गुरुवार, फ़रवरी 25, 2010

सचिन तुझे सलाम...


रिकॉर्ड्स सचिन तेंदुलकर का परछाई की तरह पीछा करते हैं। ढेरों शतक, रनों का अंबार, बेहतरीन स्ट्राइक रेट और अब वन डे क्रिकेट के इतिहास में पहला दोहरा शतक! इन्हें देखकर आंख का अंधा भी कह सकता है कि सचिन जब तक खेलेंगे, कोई न कोई नया रिकॉर्ड उनके नाम के साथ जुड़ता रहेगा। दुनिया का कोई भी आलोचक 147 गेंदों पर तीने छक्कों और 25 चौकों से सजी 200 रन की उनकी ऐतिहासिक पारी में ऐसा नुक्स नहीं निकाल सकता जिससे कहा जा सके कि काश, सचिन ने कीर्तिमान बनाने की जगह टीम को जीत दिलाने की चिंता की होती।
निश्चय ही क्रिकेट के हर पैमाने पर सचिन का मुकाबला सिर्फ और सिर्फ सचिन से ही है। पिछले कुछ सालों में टीम इंडिया को, खासकर छोटे संस्करणों वाली क्रिकेट के कुछ चमकदार खिलाड़ी मिले हैं, लेकिन सचिन के कद के सामने ये सब बौने ही दिखाई देते हैं। भारतीय टीम ही नहीं, पूरी दुनिया की टीमों में सचिन सा खिलाड़ी नहीं है। मैच विनर होने के लिए किसी भी खिलाड़ी में जो धैर्य, संतुलन और चुनौती झेलने का जज्बा होना चाहिए, वह सचिन में कूट-कूट कर भरा है। यह बिल्कुल संभव है कि किसी शहर-कस्बे की अनजान गली में खिड़कियों के शीशे चटकाते कई होनहारों में प्रतिभा की कमी नहीं है, लेकिन सचिन जैसा बनने के लिए प्रतिभा ही नहीं लगन और मेहनत भी जरूरी है। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में बिताए उनके 20 सालों का अरसा देखें, तो सचिन तेंदुलकर एक क्रिकेटर की उम्र के लिहाज से आखिरी दौर में कहे जा सकते हैं, लेकिन उनके सतत प्रदर्शन से लगता है कि वे असल में सड़क की वैसी ढलान पर हैं, जहां स्पीड और तेज हो जाती है। अब कोई दूसरा बल्लेबाज उनके रिकॉर्ड्स के आसपास भी नहीं लगता, ऑस्ट्रेलिया के रिकी पोंटिंग टेस्ट में शतकों के साथ उनसे होड़ में हैं, लेकिन अब उनसे शतकों की ज्यादा उम्मीद नहीं बची है। अलबत्ता सचिन के प्रदर्शन से लगने लगा है कि वे अगले कई और साल क्रिकेट खेल सकते हैं, लिहाजा अब कुछ लोग उनमें वन डे और टेस्ट में शतकों का शतक लगाने की भविष्यवाणी कर रहे हैं।
शानदार प्रदर्शन के बावजूद अलग-अलग मौकों और मुद्दों को लेकर सचिन की तरफ काफी अंगुलियां भी उठ चुकी हैं। ग्रेग चैपल ने काफी पहले कहा था कि सचिन अपना सर्वश्रेष्ठ दे चुके हैं और उनमें वापसी की ज्यादा संभावना नहीं बची है, लेकिन सचिन ने हमेशा की तरह हर आलोचना का जवाब अपने बल्ले से दिया है। यह सचिन का खुद पर भरोसा ही है कि उन्होंने कभी भी क्रिकेट से विदाई का संकेत नहीं दिया। यह जरूर कहा कि आलोचक उनके बारे में कई फैसले खुद कर रहे हैं और शायद वे उनका खेल देखने का धीरज नहीं रख पा रहे हैं। 1999 के बाद एक लंबा दौर ऐसा अवश्य रहा, जब सचिन को लगातार टेनिस एल्बो और पीठ की मांसपेशियों के खिंचाव जैसी परेशानियों के कारण मैदान से दूर रहना पड़ा। इसी बीच टीम को युवा बनाने की जरूरत पर जोर देने और बढ़ी उम्र के खिलाडिय़ों से छुटकारा पाने की बात भी उठी। लेकिन आज भी जैसा प्रदर्शन सचिन कर रहे हैं, उसमें उनकी जगह पर नए खिलाड़ी के बारे में सोच पाना थोड़ा कठिन हो जाता है। तेंदुलकर सिर्फ इसलिए महान नहीं माने जाते कि उन्होंने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में हजारों रन बनाए और दजर्नों विश्व रिकॉर्ड बनाते हुए अनेक मील के पत्थर स्थापित किए हैं। वह महान हैं, क्योंकि उनके अंदर बचपन से ही सर्वश्रेष्ठ बनने की चाह रही है और इसके लिए वह किसी भी चुनौती से भागे नहीं, बल्कि उससे निपटने के लिए जी-तोड़ मेहनत की। क्रिकेट के प्रति खुद को पूरी तरह से समर्पित रखा। पिता रमेश तेंदुलकर महान संगीतकार और गायक सचिन देव बर्मन के मुरीद थे, इसलिए उन्होंने अपने छोटे बेटे का नाम सचिन रखा था। शायद उन्होंने सोचा होगा कि उनका सचिन भी बड़ा होकर संगीत की दुनिया में नाम कमाएगा, लेकिन जब सचिन की क्रिकेट के प्रति दीवानगी देखी तो बेटे को खूब प्रोत्साहित किया। सचिन ने उन्हें हमेशा उम्मीद से ज्यादा ही दिया।
सचिन इसीलिए भी महान हैं कि वे खुद को नहीं बल्कि क्रिकेट के खेल को महान मानते हैं। अपने स्कूली क्रिकेट खेलने के दिनों से आज तक क्रिकेट के प्रति समर्पण, अनुशासन और जुनून को उन्होंने कम नहीं होने दिया है। वे जीतना चाहते हैं और इसके लिए अपना सब कुछ झोंक देते हैं। हारना तो वह अपने बेटे के साथ खेलते हुए भी पसंद नहीं करते। वे टीम भावना में विश्वास रखते हैं और आलोचना पर घबराते नहीं, बल्कि उनके इरादे और दृढ़ हो जाते हैं।

रविवार, फ़रवरी 07, 2010

मैं मुंबई हूं...


मैं मुंबई हूं। मैं पहले एक टापू थी। मुंबादेवी के नाम से मेरा नाम मुंबई पड़ा। पहले मेरी पहचान मछुआरों के गांव से अधिक कुछ नहीं थी। 'कोली' समाज के लोग तब यहां रहा करते थे। तांदले, नाखवा, भोईर, भांजी, सांधे, कलसे वगैरह सब कोली समाज के ही लोग हैं। मछली पकडऩा, समुद्र की पूजा करना और भाईचारे से रहना इन सबका धर्म है। वक्त बदला तो इन लोगों ने नमक के खेत छोड़ सारी जमीन बेच दी। ईरानी, पारसी, गुजराती, मारवाड़ी और उत्तर प्रदेश व बिहार से आए लोगों ने ये जमीनें खरीदीं और यहां मिलें बनवार्ईं, कल-कारखाने शुरू किए, अखबार निकाले, प्याऊ, मंदिर, स्कूल, अस्पताल, धर्मशालाएं और गैराज आदि बनवाए। गोवानीज, पुर्तगाली और ईसाइयों के चर्च यहां पहले से ही थे। अंग्रेजों ने रेल चलाई तो इसका संचालन करने वाले ज्यादातर लोग उत्तर व दक्षिण भारतीय लोग थे। पोर्ट ट्रस्ट में भी वे सेवा में थे। मुसलमान भी थे। तब मकान के मकान खाली पड़े रहते। मकान मालिक लोगों को पकड़-पकड़कर अपना मकान लेने के लिए बुलाते। बाकी जो जमीनें बची थीं वे लीज यानी पट्टे पर थीं। ट्रामें चलती थीं। तब उत्तर भारतीय दूध का कारोबार करते थे। कच्छी-गुजराती भी दूध व होटल के कारोबार में थे। पारसी और ईरानी केक और पेस्ट्री के साथ पाव का कारोबार करते थे। मस्का मार के ईरानी चाय बहुत चलती थी। एक पाव में लोगों का पेट भर जाता था। मिलों में तीन-तीन पालियां (पारी) चलती थीं। जो बेरोजगार थे, वे किसी के नागा करने पर, बदली कामगार का काम करते थे। दोपहर में फुटपाथ पर सिले हुए कपड़े, हरी सब्जियां-फल आदि का धंधा करते। अलग-अलग क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के लोग मजे से रहते थे। पहले खानावल चलते थे। बना बनाया भोजन घर-घर मिलता। डिब्बेवाले उसी परंपरा से निकले हैं। वे दफ्तर में डिब्बा पहुंचाते और वापस ले आते। सुबह ग्यारह बजे के बाद लोकल गाड़ी के मालडिब्बे उनके डिब्बों से भर जाते। जब शाम को रेलवे के कारखाने छूटते और दोपहर में मिलें, तो आम जनता का अथाह समुद्र सड़कों पर गहरा जाता। एक-दो घंटे में ही सारी सब्जी बिक जाती। यहां के गरीब लोग चौका-बर्तन का काम करते। उनके जैसा मेहनती कोई दूसरा नहीं है। घर चमके या न चमके, बर्तन दप-दप चमकते। चाहें तो अपना मुंह देख लें। शॉर्टहैंड और टाइपिंग के साथ-साथ नर्स के कामों की वजह से दक्षिण के लोग यहां आते गए। कुछ तो केंद्र सरकार की नौकरियों में प्रमोशन और तबादले की वजह से आए। पूरी दुनिया कहने लगी कि मुंबई जैसा कोई दूसरा कॉस्मोपोलिटन शहर नहीं है। देश के नामी-गिरामी धनपतियों, फिल्मी सितारों, खिलाडिय़ों और राजनेताओं ने मेरी शान बढ़ाई। मेरे यहां की बसें, लोकल ट्रेनें, मस्का-पाव- सभी चीजें तो बेमिसाल हैं, बदल गए या यूं कहूं बहक गए हैं, तो वे लोग जो मेरे स्वयंभूं ठेकेदार बन बैठे हैं। कहते हैं- मैं केवल मराठियों की हूं। कहने वालों की याददाश्त शायद कमजोर हो गई है, क्योंकि वे तो एक समय मध्य प्रदेश से मेरी शरण में आए थे। वे एक आदिम नारे- जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ कर रहे हैं, लेकिन ऐ दुनिया वालो! भैंस और एक जीते-जागते शहर में बड़ा फर्क होता है। कोई है, जो मेरे इस दर्द को समझेगा?

बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

'अमर कथा' का अंत


समाजवादी पार्टी से अमर सिंह और उनके समर्थकों की बर्खास्तगी आश्चर्यचकित करने वाली नहीं है, क्योंकि पार्टी में उनकी खिलाफत करने वालों की बढ़ती फेहरिस्त और मुलायम सिंह की 'चुप्पी' से इसके संकेत पहले ही मिल गए थे। पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने जिस तरह से मायावती और सोनिया गांधी की तारीफ की, उसी से साफ हो गया था कि न तो अमर सिंह समाजवादी पार्टी का हिस्सा बने रहना चाहते हैं और न ही मुलायम सिंह की उनमें कोई दिलचस्पी बची है। राजनीति को संभावनाओं का खेल बताने वाले अमर सिंह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 14 साल तक एक पार्टी की 'सेवा' करने के बाद उन्हें अनुशासनहीनता का आरोप लगा रुखसत किया जाएगा और उम्र के इस पड़ाव में सियासी ठिकाना तलाशना पड़ेगा। 'अमर कथा' के अंत से दो सवाल बेहद मौजूं हो गए हैं- एक तो अमर सिंह किसके पहलू में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे और दूसरा अपने पारिवारिक सदस्यों की महत्वाकांक्षाओं में उलझे मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी को किस दिशा में ले जाएंगे? अमर सिंह भले ही जनाधार वाले नेता कभी भी न रहे हों, लेकिन वर्तमान में देश की राजनीति जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है, उसमें उन जैसे नेताओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, यह किसी से छिपा नहीं है। चाहे महंगे होते चुनावों के लिए धन जुटाना हो या बहुमत लायक सीटों का इंतजाम करना, अमर सिंह इनमें उस्ताद रहे हैं। मुलायम सिंह को दूसरा अमर सिंह ढूंढने के लिए तो खासी मशक्कत करनी पड़ेगी ही, यह भी डर सताता रहेगा कि उनके 'हमराज' किसी दूसरी पार्टी में जाने पर मोर्चा न खोल दें। यह सही है कि मुलायम सिंह यादव एक जुझारू राजनेता हैं और उन्होंने यह साबित किया है कि कोई व्यक्ति कैसे अपने बलबूते सशक्त राजनीतिक दल खड़ा कर सकता है, लेकिन अब उन्हें इस पर विचार करना ही होगा कि समय के साथ उनके विश्वासपात्र सहयोगी एक-एक कर अलग क्यों होते जा रहे हैं? मौजूदा स्थितियों में सपा के समक्ष संकट इसलिए और अधिक गहरा नजर आता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस न केवल उसके जनाधार में सेंध लगाने के लिए तत्पर है, बल्कि इसके लिए कोई मौका भी नहीं छोड़ रही है। बहुत समय नहीं हुआ जब क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में सपा सबसे सशक्त नजर आती थी और संख्या बल के हिसाब से तो वह अभी भी कांग्रेस और भाजपा के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके लिए यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि वह अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में अपनी धार खोती जा रही है। अमर सिंह के निष्कासन के बाद सपा का वह खेमा तो शांत हो जाएगा, जो उन पर परंपरागत वोट बैंक को छिटकाने और पार्टी को अपनी बुनियादी जमीन से भटकाने सरीखे आरोप लगा रहा था, लेकिन इतने भर से पार्टी संकट से नहीं उबर जाएगी। वंशवाद के समक्ष घुटने टेकना मुलायम के लिए भविष्य में भारी पड़ सकता है। मुलायम को यह ध्यान रखना होगा कि एक समय परिवारवाद की राजनीति का मुखर विरोध करने वाली सपा अब वंशवाद की राजनीति का एक उदाहरण बन गई है और ऐसी पार्टियों के लिए जनाधार को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है। अमर सिंह के साथ चलने के आदी हो चुके मुलायम इससे कैसे निपटते हैं, उनका और समाजवादी पार्टी का भविष्य इसी से तय होना है।