शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

पुरानी चाल का नया चोला


अफगानिस्तान-पाकिस्तान मुद्दा अमेरिका के लिए गले की फांस बनता जा रहा है। उसने कभी नहीं सोचा होगा कि इन दोनों मुल्कों में संघर्ष इतना लंबा खिंचेगा। वह यहां पर कार्रवाई रोक भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा मिट्टïी में मिल जाएगी। अपनी नाक बचाए रखने के लिए जीतना उसकी मजबूरी है। अमेरिका जीत सुनिश्चित करने के लिए पुराने ढर्रे पर लौट आया है। बराक ओबामा ने ना-नुकुर करते हुए आखिरकार अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने की इजाजत दे दी है। नई अफ-पाक नीति बनाने में अमेरिकी रणनीतिकारों ने खूब माथापच्ची की है, लेकिन इसकी सफलता पर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं।
अफगानिस्तान में तालिबान को मात देने के लिए अमेरिका ने 30 हजार नए सैनिक उतारने का फैसला किया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इस बार लड़ाई निर्णायक होगी और जीतने पर डेढ़ साल में उनके सैनिक वापस घर लौट आएंगे। यह पहला मौका है, जब अमेरिका ने सैनिकों की तैनाती के साथ, उनकी वापसी के लिए कोई समय सीमा निर्धारित की है। अफगानिस्तान में अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती से अमेरिकी सैनिकों की संख्या करीब एक लाख हो जाएगी। एक साल में इस पर 30 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 13 अरब रुपये) का खर्च आएगा। सैनिकों की तैनानी और बढ़ते खर्चे से ज्यादा चिंता अमेरिका को आठ साल से जारी जंग को जीतने की है। अफगानिस्तान में फतह हासिल करना अमेरिका के लिए नाक का सवाल बन गया है। ओबामा भी स्वीकार करते हैं कि अफगानिस्तान दूसरा वियतनाम नहीं है। जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वह इतिहास की गलत व्याख्या कर रहे हैं। अफगानिस्तान छोड़ देना अल-कायदा और तालिबान के हौसले को बुलंद करेगा। इससे अमेरिका और उसके सहयोगियों पर तथा हमलों का जोखिम पैदा हो जाएगा।
ओबामा अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने के हिमायती नहीं रहे हैं, पर उन्हें मजबूरी में यह फैसला लेना पड़ा। अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सेना के शीर्ष कमांडर जनरल स्टैनली मैकक्रिस्टल ने चेतावनी दी थी कि तालिबान के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अभियान में यदि अतिरिक्त सैनिक नहीं भेजे गए तो अफगानिस्तान में अमेरिका का यह अभियान संभवत: असफल हो जाएगा। मैकक्रिस्टल ने ओबामा को भेजी गुप्त आकलन रिपोर्ट में कहा था कि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जारी संघर्ष में अमेरिका की असफलता बढ़ रही है और आने वाले समय में आतंकवादी गतिविधियां फिर से तेज हो सकती हैं। ओबामा प्रशासन ने मैकक्रिस्टल के तर्र्कों पर सहमत होते हुए सैनिकों की संख्या तो बढ़ा दी है, लेकिन डेढ़ साल के भीतर फतह हासिल करना उसके लिए आसान नहीं है। अफगानिस्तान में स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। पाकिस्तान में छिपे आतंकियों ने दुबारा मोर्चा संभाल लिया है। फिलहाल उनके निशाने पर नाटो सेना के अड्डे और विदेशी दूतावास हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले एक साल में ही 500 से ज्यादा नाटो सैनिक आत्मघाती हमलों में हताहत हो चुके हैं। अमेरिका द्वारा सैनिकों की संख्या बढ़ाने से ये हमले और बढ़ सकते हैं। ओबामा प्रशासन को अफगान नागरिकों के गुस्से की चिंता भी खाए जा रही है। पिछले दस साल से हिंसा का दंश झेल रही जनता अमेरिका की भूमिका से कतई खुश नहीं है। मैकक्रिस्टल ने अपनी रिपोर्ट में भी इसका खुलासा किया था। इसी का नतीजा है कि अमेरिका ने सैनिक बढ़ाने के फैसले के साथ इस तर्क को जोड़ा है कि वे अफगानी नागरिकों को बेहतर जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में काम करेंगे। अमेरिका ने राष्ट्रपति हामिद करजई को भी चेतावनी भरे लहजे में कह दिया है कि वे नतीजे दें या हटने को तैयार रहें।
अमेरिका पाकिस्तान की स्थिति पर भी खासा परेशान है। ओबामा ने अपने भाषण में जिस तरह से कहा कि पाकिस्तान आतंकियों का सुरक्षित ठिकाना बन गया है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि वह अब नरमी बरतने वाला नहीं है। अमेरिका को यह अहसास होने लगा है कि पाकिस्तान हुक्मरान भलमनसाहत के लायक नहीं हैं। अमेरिका ने आतंकियों के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए ड्रोन हमले बढ़ाने के आदेश तो दे दिए हैं, लेकिन इसका विपरीत असर भी पड़ सकता है। आतंकी पलटवार करते हुए आत्मघाती हमलों की संख्या में और इजाफा कर सकते हैं। पहले ही यहां की जनता हिंसा से त्रस्त है और अमेरिका से नाराज है। आने वाले वक्त में यह गुस्सा और भड़क सकता है। ओबामा प्रशासन भी इस खतरे से वाकिफ है। वो आतंकियों का सफाया करने के साथ-साथ आम जनता से हमदर्दी जताना नहीं भूल रहे हैं। पाकिस्तान को दी जानी वाली सहायता मेें की गई भारी वृद्धि को इस रूप में देखा जा सकता है। पाकिस्तानी जनता और सेना इस बात को अच्छी तरह जानती है कि अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक सहायता का क्या मतलब है? यदि मदद नहीं मिलती है, तो पाकिस्तान की स्थिति क्या हो सकती है? अमेरिका के लिए परेशानी की बात यह है कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों को जिन्हें पहले आईएसआई बढ़ावा दे रही थी, अब कई राज्यों में विद्रोह कर रहे हैं। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई इस बात को लेकर काफी आत्मविश्वास में थे कि वे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों को काबू में कर लेंगे, लेकिन आतंकवादी संगठनों का इतिहास बताता है कि इस तरह के संगठनों को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता है। अमेरिका इस बात की काफी नजदीक से जांच-पड़ताल करेगा कि आईएसआई इस तरह के संगठनों को किसी तरह की आर्थिक सहायता न पहुंचा पाए। साथ ही इस बात को भी देखेगा कि इस तरह के संगठन जनता से पैसों की उगाही के लिए कोई खतरनाक तरीका न अपना सकें। यदि पाकिस्तानी सेना और सरकार अमेरिका और दूसरे अन्य देशों से आर्थिक सहायता हासिल करना चाहती है, तो उसे जिहादी संगठनों के खिलाफ प्रतिबंध लगाना होगा।
नई अफ-पाक नीति में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत का संदर्भ भले ही न दिया हो, लेकिन दोनों मुल्कों को आतंक का सुरक्षित ठिकाना बताकर उन्होंने दिल्ली को राहत पहुंचाई है। यही नहीं पाकिस्तान में मौजूद परमाणु अस्त्र आतंकियों के हाथ लगने की आशंका जताकर भी ओबामा ने वही किया है, जिसकी उम्मीद भारतीय खेमे को थी। अफगानिस्तान क्षेत्र में सैन्य दबाव बढ़ाने के अमेरिकी फैसले पर भारत को संतोष होना चाहिए। भारत फिलहाल यही चाहता है कि अमेरिका कहीं से भी पाक और अफगानिस्तान में अपना दबाव कम न करे, जहां आतंकी भारत विरोधी करतूतों की साजिश रच रहे हैं। यह तय है कि अफ-पाक नीति में भारत की दिलचस्पी दो स्तर पर ज्यादा होती है। पहला, पाक में मौजूद आतंकी संगठनों पर अमेरिकी शिकंजा कसने की झलक इस नीति में भारत हमेशा तलाशता है। दूसरा, अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया। इस लिहाज से ओबामा की नई अफ-पाक नीति भारत की इच्छा के मुताबिक है।

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