके खिलाफ तोडफ़ोड़ का मामला भी दर्ज करा दिया है। साथ ही मुख्यालय पर सुरक्षा भी बढ़ी दी है।

परसराम मदेरणा ने भी तो विरोध किया है?
- मदेरणा जी पार्टी के वरिष्ठ नेता है। उन्होंने हमेशा पार्टी को मजबूत करने का काम किया है। जिसे आप विरोध बता रहे हैं, वह उनकी सलाह है। यह उनका काम भी है। यदि हमसे कहीं कमी रह जाती है तो पार्टी के बुजुर्ग नेता मार्गदर्शन नहीं करेंगे तो कौन करेगा। मेरे मुख्यमंत्री बनने में भी उनका बहुत सहयोग रहा।

उनका आरोप है कि किसानों को ज्यादा तवज्जों नहीं मिली।
- कांग्रेस ने हमेशा से किसानों को पूरा प्रतिनिधित्व दिया है। पहले घोषित की गईं 146 सीटों के आंकड़े में आपको दे सकता हूं। इन सीटों में से सर्वाधिक 57 सीटें किसानों को दी गई हैं।

कांग्रेस सत्ता में आई तो मुख्यमंत्री कौन होगा?
- कांग्रेस में मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने की परंपरा नहीं है। चुनावों के बाद विधायक जिसे अपना नेता चुनेंगे वही मुख्यमंत्री होगा। इतना तय मानिए राज्य में भारतीय जनता पार्टी का सफाया होने वाला है और कांग्रेस सत्ता संभालने वाली है। अब मुख्यमंत्री कोई भी बने इससे क्या फर्क पड़ता है।

आप मुख्यमंत्री की दौड़ में कितने आगे हैं?
- यहां कोई आलंपिक थोड़े ही हो रहे हैं। मैं कांग्रेस का अनुशासित व समर्पित सिपाही हूं। पार्टी ने जो भी जिम्मेदारी दी है मैंने पूरी शिद्दत के साथ निभाई है। आगे पार्टी जो भी जिम्मदारी देगी मैं पूरी करूंगा।

आजकल आलाकमान आपसे क्यों नाराज है?
- किसी की कोई नाराजगी नहीं है। खाली मीडिया ने भ्रम फैला रखा है।