शनिवार, जुलाई 16, 2011

'राइट टू शेल्‍टर' का गहलोती शिगूफा


भारतीय संविधान ने देश के नागरिकों को कई अधिकार दिए हैं, लेकिन पिछले एक अरसे से सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और भोजन का अधिकार की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। भोजन का अधिकार तो अभी अंजाम तक नहीं पहुंचा है और शिक्षा का अधिकार स्थापित होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, लेकिन सूचना का अधिकार ने हर ओर से वाहवाही लूटी है। तमाम तरह के तालों में बंद रहने वाली सूचनाएं अब लोगों को सहजता से उपलब्ध हो रही हैं और इससे कई घपलों व घोटालों से भी परदा उठ रहा है। इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक और नए अधिकार का शिगूफा छोड़ दिया है। उन्होंने न केवल 'आवास के अधिकार' की वकालत की है, बल्कि इसे अगली पंचवर्षीय योजना में भी शामिल करने की भी मांग की है।
गहलोत गरीब और कमजोर वर्ग को आवास उपलब्ध करवाने के लिए पूर्व में भी विशेष प्रयास करते रहे हैं, लेकिन 'आवास के अधिकार' की बात कर उन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। जोधपुर में एक आवासीय योजना का शिलान्यास करते हुए उन्होंने कहा कि 'आम आदमी के लिए रोटी एवं कपड़ा के बाद मकान की आवश्यकता होती है। हर व्यक्ति को मकान मिले यह सुनिश्चित करने के लिए 'राइट टू एज्यूकेशन' और 'राइट टू फूड' की तर्ज पर 'राइट टू शेल्टर' कानून बनाया जाना चाहिए और इसे बारहवीं पंचवर्षीय योजना में शामिल किया जाना चाहिए।' उन्होंने कहा कि 'लोगों को सूचना, शिक्षा एवं भोजन का अधिकार मिलने के बाद यह जरूरी लगता है कि अब 'राइट टू शेल्टर' कानून भी बनना चाहिए। रोटी व कपड़ा के बाद सबसे बड़ी बुनियादी जरूरत मकान ही है। हर व्यक्ति के पास अपना मकान होना नितंात जरूरी है। इस बारे में मैं अपने स्तर पर हर संभव प्रयास कर रहा हूं, लेकिन बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सबके पास मकान हो इसके लिए 'राइट टू शेल्टर' का अधिकार भी योजना में प्रस्तावित होना जरूरी है।'
मंहगाई के इस दौर में अपना घर बनाने का सपना अब सपना ही बन कर रह गया है। अव्वल तो मकान बनाने की लिए जमीन का टुकड़ा खरीदना ही मुश्किल है और यदि खरीद भी जाए तो उस पर भवन बनाना आसान काम नहीं है। निर्माण सामग्री के भाव आसमान छू रहे हैं। बैंकों से कर्ज लेकर घर बनाना भी अब महंगा सौदा हो गया है। छत का इंतजाम करना कितना दूभर होता जा रहा है, इसकी बानगी इससे मिलती है कि जहां भी थोड़ी कम दर पर सरकारी स्कीम लांच होती है, वहां आवेदकों की भीड़ लग जाती है। ऐसे में गहलोत की 'राइट टू शेल्टर' की मांग को अच्छा समर्थन मिला है और यह संभव है कि केंद्र सरकार जल्द ही 'राइट टू शेल्टर' की दिशा में काम करना शुरू कर दे। इस संदर्भ ने जितने भी विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों और लोगों से बात की, ज्यादातर ने गहलोत की मांग को जायज बताया और सिद्धांतत: उनका समर्थन किया।
राज्य के नगरीय विकास व आवासन मंत्री शांति धारीवाल कहते हैं कि घर व्यक्ति की जरूरत है और किसी कानून के माध्यम से सरकार प्रत्येक व्यक्ति को छत उपलब्ध करवा पाती है तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। धारीवाल बताते हैं कि राजस्थान पहले ही गरीब व कमजोर तबके को आवास उपलब्ध करवाने में अग्रणी है। अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी के तहत राज्य में 363 करोड़ रुपए लगात की 15 आवासीय योजनाओं में 10,696 मकानों का निर्माण कार्य प्रगति पर है। भारत सरकार ने राज्य सरकार की अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी की सराहना की और इन योजनाओं के लिए प्रत्येक घर के निर्माण पर 12 हजार 500 रुपए का अनुदान दिया जा रहा है। इसका सीधा लाभ मकान मालिक को होगा। इस दृष्टि सें राजस्थान पहला राज्य है जिसे केंद्र सरकार द्वारा गृह निर्माण के लिये अनुदान स्वीकृत किया गया है। आवास निर्माण के मेटेरियल की गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा जा रहा है और नियमानुसार यथा समय स्वतंत्र एजेंसियों से जांच करवाई जा रही है। अफोर्डेबल हाउसिंग के लिए लोगों की मांग निरन्तर बढ़ रही है और अधिकाधिक बिल्डर भी आगे आ रहे हैं। अभी जयपुर, चाकसु, भिवाडी, कुचामन और दौसा में कार्य प्रगति पर है। इसके अतिरिक्त चूरू, सरदारशहर, झुंझुनूं, पिंडवाडा, बाडमेर, देवली, चित्तौडगढ और भीलवाडा में भी इस प्रकार की आवास गृह निर्माण योजना के संबंध में प्रयास किए जा रहे हैं।
वहीं, वसुंधरा सरकार में नगरीय विकास एवं आवासन मंत्री रहे प्रताप सिंह सिंघवी हर व्यक्ति को घर की मांग का तो समर्थन करते हैं, लेकिन इसके अमल पर उन्हें संदेह है। वे सवाल उठाते हैं कि शिक्षा के अधिकार के समय भी खूब हो हल्ला किया जा रहा था, लेकिन उसका हश्र सबके सामने है। वे कहते हैं कि देश के सभी राज्यों में आवास एक गंभीर मसला है। करोड़ों परिवारों को अपना घर नहीं है। सरकार ने पहले भी खूब योजनाएं बनाई हैं, लेकिन इनमें से एक भी स्पष्ट रूप से आगे नहीं गई। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों को आवास उपलब्ध करवाने के लिए बनी योजनाओं पर कितनी ईमानदारी से अमल हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। सबको अपना घर मुहैया करवाने के लिए कई स्तर पर कोशिशों की जरूरत है। सही योजना बनना और उसका लाभ सही लोगों तक पहुंचाना सबसे ज्यादा जरूरी है। जब तक हम इस दिशा में ध्यान नहीं देंगे 'राइट टू शेल्टर' की बात करना बेमानी है।
टाउन प्लानिंग के विशेषज्ञ डॉ. नंदकिशोर जेतवाल कहते हैं कि यदि ऐसा कोई कानून भविष्य में आकार लेता है तो इससे कई समस्याओं का हल स्वत: ही निकल जाएगा। शहरों में मास्टर प्लान को लागू करना आसान हो जाएगा। स्लम की समस्या भी पूरी तरह हल हो जाएगी। जब सरकार ही सबको आवास उपलब्ध करवा देगी तो कच्ची बस्तियां विकसित ही नहीं हो पाएगी। शहरों की सीवरेज, पानी सप्लाई आदि भी बेहतर हो जाएंगे। वे बताते हैं कि गांवों के मुकाबले शहरों में घर बनाना मुश्किल है। केंद्र सरकार ने शुरू से इस जटिलता को हल करने के प्रयास किए हैं। अब तक की सभी पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य आवास और शहरी विकास है। कई योजनाओं में संस्था निर्माण तथा सरकारी कर्मचारियों एवं कमजोर वर्गों के लिए मकानों के निर्माण पर जोर दिया गया। सभी कारीगरों को शामिल करने के लिए औद्योगिक आवास योजना को व्यापक बनाया गया। 'ग्लोबल शेल्टर स्ट्रेटजी (जीएसएस) की अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में, 1988 में राष्ट्रीय आवास नीति की घोषणा की गई जिसका दीर्घकालिक उद्देश्य आवासों की कमी की समस्याओं को दूर करना, अपर्याप्त आवास व्यवस्था की आवासीय स्थितियों को सुधारना तथा सबके लिए बुनियादी सेवाओं एवं सुविधाओं का एक न्यूनतम स्तर मुहैया कराना था। सरकार की भूमिका में निर्धनता एवं कमजोर वर्गों के लिए प्रदाता के रूप में, और बाधाओं को हटाकर एवं भूमि तथा सेवाओं की अधिक आपूर्ति करा कर अन्य आय वर्गों एवं निजी क्षेत्र के लिए सुविधाकर्ता के रूप में परिकल्पना की गई।
समाजशास्त्री सूरजभान सिंह बताते हैं कि आवास परिवार को व्यवस्थित आकार प्रदान करता है। आवास के अभाव में समाज सभ्य कम आदिम ज्यादा लगता है। आवासों की दृष्टि से भारत की स्थिति दयनीय है। सेंटर फॉर हाउसिंग राइट्स एंड एविक्शंस की रिपोर्ट के मुताबिक देश में लोअर और मिडल क्लास के लिए तीन करोड़ मकानों की कमी है। यह कमी पूरी भी नहीं होती दिख रही है। सरकारी योजनाएं तो दम तोड़ती नजर आ ही रही हैं, वे भी अब घर नहीं बना पा रहे हैं, जो बैंके से लोन लेकर ऐसा करने की सोच सकते हैं। जमीन की आसमान छूती कीमतों और एक साल के भीतर हाउसिंग लोन में चार से पांच फीसदी की बढ़ोतरी ने लोगों की उम्मीदें तोड़ दी हैं। फिक्की की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाउसिंग सेक्टर किसी भी अर्थव्यवस्था का एक पाया होता है। इस पर गलत असर पड़ा, तो पूरी अर्थव्यवस्था मुरझा सकती है। दुनिया के बड़े देशों के मुकाबले भारत में हाउसिंग लोन का दायरा अब भी बहुत छोटा है- कुल कर्ज का महज चार फीसदी, जबकि चीन में यह 17 और थाईलैंड में 14 फीसदी है।
राजस्थान उच्च न्यायालय के वकील आनंद सिंह नरूका इस संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा फरवरी 2010 में दिए एक फैसले का हवाला देते हुए कहते हैं कि कमजोर व गरीबों के लिए जगह तलाश करना सरकार की जिम्मेदारी है। न्यायालय ने यह फैसला झुग्गी बस्तियों से हटाए गए लोगों की याचिका पर दिया था। हाईकोर्ट ने कहा था कि अगर सरकारी नीति के तहत झुग्गी में रहने वाले लोगों को हटाया जाता है, तो उन्हें किसी और जगह पर शिफ्ट किया जाए। साथ ही नई जगह पर भी इन लोगों के लिए सभी बुनियादी सुविधाएं होना चाहिए, ताकि उन्हें अपने जीवन-यापन में कोई परेशानी न आए। अदालत ने कहा कि संविधान ने सबको जीने का अधिकार दिया हुआ है और लोगों के इस मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं किया सकता। रिलोकेशन पॉलिसी कहती है कि अगर नवंबर 1998 से पहले अगर कोई झुग्गी बस्ती में रहता है और अगर वह आम रास्ते पर नहीं है, तो उसे वहां से हटाने कहीं और बसाना जरूरी है। हाईकोर्ट ने कहा कि झुग्गी में रहने वाले लोग दोयम दर्जे के नागरिक नहीं हैं। अन्य लोगों की तरह वो भी बुनियादी सुविधाओं के हकदार हैं। शहर को सुंदर बनाने के लिए कई बार सिविक एजेंसी इन्हें शहर के दूर बसा देती हैं, लेकिन वहां पानी, ट्रांसपोर्ट, स्कूल व हेल्थ फैसिलिटी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होतीं। तमाम बातों को ध्यान में रखकर उन्हें रिलोकेट किया जाना चाहिए। सरकारी रिकॉर्ड में नाम न होने की बात कहकर उन्हें हटाने के बारे में सोचना सही नहीं है। ये वो हैं जो शहर के बाकी लोगों के बेहतर जीवन में उनकी मदद करते हैं। ऐसे में ये प्रोटेक्शन के हकदार हैं।
कुल मिलाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 'राइट टू शेल्टर' जो शिगूफा छोड़ा है, उसके नेक होने पर तो सवाल नहीं उठाए जा सकते, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाना वाकई टेढ़ी खीर है। ऐसे परिवारों की संख्या करोड़ों में है जिनके पास खुद का मकान नहीं है। इन लोगों की पहचान करना, उन्हें घर उपलब्ध करवाने की योजना बनाना और इसे अमजीजामा पहनाना आसान काम नहीं है। यदि सरकार ऐसे काम करने में पारंगत होती तो यह संभव नहीं था कि देश में करोड़ों लोग अब भी बेघर होते। योजनाओं की यहां हमारे देश में कमी नहीं है, लेकिन इन पर अमल ईमानदारी से नहीं हो पाता है। ऐसे में यदि 'राइट टू शेल्टर' को भी सियासी नजरिये ही देखा गया तो इससे कोई बड़ा बदलाव होने वाला नहीं है।

सोमवार, अप्रैल 04, 2011

अब मद्धम नहीं होगी बाघों की दहाड़

ऐसे में जब दुनिया के हर कोने से बाघों के विलुप्त होने की आशंका जाहिर की जा रही है, तब भारत में इनकी तादात बढऩा नई उम्मीद जगाता है। ताजा गणना के अनुसार देश में बाघों का औसत अनुमानित आंकड़ा 1,706 है। गौरतलब है कि बाघों की पिछली गणना 2006 में हुई थी और तब इनकी संख्या 1,411 बताई गई थी। यानी पिछले चार साल में देश में बाघों की संख्या में 12 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह बढ़ोतरी ऐतिहासिक तो नहीं है, फिर भी यह मायने रखती है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि इस अवधि में ज्यादातर बाघ संरक्षित क्षेत्रों से निराशजनक तथ्य ही ज्यादा बाहर आए थे। इस दौरान बाघों की संख्या में भारी कमी की आशंका जताने वाले तथाकथित गैर सरकारी संगठनों और वन्य जीव विशेषज्ञों की कमी नहीं थी। ऐसे निराशजनक माहौल में यदि बाघों को बचाने के अभियान ने यदि मामूली सफलता भी हासिल की है, तो इसकी तारीफ होनी चाहिए। हमारे यहां बाघ संरक्षण हमेशा से विवाद का विषय रहा है। कभी बाघों की गणना पर तो कभी इनके संरक्षण के तौर-तरीकों पर सवाल उठते रहे हैं। चूंकि इस बार गणना अत्याधुनिक वैज्ञानिक तरीके से की गई है, इसलिए इस पर सवाल खड़ा करना न्यायसंगत नहीं होगा। हां, संरक्षण की दिशा और दशा पर अभी भी मंथन की व्यापक गुंजाइश है।
पर्यावरण व वन मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि बाघ संरक्षण के अभियान में कील-कांटों की कमी नहीं है। सबसे ज्यादा चिंता की बात है बाघों के प्रवास का क्षेत्र निंरतर कम होना। 2006 में जहां बाघ 93,600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विचरण करते थे, वहीं अब यह क्षेत्र 72,800 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसी का नतीजा है कि कुल बाघों में से 30 फीसदी संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रह रहे हैं। रणथंभोर, कॉरबेट और सरिस्का सरीखे नामी और बड़े संरक्षित क्षेत्र से बाहर भी बड़ी संख्या में बाघ विचरण कर रहे हैं। इससे बाघ और मानव के बीच संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है। बाघों का संरक्षण आने वाले वर्षों में और बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि देश पर जनसांख्यिकी और विकास के लिहाज से दबाव बढ़ रहा है। बाघों का संरक्षित क्षेत्र से बाहर जाना खतरनाक है। ये यहां या तो शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या निवास क्षेत्र में प्रवेश करने पर गांव वाले इन्हें मार देते हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बाघ संरक्षित क्षेत्र में किसी भी कीमत पर कम नहीं हो। देश में इस समय 39 बाघ संरक्षित क्षेत्र हैं, लेकिन इनमें से एकाध ही अपने क्षेत्रफल को बरकरार रख पाया है। कहीं खनन माफिया ने कब्जा जमा लिया है तो कहीं भूमाफिया ने। कई जगह सिंचाई परियोजनाओं की वजह से भी बाघ संरक्षित क्षेत्रों का दायरा कम हुआ है। एक तथ्य यह भी है कि देश के कई क्षेत्रों में बाघों का अस्तित्व अभी भी खतरे में है। नई गणना के मुताबिक जहां उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल और केरल इनकी संख्या स्थिर है। चिंताजनक यह है कि मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघ की संख्या घट रही है।
इलाका भले कोई भी हो हमारे यहां बाघों के दो ही दुश्मन हैं- शिकारी और स्थानीय निवासी। तमाम कानूनी बंदिशें के बाद भी देश में बाघों का शिकार होता है। चीन इनके अंगों का बड़ा बाजार है। हालांकि चीन में बाघ के अंगों का व्यापार 1993 से ही प्रतिबंधित है, फिर भी यहां यह धडल्ले से होता है। यहां बाघ की खाल 11,660 डॉलर से 21,860 डॉलर के बीच बिकती है, जबकि हड्डियों का दाम 1,250 डॉलर प्रति किलो है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कई बार इस मसले को चीन के सामने उठा चुके हैं, लेकिन चीन सहयोग नहीं कर रहा है। यह सही है कि चीन का हठ अनैतिक है, मगर हम भी तो बाघों के शिकार का ठीकरा चीन के सिर फोड़ अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। माना कि चीन में बाघ से जुड़े उत्पादों का विशाल बाजार उपलब्ध है, लेकिन हम यह नजरअंदाज नहीं कर सकते कि शिकार हमारे यहां होता है और कई स्तरों की सुरक्षा को धता बताकर यह चीन तक पहुंच जाता है। यदि हम ईमानदारी से शिकंजा कस दें तो मजाल है कि चीन के बाजार में हमारे बाघों के अवशेष पहुंच जाएं। जहां तक बाघ संरक्षित क्षेत्रों और आसपास रह रहे लोगों को सवाल है, तो इन्हें दोष देने से पहले इनकी मजबूरी समझना भी जरूरी है। खुद जयराम रमेश ने यह स्वीकार किया है कि 50 हजार परिवार अभी भी ऐसे हैं, जिनका पुनर्वास होना बाकी है। बाघों के पूरी तरह विलुप्त होने के कारण बदनाम हुए सरिस्का की ही बात करें तो यहां कोर सेक्टर और उसके आसपास करीब 20 गांव अभी भी ऐसे हैं, जहां करीब दस हजार की आबादी बसी हुई है और 25 हजार से अधिक मवेशी विचरण कर रही है। होता यह है कि सरिस्का के बाघ अक्सर मवेशियों का शिकार करने पहुंच जाते हैं। पशुपालक इसे बर्दाश्त नहीं करते।
अब तक की नीतियों से अभयारण्यों के आस पास रहने वाले लोगों को संरक्षण से कुछ हासिल नहीं हुआ है। लोग मजबूरी में संरक्षित इलाकों में मवेशी चराने ले जाते हैं और कई बार बाघ उन पर हमला कर देते हैं। उनकी एक परेशानी यह भी है कि बाघ और अन्य मांसाहारी जानवरों से बचने के लिए कई शाकाहारी जानवर जंगल से निकल कर खेतों में फसलों को बरबाद करते हैं। इस तरह ऐसे लोगों और बाघों में द्वंद्व बढ़ता ही जा रहा है। ग्रामीणों को जंगली जानवरों से अपने मवेशियों और फसलों को बचाने के लिए दिन-रात सचेत रहना पड़ता है। जब तक बाघ संरक्षण के अभियानों में ग्रामीणों के फायदों को नहीं तलाशा नहीं जाएगा, इसका सफलता संदिग्ध ही रहेगी। एक तो सरकार को यह देखना होगा कि संरक्षित क्षेत्र के आसपास जिन लोगों की फसलें बरबाद हुई हैं और जिनकी मवेशी मारी गई है, उन्हें मुआवजा दिया जाए। दूसरी बात यह कि बाघों के अभयारण्यों के आस पास के इलाकों को तीव्र गति से विकास किया जाए। जो लोग इन इलाकों में रह रहे हैं उन्हें इसका फायदा दिया जाना चाहिए। तीसरी बात कि उन्हें संरक्षण का सीधा लाभ मिलना चाहिए। उन्हें संरक्षण से जुड़ी नौकरियों में तवज्जो मिलनी चाहिए। बाघों की वजह से पर्यटन के जरिए होने वाली कमाई में भी उनका हिस्सा होना चाहिए।

शनिवार, दिसंबर 25, 2010

किस-किसको संभाले गहलोत

अशोक गहलोत को सूबे की सत्ता संभाले दो साल पूरे हो गए। इस दौरान ऐसे मौके कम ही आए जब सरकार उनके मुताबिक चली। कभी मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने ही उन्हें मुसीबत में डाला तो कभी उन्हें टीम के नौसिखिया होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।

अपनी सरकार की दूसरी वर्षगांठ पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विपक्ष के आरोपों का तो आक्रामक अंदाज में जबाव दे दिया, लेकिन सरकार में शामिल उन ‘अपनों’ को वे कोई सबक नहीं सिखा पाए जो पिछले दो साल उनके लिए सिरदर्द बने हुए हैं। संभवत: ऐसा इसलिए है कि गहलोत को इन्हें सुधारने का कोई तरीका ही नहीं सूझ रहा है। वरना कोई वजह नहीं है कि सरकार को रफ्तार देने में बाधा बन रहे इन साथियों को वे कब का सीधा कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि गहलोत ने इन पर लगाम कसने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कई बार सरकार की चाल चुस्त करनी चाही, लेकिन हर बार नाकामी के सिवा कुछ न मिला। अब गहलोत को यह चिंता सता रही है कि यदि ऐसे ही चलता रहा था तो वे तीन साल बाद किस मुंह से जनता से वोट मांगेंगे।
मौजूदा सरकार में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बाद नंबर दो की हैसियत शांति धारीवाल की है। वे सरकार के सबसे अनुभवी मंत्रियों में से एक हैं और उनके पास गृह, विधि, नगरीय विकास एवं स्वायत्त शासन सरीखे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी हैं। मुख्यमंत्री ने उनको फ्रीहैंड दे रखा है, लेकिन पिछले दो साल में उनके खाते में उपलब्धियां कम और नाकामियां ज्यादा आई हैं। इनका विस्तृत ब्यौरा ‘शुक्रवार’ पहले ही दे चुका। गहलोत धारीवाल के कामकाज से तो खिन्न हैं ही, इस बात से खासे नाखुश हैं कि धारीवाल उनकी नसीहतों पर ध्यान देने की बजाय स्थानीय स्तर की राजनीति में उलझ रहे हैं।
असल में धारीवाल पर इन दिनों हाड़ौती का सबसे बड़ा नेता बनने की सनक सवार है। कल तक दूसरी पंक्ति के नेताओं को निपटाने में लगे धारीवाल ने अब पंचायतीराज मंत्री भरत सिंह को भी निशाने पर ले लिया है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कोटा आए तो उन्हें जानबूझकर सभी कार्यक्रमों से दूर रखा गया। जब गहलोत को इसका पता लगा तो उन्होंने तब तो कुछ नहीं कहा, लेकिन कुछ दिन बाद धारीवाल को बिना बताए भरत सिंह के साथ क्षेत्र को दौरा कर संकेतों में बहुत कुछ समझाने की कोशिश की। हालांकि इसके बाद भी धारीवाल के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया।
धारीवाल के अलावा हाड़ौती क्षेत्र से दो और मंत्रियों- प्रमोद जैन ‘भाया’ और भरत सिंह के कामकाज से भी गहलोत संतुष्ट नहीं बताए जा रहे हैं। भाया सार्वजनिक निर्माण मंत्री हैं और धारीवाल से उनकी अदावत जगजाहिर हैं। इस तनातनी के अलावा गहलोत उनके काम करने के तरीके से भी नाखुश हैं। सडक़ों और अन्य निर्माण कार्यों के मामले में उन्हें बारां के अलावा राज्य का कोई दूसरा क्षेत्र नजर ही नहीं आता है। हालांकि स्थानीय लोग भी उनके कामकाज से संतुष्ट नहीं है। मसलन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 90 की खस्ता हालत लोगों को बेहद अखर रही है। इस सडक़ को बारां जिले की लाइफ लाइन माना जाता है। भाया ही नहीं पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास मंत्री भरत सिंह का राजनीति करने का अंदाज भी गहलोत को नहीं भा रहा है। हालांकि भरत सिंह साफ छवि के नेता हैं, लेकिन उनका अडियल रवैया कई बार सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी कर चुका है। खुद की पार्टी के विधायकों के विरोध के बाद भी वे मनरेगा की सॉशल ऑडिल करवाने की बात पर अड़े रहे। इस पर विधायक रघु शर्मा ने विधानसभा में ही उन्हें मानसिक अवसाद का शिकार बता मेडिकल मुआयना करवाने की सीख दे डाली। हाड़ौती के कांग्रेसी नेताओं में उनकी शांति धारीवाल से तो बिल्कुल नहीं बनती है। हालांकि प्रमोद जैन ‘भाया’ से उनकी कुछ हद तक सुलह हो गई है। इसी तनातनी की वजह से कोटा जिला प्रमुख के चुनाव में कांग्रेस का उम्मीदवार बहुमत के बाद भी हार गया। इस मामले में भरत सिंह की भूमिका संदिग्ध रही थी। इस मामले में आलाकमान भी उनको दो बार तलब कर चुका है।
गहलोत के साथ परेशानी यह भी यह है कि जिन्हें वे अपना मानते थे वे भी उनकी किरकिरी करवाने में लगे हुए हैं। इस फेहरिस्त में पहला नाम खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री बाबू लाल नागर का आता है। नागर को गहलोत का खास माना जाता है। नागर ने ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ अभियान के मार्फत खूब चर्चाओं में रहे थे, लेकिन गेहूं पिसाई के ठेके में गड़बड़ी का मामला उन पर भारी पड़ गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय के दखल के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो इस मामले की जांच कर रहा है। मजेदार बात यह है कि जांच शुरू होने के बाद भी नागर उसी विभाग के मंत्री बने हुए हैं। मंत्री पद से इस्तीफा देना तो दूर उन्होंने पार्टी के आला नेताओं को इस मामले में अब तक सफाई भी नहीं दी है। उल्टे वे जांच को प्रभावित करने में लगे हैं। गौरतलब है कि इस पूरे मामले की फाइल कई दिनों तक भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को नहीं दी गई और अब पता चला है कि काफी रिकॉर्ड गायब भी हो चुका है।
शिक्षा मंत्री मास्टर भंवर लाल मेघवाल को भी गहलोत का खास माना जाता है, लेकिन वे भी आए दिन उनके लिए मुसीबतें खड़ी करते रहते हैं। उल्टी-सीधी देसी कहावतों का इस्तेमाल करते हुए मेघवाल कब क्या बोल जाएं, कोई कुछ नहीं कह सकता। बयान देने से वे चूकते नहीं है और ऐसा कोई बयान होता नहीं है जिससे बवाल खड़ा न हो। मेघवाल ने पिछले साल विदेश यात्रा पर जाते हुए वहां मौज-मस्ती करने की बात कही थी बाद में इस पर विवाद हुआ। पिछले दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने समानीकरण मामले में शिक्षकों की पत्नियों को लेकर अभद्र टिप्पणी की और हल्ला मचने पर उन्हें माफी तक मांगनी पड़ी। इसके बाद उन्होंने कहा कि महंगाई कहां है, गरीब आदमी भी दिन में चार बार कपड़े बदलता है। उन पर अपनी ही पार्टी की एक महिला नेता से दुव्र्यवहार का आरोप भी लगा। शिक्षक तबादलों पर ही विपक्ष ही कांग्रेस के कई नेताओं ने खुले तौर पर उन पर आरोप लगाए। गहलोत के सामने मेघवाल को लेकर एक परेशानी यह भी है कि वे उनके विभाग के राज्य मंत्री मांगी लाल गरासिया को जरा भी भाव नहीं देते। इस पर गरासिया कई बार खुले तौर पर नाराजगी जता चुके हैं। शिक्षा मंत्री द्वारा विभागीय बैठकों में नहीं बुलाने व विज्ञापनो में फोटो नहीं छपाने की गरासिया ने मुख्यमंत्री से शिकायत की, लेकिन हालात अभी भी पहले के जैसे ही बने हुए हैं।
वन, पर्यावरण और खान मंत्री राम लाल जाट को भी गहलोत का खास माना जाता है। जाट दो साल पहले उस समय भी गहलोत के साथ खड़े नजर आए थे जब प्रदेश के जाट नेता किसी ‘किसान’ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए लॉबिंग कर रहे थे। इतना ही नहीं उन्होंने पहली-दूसरी बार विधायक बने जाट नेताओं का समर्थन जुटाने में भी गहलोत की खूब मदद की। गहलोत ने भी उन्होंने उपकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उन्हें अच्छा पोर्टफोलियो दिया, लेकिन उनके तौर-तरीकों पर भी खूब अंगुलियां उठ रही हैं। राज्य में अवैध खनन पहले के मुकाबले बढ़ा ही है और रणथंभौर-सरिस्का बाघ अभयारण्यों की बदइंतजामी भी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा रही है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि बाघों की मौत के लिए राज्य सरकार का कुप्रबंधन जिम्मेदार है। इसके अलावा राम लाल जाट भीलवाड़ा में जिंदल समूह को खनन पट्टा देने के मामले में खान मंत्री रामलाल जाट विधानसभा के अन्दर व बाहर काफी चर्चित रहे।
गहलोत ऐसे मंत्रियों से भी परेशान हैं जो उनके सादगी और अनुशासन के मंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं। इस मामले में बीना काक शीर्ष पर हैं। वे चुनाव जीतने तक ही कांग्रेस की रीति-नीतियों को याद रखती हैं। उन्हें राजसी ठाठ-बाट से रहना पसंद है और उनका सियासत का अंदाज भी वैसा ही है। उनके नेतृत्व में पर्यटन मंत्रालय तो कोई तरक्की नहीं कर रहा है, लेकिन उनकी खूब तरक्की हो रही है। उनके पुत्र अंकुर काक की कंपनी मेजस्टिक रियलमार्ट को सरकार की अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी के तहत सस्ते मकान बनाने का टेंडर भी मिल गया। उनके पास ‘प्रशासन गांव के संग’ अभियान में जाने का तो वक्त नहीं है, लेकिन वे विदेश जाने का कोई मौका नहीं चूकती। गहलोत की सादगी-सादगी की रट के बावजूद वे अधिकारियों के लवाजमे के साथ कई बार विदेश जा चुकी हैं।
जनजाति विकास मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय का काम करने का सलीका भी मुख्यमंत्री को खूब खटक रहा है। मालवीय के पास न तो विधानसभा में आने का वक्त है और न ही विभागीय कामकाज निपटाने का। विधानसभा के बजट सत्र में वे बीमारी का बहाना बनाकर गायब हो गए और सहकारिता मंत्री परसादी लाल मीणा को उनके विभाग की बजट मांगों का जबाव देना पड़ा। इतना ही नहीं मीडिया में यह सामने आने के बाद कि वे बीमार नहीं है, बल्कि घर पर ही जरूरी फाइल निपटा रहे हैं, उन्होंने विधानसभा आना उचित नहीं समझा। हां, इस दौरान उन्होंने अपने क्षेत्र में एक मेले में खूब जश्र जरूर मनाया। जयपुर आने के बाद भी वे विभागीय कामकाज के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। यहां तक कि उन्हें कर्मचारियों के तबादला आदेशों पर हस्ताक्षर करने तक का समय नहीं मिल पाता। कई आदेश उनके पीए के हस्ताक्षर से निकले। इस दौरान एक मीडियाकर्मी से मारपीट का आरोप भी उन पर लगा और उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ।
जब अपने ही इस तरह से पेश आ रहे हैं तो गहलोत उन मंत्रियों से तो उम्मीद ही क्या कर सकते हैं जिन्हें मजबूरी में मंत्री बनाया गया।
गहलोत को ऐसे मंत्रियों से तो पहले से ही उम्मीद नहीं थी, जिन्हें मजबूरी में मंत्रिमंडल में जगह दी गई। इस सूची में पहला नाम गोलमा देवी का आता है। गोलमा के पास खादी एवं ग्रामोद्योग मंत्रालय है। वे कांग्रेस के कई नेताओं को शुरू से ही खटकती रही हैं, लेकिन अब गहलोत भी उनके कार्यप्रणाली से आजिज आ चुके हैं। पहला तो विभागीय काम में उनका योगदान शून्य है और दूसरा वे सरकार का कहा भी नहीं मान रही हैं। राज्यसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा उम्मीदवार राम जेठमलानी को वोट देकर आग में घी डालने का काम किया। असल में गोलमा को सरकार से ज्यादा चिंता अपने पति दौसा सांसद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा की रहती है। इसी के चलते वे एक बार उनके किरोड़ी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा के एक कार्यक्रम में जा धमकी थीं। हालांकि यह उनके विभाग का ही कार्यक्रम था और उन्हें यहां बुलाया नहीं गया था। कांग्रेस हलकों में भी यह बड़ा प्रश्न बना हुआ है कि सरकार को परेशानी में डालने वाली गोलमा देवी को मंत्री बनाए रखने की आखिर क्या मजबूरी है।
आपदा राहत राज्य मंत्री बृजेंद्र ओला की सुस्ती से भी गहलोत का माथा ठनका हुआ है। गहलोत ने जब सत्ता संभाली थी तो उन्होंने तय किया था कि पहली बार विधायक बनने वालों को मंत्री नहीं बनाया जाएगा, लेकिन बृजेंद्र ओला के मामले में उन्हें ही यह आचार संहिता तोडऩी पड़ी। गहलोत के साथ मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल शीशराम ओला को संतुष्ट करने के मकसद से बृजेंद्र को मंत्री तो बना दिया, पर वे अब तक कोई छाप नहीं छोड़ पाए हैं। उल्टे उन्होंने सरकार को कई बार मुश्किल में ही डाला है। राज्यसभा चुनाव में दूसरी वरीयता का वोट कांग्रेस के बजाय भाजपा उम्मीदवार को डाल दिया। आलाकमान ने ओला को नोटिस दिया, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। ओला के पास उतना बड़ा मंत्रालय तो नहीं है, लेकिन उनकी सुस्ती ने आपदा राहत विभाग को बिना काम मंत्रालय बना दिया है। कुल मिलाकर काम में हाथ बंटाने की बजाय गहलोत मंत्रिमंडल के कई मंत्री सरकार के लिए ही मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। गहलोत जितना जल्दी ‘मुसीबत’ बने इन मंत्रियों से निपट लें अच्छा है, वरना बाकी बचे तीन साल भी उन्हें कांटो पर ही चलना होगा।
(शुक्रवार के ताजा अंक में प्रकाशित)

शनिवार, दिसंबर 18, 2010

ताज गया, राज बरकरार


वसुंधरा राजे सिंधिया भले ही सत्ता में नहीं हैं और आलाकमान उन्हें राजस्थान से दूर हर संभव कोशिश कर चुका है, लेकिन जनता के बीच आज भी उनका जादू बरकरार है। उनकी यदा-कदा होने वाली सभाओं में लोगों की बढ़ती तादात चौंकाने वाली है। जनता को रिझाने की कला में वे निश्चित रूप से पहले से कहीं ज्यादा पारंगत हो गई हैं।
स्थान- राजधानी जयपुर का महारानी कॉलेज। मौका- छात्रसंघ का उद्घाटन समारोह। आमतौर पर ऐसे अवसरों का उपयोग छात्रसंघ के पदाधिकारी बड़े राजनीतिज्ञों को बुलाकर विद्यार्थियों के बीच अपनी धाक कामय करने के लिए और राजनेता युवाओं में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए करते हैं। महारानी कॉलेज में भी ऐसा ही हुआ, लेकिन हुआ बेहद अलहदा ढंग से और वजह बनीं सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया। दरअसल, वे महारानी कॉलेज में हुए इस जलसे में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत कर रही थीं। पहले तो उन्होंने भाषण में दौरान नारी उत्थान की बातें कर खूब तालियां बटोरीं और जब नाचने-गाने का दौर शुरु हुआ तो मंच पर लड़कियों के साथ ठुमके लगा सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। सूबे के राजनीतिज्ञों को भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन वसुंधरा राजे का सियासत करने का यही अंदाज है और इसी के दम सत्ता छिनने के बाद भी जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बरकरार है।
वसुंधरा राजे ने केवल राजस्थान की राजनीति में कई मिथकों को तोड़ते हुए आगे बढ़ीं, बल्कि आज भी उन्हें तोड़ रही हैं। जनता से जुडऩे की प्रक्रिया में उन्हें ऐसे तौर-तरीके अपनाने से कोई गुरेज नहीं है, जो प्रदेश के राजनीतिज्ञों के लिए अब तक अछूत रहे हैं। वे सूबे के जिस भी कोने में जाती हैं, उसी रंग में रंग जाती हैं। वे लोगों की हर मनुहार स्वीकार करती हैं। इससे न केवल उनकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई, बल्कि जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी। इसी के दम पर भाजपा के भीतर उनकी कद-काठी मजबूत हुई। आज स्थिति यह है कि उनका विरोध करने वाले नेता भी दबे स्वर से यह स्वीकार करते हैं कि राजस्थान भाजपा में ‘जनाधार’ के मामले में उनके कद का कोई नेता नहीं है। वसुंधरा भी यह जानती हैं और इसी के दम पर अपने विरोधियों को कई बार जमीन भी दिखा चुकी हैं। इतना ही नहीं राजस्थान की राजनीति के भीष्म पितामह कहे जाने वाले भैरों सिंह शेखावत और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी सीधी चुनौती दे चुकी हैं। यहां सवाल यह है कि आखिर इतना सब होने के बाद भी सूबे की सियासत में महारानी की जड़े कैसे मजबूत होती गईं, उनका जादू आज भी कैसे बरकरार है?
वसुंधरा राजे के सियासी सफर पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि वे बड़े ही केलकूलेटिव तरीके से आगे बढ़ीं। न तो कभी जल्दबाजी की और न ही कभी जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी हुईं। और इन सबके बीच उन्होंने जनता और खुद के बीच दूरियां पैदा नहीं होने दीं। उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय निश्चित रूप से भैरों सिंह शेखावत को जाता है। उनकी अंगुली पकड़ कर 1985 में वे विधानसभा चुनाव में धौलपुर से विजयी रहीं, लेकिन वे जैसे-जैसे आगे बढ़ती गईं आत्मनिर्भर होती गईं। 1989 के लोकसभा चुनाव में वे झालावाड़ सीट पर किस्मत आजमाने पहुंचीं और अच्छे अंतर से जीतने में सफल रहीं। वसुंधरा को झालावाड़ और झालावाड़ की जनता को वसुंधरा खूब रास आईं। उन्होंने लगातार पांच बार संसद में झालावाड़ की नुमाइंदगी की। इस दौरान केंद्र में अटल बिहारी सरकार में उन्हें राज्य मंत्री का ओहदा भी मिला। 2003 में भैरों सिंह शेखावत का उप राष्ट्रपति बनना वसुंधरा के लिए वरदान साबित हुआ। बाबोसा उन्हें अपना राजनीतिक वारिस बनाकर दिल्ली रवाना हो गए। वसुंधरा के विरोध में पहली बार स्वर इसी समय उभरे थे। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया।
यह वह समय था जब राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। गहलोत के 1998 में प्रचंड बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई थी। चुनाव नजदीक आते ही टिकट चाहने वाले नेता जरूर सक्रिय हुए, लेकिन कार्यकर्ता अभी भी पार्टी से कटे हुए थे। कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और भाजपा के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए महारानी की ‘परिवर्तन यात्रा’ बेहद सफल रही। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस यात्रा के बाद ही वसुंधरा को इस बात का आभास हुआ कि वे अब राजनीति के सही ट्रेक पर हैं।
महारानी की राजनीति करने की अपनी ही शैली है, एकदम रजवाड़ों की मानिंद। ना-नुकुर करने और ऑर्डर देने वालों को वे पसंद नहीं करती हैं। भैरों सिंह शेखावत से तनातनी इसी वजह से शुरू हुई। हालांकि उनके ‘खास’ कहे जाने वाले कई लोगों ने भी दूरियां बढ़ाने के काम किए। इस तनातनी के बीच विधानसभा चुनाव उन्होंने अपनी रणनीति से लड़ा। परिणाम आए तो वसुंधरा ने इतिहास रच दिया। राजस्थान में भाजपा के लिए जो करिश्मा शेखावत सरीखे दिग्गज नहीं कर पाए, महारानी ने करके दिखाया। भाजपा को विधानसभा में पहली दफा पूर्ण बहुमत मिला। मुख्यमंत्री बनते ही महारानी ने अपनों को उपकृत और विरोधियों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। इधर वसुंधरा के समर्थकों का कारवां तेजी से बढ़ रहा था तो विरोधी ‘बाबोसा’ का आशीर्वाद प्राप्त जसवंत सिंह के नेतृत्व में एकजुट हो रहे थे। वसुंधरा विरोधी खेमे ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। मिलती भी कैसे, वसुंधरा को आडवाणी का वरदहस्त जो प्राप्त था। खैर विरोधी खेमा भी कहा मानने वाला था। उन्होंने वसुंधरा न सही उनके चहेते डॉ. महेश शर्मा को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटवाकर ही दम लिया।
नए अध्यक्ष ओम माथुर से वसुंधरा की पटरी बैठती इससे पहले ही गुर्जर आरक्षण आंदोलन हो गया। आंदोलन से वसुंधरा की सियासी सफलता में अहम भूमिका निभाने वाली ‘कास्ट केमिस्ट्री’ तो गड़बड़ाई ही कद्दावर नेता किरोड़ी लाल मीणा से भी बैर बंध गया। खैर, जैसे-तैसे कर आंदोलन समाप्त हुआ तो विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। महारानी मन मुताबिक चुनाव की तैयारी नहीं कर पाईं। पूरे प्रचार अभियान में वे अकेली तो थीं ही, गहलोत के आक्रामक प्रचार के अलावा अपनी ही पार्टी के लोगों की ओर से उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को भी झेल रही थीं। खुद के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों की दुहाई देने के बाद भी वे क्लोज फाइट में हारकर सत्ता से बाहर हो गईं। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद वसुंधरा विरोधी उन्हें राजस्थान से रुखसत करने के लिए सक्रिय हो गए, लेकिन विधायकों के समर्थन के चलते वे नेता प्रतिपक्ष बनने में कामयाब हो गईं। कुछ दिनों में ही आम चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो गया। इनके परिणाम भी निराशाजनक आए। पिछली बार 21 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 4 सीटों पर सिमट गई।
वसुंधरा इस हार का कोई बहाना ढूंढ़ती इससे पहले ही उत्तराखंड में खंडूरी और यहां ओम माथुर ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए पद छोडऩे की पेशकश कर दी। वसुंधरा पर भी पद छोडऩे का दबाव बढऩे लगा, पर खंडूरी और माथुर के इस्तीफे स्वीकार करने में हुई देरी को उन्होंने मौके की तरह लिया। इतने में अरुण चतुर्वेदी सूबे में भाजपा के नए निजाम बन गए। वसुंधरा ने अपने किसी सिपेहसालार को अध्यक्ष बनाने की लाख कोशिश की, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। चतुर्वेदी ने आते ही ऐसा कोई काम नहीं किया कि वे वसुंधरा को शिकस्त देना चाहते हैं, लेकिन सियासत की अपनी शैली के अनुरूप महारानी ने चतुर्वेदी को हलकान करने के काम करना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने जो तरीका और समय चुना, वह पार्टी आलाकमान को अखर गया। वसुंधरा ने पार्टी दफ्तर में बैठकर कायकर्ताओं से मिलना शुरु किया तो विरोधियों ने प्रचारित किया कि महारानी पार्टी दफ्तर में दरबार लगा रही हैं। उन्होंने इसकी रिपोर्ट तुरंत केंद्रीय नेतृत्व को भी भेज दी। वसुंधरा की इस हरकत को आलाकमान ने पार्टी के भीतर समानांतर संगठन चलाने के तौर पर देखा।
महारानी से पहले से ही नाराज चल रहे राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अकेले कोई निर्णय करने की बजाय लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, जसवंत सिंह, रामलाल, गोपीनाथ मुंडे, श्योदान सिंह एवं बालआप्टे के अलावा संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी और सुरेश सोनी से चर्चा कर वसुंधरा को इस्तीफा देने के लिए कहा। वसुंधरा ने इस्तीफा तो दिया, लेकिन कई महीने बाद। इस दौरान उन्होंने पार्टी के आला नेताओं को यह अहसास करा दिया कि राजस्थान में जनता और कार्यकर्ताओं के बीच उनकी जड़े कितनी गहरी हैं। पार्टी के ज्यादातर विधायकों ने खुलेआम यहां तक कह दिया कि ‘विधायक दल का नेता चुनने का अधिकार विधायकों का है। हमने वसुंधरा राजे को नेता चुना है। पार्टी उन्हें हटा नहीं सकती है। जहां तक हार की जिम्मेदारी लेने का सवाल है तो लोकसभा चुनावों में हुई हार की जिम्मेदारी लेते हुए सबसे पहले आडवाणी जी और राजनाथ सिंह जी को इस्तीफा देना चाहिए। वसुंधरा ही हमारी नेता रहेंगी भले ही हमे पार्टी ही क्यों न छोडऩी पड़े।’
आलाकमान ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष के पद से तो हटा दिया, लेकिन प्रदेश भाजपा में आज भी उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सीधे तौर पर उनकी मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत केंद्रीय नेतृत्व में भी नहीं है। नए नेता प्रतिपक्ष के मसले को ही ले लें। इतने महीने बीत जाने के बाद भी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष नहीं मिला है। पार्टी से जुड़े सूत्रों की मानें तो बजट सत्र यानी तीन-चार महीने तक नेता प्रतिपक्ष का चुनाव टल गया है। प्रदेश प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी और सह प्रभारी किरीट सामैया ने नेता प्रतिपक्ष के लिए प्रदेश के विधायकों और वरिष्ठ नेताओं से जो रायशुमारी की, वह कोरी कवायद साबित हुई। नेता प्रतिपक्ष तो दूर अब तक प्रदेश कार्यकारिणी का ही गठन पूरी तरह से नहीं हो पाया है। खुद सोलंकी ने स्वीकार किया है कि ‘कार्यकारिणी का गठन सही ढंग से नहीं किया गया है। मोर्चा-प्रकोष्ठों तक का गठन अधूरा है। इसमें क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व सही तरीके से नहीं है, कई अच्छे लोग शामिल होने से रह गए है। कुछ जातियों के प्रतिनिधियों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला, उन पर विचार किया जाएगा और कार्यकारिणी में नाम जोड़े जाएंगे।’
पार्टी आलाकमान आज तक यह तय नहीं कर पाया है कि वसुंधरा पर दबाव कैसे बनाया जाए। सूत्रों की मानें तो केंद्रीय नेतृत्व ने महारानी को किस तरह से राजनीति करनी है, इसकी स्पष्ट लकीर भी खींच दी है। बताया जा रहा है कि आलाकमान ने वसुंधरा के सरकारी आवास पर विधायकों के साथ-साथ अन्य बैठकों पर रोक लगाते हुए निर्देश जारी किए हैं कि सभी बैठकें प्रदेश कार्यालय में आयोजित की जाएं। ऐसे आदेशों के पीछे कारण यही बताया जा रहा है कि किसी नेता के निवास पर पार्टी के किसी नेता के आवास पर पार्टी की किसी भी प्रकार की बैठक आयोजित होने से समानांतर संगठन का संदेश जाता है, जो पार्टी के लिए ठीक नहीं है। गौरतलब है कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने के बाद से लगातार अपने निवास पर समर्थक विधायकों और नेताओं की बैठकें करती रही हैं। इस सख्ती के बाद भी आलाकमान को यह पता है कि यदि पार्टी को राजस्थान में सत्ता में फिर से आना है तो यह वसुंधरा राजे के मार्फत ही हो सकता है। प्रदेश में जनता के बीच उनकी बराबर लोकप्रियता और स्वीकार्यता किसी नेता की नहीं है। ऐसे में वसुंधरा को भी इसका अहसास है कि वर्तमान में भले ही कैसी ही परिस्थिति हो, देर-सवेर कमान उनके हाथ में ही आनी है।

मंगलवार, दिसंबर 14, 2010

नाकाम निजाम

राज्य की अशोक गहलोत सरकार में शांति धारीवाल नंबर दो पोजीशन पर हैं। उनके पास न केवल सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग हैं, बल्कि मुख्यमंत्री ने भी उन्हें पूरी ताकत दे रखी है, लेकिन यह निजाम हर मोर्चे पर नाकाम साबित हो रहा है। गहलोत को भी उनकी नाकामी लगातार खटक रही है।

शांति धारीवाल। गहलोत सरकार में काबीना मंत्री। गृह, विधि, स्वायत्त शासन व नगरीय विकास सरीखे अहम मंत्रालयों का जिम्मा तो उनके पास है ही, लेकिन सबसे अहम बात यह है कि सरकार में हैसियत के नजरिए से मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बाद उनका ही नंबर आता है। अशोक गहलोत ने भी उन्हें पूरी तवज्जों दी और कई मौकों पर साबित भी किया कि धारीवाल उनके सबसे पसंदीदा हैं, लेकिन यह धारीवाल की बदकिस्मती ही है कि वे गहलोत की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। जाने-अनजाने इस तरह की परिस्थितियां बन जाती हैं जो धारीवाल की सियासी सेहत के लिए माकूल नहीं होतीं। मुख्यमंत्री की नजरों में उनकी इमेज अब पहले जैसी नहीं रही है। पार्टी से जुड़े सूत्र तो यहां तक कहते हैं कि गहलोत ने उनके पर कतरना शुरू कर दिया है और वे उनके विकल्प की तलाश में हैं।
वैसे ऐसो नहीं है कि धारीवाल और गहलोत भी कोई पुरानी दोस्ती रही हो। इसे महज एक संयोग कहें या धारीवाल की बुलंद किस्मत कि इस बार के विधानसभा चुनाव में गहलोत के साख माने जाने वाले ज्यादातर दिग्गज नेता चुनाव हार गए। जब मंत्रिमंडल गठन की बात आई तो अनुभवी, वरिष्ठ, तेजतर्रार की कसौटी पर धारीवाल सबसे ज्यादा खरे उतरे लिहाजा उन्हें मुख्यमंत्री ने सबसे अहम जिम्मेदारियां सौंप दीं। यहां तक कि विधानसभा में मुख्यमंत्री से पूछे जाने वाले प्रश्नों का उत्तर भी धारीवाल देते। एक बार विधानसभा सत्र के दौरान जब धारीवाल सीने में दर्द के चलते अस्पताल में भर्ती हो गए तो गहलोत बहुत असहज हो गए थे। शुरूआती दौर में धारीवाल का प्रदर्शन भी शानदार रहा और उन्होंने गहलोत का दिल जीत लिया। चाहे कानून व्यवस्था की बात हो या नगरीय विकास की नई योजनाओं की या फिर कोई सियासी मुसीबत, धारीवाल ने अपने कामकाज की छाप हमेशा छोड़ी। प्रदेश में कोई बड़ा आंदोलन नहीं हुआ, अपराधों का ग्राफ नहीं बढ़े, पुलिस की साख भी सलामत रही, जयपुर में मेट्रो की महत्वाकांक्षी परियोजना को मंजूरी मिली, भूमाफिया पर शिकंजा कसा गया, वसुंधरा सरकार में भ्रष्टाचार की बड़ी वजह बने भूमि नियमन के 90बी नियम में संशोधन किया गया...। लेकिन, ये सब धारीवाल के शुरुआती दिनों की उपलब्धियां हैं, धीरे-धीरे उनके कामकाज में सुस्ती आने लगी और गहलोत की नजरों में उनका तिलिस्त भी बरकरार नहीं रहा।
उन्हें सबसे ज्यादा असफलता गृह मंत्री होने के नाते मिल रही है। पिछले कुछ समय में ही दो-तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं जो गृह मंत्रालय की असफलता को इंगित करने के लिए काफी हैं। भला कौन यकीन करेगा कि एक पुलिस स्टेशन में कुछ पुलिसवाले, उसी थाने में तैनात अपनी एक साथी महिला कांस्टेबल का रेप और मर्डर कर दें। दिल दहला देने वाला ये वाकया और कहीं का नहीं बल्कि धारीवाल के गृह जिले कोटा जिले के चेचट पुलिस स्टेशन का है। कांस्टेबल माया यादव चेचट थाने में ही दो पुलिसवालों देशराज और तुलसीराम ने न सिर्फ उसके साथ बलात्कार किया बल्कि उसका मर्डर भी कर डाला। बात यहीं खत्म नहीं हुई, महिला कांस्टेबल के रेप और मर्डर के बाद पूरे मामले को दूसरा रंग देने की भी कोशिश की गई। चेचट में हुई इस शर्मनाक घटना से कुछ दिन पहले ही झालावाड़ जिले के मनोरहथाना में भी पुलिस ने आतंक मचाया था। हुआ यूं था कि एक युवती के साथ सामूहिक ज्यादती करने वालों के खिलाफ भील समाज के लोग प्रदर्शन कर रहे थे। इस दौरान ही स्थिति बिगड़ गई और पुलिस ने फायरिंग कर दी तो भीलों ने पथराव। पत्थरबाजी में घायलों की तादाद 36 से ज्यादा पहुंची जबकि फायरिंग की घटना में भील समाज के एक युवक की मौके पर ही मौत हो गई और एक अन्य युवक ने झालावाड़ अस्पताल में इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। जब हाड़ौती में कानून-व्यवस्था की स्थिति इतनी बदतर है तो प्रदेश के बाकी हिस्सों में क्या हाल होगा इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ महीने पहले उदयपुर के सराड़ा में भी पुलिस ने खूब किरकिरी कराई थी। असल में यहां दो शराब व्यावसायियों के बीच विवाद था, जिसमें शहजाद और मोहन मीणा दोनों ही शराब का कारोबार करते थे। दोनों के बीच किसी बात को लेकर विवाद बढ़ा तो शहजाद ने मोहन का अपहरण कर हत्या कर दी। मोहन मीणा के अपहरण और हत्या के कुकृत्य से आम अल्पसंख्यक समुदाय को कोई लेना देना नहीं था, लेकिन घटना के लगभग एक पखवाड़े बाद जानबूझकर तनाव पैदा करने की कोशिश की गई। वहीं नावां में तो पुलिस ने ऐसी बर्बरता की कि एक युवक ने पेरशान होकर आत्महत्या ही कर ली। युवक की मौत की खबर सुनते ही क्षेत्र के लेागों का पुलिस के प्रति गुस्सा फूट पड़ा।
प्रदेश की कानून-व्यवस्था का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दो बार तो मुख्यमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था में सेंध लग चुकी है। दौसा संसदीय क्षेत्र से सांसद और कभी भाजपा के लिए मुसीबत बने किरोड़ी लाल मीणा एक मामले को लेकर रात के अंधेर में पुलिस पहरे के बावजूद मुख्यमंत्री निवास में घुस गए और राजधानी के एक कार्यक्रम में छात्राओं ने इतना हंगामा किया कि मुख्यमंत्री को भाषण अधूरा छोड़ कार्यक्रम से जाना पड़ा। हद तो तब हो गई जब इन छात्राओं ने चंद घंटों बाद ही सुनियोजित तरीके से कांग्रेस के प्रदेश कार्यालय पर कब्जा जमा लिया और पुलिस को भनक तक नहीं लगी। छात्राओं ने यहां काफी समय तक हंगामा किया और वे वहां से तब ही गईं जब पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. चंद्रभान सिंह ने उन्हें यह आश्वासन दिया कि पंद्रह दिन के भीतर उनकी सारी मांगे मान ली जाएंगी। सूत्रों के मुताबिक इन तीनों घटनाओं से गहलोत काफी खिन्न है और इस तरह की चर्चाएं हैं कि उन्होंने धारीवाल को बुलाकर उनकी क्लास भी ली है। धारीवाल ने उन्हें यह भरोसा भी दिलाया है कि जल्द ही व्यवस्था के कील-कांटों को दुरुस्त कर लिया जाएगा, लेकिन गहलोत उनके जवाब से संतुष्ट नहीं हैं। इन मामलों के अलावा गहलोत पूरे प्रदेश की कानून व्यवस्था की स्थिति से भी खुश नहीं हैं। प्रदेश में हत्या, लूट, चोरी आदि वारदातों में खास इजाफा हुआ है। गहलोत इस बात से खासे चिंतित है कि उनकी मंशा के बावजूद अपराधों पर अंकुश नहीं लगाया जा सका है।
मंत्रालय की नाकामियों के अलावा धारीवाल के राजनीति निर्णयों से भी गहलोत खुश नहीं है। पहले स्थानीय निकाय चुनाव और फिर पंचायत चुनावों में उन्होंने आलाकमान और संबंधित क्षेत्र के विधायक-सांसदों की इच्छा को दरकिनार कर अपने चहेते को खूब टिकट बांटे। कोटा नगर निगम से उन्होंने डॉ. रत्ना जैन को टिकट दिलाया था और जीत सुनिश्चित करने के लिए उनके दिन-रात एक भी कर दी थी। ऐसा पहली बार देखा गया कि धारीवाल खुद के अलावा किसी और के चुनाव में इतनी सघनता से प्रचार किया। वे शहर की हर गली, हर मौहल्ले में घूमे और रत्ना जैन के लिए वोट मांगे। उन्हें सबसे ज्यादा मशक्कत क्षेत्र के अल्पसंख्यक मतदाताओं को मनाने में करनी पड़ी। ये हमेशा से धारीवाल के साथ रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से उपेक्षा की शिकायत के साथ ने केवल इन्होंने दूरी बना ली थी, बल्कि मंत्रीजी के खिलाफ अभियान भी छेड़ दिया था। यहां तक कि उनके जन्मदिन के आयोजन में भी उनके खिलाफ नारोबाजी हो गई।
खैर, इसे धारीवाल की मेहनत का नतीजा कहें या कांग्रेस के पक्ष में चल रही लहर कि डॉ. रत्ना जैन समेत ज्यादातर ने स्थानीय निकाय चुनावों में जीत भी हासिल की, लेकिन साथ ही पार्टी के भीतर उनके विरोधियों की संख्या में भी इजाफा हो गया। ये नेता अब अंदरूनी तौर पर धारीवाल को हलकान करने की योजना पर काम कर रहे हैं। इन नेताओं को यह फूटी आंख नहीं सुहा रहा है कि धारीवाल महत्वपूर्ण मंत्रालयों पर धौंस जमाए बैठे रहे और और उनकी नंबर दो की हैसियत बरकरार रहे। पंचायत चुनाव में तो उनका हर दाव उल्टा पड़ा। अपने चहेतों को टिकट बांटने के चक्कर में उन्होंने अपने विरोधियों को तो खूब पैदा कर ही लिया, उन्हें भी गद्दीनशीं नहीं करवा पाए जिनके लिए इतनी मशक्कत की। पूरे घटनाक्रम के बाद धारीवाल समर्थकों ने जिस तरह से सांसद इज्यराज सिंह के घर पर पत्थरबाजी की, उससे मुख्यमंत्री खासे नाराज बताऐ जाते हैं।
एक चतुर राजनेता की यह सबसे बड़ी खूबी होती है कि वह अपनी गलतियों का ठीकरा बड़ी चालाकी से दूसरे के माथे पर फोड़ देता है। धारीवाल धडल्ले से इसी सलीके से सियासत कर रहे हैं। राज्य में अब तक हुए कलेक्टर-एसपी सम्मेलन में यह परंपरा रही है कि गृह मंत्री पुलिस और प्रशासन दोनों के साथ खड़े हुए नजर आते हैं, लेकिन इस बार स्थिति पूरी तरह से बदली हुई थी। खुद गृह मंत्री पुलिस और प्रशासन की खिंचाई करने में लगे हुए थे। जरा गौर फरमाइए सम्मेलन में गृह मंत्री शांति धारीवाल ने क्या कहा- ‘पिछले दिनों जब सीएम जेएलएन मार्ग पर एक कार्यक्रम में गए तो आंदोलनकारी छात्राएं उनके सामने आ गईं। इंटेलीजेंस को पता ही नहीं था। इस तरह की इंटेलीजेंस से कैसे अपराध नियंत्रित होंगे? इट्स कंपलीट फेल्योर। शहरों के थाने ऐसे लगते हैं, जैसे प्रॉपर्टी डीलिंग की दुकान हो। भूमाफिया ने थानों को शरणस्थली बना रखा है।’ धारीवाल ने ऐसा क्यों कहा यह अलग विषय है, लेकिन इससे प्रदेश की कानून-व्यवस्था की पोल तो खुल ही गई।
सूत्रों के मुताबिक धारीवाल को लगातार मिल रही नाकामियों और इनके बावजूद उनके तीखे होते तेवरों ने गहलोत बेहद खिन्न हैं। यह भी चर्चा है कि गहलोत ने धारीवाल के पर कतरना भी शुरू कर दिया है। प्रतिकूल परिस्थितियों की बढ़ती फेहरिस्त से धारीवाल कितने परेशान हैं, ये उनके बुझे हुए चेहरे से आसानी से देखा जा सकता है। बेहतर प्रदर्शन करने का दबाव उनके ऊपर साफ तौर पर देखा जा सकता है। अक्सर संयम बरतने वाले धारीवाल का धीरज भी जबाव देने लगा है और वे बात-बात पर खीज प्रकट करने लगे हैं। हालांकि उन्हें इस बात की तसल्ली भी है कि गहलोत भले ही उनसे कितने ही नाराज क्यों न हों, उन्हें बदलना आसान नहीं होगा, क्योंकि उन जैसे अनुभवी और काम के जानकार विधायक इस बार कांग्रेस के टिकट से कम ही जीत कर आए हैं।

मंगलवार, दिसंबर 07, 2010

ब्राह्मण के बदले ब्राह्मण!


वैसे तो महाराष्ट्र की राजनीति से राजस्थान का कोई सीधा कनेक्शन नहीं है, लेकिन आदर्श सोसायटी घोटाले की भेंट चढ़े अशोक चव्हाण की जगह की पृथ्वीराज चव्हाण की ताजपोशी ने सूबे में कांग्रेस का कप्तान बनने का ख्वाव सजा रहे ब्राह्मण नेताओं की उम्मीदों के पंख लगा दिए हैं। आलाकमान ने महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन करते समय जिस तरह से कास्ट केमिस्ट्री का ध्यान रखा है, उसके बाद कयास लगाया जा रहा है कि राजस्थान में पार्टी प्रदेशाध्यक्ष का मसला भी इसी फॉर्मूले से सुलझाया जाएगा। यदि ऐसा होता है तो डॉ. सीपी जोशी की जगह कोई ब्राह्मण नेता ही लेगा। ब्राह्मण की जगह ब्राह्मण फॉर्मूले से मोहन प्रकाश, सांसद डॉ. महेश जोशी, राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्ष डॉ. गिरिजा व्यास, महिला कांग्रेस की पूर्व प्रदेशाध्यक्ष ममता शर्मा, पूर्व प्रदेशाध्यक्ष बीडी कल्ला, विधायक रघु शर्मा और मंत्री बृजकिशोर शर्मा के नाम प्रमुखता से सामने आ रहे हैं।
महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन से पहले भी प्रदेशाध्यक्ष पद पर ब्राह्मण नेताओं की दावेदारी मजबूत थी, क्योंकि सोशल इंजीनियरिंग की लिहाज से ओबीसी, अल्पसंख्यक और एससी-एसटी को पहले ही बहुत कुछ मिल चुका है। ओबीसी वर्ग में सबसे मजबूत जाटों की बात करें तो छह जाट लोकसभा में हैं और नरेंद्र बुडानिया दूसरी मर्तबा राज्यसभा में पहुंच चुका है। केंद्र में महादेव सिंह खंडेला मंत्री हैं तो कमला गुजरात में राज्यपाल हैं। युवक कांग्रेस और एनएसयूआई के प्रदेश अध्यक्ष भी इसी वर्ग से हैं। ओबीसी वर्ग के अशोक गहलोत मुख्यमंत्री हैं तो डॉ. प्रभा ठाकुर महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सचिन पायलट केंद्र में असरदार मंत्री हैं। विजयलक्ष्मी बिश्नोई महिला कांग्रेस की अध्यक्ष हैं। मूल ओबीसी के 14 और 17 जाटों सहित कुल 31 विधायक हैं। इनमें से छह जाट, एक जट सिख और तीन मूल ओबीसी के मंत्री हैं। साफ है पार्टी अब किसी जाट या ओबीसी को ही प्रदेशाध्यक्ष बनाए जाने की राजनीतिक मजबूरी से उबर चुकी है। जहां तक अल्पसंख्यक का सवाल है विधानसभा चुनाव हारे अश्क अली टाक को राज्यसभा पहुंच गए हैं। मुख्य सचिव भी मुस्लिम हैं। विधायकों में से दस अल्पसंख्यक हैं तो मंत्रिमंडल में दो हैं। एससी-एसटी को देखें तो दोनों के तीन-तीन सांसद राज्यसभा और लोकसभा में हैं। नमोनारायण मीणा केंद्र में मंत्री हैं। उन्हें सामान्य कोटे की सीट मिली है। जगन्नाथ पहाडिय़ा हरियाणा के राज्यपाल हैं। विधायकों में से 18 एससी और 20 एसटी के हैं। गहलोत कैबिनेट में चार एससी और आठ एसटी के हैं।
इस लिहाज से देखें तो ब्राह्मणों को भी पर्याप्त प्रतिनिधित्व मिला हुआ है। तीन ब्राह्मण लोकसभा और एक राज्यसभा में हैं। आनंद शर्मा और सीपी जोशी केंद्र में मंत्री हैं। बीएल जोशी राज्यपाल हैं। गिरिजा व्यास महिला आयोग की अध्यक्ष हैं। इसके बावजूद भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का सोच रही कांग्रेस में इस वर्ग को प्रतिनिधित्व की उम्मीद जताई जा रही है। ब्राह्मण नेताओं में डॉ. महेश जोशी, ममता शर्मा, रघु शर्मा, ममता शर्मा, बीडी कल्ला और बृजकिशोर शर्मा के नाम तो पहले से चल रहे थे अब इसमें मोहन प्रकाश और डॉ. गिरिजा व्यास का नाम नया जुड़ा है। मोहन प्रकाश पूर्व राज्यपाल नवलकिशोर शर्मा की पसंद माने जाते हैं। उनकी छवि वैचारिक दृढ़ता वाले नेता की है। बीएचयू के छात्र संघ अध्यक्ष रहे मोहन प्रकाश आठवीं विधानसभा में धौलपुर के राजाखेड़ा से लोकदल के विधायक थे। उनके पिता डॉ. मंगल सिंह बाड़ी से कांग्रेस की टिकट पर पहली विधानसभा के सदस्य बने थे। माना जाता है कि जनार्दन द्विवेदी और नवलकिशोर शर्मा जैसे नेताओं ने उनका नाम आगे बढ़ाया है। गिरिजा व्यास उन्हें टक्कर दे रही हैं। उनको लेकर आलाकमान के ध्यान में यह बात भी है कि वरिष्ठ होने के बाद भी उन्हें मनमोहन मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिली थी। सीपी जोशी को केबिनेट में एडजस्ट करना गिरिजा को ही भारी पड़ा था। ऐसे में आलाकमान जोशी की जगह उनकी ताजपोशी कर सकता है।
मोहन प्रकाश और गिरिजा व्यास का नाम सामने आने से पहले डॉ. महेश जोशी और ममता शर्मा को तगड़ा दावेदार माना जा रहा था। लोकसभा चुनाव में भाजपा का गढ़ कही जाने वाली जयपुर सीट से फतह हासिल कर संसद में पहुंचे महेश जोशी का नाम प्रदेशाध्यक्ष के लिए तब से चल रहा है, जबसे डॉ. सीपी जोशी केंद्र में मंत्री बने हैं। वे इसके लिए लॉबिंग भी अच्छे से कर रहे हैं। उन्हें पता है कि आलाकमान उसे ही यह जिम्मेदारी देगा, जो गहलोत और सीपी दोनों की पसंद हो। इसलिए वे एक अरसे से इस तरह की राजनीति कर रहे हैं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी खुश रहें और सीपी जोशी भी नाराज न हो। हालांकि जयपुर नगर निगम चुनाव के दौरान उम्मीदवार चयन पर सीपी के साथ उनकी तनातनी हो गई थी, लेकिन राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन के चुनाव में उन्होंने सभी गिले-शिकवे दूर कर दिए। सूत्रों के मुताबिक दिल्ली में कई आला नेता उनकी आवाज दस जनपथ तक भी पहुंचा रहे हैं। हालांकि मोहन प्रकाश और गिरिजा व्यास का नाम सामने आने के बाद उनकी पैरवी करने वाले नेताओं की संख्या कम हुई है।
इधर महिला कांग्रेस की पूर्व प्रदेशाध्यक्ष ममता शर्मा भी अपने दावे पर डटी हुई हैं। उन्हें महिला होने का फायदा मिल रहा है, लेकिन सीपी जोशी से उनका छत्तीस का आंकड़ा भारी पड़ रहा है। सीपी से उनकी प्रतिद्वंद्विता जगजाहिर है। ममता शर्मा ने लोकसभा चुनाव में उन्होंने कोटा-बंूदी सीट से टिकट मांगा था, लेकिन सीपी जोशी ने उनके खिलाफ लॉबिंग की और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के करीबी माने जाने वाले इज्येराज सिंह को टिकट दिलवा दिया। इतना ही नहीं स्थानीय निकाय चुनाव में बूंदी जिला प्रमुख के लिए ममता शर्मा के खास माने जाने वाले राकेश बोयत को टिकट नहीं दिया। और जब वे बागी ही मैदान में कूद जीतने में सफल रहे तो ममता शर्मा से महिला कांग्रेस की जिम्मेदारी छीन आलाकमान से उनकी शिकायत कर दी। हालांकि दस जनपथ अपने जोरदार रसूखों के दम पर ममता ने इसका करारा जबाव दिया और आलाकमान ने उन्हें सभी आरोपों से मुक्त कर दिया। प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए भी ममता शर्मा का सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट यही है राजस्थान में गहलोत कैंप और दिल्ली में जर्नादन द्विवेदी कैंप उनकी पैरवी कर रहा है। सूत्रों के मुताबिक इसी के दम पर उनका राज्यसभा जाना तय हो गया था, लेकिन ऐनवक्त पर आनंद शर्मा के राजस्थान आने से गणित बिगड़ गया। ममता का प्रदेशाध्यक्ष बनना इस पर निर्भर करेगा कि अशोक गहलोत उन्हें कितना सपोर्ट करते हैं।
जहां तक अन्य ब्राह्मण दावेदारों का सवाल है तो वे डॉ. महेश जोशी और ममता शर्मा को टक्कर नहीं दे पा रहे हैं। जहां बीडी कल्ला पूर्व में भी अध्यक्ष रह चुके हैं और उम्र भी उनके आड़े आ रही है, वहीं विधायक रघु शर्मा पर खुद का बड़बोलापन भारी पड़ रहा है। गौरतलब है कि रघु एक अरसे से पार्टी और सरकार के खिलाफ सार्वजनिक रूप से बयानबाजी कर रहे हैं। यहां तक कि विधानसभा में भी कई मंत्रियों की घेराबंदी कर चुके हैं। पिछले सत्र में तो उन्होंने पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास मंत्री भरत सिंह को अवसाद का शिकार बता सनसनी फैला दी। हड़ताल कर रहे सरपंचों और ग्राम सेवकों का मामला उठाते हुए उन्होंने कहा कि ‘मंत्री मानसिक अवसाद के शिकार हैं। इनको डॉक्टर को दिखाने की आवश्यकता है। ग्रामसेवक और सरपंच हड़ताल कर रहे हैं। ग्रामीण विकास की नोडल एजेंसी का काम ठप है। मंत्री ने हड़ताल कर रहे सरपंचों और ग्रामसेवकों सें ज्ञापन तक नहीं लिया। मंत्री को यह तक पता नहीं है कि इनका मांग पत्र क्या है। ये खुद ईमानदारी की प्रतिमूर्ति बन रहे हैं, लेकिन कोई अहसान नहीं कर रहे हैं। ईमानदार हैं तो जनता के निर्वाचित राजस्थान के सभी सरपंचों को चोर ठहराने का इनका कोई अधिकार नहीं बनता। आज नरेगा में 500 सरपंचों के खिलाफ एफआईआर करवा दी गई हैं, ऐसे में काम कैसे होगा। सरपंच को 14 फंदों में फांसकर उससे कैसे उम्मीद करते हैं कि नरेगा का काम ठीक तरह से होगा।’ इस तरह की चर्चा है कि सीपी जोशी के इशारे पर रघु शर्मा ऐसा कर रहे हैं, लेकिन उनकी इस मुहिम से गहलोत खासे खिन्न हैं। सूत्रों की मानें तो उन्होंने यह तय कर लिया है कि रघु को किसी भी स्थिति में अध्यक्ष नहीं बनने देना हैं। जहां तक गहलोत सरकार में मंत्री बृजकिशोर शर्मा का सवाल है, तो इसके लिए वे खुद ही ज्यादा रुचि नहीं ले रहे हैं।
महाराष्ट्र में नेतृत्व परिवर्तन के बाद प्रदेशाध्यक्ष पद की दौड़ में शामिल गैर ब्राह्मण नेताओं की उम्मीदें धूमिल जरूर हुई हैं, लेकिन पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई हैं। कई नेताओं अभी भी लॉबिंग में लगे हुए हैं। जाट नेताओं में पूर्व मंत्री डॉ. चंद्रभान, सांसद लालचंद कटारिया और नेरंद्र बुड़ानिया का नाम चर्चा में है। इन तीनों नेताओं को मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का विश्वासपात्र माना जाता है। पूर्व मंत्री डॉ. चंद्रभान विधानसभा चुनाव हार चुके हैं, लेकिन कद्दावर नेता हैं। सॉफ्ट जाट के रूप में उनकी स्वीकार्यता सभी गुटों में है। सांसद कटारिया भी प्रदेशाध्यक्ष बनने की कोशिश में हैं। उनका एकमात्र सहारा गहलोत हैं। पिछले दिनों जब पार्टी उपाध्यक्ष डॉ. हरी सिंह ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर हमला किया तो बचाव में आने वाले प्रमुख जाट नेता थे। गहलोत से नजदीकियों के चलते राज्यसभा सांसद नरेंद्र बुडानिया का नाम भी सुर्खियों में है। यदि जाट अध्यक्ष चुना जाता है तो उनकी दावेदारी प्रबल है। हालांकि किसी जाट को मौका मिलने की संभावना कम ही लग रही है। ठीक इसी तरह से अल्पसंख्यक समुदाय की दावेदारी भी कमजोर पड़ रही है। अश्क अली टांक के राज्यसभा जाने और एस. अहमद के मुख्य सचिव बनने के बाद किसी अल्पसंख्यके प्रदेशाध्यक्ष बनने की संभावना कम ही है। वैसे चिकित्सा मंत्री दुर्रू मियां और अश्क अली टांक इस वर्ग के दावेदारों में शामिल हैं। अनुसूचित जाति व जनजाति कोटे से सांसद रघुवीर मीणा और कार्यकारी अध्यक्ष परस राम मोरदिया का नाम चर्चाओं में है।
राजपूत दावेदारों में भंवर जितेंद्र सिंह का नाम चर्चा में है। वे राहुल के काफी नजदीकी हैं, लेकिन राहुल के संगठन संबंधी जरूरी कामों को संभालने वाले जितेंद्र प्रदेश की राजनीति में शायद ही रुचि लें। वैश्य दावेदारों में पूर्व वित्त मंत्री प्रद्युम्न सिंह और संयम लोढ़ा का नाम लिया जा रहा है। दोनों पहले गहलोत कैंप में थे, लेकिन संयम अब सीपी के साथ हैं। बहरहाल, निर्णय अब सोनिया गांधी, राहुल गांधी, अहमद पटेल, राजस्थान के प्रभारी मुकुल वासनिक और चुनाव प्रभारी जनार्दन द्विवेदी के हाथों में है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की राय महत्वपूर्ण रहेगी। सीपी जोशी, भंवर जितेंद्र सिंह और सचिन पायलट से भी सलाह मशविरा किया जाएगा। हालांकि कोई चौकाने वाला फैसला तब ही आ सकता है जब राहुल गांधी इस मामले में विशेष रुचि लें। उनके हस्तक्षेप के बाद ही किसी ऐसे नए चेहरे को प्रदेश की कमान दी सकती है, जिसकी उम्मीद किसी को भी नहीं हो।

शनिवार, जून 19, 2010

दो कोड़ी के लेखक और करोड़ों की किताब


कहते हैं किताबों से बेहतर कोई दोस्त नहीं होता, लेकिन जिंदगी को राह दिखाने वाली किताबें जब आधे-अधूरे तथ्यों और कही-सुनी बातों को प्रमाणित करती हुई दिखाई दें, तो यह दोस्ती से दगा नहीं तो और क्या है? ऐसी पुस्तकों को लिखने वाले या तो जानी-मानी हस्तियों की जिंदगी के अंतरंग और निहायत निजी क्षणों को मिर्च-मसाला लगाकर पाठकों को परोसते हैं या धार्मिक मान्यताओं पर कटाक्ष करते हैं।
यदि कोई लेखक पाठकों को सचाई से रूबरू कराने के लिए ऐसा करे, तो वह शाबासी का हकदार है, लेकिन पिछले पांच-छह साल में मुझे तो ऐसी कोई पुस्तक याद नहीं आती, जिसमें लेखक ने इतिहास के अनछुए पक्ष को उजागर किया हो। साफ है, जल्द प्रसिद्ध होने की लालसा रखने वाले लेखक जानबूझकर ऐसे विषयों पर अपनी कलम चलाते हैं, जो विवादित हैं और जो पुस्तक और लेखक को फटाफट हिट करने की की कुव्वत रखते हैं। क्या यह लेखकीय धर्म से धोखा नहीं है? इसी पृष्ठभूमि में इन दिनों जो पुस्तक चर्चाओं में है वह है- जेवियर मोरो की 'एल सारी रोजो'। 2008 में ही स्पेनिश में छप चुकी है। यह पुस्तक सोनिया गांधी की जिंदगी पर आधारित है और इसका फे्रंच व डच में भी अनुवाद हो चुका है, लेकिन भारतीयों के एक बड़े वर्ग का इन भाषाओं से खास वास्ता नहीं होने से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। परंतु जैसे ही इसे अंग्रेजी में प्रकाशित करने की तैयारी शुरू हुई कांग्रेसी नेताओं ने बखेड़ा खड़ा कर दिया।
अभिषेक मनु सिंघवी ने तो सार्वजनिक रूप से यहां तक कह दिया कि वे इस पुस्तक को भारत में नहीं छपने देंगे। हो सकता है सिंघवी सोनिया गांधी की नजरों में अपनी साख मजबूत करने के लिए ऐसा कर रहे हों, लेकिन जेवियर मोरो ने भी छोटा अपराध नहीं किया है। माना कि 'एल सारी रोजो' इतिहास की पुस्तक न होकर एक उपन्यास है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे इतिहास की ही मनचाही व्याख्या कर दें। जब उन्हें अपनी कल्पना शक्ति का ही प्रदर्शन करना था, तो सोनिया गांधी को पात्र बनाने की जरूरत क्या थी? वे किसी काल्पनिक पात्र के इर्द-गिर्द ही कथानक बुनते।
हो सकता है सोनिया गांधी के बारे में मोरो ने सच लिखा हो, लेकिन इसके प्रमाण के रूप में वे उनके कुछ गिने-चुने करीबियों के नाम ही बता पाए हैं। जब किसी 'रियल' व्यक्ति को पात्र बनाया जाए, तो लेखक से यह उम्मीद तो की ही जाती है कि वह तथ्यों को भी 'रियल' तरीके से पेश करे। उपन्यास में भी लेखक को तथ्यों से छेड़छाड़ की आजादी नहीं दी जा सकती, लेकिन ऐसा हो रहा है। साहित्यिक विधाओं में ही नहीं विशुद्ध रूप से इतिहास के लेखक भी सुर्खियां बटोरने के लिए तथ्यों को अपने हिसाब से पेश कर रहे हैं। जसवंत सिंह का उदाहरण हमारे सामने है। 'ए कॉल टू ऑनर' में उन्होंने दावा किया था कि कांग्रेस के शासनकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में विदेशी जासूस रहा करता था, लेकिन पूछे जाने पर वे उसका नाम भी नहीं बता पाए। 'जिन्ना- इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस' में जिन्ना के महिमा मंडन और सरदार पटेल की आलोचना उन्होंने किस आधार पर की, यह उनकी पार्टी भी नहीं समझ पाई। हां, उनकी पुस्तक जरूर धड़ाधड़ बिकी। जहां तक जेवियर मोरो का सवाल है, तो वे परिवार की परंपरा को ही निभा रहे हैं। उनके चाचा डोमिनिक लापियर भारत की आजादी और बंटवारे पर आधारित विवादित पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाइट' लिखकर ही लोकप्रिय हुए थे। 'एल सारी रोजो' के अंग्रेजी अनुवाद 'द रेड साड़ी' ने छपने से पहले ही धूम मचा दी है। यहां तक कि हिंदी के खांटी पाठक भी अब 'लाल साड़ी' का इंतजार कर रहे हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि नए दौर के लेखक सफल होने के जुनून में इतने उतावले हो गए हैं कि नए तथ्य और पात्र खोजने का उनके पास समय ही नहीं है। यही वजह है विवादित पुस्तकों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है और कालजयी रचनाएं ढूंढने से भी नहीं मिल रही हंै। जरा गौर कीजिए वर्तमान में ऐसे कितने लेखक हैं, जिन्हें उनके कृतित्व के लिए आने वाली पीढिय़ां भी याद करेंगी? जब लेखक का लेखन कार्य से ज्यादा ध्यान खुद की ब्रांडिंग और किताब की मार्केटिंग पर रहेगा, तो वह क्या मौलिक रच पाएगा?

मंगलवार, जून 08, 2010

अब तो संभल जाओ कॉमरेडों


भले ही आज के दौर में किस्से-कहानियां सुनने-सुनाने की परंपरा जीवित नहीं बची हो, लेकिन भेडिय़ा वाली कहानी ज्यादातर लोगों की स्मृति में है। इसमें एक भेड़पालक भेडिय़ा आया...भेडिय़ा आया... कहकर गांव वालों के साथ मसखरी करता, लेकिन एक दिन सचमुच भेडिय़ा आ जाता है और वह मुश्किल में पड़ जाता है। पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के साथ भी कुछ ऐसा ही है। राजनीतिक विश्लेषक प्रत्येक विधानसभा चुनाव से पहले यह कयास लगाते कि इस बार उनका गढ़ ढहने वाला है, लेकिन परिणाम आते और वाम मोर्चा फिर सत्ता में आ जाता। बाकी राजनीतिक दलों के लिए पहेली बन चुकी इस उपलब्धि पर वाम नेता इतराये भी खूब, किंतु आजकल उनकी बोलती बंद है और वजह है ममता बनर्जी। ममता बनर्जी ने पहले पंचायत चुनाव, फिर लोकसभा चुनाव और अब स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें जिस तरह से शिकस्त दी है, उसके बाद यह कहा जाने लगा है कि इस बार सचमुच हार का भेडिय़ा आने वाला है। स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों से जाहिर है कि राज्य की जनता बदलाव के लिए बेचैन है। जब पंचायत चुनावों में वाम मोर्चा की हार हुई थी, तब इसके कुछ नेताओं ने कहा था कि जनता ने गलती की है, लेकिन यह क्षणिक है। अब उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि जनता बार-बार गलती नहीं कर रही है, बल्कि वह यह संकेत दे रही है कि वह वाम शासन से उकता चुकी है। तृणमूल कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि ममता बनर्जी का आत्मविश्वास हवाई नहीं है। अब वे केवल शहरी मध्यवर्ग की लीडर नहीं रह गई हैं, बल्कि किसानों-मजदूरों और राज्य के बुद्धिजीवियों का समर्थन भी उन्हें मिल रहा है। सिंगूर और नंदीग्राम के बाद गांव का वंचित तबका भी उनके साथ खड़ा हो गया है।
वाम दलों को पश्चिम बंगाल में स्थापित करने का श्रेय ज्योति बसु को है। उन्होंने अपने कार्यकाल की शुरुआत में भूमि सुधारों के एजेंडे को लागू कर पश्चिम बंगाल में क्रांतिकारी परिवर्तन की नींव रखी। भूमिहीन मजदूरों को जमीन का मालिक बनाया। एक फसली जमीन को बहुफसली बनाया। नतीजतन, एक ऐसा राज्य जो अकाल की मार झेलने के लिए अभिशप्त था, अपने पैरों पर उठ खड़ा हुआ। 1980 के दशक में खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के साथ ही यह दूसरे राज्यों को निर्यात करने लगा, लेकिन यहीं आकर विकास की कहानी ठहर गई। कृषि पैदावार में कुलांचे भर रहा राज्य औद्योगिक विकास में पिछडऩे लगा। इसके लिए भी वामपंथी राजनीति जिम्मेदार थी। आंदोलन की आग से तपकर निकली राजनीति बदली हुई परिस्थितियों को समझ नहीं पाई और एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गई जहां आगे कोई रास्ता ही नहीं है। फिर भी ज्योति बसु ने यह भ्रम बरकरार रखा कि बंगाल तरक्की कर रहा है, लेकिन राजनीति के रंगमंच से उनके हटते ही पर्दे के पीछे की असलियत सामने आने लगी। सर्वहारा की राजनीति करने वाले वामपंथी नेता जब जमीनी हकीकत से कटने लगे, तो इससे पैदा होने वाले शून्य को भरने के लिए किसी राजनीतिक ताकत की जरूरत बढ़ती ही जा रही थी। लंबे समय से वामपंथियों के खिलाफ मोर्चा खोले बैठी बंगाल की अग्निकन्या ममता बनर्जी उन ताकतों में शीर्ष बनकर उभरीं। उनका साथ दिया माओवादियों और दूसरे गैर-राजनीतिक दलों और संगठनों ने। इन नई ताकतों को वामपंथ से निराश पूर्व वामपंथी लेखकों, कलाकारों और विचारकों का भी खुला समर्थन मिला। मजबूत विकल्प की संभावना देखकर राज्य की जनता ने भी उन पर पूरा भरोसा जताया। ऐसे में राज्य में अगले विधानसभा चुनाव में वामपंथियों की सत्ता छिन जाए, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
वाम मोर्चे की पतली हालत का ठीकरा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य के सिर फोड़ा जा रहा है। हो सकता है कि राज्य के औद्योगिक विकास और निवेश के लिए उनकी पहल में कोई खोट न हो, लेकिन उन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर के जनाक्रोश का ठोस समाधान खोजने की बजाय विवाद का कुप्रबंधन किया। इससे पार्टी न केवल किसानों में अलोकप्रिय हुई, अपितु शहरी मध्यवर्ग में भी उसकी तीखी आलोचना हुई। वैसे वाम राजनीति आज दोराहे पर खड़ी है, तो उसके लिए ज्योति बसु की राजनीति भी कम कसूरवार नहीं है। साठ के दशक में राज्य में कांग्रेस सरकार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंकने वाले बसु ने रास्ता तो लोकतंत्र का चुना, लेकिन उनके तरीके नक्सलवादियों के थे। उस खूनी दौर के गवाह रहे लोग जानते हैं कि कैसे वामपंथ और नक्सलवाद की जुगलबंदी ने राज्य में कहर बरपाया था। उस उद्वेलनकारी समय के गर्भ से भले ही वामपंथी सत्ता के शिशु ने जन्म लिया, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसने बड़े होकर अर्थ से ज्यादा अनर्थ किए। उन्हीं अनर्र्थों का नतीजा हुआ कि बसु के रिटायर होते ही वामपंथी किले की दीवारें ढहने लगीं। इसकी वजह यह थी कि आंदोलन की कोख से निकले वामपंथी आरामतलब हो गए। आम जनता से कटने लगे। जिन दीन-हीन लोगों की आवाज बनकर वे सत्ता के सिंहासन पर पहुंचे थे, उनकी चीख-पुकार को भी अनसुना करने लगे। नतीजतन, जनता से कटा हुआ नेतृत्व अपने पार्टीजनों के बीच भी विवाद का विषय बनने लगा। चूंकि ज्योति बसु राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे, इसलिए इस लड़ाई को उन्होंने सार्वजनिक नहीं होने दिया, लेकिन बुद्धदेव भट्टïाचार्य ऐसा नहीं कर पाए। वे हाथ-पांव तो खूब मार रहे हैं, लेकिन पार्टी की अंदरूनी खींचतान ने उन्हें निढाल कर रखा है।
इसे वाम मोर्चे की भयंकर राजनीतिक भूल ही माना जाएगा कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का डटकर मुकाबला करने की बजाय उसके नेता केंद्र में यूपीए सरकार को मुसीबत में डालने में मशगूल रहे। भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के सवाल पर यूपीए सरकार से समर्थन वापसी और कांग्रेस को सबक सिखाने के इरादे के साथ की गई तीसरे मोर्चे की स्थापना की भूमिका सबसे अहम रही। सबसे बुरी बात यह हुई कि आम लोगों ने सीपीएम के नेतृत्व में रची गई इस रणनीति को जनपक्षी मूल्यों में दृढ़ निष्ठा की मिसाल की तरह लेने के बजाय अवसरवाद और सिद्धांतप्रियता के अजब घालमेल की तरह लिया। 2004 के आम चुनाव में सीपीएम ने इराक पर अमेरिकी हमले को केरल और बंगाल में बाकायदा चुनावी मुद्दा बनाया था और इसके आधार पर भारत के साम्राज्यवाद विरोधी जनमत के अलावा मुस्लिम वोटों की भी भरपूर फसल काटी थी। अपनी इस मुहिम को खींचकर उसके नेता 2005 में न्यूक्लियर डील के लिए की गई जॉर्ज डब्ल्यु. बुश की भारत यात्रा तक ले गए और समर्थन वापसी के बाद इसका विस्तार पिछले साल हुए आम चुनाव तक करने की उन्हें पूरी उम्मीद थी, लेकिन चुनाव नतीजे बताते हैं कि इस चुनाव में एक वोट बैंक के रूप में वाम मोर्चे को सबसे बड़ा झटका मुसलमानों की तरफ से ही लगा है। इस उलटबांसी को समझना वाम नेताओं के लिए बहुत आसान नहीं है, लेकिन इसे समझे बगैर उनका गुजारा भी नहीं हो सकता। यूपीए सरकार में रहते हुए वाम दलों ने गरीब, मजदूर, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक तबकों की पैरवी करने का खूब दिखावा किया, लेकिन चुनाव में इसका रत्ती भर भी लाभ उन्हें नहीं मिला, तो इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। वे जिन मुद्दों पर केंद्र की यूपीए सरकार का विरोध कर रहे थे बुद्धदेव उन्हीं नीतियों का अनुसरण कर रहे थे।
वाम मोर्चा यह भी उम्मीद नहीं कर सकता कि भविष्य में सब कुछ ठीक हो जाएगा। उनके पास अब न तो मुद्दे बचे हैं और न ही ममता बनर्जी के मुकाबले का कोई जनप्रिय नेता। ममता बनर्जी आज उन्हीं मुद्दों को लेकर राजनीति कर रही हैं, जिन पर किसी जमाने में वामपंथियों का एकाधिकार हुआ करता था। उन्होंने बड़ी चतुराई से बुद्धदेव भट्टïाचार्य के औद्योगिक विकास के एजेंडे को किसान और मजदूर विरोधी करार दे दिया। भट्टïाचार्य ने किसानों को समझाने की बजाय उद्योगों के लिए उनकी जमीन अधिग्रहण के धड़ाधड़ फरमान जारी कर दिए। विरोध में सिंगूर और नंदीग्राम उबल पड़े और जमकर खून-खराबा हुआ। इस दौरान ममता बनर्जी ने यह सफलतापूर्वक प्रचारित किया कि इस अत्याचार से उन्हें वे ही बचा सकती हैं। लिहाजा जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। इससे हुआ यह कि बरसों से वाम दलों को वोट देते आए लोग उनके नेतृत्व पर भरोसा जाहिर करने लगे। इसी वोट बैंक के दम पर ही तो वाम दल बरसों से सत्ता में बने हुए थे। पंचायत, लोकसभा और स्थानीय निकाय चुनाव के परिणाम यह साबित करते हैं कि वाम दलों के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लग चुकी है। वाम नेताओं को परेशानी यह है कि उन्हें इस वोट बैंक को फिर से समेटने का कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा है। ज्योति बसु के देहावसान के बाद ऐसा कोई नेता भी नजर आता, जो अपने दम पर जनाधार बढ़ा सके। वाम नेताओं की जिस पीढ़ी ने गरीबों की झोपडिय़ों में रह कर राजनीति का ककहरा सीखा था, वह अब या तो विदा हो चुकी है या नेपथ्य में है। शायद इसी का दुष्परिणाम है कि जिस अनुशासन के लिए वाम दलों को जाना जाता था, अब वह तार-तार होने लगा है। कुल मिलाकर देश की वाम राजनीति जाने-अनजाने कई व्याधियों से घिर चुकी है और फिलहाल यह संभावना भी कम ही है कि वह इनसे जल्द उबर पाएगी।

बुधवार, मार्च 17, 2010

जुबान संभालिए मौलाना साब...


मौलाना कल्बे जव्वाद का यह कहना कि खुदा ने महिलाओं को अच्छे नस्ल के बच्चे पैदा करने के लिए बनाया है, यदि वे घर छोड़कर राजनीति में आ जाएंगी तो घर कौन संभालेगा, महिला विरोधी तो है ही, इस्लाम की गलत व्याख्या करने का दुस्साहस भी है। ऐसा आए दिन होता है, जब इस्लामिक धर्मग्रंथों का हवाला देकर महिलाओं के लिए कई कार्य वर्जित बताए जाते हैं। उन्हें पुरुषों के मुकाबले समाज में कम अधिकार दिए जाने को सही ठहराया जाता है। इसकी सबसे अहम वजह मौलवियों द्वारा इस्लाम में औरतों के अधिकारों और प्रतिष्ठा को गलत तरीके से वर्णित करना है। ये उलेमा ऐसा अपने रूढि़वादी नजरिए के कारण करते हैं, वे इस्लाम के संदर्भ में हेरफेर करके शिक्षा, पर्दा, शादी, तलाक और औरतों के कामकाज के बारे में गलत विचार पेश करते हैं। इस्लाम में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि औरतों को फलां काम करना चाहिए और फलां नहीं। मिसाल के तौर पर कुरान के संदर्भ को ही लें। कुरान का पहला शब्द है 'इकराÓ जिसका अर्थ है 'पढ़ोÓ। इसमें यह कहीं नहीं कहा गया है कि पुरुष ही पढं़े, औरतें नहीं। इस्लाम में यह बात हर जगह जोर देकर कही गई है कि महिलाओं की पढ़ाई भी पुरुषों की तरह ही जरूरी है। ऐसे कई और भी उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि मौलाना-मौलवी धर्म को किनारे रख कोरी लफ्फाजी करते हैं। हैरत की बात यह है कि मौलवी-उलेमा इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों से अच्छी तरह वाकिफ हो सकते हैं, लेकिन वे उन्हें नजरअंदाज करते हैं। वे महिलाओं के कर्तव्यों की चर्चा तो हमेशा करते हैं, लेकिन उनके अधिकारों या सुविधाओं का जिक्र नहीं करते। इतिहास में कई जगह उल्लेख है कि मुस्लिम महिलाओं ने उन सब कार्र्यों को अंजाम दिया है, जो पुरुष किया करते थे। यहां तक कि वे युद्ध के दौरान फौजों के साथ रहती थीं और घायलों की सेवा करती थीं। कई औरतें व्यापार के लिए दूसरे शहरों की यात्रा तक करती थीं। इस्लाम का उद्देश्य साफ है कि औरतें अपने काम के लिए घर से बाहर जा सकती हैं, किंतु उस सीमा तक कि ऐसा करने से उनकी मर्यादा, जिंदगी और परिवार पर कोई विपरीत असर न पड़ता हो। औरतों के लिए इस्लाम की भूमिका एक अभिभावक की तरह है। इस्लाम धर्म को मानने का यह आशय कदापि नहीं है कि औरतों को दयनीय अवस्था में रखा जाए। जरा सोचें कि वे मौलवी कभी भी उन विवाहित मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के बारे में चर्चा क्यों नहीं करते, जिनके पति खाड़ी और अरब देशों में कई साल तक अपनी पत्नी को घर पर अकेला छोड़कर नौकरी कर रहे हैं, जबकि इस्लाम यह छूट नहीं देता कि कोई भी पति चार महीने से अधिक अपनी पत्नी से अलग रहे। आखिर क्यों इस्लाम के तथाकथित ठेकेदार सिर्फ औरतों के कर्तव्यों की ही बातें करते हैं? वे महिलाओं के अधिकारों और इस्लाम के उन तोहफों पर रोशनी नहीं डालते, जो औरतों की बेहतरी के लिए उन्हें दिए गए हैं। वक्त आ गया है कि इस्लाम की नुमाइंदगी करने वाले इस पर गंभीरता से विचार करें। मौलाना-मौलवी बेतुके बयान और फतवे जारी करने की बजाय इस पर ज्यादा जोर दें कि महिलाओं के कल्याण के लिए क्या किया जा सकता है। यदि उन्होंने वक्त रहते ऐसा नहीं किया तो समाज में उनका ही आदर कम होगा। रही बात महिलाओं की, तो उनका हर क्षेत्र में आगे बढऩा तय है, राजनीति भी इसमें शामिल है।

गडकरी गुड करी


भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपनी नई टीम में अपेक्षा के अनुरूप युवाओं, महिलाओं और नए चेहरों को अधिक तवज्जो दी है। हालांकि कुछ नामों को देखकर लगता है कि उन्हें मजबूरी में शामिल किया गया है, फिर भी गडकरी बिना काम किए दाएं-बाएं बने रहकर पार्टी की छवि बिगाडऩे वालों से परहेज करते हुए दिखाई दिए हैं। यह तो समय ही बताएगा कि इस नई टीम के साथ गडकरी जैसा प्रदर्शन करना चाह रहे हैं, वैसा कर पाते हैं या नहीं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के पार्टी की व्याधियों को दुरुस्त करने की ठानी है। यह किसी से नहीं छिपा है कि भाजपा में राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व में मतभेद मनभेद में बदल गए हैं और ऐसी ही स्थिति अनेक राज्यों में भी है। यद्यपि फिलहाल शांति नजर आ रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि पार्टी के नेता गिले-शिकवे दूर कर गडकरी के नेतृत्व में एकजुट हो गए हैं। भाजपा की समस्याएं इसलिए और बढ़ गई हैं, क्योंकि एक तो वह औरों से अलग दल की अपनी छवि खो चुकी है और दूसरे उसके पास ऐसे मुद्दों का अभाव है, जो कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार कर सकें। भाजपा अपने जिन मुद्दों के लिए जानी जाती थी, वे अब उसकी नैया पार नहीं लगा सकते, क्योंकि एक तो उसने ही उन्हें मझधार में छोड़ा और दूसरे अब आम जनमानस की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। इसके बावजूद भाजपा अपनी खोई हुई शक्ति इसलिए फिर से प्राप्त कर सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस के विकल्प की आवश्यकता महसूस की जा रही है। नितिन गडकरी ने अपनी नई टीम तो बना ली है, लेकिन यह परिणाम तब ही देगी जब यह सुधार और बदलाव की योजना पर एकजुट होकर, ईमानदारी से अमल करे। यह किसी से छिपा नहीं है कि गुटबाजी भाजपा पर किस कदर हावी हो चुकी है। अन्यथा आज भी लोकसभा में १५० से अधिक सांसदों वाली मुख्य विपक्षी पार्टी के प्रति निराशा का वैसा भाव नहीं होता, जैसा पिछले कुछ अरसे से देखने को मिल रहा है। गडकरी सही कहते हैं कि कार्यकर्ताओं की पहचान बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने से नहीं, गांव-गांव घूमने से होगी। यह तब ही संभव है, जब परिक्रमा के पराक्रम से प्रतिष्ठापित होने की परंपरा को समाप्त किया जाए। गुटबाजी समाप्त करने के अलावा फिलहाल राजनीतिक स्तर पर भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बिहार से है, जहां इस वर्ष चुनाव होने हैं। दूसरी चुनौती उत्तर प्रदेश है, जहां से लोकसभा के लिए 80 सदस्य चुने जाते हैं। इस राज्य में पार्टी पहले ही खिसककर चौथे स्थान पर पहुंच गई है। व्यक्तियों के लिए पदों का सृजन करने के बजाय पदों पर व्यक्तियों के चयन का जैसा स्वरूप उभरेगा, गडकरी भाजपा को उसका खोया हुआ स्थान दिलाने में उतने ही सफल रहेंगे। पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि राजनीतिक लोगों के बारे में आम धारणा है कि वे बेईमान हैं। नई परिस्थितियों में भाजपा के सामने इस माहौल को बदलने की भी चुनौती है। इस चुनौती से आचरण की शुचिता और जनहित की प्राथमिकता के बल पर ही निपटा जा सकता है। अपने अनुकरणीय कार्य-व्यवहार से ही भाजपा जन समर्थन हासिल कर सकती है। बेहतर होगा कि नितिन गडकरी के नेतृत्व में भाजपा की नई टीम यह प्रदर्शित करे कि वह अपनी राजनीति के जरिये समाज को दिशा देने और उसका उत्थान करने के लिए समर्पित है।