सोमवार, अप्रैल 04, 2011

अब मद्धम नहीं होगी बाघों की दहाड़

ऐसे में जब दुनिया के हर कोने से बाघों के विलुप्त होने की आशंका जाहिर की जा रही है, तब भारत में इनकी तादात बढऩा नई उम्मीद जगाता है। ताजा गणना के अनुसार देश में बाघों का औसत अनुमानित आंकड़ा 1,706 है। गौरतलब है कि बाघों की पिछली गणना 2006 में हुई थी और तब इनकी संख्या 1,411 बताई गई थी। यानी पिछले चार साल में देश में बाघों की संख्या में 12 फीसदी का इजाफा हुआ है। यह बढ़ोतरी ऐतिहासिक तो नहीं है, फिर भी यह मायने रखती है। ऐसा इसलिए भी है, क्योंकि इस अवधि में ज्यादातर बाघ संरक्षित क्षेत्रों से निराशजनक तथ्य ही ज्यादा बाहर आए थे। इस दौरान बाघों की संख्या में भारी कमी की आशंका जताने वाले तथाकथित गैर सरकारी संगठनों और वन्य जीव विशेषज्ञों की कमी नहीं थी। ऐसे निराशजनक माहौल में यदि बाघों को बचाने के अभियान ने यदि मामूली सफलता भी हासिल की है, तो इसकी तारीफ होनी चाहिए। हमारे यहां बाघ संरक्षण हमेशा से विवाद का विषय रहा है। कभी बाघों की गणना पर तो कभी इनके संरक्षण के तौर-तरीकों पर सवाल उठते रहे हैं। चूंकि इस बार गणना अत्याधुनिक वैज्ञानिक तरीके से की गई है, इसलिए इस पर सवाल खड़ा करना न्यायसंगत नहीं होगा। हां, संरक्षण की दिशा और दशा पर अभी भी मंथन की व्यापक गुंजाइश है।
पर्यावरण व वन मंत्रालय की ओर से जारी आंकड़ों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि बाघ संरक्षण के अभियान में कील-कांटों की कमी नहीं है। सबसे ज्यादा चिंता की बात है बाघों के प्रवास का क्षेत्र निंरतर कम होना। 2006 में जहां बाघ 93,600 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विचरण करते थे, वहीं अब यह क्षेत्र 72,800 वर्ग किलोमीटर ही रह गया है। इसी का नतीजा है कि कुल बाघों में से 30 फीसदी संरक्षित क्षेत्रों से बाहर रह रहे हैं। रणथंभोर, कॉरबेट और सरिस्का सरीखे नामी और बड़े संरक्षित क्षेत्र से बाहर भी बड़ी संख्या में बाघ विचरण कर रहे हैं। इससे बाघ और मानव के बीच संघर्ष की आशंका बढ़ जाती है। बाघों का संरक्षण आने वाले वर्षों में और बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि देश पर जनसांख्यिकी और विकास के लिहाज से दबाव बढ़ रहा है। बाघों का संरक्षित क्षेत्र से बाहर जाना खतरनाक है। ये यहां या तो शिकारियों के हत्थे चढ़ जाते हैं या निवास क्षेत्र में प्रवेश करने पर गांव वाले इन्हें मार देते हैं। ऐसे में यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि बाघ संरक्षित क्षेत्र में किसी भी कीमत पर कम नहीं हो। देश में इस समय 39 बाघ संरक्षित क्षेत्र हैं, लेकिन इनमें से एकाध ही अपने क्षेत्रफल को बरकरार रख पाया है। कहीं खनन माफिया ने कब्जा जमा लिया है तो कहीं भूमाफिया ने। कई जगह सिंचाई परियोजनाओं की वजह से भी बाघ संरक्षित क्षेत्रों का दायरा कम हुआ है। एक तथ्य यह भी है कि देश के कई क्षेत्रों में बाघों का अस्तित्व अभी भी खतरे में है। नई गणना के मुताबिक जहां उत्तराखंड, महाराष्ट्र, असम, तमिलनाडु और कर्नाटक में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, वहीं बिहार, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, उड़ीसा, मिजोरम, पश्चिम बंगाल और केरल इनकी संख्या स्थिर है। चिंताजनक यह है कि मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश में बाघ की संख्या घट रही है।
इलाका भले कोई भी हो हमारे यहां बाघों के दो ही दुश्मन हैं- शिकारी और स्थानीय निवासी। तमाम कानूनी बंदिशें के बाद भी देश में बाघों का शिकार होता है। चीन इनके अंगों का बड़ा बाजार है। हालांकि चीन में बाघ के अंगों का व्यापार 1993 से ही प्रतिबंधित है, फिर भी यहां यह धडल्ले से होता है। यहां बाघ की खाल 11,660 डॉलर से 21,860 डॉलर के बीच बिकती है, जबकि हड्डियों का दाम 1,250 डॉलर प्रति किलो है। पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश कई बार इस मसले को चीन के सामने उठा चुके हैं, लेकिन चीन सहयोग नहीं कर रहा है। यह सही है कि चीन का हठ अनैतिक है, मगर हम भी तो बाघों के शिकार का ठीकरा चीन के सिर फोड़ अपनी जिम्मेदारी से भाग रहे हैं। माना कि चीन में बाघ से जुड़े उत्पादों का विशाल बाजार उपलब्ध है, लेकिन हम यह नजरअंदाज नहीं कर सकते कि शिकार हमारे यहां होता है और कई स्तरों की सुरक्षा को धता बताकर यह चीन तक पहुंच जाता है। यदि हम ईमानदारी से शिकंजा कस दें तो मजाल है कि चीन के बाजार में हमारे बाघों के अवशेष पहुंच जाएं। जहां तक बाघ संरक्षित क्षेत्रों और आसपास रह रहे लोगों को सवाल है, तो इन्हें दोष देने से पहले इनकी मजबूरी समझना भी जरूरी है। खुद जयराम रमेश ने यह स्वीकार किया है कि 50 हजार परिवार अभी भी ऐसे हैं, जिनका पुनर्वास होना बाकी है। बाघों के पूरी तरह विलुप्त होने के कारण बदनाम हुए सरिस्का की ही बात करें तो यहां कोर सेक्टर और उसके आसपास करीब 20 गांव अभी भी ऐसे हैं, जहां करीब दस हजार की आबादी बसी हुई है और 25 हजार से अधिक मवेशी विचरण कर रही है। होता यह है कि सरिस्का के बाघ अक्सर मवेशियों का शिकार करने पहुंच जाते हैं। पशुपालक इसे बर्दाश्त नहीं करते।
अब तक की नीतियों से अभयारण्यों के आस पास रहने वाले लोगों को संरक्षण से कुछ हासिल नहीं हुआ है। लोग मजबूरी में संरक्षित इलाकों में मवेशी चराने ले जाते हैं और कई बार बाघ उन पर हमला कर देते हैं। उनकी एक परेशानी यह भी है कि बाघ और अन्य मांसाहारी जानवरों से बचने के लिए कई शाकाहारी जानवर जंगल से निकल कर खेतों में फसलों को बरबाद करते हैं। इस तरह ऐसे लोगों और बाघों में द्वंद्व बढ़ता ही जा रहा है। ग्रामीणों को जंगली जानवरों से अपने मवेशियों और फसलों को बचाने के लिए दिन-रात सचेत रहना पड़ता है। जब तक बाघ संरक्षण के अभियानों में ग्रामीणों के फायदों को नहीं तलाशा नहीं जाएगा, इसका सफलता संदिग्ध ही रहेगी। एक तो सरकार को यह देखना होगा कि संरक्षित क्षेत्र के आसपास जिन लोगों की फसलें बरबाद हुई हैं और जिनकी मवेशी मारी गई है, उन्हें मुआवजा दिया जाए। दूसरी बात यह कि बाघों के अभयारण्यों के आस पास के इलाकों को तीव्र गति से विकास किया जाए। जो लोग इन इलाकों में रह रहे हैं उन्हें इसका फायदा दिया जाना चाहिए। तीसरी बात कि उन्हें संरक्षण का सीधा लाभ मिलना चाहिए। उन्हें संरक्षण से जुड़ी नौकरियों में तवज्जो मिलनी चाहिए। बाघों की वजह से पर्यटन के जरिए होने वाली कमाई में भी उनका हिस्सा होना चाहिए।