शनिवार, जुलाई 16, 2011

'राइट टू शेल्‍टर' का गहलोती शिगूफा


भारतीय संविधान ने देश के नागरिकों को कई अधिकार दिए हैं, लेकिन पिछले एक अरसे से सूचना का अधिकार, शिक्षा का अधिकार और भोजन का अधिकार की चर्चा सबसे ज्यादा हो रही है। भोजन का अधिकार तो अभी अंजाम तक नहीं पहुंचा है और शिक्षा का अधिकार स्थापित होने के लिए जद्दोजहद कर रहा है, लेकिन सूचना का अधिकार ने हर ओर से वाहवाही लूटी है। तमाम तरह के तालों में बंद रहने वाली सूचनाएं अब लोगों को सहजता से उपलब्ध हो रही हैं और इससे कई घपलों व घोटालों से भी परदा उठ रहा है। इस बीच राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक और नए अधिकार का शिगूफा छोड़ दिया है। उन्होंने न केवल 'आवास के अधिकार' की वकालत की है, बल्कि इसे अगली पंचवर्षीय योजना में भी शामिल करने की भी मांग की है।
गहलोत गरीब और कमजोर वर्ग को आवास उपलब्ध करवाने के लिए पूर्व में भी विशेष प्रयास करते रहे हैं, लेकिन 'आवास के अधिकार' की बात कर उन्होंने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। जोधपुर में एक आवासीय योजना का शिलान्यास करते हुए उन्होंने कहा कि 'आम आदमी के लिए रोटी एवं कपड़ा के बाद मकान की आवश्यकता होती है। हर व्यक्ति को मकान मिले यह सुनिश्चित करने के लिए 'राइट टू एज्यूकेशन' और 'राइट टू फूड' की तर्ज पर 'राइट टू शेल्टर' कानून बनाया जाना चाहिए और इसे बारहवीं पंचवर्षीय योजना में शामिल किया जाना चाहिए।' उन्होंने कहा कि 'लोगों को सूचना, शिक्षा एवं भोजन का अधिकार मिलने के बाद यह जरूरी लगता है कि अब 'राइट टू शेल्टर' कानून भी बनना चाहिए। रोटी व कपड़ा के बाद सबसे बड़ी बुनियादी जरूरत मकान ही है। हर व्यक्ति के पास अपना मकान होना नितंात जरूरी है। इस बारे में मैं अपने स्तर पर हर संभव प्रयास कर रहा हूं, लेकिन बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सबके पास मकान हो इसके लिए 'राइट टू शेल्टर' का अधिकार भी योजना में प्रस्तावित होना जरूरी है।'
मंहगाई के इस दौर में अपना घर बनाने का सपना अब सपना ही बन कर रह गया है। अव्वल तो मकान बनाने की लिए जमीन का टुकड़ा खरीदना ही मुश्किल है और यदि खरीद भी जाए तो उस पर भवन बनाना आसान काम नहीं है। निर्माण सामग्री के भाव आसमान छू रहे हैं। बैंकों से कर्ज लेकर घर बनाना भी अब महंगा सौदा हो गया है। छत का इंतजाम करना कितना दूभर होता जा रहा है, इसकी बानगी इससे मिलती है कि जहां भी थोड़ी कम दर पर सरकारी स्कीम लांच होती है, वहां आवेदकों की भीड़ लग जाती है। ऐसे में गहलोत की 'राइट टू शेल्टर' की मांग को अच्छा समर्थन मिला है और यह संभव है कि केंद्र सरकार जल्द ही 'राइट टू शेल्टर' की दिशा में काम करना शुरू कर दे। इस संदर्भ ने जितने भी विशेषज्ञों, बुद्धिजीवियों और लोगों से बात की, ज्यादातर ने गहलोत की मांग को जायज बताया और सिद्धांतत: उनका समर्थन किया।
राज्य के नगरीय विकास व आवासन मंत्री शांति धारीवाल कहते हैं कि घर व्यक्ति की जरूरत है और किसी कानून के माध्यम से सरकार प्रत्येक व्यक्ति को छत उपलब्ध करवा पाती है तो इससे अच्छा कुछ नहीं हो सकता। धारीवाल बताते हैं कि राजस्थान पहले ही गरीब व कमजोर तबके को आवास उपलब्ध करवाने में अग्रणी है। अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी के तहत राज्य में 363 करोड़ रुपए लगात की 15 आवासीय योजनाओं में 10,696 मकानों का निर्माण कार्य प्रगति पर है। भारत सरकार ने राज्य सरकार की अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी की सराहना की और इन योजनाओं के लिए प्रत्येक घर के निर्माण पर 12 हजार 500 रुपए का अनुदान दिया जा रहा है। इसका सीधा लाभ मकान मालिक को होगा। इस दृष्टि सें राजस्थान पहला राज्य है जिसे केंद्र सरकार द्वारा गृह निर्माण के लिये अनुदान स्वीकृत किया गया है। आवास निर्माण के मेटेरियल की गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा जा रहा है और नियमानुसार यथा समय स्वतंत्र एजेंसियों से जांच करवाई जा रही है। अफोर्डेबल हाउसिंग के लिए लोगों की मांग निरन्तर बढ़ रही है और अधिकाधिक बिल्डर भी आगे आ रहे हैं। अभी जयपुर, चाकसु, भिवाडी, कुचामन और दौसा में कार्य प्रगति पर है। इसके अतिरिक्त चूरू, सरदारशहर, झुंझुनूं, पिंडवाडा, बाडमेर, देवली, चित्तौडगढ और भीलवाडा में भी इस प्रकार की आवास गृह निर्माण योजना के संबंध में प्रयास किए जा रहे हैं।
वहीं, वसुंधरा सरकार में नगरीय विकास एवं आवासन मंत्री रहे प्रताप सिंह सिंघवी हर व्यक्ति को घर की मांग का तो समर्थन करते हैं, लेकिन इसके अमल पर उन्हें संदेह है। वे सवाल उठाते हैं कि शिक्षा के अधिकार के समय भी खूब हो हल्ला किया जा रहा था, लेकिन उसका हश्र सबके सामने है। वे कहते हैं कि देश के सभी राज्यों में आवास एक गंभीर मसला है। करोड़ों परिवारों को अपना घर नहीं है। सरकार ने पहले भी खूब योजनाएं बनाई हैं, लेकिन इनमें से एक भी स्पष्ट रूप से आगे नहीं गई। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे लोगों को आवास उपलब्ध करवाने के लिए बनी योजनाओं पर कितनी ईमानदारी से अमल हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। सबको अपना घर मुहैया करवाने के लिए कई स्तर पर कोशिशों की जरूरत है। सही योजना बनना और उसका लाभ सही लोगों तक पहुंचाना सबसे ज्यादा जरूरी है। जब तक हम इस दिशा में ध्यान नहीं देंगे 'राइट टू शेल्टर' की बात करना बेमानी है।
टाउन प्लानिंग के विशेषज्ञ डॉ. नंदकिशोर जेतवाल कहते हैं कि यदि ऐसा कोई कानून भविष्य में आकार लेता है तो इससे कई समस्याओं का हल स्वत: ही निकल जाएगा। शहरों में मास्टर प्लान को लागू करना आसान हो जाएगा। स्लम की समस्या भी पूरी तरह हल हो जाएगी। जब सरकार ही सबको आवास उपलब्ध करवा देगी तो कच्ची बस्तियां विकसित ही नहीं हो पाएगी। शहरों की सीवरेज, पानी सप्लाई आदि भी बेहतर हो जाएंगे। वे बताते हैं कि गांवों के मुकाबले शहरों में घर बनाना मुश्किल है। केंद्र सरकार ने शुरू से इस जटिलता को हल करने के प्रयास किए हैं। अब तक की सभी पंचवर्षीय योजनाओं का उद्देश्य आवास और शहरी विकास है। कई योजनाओं में संस्था निर्माण तथा सरकारी कर्मचारियों एवं कमजोर वर्गों के लिए मकानों के निर्माण पर जोर दिया गया। सभी कारीगरों को शामिल करने के लिए औद्योगिक आवास योजना को व्यापक बनाया गया। 'ग्लोबल शेल्टर स्ट्रेटजी (जीएसएस) की अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में, 1988 में राष्ट्रीय आवास नीति की घोषणा की गई जिसका दीर्घकालिक उद्देश्य आवासों की कमी की समस्याओं को दूर करना, अपर्याप्त आवास व्यवस्था की आवासीय स्थितियों को सुधारना तथा सबके लिए बुनियादी सेवाओं एवं सुविधाओं का एक न्यूनतम स्तर मुहैया कराना था। सरकार की भूमिका में निर्धनता एवं कमजोर वर्गों के लिए प्रदाता के रूप में, और बाधाओं को हटाकर एवं भूमि तथा सेवाओं की अधिक आपूर्ति करा कर अन्य आय वर्गों एवं निजी क्षेत्र के लिए सुविधाकर्ता के रूप में परिकल्पना की गई।
समाजशास्त्री सूरजभान सिंह बताते हैं कि आवास परिवार को व्यवस्थित आकार प्रदान करता है। आवास के अभाव में समाज सभ्य कम आदिम ज्यादा लगता है। आवासों की दृष्टि से भारत की स्थिति दयनीय है। सेंटर फॉर हाउसिंग राइट्स एंड एविक्शंस की रिपोर्ट के मुताबिक देश में लोअर और मिडल क्लास के लिए तीन करोड़ मकानों की कमी है। यह कमी पूरी भी नहीं होती दिख रही है। सरकारी योजनाएं तो दम तोड़ती नजर आ ही रही हैं, वे भी अब घर नहीं बना पा रहे हैं, जो बैंके से लोन लेकर ऐसा करने की सोच सकते हैं। जमीन की आसमान छूती कीमतों और एक साल के भीतर हाउसिंग लोन में चार से पांच फीसदी की बढ़ोतरी ने लोगों की उम्मीदें तोड़ दी हैं। फिक्की की एक रिपोर्ट के मुताबिक, हाउसिंग सेक्टर किसी भी अर्थव्यवस्था का एक पाया होता है। इस पर गलत असर पड़ा, तो पूरी अर्थव्यवस्था मुरझा सकती है। दुनिया के बड़े देशों के मुकाबले भारत में हाउसिंग लोन का दायरा अब भी बहुत छोटा है- कुल कर्ज का महज चार फीसदी, जबकि चीन में यह 17 और थाईलैंड में 14 फीसदी है।
राजस्थान उच्च न्यायालय के वकील आनंद सिंह नरूका इस संदर्भ में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा फरवरी 2010 में दिए एक फैसले का हवाला देते हुए कहते हैं कि कमजोर व गरीबों के लिए जगह तलाश करना सरकार की जिम्मेदारी है। न्यायालय ने यह फैसला झुग्गी बस्तियों से हटाए गए लोगों की याचिका पर दिया था। हाईकोर्ट ने कहा था कि अगर सरकारी नीति के तहत झुग्गी में रहने वाले लोगों को हटाया जाता है, तो उन्हें किसी और जगह पर शिफ्ट किया जाए। साथ ही नई जगह पर भी इन लोगों के लिए सभी बुनियादी सुविधाएं होना चाहिए, ताकि उन्हें अपने जीवन-यापन में कोई परेशानी न आए। अदालत ने कहा कि संविधान ने सबको जीने का अधिकार दिया हुआ है और लोगों के इस मूल अधिकार का उल्लंघन नहीं किया सकता। रिलोकेशन पॉलिसी कहती है कि अगर नवंबर 1998 से पहले अगर कोई झुग्गी बस्ती में रहता है और अगर वह आम रास्ते पर नहीं है, तो उसे वहां से हटाने कहीं और बसाना जरूरी है। हाईकोर्ट ने कहा कि झुग्गी में रहने वाले लोग दोयम दर्जे के नागरिक नहीं हैं। अन्य लोगों की तरह वो भी बुनियादी सुविधाओं के हकदार हैं। शहर को सुंदर बनाने के लिए कई बार सिविक एजेंसी इन्हें शहर के दूर बसा देती हैं, लेकिन वहां पानी, ट्रांसपोर्ट, स्कूल व हेल्थ फैसिलिटी जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं होतीं। तमाम बातों को ध्यान में रखकर उन्हें रिलोकेट किया जाना चाहिए। सरकारी रिकॉर्ड में नाम न होने की बात कहकर उन्हें हटाने के बारे में सोचना सही नहीं है। ये वो हैं जो शहर के बाकी लोगों के बेहतर जीवन में उनकी मदद करते हैं। ऐसे में ये प्रोटेक्शन के हकदार हैं।
कुल मिलाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 'राइट टू शेल्टर' जो शिगूफा छोड़ा है, उसके नेक होने पर तो सवाल नहीं उठाए जा सकते, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाना वाकई टेढ़ी खीर है। ऐसे परिवारों की संख्या करोड़ों में है जिनके पास खुद का मकान नहीं है। इन लोगों की पहचान करना, उन्हें घर उपलब्ध करवाने की योजना बनाना और इसे अमजीजामा पहनाना आसान काम नहीं है। यदि सरकार ऐसे काम करने में पारंगत होती तो यह संभव नहीं था कि देश में करोड़ों लोग अब भी बेघर होते। योजनाओं की यहां हमारे देश में कमी नहीं है, लेकिन इन पर अमल ईमानदारी से नहीं हो पाता है। ऐसे में यदि 'राइट टू शेल्टर' को भी सियासी नजरिये ही देखा गया तो इससे कोई बड़ा बदलाव होने वाला नहीं है।