शनिवार, अगस्त 15, 2009

अधूरा अफसाना

वतन आजाद हुआ, तो हर शख्स ने चुन-चुनकर इसकी राहों में कुछ ख्वाब बिछाए। और जिन लोगों ने हमें आजादी की मंजिल तक पहुंचाया, उनकी भी ख्वाहिश थी कि हर ख्वाब को हकीकत में बदला जाए, हर आंख के आंसू को मुस्कान में बदला जाए......लेकिन तब से अब तक एक लंबा अर्सा गुजर चुका है.... और आज ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि यह वो मुल्क नहीं है, जिसका सपना कभी बापू या नेहरू ने देखा था या जिसके लिए हमारे वीर सिपाही हंसते-हंसते शहीद हो गए थे। क्या आजादी वाकई एक ऎसा अधूरा अफसाना है, जिसके हर लफ्ज में कोई दर्दभरी दास्तान छिपी है इसी अहम सवाल का जवाब तलाशने के लिए आजादी की सालगिरह पर हमने तीन ऎसे लोगों को चुना, जिनका आजादी की लडाई के साथ सीधा रिश्ता रहा है। ये हैं महात्मा गांधी के पडपोते तुषार गांधी, सुभाषचंद्र बोस के पडपोते सूर्यकुमार बोस और भगतसिंह के भांजे प्रो। जगमोहन। उनके जवाब में हमें देश और समाज की एक धुंधली तस्वीर तो नजर आती है, पर साथ ही यह उम्मीद भी मौजूद है कि अगर इरादे बुलंद हों, तो कोहरे के पार एक विशाल नीले आसमान को भी हम छू सकते हैं।
बापू, सुभाष और भगत के सपनों का देश
तुषार गांधी- आजादी के बाद हमने बापू के सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए विकास का जो मॉडल अपनाया, उसने देश के भीतर ही दो देश बना दिए हैं। एक तरफ कुछ ऎसे लोग हैं, जो करोडों रूपए की बेंटले कार चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बैलगाडी चलाने वाले लोग भी हैं। लेकिन जहां पहले वर्ग की तादाद बेहद सीमित है, वहीं दूसरा वर्ग तेजी से बढ रहा है। इस खाई को पाटने के लिए हमें बापू के कहे मुताबिक शासन की नीतियां अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनानी होंगी।
सूर्यकुमार बोस- मेरा भी कुछ ऎसा ही मानना है। नेताजी सरीखे हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के सपने का भारत अभी तक नहीं बन पाया है। आतंकी हमलों से दहशत का माहौल है। राजनेता आतंकवाद पर लगाम कसने की बजाय अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने और जेब भरने में लगे हुए हैं। संसद और विधानसभाओं को तो इन्होंने अखाडा बना दिया है। सिस्टम की खामियों को देखकर मन में कभी-कभी विद्रोह का विचार आता है।
प्रो.जगमोहन-मुझे दुख तो इस बात का है कि इस बार हमारे सामने अंग्रेज नहीं, बल्कि अपने ही लोग हैं। कहने को तो भारत आजाद हो गया है, लेकिन देश के नीति-निर्माता अभी भी इसे गुलाम रखना चाहते हैं। अंग्रेजों के अपने फायदे के लिए चलाई गई परिपाटियों को हम आज तक ढोते आ रहे हैं। हम अपने शहीदों के लिए अलग से स्मारक तक नहीं बना पाए और इंडिया गेट को वह दर्जा देने की भूल करते चले जा रहे हैं।
समाज की दशा और दिशा
तुषार गांधी- बेहद शर्मनाक है कि हम अभी तक समाज से कुरीतियों को खत्म नहीं कर पाए। समाज धर्म और जाति के दुष्चक्र में फंसता चला जा रहा है। इस तरह का वैमनस्य देश की एकता और अखंडता के लिए घातक है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने समाज का यह वीभत्स रूप देखने के लिए कुर्बानी नहीं दी थी और आज हम इसी का नाम लेकर देश के टुकडे-टुकडे कर रहे हैं।
सूर्यकुमार बोस- देखिए, समाज का ताना-बाना जितना सुलझा हुआ होगा, देश उतना ही आगे बढेगा। विकास की रफ्तार को बढाने के लिए हमें बदलते वक्त के मुताबिक चलना होगा। ऎसी घटनाएं देखकर ठेस पहुंचती है कि आज इक्कीसवीं सदी में एक युवक को उन्मादी भीड ने पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाला, क्योंकि उसने अपने गौत्र की लडकी से शादी कर ली थी। समाज के ठेकेदारों को परंपराओं के नाम पर रूढियों को थोपना बंद करना चाहिए।
प्रो.जगमोहन-मैं सोचता हूं कि समाज का विकास तभी होता है, जब उसमें स्वनियंत्रण हो। पश्चिम की संस्कृति ने समाज को उन्मुक्त तो बनाया है, लेकिन कई विकारों के साथ। रिश्ते जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। इस भटकाव से समाज का पूरा ढांचा चरमरा गया है। नाउम्मीदी के बीच यह राहत की बात है कि देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों में स्थिति फिर भी ठीक है।
महिला अधिकारों की बात
तुषार गांधी- अब महिलाओं की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधरी है, लेकिन अभी लंबी लडाई लडना बाकी है। महिलाओं को शासन के स्तर पर ही नहीं, समाज के स्तर पर भी सच्ची भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है। हालांकि यह सब इतना सहज नहीं है। पीढियों से समाज के जिस तबके को अबला समझते आए हों, उसे बराबरी का दर्जा देने में जोर तो आएगा। सुकून की बात है कि महिलाएं अपने हकों को हासिल करने के लिए उठ खडी हुई हैं।
सूर्यकुमार बोस- मेरे मुताबिक देश की आबादी के आधे हिस्से को दरकिनार कर विकास के बारे में सोचना बेमानी है। आज की नारी यह साबित कर चुकी है कि वह कमजोर और लाचार नहीं है। ऎसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे नहीं गाडे हों, फिर क्यों उसे बराबरी का हक देने में आनाकानी की जा रही है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण का मामला चंद नेताओं की जिद की वजह से लंबे समय से अटका पडा है।
प्रो.जगमोहन-झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण हम सबके सामने है। उन्होंने ऎसे समय में गुलामी की जंजीरों को तोडने का हौसला दिखाया था, जब पूरा देश निराशा में डूबा हुआ था। देश में लक्ष्मीबाई आज भी हैं, बस हम उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका नहीं देते। कितने शर्म की बात है कि लोग लडकी को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का पाप करने से भी नहीं हिचकते हैं। समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए कन्या भू्रण हत्या पर जल्द से जल्द लगाम लगाना जरूरी है।
हमारा एक सपना है
तुषार गांधी- मैं तो चाहता हूं कि देश में समानता आधारित समाज की स्थापना हो। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों से भेदभाव नहीं किया जाए। यह भेदभाव समाप्त हो जाएगा तो आधी समस्याएं तो वैसे ही हल हो जाएंगी। हमें देश की 'विविधता में एकता' को बरकरार रखना होगा। इसके अलावा मेरा प्रयास रहेगा कि बापू से जुडी हर चीज को देश में लाया जाए, ताकि उनकी अनमोल धरोहर को नीलामी जैसी शर्मसार करने वाली प्रक्रिया से नहीं गुजरना पडे।
सूर्यकुमार बोस- इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर क्षेत्र में देश का विकास हो। यहां की प्रतिभाएं देश के विकास में अपना योगदान दें। सरकार इस तरह के इंतजाम करे कि प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन नहीं करें। युवा भी इस ओर ध्यान दें। वे महज ऊंचे वेतन के आकर्षण में अपना वतन नहीं छोडें। यदि मजबूरी में बाहर जाना भी पडे, तो अपनी मातृभूमि को नहीं भूलें। बाहर रहते हुए भी अपने देश की तरक्की में भागीदार बनने का प्रयास करें।
प्रो.जगमोहन-आप यूं क्यों नहीं सोचते कि यदि हम शहीदों के सपनों को पूरा कर पाएं, तो देश का कल्याण तो अपने आप हो जाएगा। लोगों को यह बताने की जिम्मेदारी हमारी है कि स्वतंत्रता सेनानी देश के बारे में क्या सोचते थे। स्वतंत्रता संग्राम का आधा-अधूरा सच ही लोगों का पता है। इतिहास का यह अनछुआ पक्ष बहुत रोमांचक है। और हां, हमें आजादी की जंग में कुर्बान हुए वीरों की याद में ऎसे स्मारक को मूर्त रूप देना है जो हमारी जमीन पर, हमने ही बनाया हो।

शनिवार, अगस्त 08, 2009

सिमटता संघ


राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को ऐसी उम्मीद कभी न थी। आठ दशक से भी ज्यादा पुराने इस दरख्त की हर शाख दरकने लगी है। हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन राह भटक गया है, शाखाएं सूनी हो गई हैं, अनुशासन खो गया है, बुद्धिजीवियों ने मुंह मोड़ लिया है और भाजपा का एक धड़ा अकेले चलने पर आमादा है। संघ चक्रव्यूह में फंसता ही चला जा रहा है। वह इससे निकलने के लिए एक रास्ता ढूंढ़ता है तो कई नए घेरों में फंस जाता है। क्या संघ सिमटने लगा है? क्या संघ को जंग लग गई है। संघ के अंदरूनी हालातों का जायजा लेती आवरण कथा।
मोहन राव भागवत। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के छठे सर संघचालक। इसी साल 21 मार्च को जब उन्हें के. सुदर्शन का उत्तराधिकारी बनाया गया था तो उम्मीद थी कि वे संघ के कील-कांटों को दुरुस्त करने में कामयाब होंगे। भागवत के सामने सबसे बड़ी चुनौती संघ और उसके आनुषांगिक संगठनों, विशेषकर भाजपा से बिगड़ते रिश्तों को पटरी पर लाना और संगठनों में फैली अराजकता, वैचारिक भटकाव, व्यक्तिवादी राजनीति के चलते सत्ता संघर्ष और एक-दूसरे के खिलाफ गलाकाट प्रतिद्वंदिता पर लगाम लगाना था। भागवत में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की छवि देखने वाले प्रचारकों को उम्मीद थी कि जल्दी ही भाजपा और संघ के ऐसे नेताओं को हाशिए पर डाला जाएगा जिन्होंने हिंदुत्व पर व्यक्तित्व को हावी कर रखा है। संघ के भीतर तो उन्होंने इसकी कवायद भी शुरू की, पर लोकसभा चुनावों के चलते भाजपा में नेताओं का कद छांटने की प्रक्रिया शुरू नहीं हो पाई। चुनाव हुए तो परिणामों से मामला और उलझ गया। हार के हाहाकार के बीच भाजपा के कई नेताओं ने संघ को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। संघ से तौबा कर करने की वकालत करने वाले भाजपाईयों की फेहरिस्त बढऩे लगी। इस पूरे घटनाक्रम से भागवत की उस मुहिम को विराम लग गया जिसे वे संघ को संवारने के मकसद से शुरू कर चुके थे।
भाजपा के साथ रिश्तों को अपने हाल पर छोड़ दें तो भी संघ के लिए समस्याएं कम नहीं हैं। संघ की स्थापना 1925 में हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन के साथ हुई थी, लेकिन आठ दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी यह अपने अंजाम तक पहुंच पाया। दरअसल, यह आंदोलन कभी एक दिशा में नहीं चल पाया। शुरूआत में इसके अंतर्गत हिंदू धर्म का एक ऐसा नया स्वरूप उभारने की कोशिश की गई जो राष्ट्र की यूरोपीय अवधारणा के एकदम अनुरूप था। इसमें धर्म के एक ऐसे पहलू को विकसित करने की कोशिश की गई जिससे जुडऩा पूरे भारत के लिए सहज हो। शुरूआत में तो यह सफल रहा, लेकिन जब यह आंदोलन हिंदू राष्ट्रवाद की ओर मुडऩे लगा तो दिक्कतें बढऩा शुरू हो गईं। जल्दी ही यह सांप्रदायिक राष्ट्रवाद की ओर मुड गया। यह ऐसा समय था जब देश में जाति व्यवस्था तेजी से मजबूत हो रही थी। हिंदू समाज जाति के अलावा क्षेत्र और भाषा के आधार पर तेजी से बंट रहा था। संघ ने इस दिशा में ध्यान नहीं दिया और वह हिंदुओं को अन्य धर्मों का भय दिखाकर संगठित करने का असफल प्रयास करता रहा।
1951 में जनसंघ की स्थापना के बाद हिंदुत्व की जो व्याख्या प्रस्तुत की जाने लगी वह हिंदू समाज के बड़े वर्ग को स्वीकार्य नहीं है। राम जन्मभूमि आंदोलन के बाद उपजे हालातों से ऐसे लोगों की संख्या तेजी से बढ़ी। अब तो हालात यह हैं कि संघ तय नहीं कर पा रहा है कि आखिर उसके लिए हिंदुत्व के क्या मायने हैं। इसकी संगठन स्तर पर व्याख्या होने की बजाय संघ से जुड़ा हर व्यक्ति इसकी अलग ढंग से व्याख्या करता है। कोई गुजराज और कंधमाल में जो हुआ, उसे हिंदुत्व कहता है तो कोई इसकी व्यापक और सकारात्मक अर्थों में व्याख्या करता है। संघ के प्रवक्ता राम माधव तो यहां तक कहते हैं कि हिंदुत्व को बनाने वाल संघ नहीं है। वे बताते हैं, 'हिंदुत्व को बनाने वाले हम नहीं हैं। ऐसे में हम इसमें कोई बदलाव कैसे कर सकते हैं। संघ ने हिंदुत्व को स्वामी विवेकानंद, श्री अरबिंदो और दयानंद सरस्वती से लिया है। यह भारत की खास पहचान है जिसे हम हिंदुत्व कहते हैं। यह हजारों साल से चली आ रही है, हम तो इसे मजबूत बनाने का काम कर रहे हैं। हिंदुत्व के जिस अर्थ की बात राम माधव कर रहे हैं, संघ शायद ही कभी उस पर चला हो।
यह तय है कि संघ किसी भी कीमत पर हिंदुत्व को नहीं छोड़ेगा, लेकिन सवाल यह है कि वह कितने समय तक इस मुद्दे को जीवित रख पाएगा। क्या वह उस हिंदुत्व के आगे बढ़ाने के लिए काम करेगा जिसकी व्याख्या राम माधव कर रहे हैं या फिर उस पर जिसकी बात बजरंग दल और विश्व हिंदु परिषद करते हैं। दबे स्वर में ही सही संघ अब यह स्वीकारने लगा है कि गुजराज और कंधमाल वाला हिंदुत्व वर्तमान परिस्थितियों में ज्यादा लंबे समय तक नहीं चल सकता। इसकी बानगी वरुण गांधी के भाषण के बाद आए बयानों में देखी जा सकती है। संघ ने वरुण गांधी के भाषण पर असहमति प्रकट करते हुए इससे पूरी तरह से पल्ला झाड़ लिया था। विवादों से रहे अभिनव भारत, श्रीराम सेना, हिंदू जागृति मंच और सनातन प्रभात सरीखे कट्टर हिंदुवादी संगठनों के बारे में संघ पहले ही स्पष्ट कर चुका है कि इनसे संघ का कोई वास्ता नहीं है। संघ के रवैये में आए इस परिवर्तन से एक बात तो स्पष्ट है कि वह अब हिंदुत्व के नाम पर अन्य धर्मों के खिलाफ गैर कानूनी तरीके से लामबंद होने के खिलाफ है।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का संगठन शाखातंत्र पर चलता है। इसी के दम पर संघ ने अपनी पहचान कायम की। देश में आई आपदाओं और संकटों में फंसे नागरिकों की स्वयंसेवकों ने खूब सेवा की। यह दौर अभी भी जारी है, पर इसकी धार कुंद हो चुकी है। वहज है, शाखातंत्र का विफल होना। देश में शाखाओं की संख्या और उनमें आने वाले कार्यकर्ताओं की संख्या तेजी से गिर रही है। संघ ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में माना है कि शाखाओं की संख्या में कमी आ रही है। दरअसल, संघ नए खून को शाखाओं से जोडऩे में बुरी तरह से विफल रहा है। युवाओं को शाखाओं में जाने से कोई फायदा होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। वहां जो चीजें बताई और सिखाई जाती हैं, वे उसके मानसिक स्तर से ऊपर निकल जाती हैं। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि आठ दशक से ज्यादा का समय बीत जाने के बाद भी संघ ने अपनी शाखा प्रणाली में कोई खास तब्दीली नहीं की है। शाखाओं की घटती संख्या के बारे में संघ से जुड़े देवेंद्र स्वरूप बताते हैं, 'जिस शाखातंत्र को संघ ने मनुष्य निर्माण और संगठन का मुख्य साधन बनाया था, वह स्वयं अपनी गतिशीलता और तेज खोकर जड़ता का बंदी बनता जा रहा है। शाखा प्रक्रिया में बीते आठ दशकों में निर्मित स्वयंसेवकों का एक बड़ा वर्ग काल कलवित हो चुका है और जो विद्यमान हैं, उनमें से ज्यादातर दैनिक शाखातंत्र में सहभागी नहीं हैं। यद्यपि वे गुरूदक्षिणा के कार्यक्रम में आग्रहपूर्वक उपस्थित होकर अपनी संघनिष्ठा का प्रमाण देते हैं। टूटते बिखरते और चारित्रिक भ्रष्टता की दलदल में धंसते समाज में संघ का शाखातंत्र एक बहुत छोटा द्वीप बनकर रह गया है।
शाखातंत्र का विफल होना संघ के लिए खतरे की घंटी है। हालांकि संघ को भी इस बात का अहसास है, पर इससे निपटने के लिए ज्यादा कुछ नहीं किया जा रहा है। यदि समय रहते इस दिशा में ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब संघ प्रौढ़ और वृद्ध लोगों की जमात बन जाएगा। शाखातंत्र की विफलता के अलावा संघ को बौद्धिक स्वरूप को बचाए रखने के लिए भी जूझना पड़ रहा है। वैचारिक दृष्टि से संघ की बेहद समृद्ध परंपरा रही है। संघ के सर संघचालक सदैव से बौद्धिक जगत के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। वर्तमान सर संघचालक मोहन भागवत उच्च शिक्षा प्राप्त हैं। उन्होंने प्रचारक बनने से पहले कुछ समय तक डॉक्टर के रूप में अपनी सेवाएं भी दी हैं। के. सुदर्शन तो देश के उन गिने-चुने बुद्धिजीवियों में से हैं जो भाषा की सीमा को लांघ चुके हैं। सुदर्शन 13 भाषाओं के ज्ञाता हैं। उनसे पहले सर संघचालक रहे डॉ. हेडगेवार, माधव गोलवकर और बाला साहब देवरस भी बड़े विचारक रहे हैं। बुद्धिजीवियों के बड़े वर्ग का सीधे तौर पर भी संघ से जुड़ाव रहा है, लेकिन लंबे समय से इसमें आशातीत वृद्धि नहीं हुई है। इस तबके के जो लोग संघ से जुड़ रहे हैं उनका मकसद दूसरा है। वे भाजपा में अपना ग्राउंड तैयार करने के लिए संघ को सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं।
शाखातंत्र के कमजोर होने और बुद्धिजीवियों की घटती संख्या के कारण समाज पर संघ प्रभाव धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। किसी भी संगठन की सफलता में अनुशासन की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कड़ा अनुशासन संघ की विशेषता रही है, लेकिन अब ये ढीला पड़ता जा रहा है। संघ के आला व्यक्ति भी स्वयंसेवकों के लिए नजीर पेश नहीं कर पा रहे हैं। कई ऐसे प्रचारकों के मामले सामने आए हैं जिन्होंने संघ के नियमों को तोड़ अनुशासन को तार-तार किया। प्रचारकों की इस व्यवहार का स्वयंसेवकों पर बेहद बुरा असर पड़ा है। स्वयंसेवक को निष्क्रिय होना संघ के लिए घातक हो सकता है, क्योंकि आम लोगों के बीच तो वहीं जाकर काम करता है। बातचीत में संघ प्रवक्ता राम माधव ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि हिंदू समाज में संघ का प्रभाव कम हो रहा है। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि संघ की विचारधारा किसी भी नजरिए से कमजोर नहीं हुई है। वे बताते हैं, 'शाखाएं संघ का कार्यक्रम है न कि विचारधारा। कहीं-कहीं शहरी क्षेत्रों में शाखाओं में कार्यकर्ताओं की संख्या कम होने का अर्थ यह नहीं कि लोगों ने संघ की विचारधारा को ठुकरा दिया है। साध्वी उमा भारती भी उनकी बात में सुर में सुर मिलाते हुए कहती हैं कि 'संघ में लोगों का गहरा विश्वास है। इतने बड़े संगठन में इस तरह की छोटी-मोटी बातें चलती रहती हैं। इन सबसे संगठन कमजोर होने की बजाय परिष्कृत होकर मजबूत होता है।
संघ की कमजोरियों की चर्चा हो रही हो और भाजपा को जिक्र नहीं हो तो बात अधूरी रहती है। 1951 में जनसंघ की स्थापना उन्हीं लोगों ने की जो संघ द्वारा चलाए जा रहे हिंदू राष्ट्रीयता आंदोलन में शरीक थे। कुछ सक्रिय स्वयंसेवकों के दबाव में एक सामाजिक संगठन राजनीति में कूद पड़ा। चाहे भारतीय जनसंघ हो या भारतीय जनता पार्टी, दोनों की कमान संघ ने हमेशा अपने पास रखी। सत्ता का स्वाद चखने का बाद भी यह नियंत्रण जारी रहा। अटल बिहारी वाजपेयी सरीखे संघ के वफादार शख्स की सरकार के समय भी यह धारणा स्थिर और सिद्ध थी कि संघ की अनुमति के बिना कोई बड़ा काम नहीं हो सकता। याद कीजिए संघ के दबाव में किस तरह से वाजपेयी को जसवंत सिंह का मंत्रालय बदलना पड़ा। वाजपेयी ने प्रधानमंत्री रहते हुए इस बात की पूरी कोशिश की कि वे ऐसा कोई काम नहीं करें जिससे संघ की नाराजगी झेलनी पड़े। इतना कुछ करने के बाद भी संघ उनके कार्यकाल से संतुष्ट नहीं हुआ। बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद ने तो अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कामकाज की खूब बखिया उधेड़ी।
लालकृष्ण आडवाणी द्वारा जिन्ना को सेकुलर बताना संघ को इतनी बुरी तरह अखर गया कि आडवाणी को अध्यक्ष पद से हटाकर ही मानें। ऐसे कई उदाहरण है जब संघ भाजपा नेताओं के सामने नहीं झुके और अपनी बात मनवाकर ही दम लिया। संघ की राजनीति में इस अति सक्रियता ने उस सामाजिक संगठन का गला घोंटने का काम किया जो लाखों स्वयंसेवकों की वर्षों की मेहनत से खड़ा हुआ था। संघ में सक्रिय रहने वाले कई स्वयंसेवकों को भी सत्ता का स्वाद मुंह लगा तो सेवा दूसरे पायदान पर चली गई। धीरे-धीरे कार्यकर्ता भी इसी ओर अग्रसर होने लगा। संघ के नेता अब मानने लगे हैं कि राजनीति में ज्यादा दखलंदाजी से संगठन को नुकसान ही हुआ। भविष्य में भाजपा के साथ रिश्तों को लेकर संघ में बहस तेज हो गई है। संघ का एक बड़ा समूह राजनीति से तौबा करने की वकालत कर रहा है। के.एन. गोविंदाचार्य की मानें तो संघ अब आंख मूंद कर भाजपा को समर्थन नहीं देगा। वे कहते हैं, 'अब संघ, भाजपा से साफ शब्दों में बात करके पूछेगा कि पार्टी भविष्य में उसके साथ किस तरह का संबंध रखना चाहती है। वर्तमान में दोनों के बीच जो रिश्ता है, उस पर नए सिरे से चर्चा करना जरूरी है। यदि भाजपा अकेले आगे चलना चाहती है तो संघ को इससे कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन यदि हमारे साथ चलना है तो हमारे हिसाब से ही चलना होगा। दोनों में से किसी को बोझ ढोने की जरूरत नहीं है। संघ को भाजपा की बेखासी न तो आज चाहिए न कल।
भाजपा और संघ के रिश्तों में जारी द्वंद्व का नुकसान संघ को ही ज्यादा हो रहा है। मोहन भागवत अपना पूरा ध्यान संघ की गतिविधियों पर नहीं लगा पा रहे हैं। उन्होंने चुनाव के बाद अपनी टीम बनाने का निश्चय किया था, पर सबकुछ अटका पड़ा है। भाजपा के कई नेता लोकसभा चुनावों में हार का ठीकरा संघ के सिर फोड़ संगठन की छवि को अलग से नुकसान पहुंचा रहे हैं। इन नेताओं का मानना है कि यदि भाजपा संघ के बिना चुनावों में ज्यादा बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। संघ के लिए चिंता की बात यह है कि पिछले 15 सालों में भाजपा के भीतर ऐसे लोगों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है। पंद्रहवीं लोकसभा में भाजपा के टिकट पर जीतकर आए सांसदों की सूची पर नजर डाले तो कुल 116 में से 40 से 50 सांसद ही ऐसे हैं जिनका संघ से कोई जुड़ाव रहा है। बाकी 65 से 75 सांसद तो संघ की विचारधारा से भी वाकिफ नहीं है। ये सांसद भविष्य में संघ की मानने और सुनने वाले नहीं हैं। कुल मिलाकर जिस भाजपा को संघ ने खड़ा किया, अब वही उसके गले की फांस बनता जा रहा है। संघ को स्वयंसेवकों के सत्ता के प्रति रुझान को नियंत्रित करने में पसीना आ रहा है। स्वयंसेवकों को अनुभव होता है कि संघ की मेहनत के कारण ही बीजेपी और हिंदूवादी राजनीतिक दल सत्ता का सुख भोग रहे हैं और उसका भाग उन्हें भी मिलना चाहिए। संघ से जुड़े लोग जिस तरह से सत्ता के पीछे भाग रहे हैं उससे संगठन के दूसरे सर संघचालक गोलवलकर की सत्ता को समाज का टॉयलट मानने की बात सही साबित हो गई है। उनका मानना था कि व्यक्ति घर में कहीं भी फिसल सकता है, लेकिन टॉइलट में फिसलने की आशंका ज्यादा होती है। इसी वजह से वह राजनीतिक पार्टी बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। ऐसे में यह कई संकटों से जूझ रहे संघ को तय करना है कि वह भाजपा के साथ भविष्य में किस तरह का रिश्ता रखता है और बाकी समस्याओं को हल करने के लिए किस तरह के कदम उठाता है।
भागवत की लचीली कार्यशैली उनके लिए नुकसानदायक साबित हो सकती है। उनसे पहले जितने भी सर संघचालक रहे हैं वे विचारधारा और प्रक्रिया पर अडिग रहे हैं जबकि मोहन भागवत विचारधारा के साथ ही निर्णय लेने में लचीलापन रखते हैं और किसी भी प्रकरण को उसकी परिणति तक पहुंचाने में विश्वास रखते हैं। यह मोहन भागवत ही थे कि जिनके सुझाव पर संघ के नेता विवाद सुलझाने के लिए आडवाणी के निवास पर गए। उससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ था कि संघ अपने पारिवारिक घटकों के नेताओं के घर गया हो। संघ नेतृत्व की परंपरा रही है कि 'अपनी बात कह दो और आपकी बात कोई माने या न माने, यह उस पर छोड़ दो। मोहन भागवत इसके विपरीत धारा पर चलते हैं। उनका मानना है कि 'स्वयंसेवक, चाहे वह कद या आयु में कितना भी ऊंचा क्यों न हो, उसे इस बात की समझ होनी चाहिए कि उसे जो कहा गया है, वह आज्ञा ही है। संघ में आ रहे परिवर्तन पर राम माधव कहते हैं कि 'हिंदुस्तान हिंदू राष्ट्र है, इस सिद्धांत को छोड़कर संघ में कोई भी परिवर्तन हो सकता है। इसमें मुख्य रूप से आईटी प्रोफशनलों की रात्रिकालीन शाखाएं ध्यान आकर्षित करती हैं। ये पारंपरिक शाखाओं से हट कर हैं। ऐसी शाखाओं में रात को ग्यारह से बारह बजे तक विचार विमर्श होता है और आईटी को अधिक से अधिक संपर्क का साधन बनाने पर विचार होता है। इस प्रकार की शाखाओं के मोहन भागवत पूरी तरह से पक्षधर रहे हैं जो मोहन भागवत की आधुनिकता को स्वीकार करने की छवि की ओर संकेत करती है। लेकिन इन सबके उलट मोहन भागवत की कार्यशैली संघ परिवार के घटकों के बीच होने वाले तनाव को कम करने में कितना सहायक होगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

साक्षात्कार । के. सुदर्शन । पूर्व सर संघचालक, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ
के.एस. सुदर्शन संघ के लोकप्रिय व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। नौ साल तक सर संघचालक रहे सुदर्शन स्वाभाव में लचीलापन और विमर्श में तत्परता के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर संघ के शारीरिक प्रमुख और बौद्धिक प्रमुख, दोनों रूपों में कार्य किया है। संघ के हालातों पर अवधेश आकोदिया ने उनसे बातचीत की। प्रस्तुत हैं बातचीत के संपादित अंश -
लोकसभा चुनावों में हार के लिए भाजपा के कई नेता राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को जिम्मेदार बता रहा हैं। इस बारे में आपकी क्या प्रतिक्रिया है?
- जो ऐसा कह रहे हैं वे संघ की विचारधारा को जानते और समझते ही नहीं हैं। संघ भाजपा को क्यों हराएगा? वैसे भी इन चुनावों में मतदाता की तो कोई अहमियत रही ही नहीं। यह चुनाव पूरी तरह से इलोक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन का गड़बड़ी का खेल था जिसे कांग्रेस ने पूरी तरह से अपनी इच्छानुसार खेला। कांग्रेस को जितनी सीटें मिली, उनका अनुमान किसी विश्लेषक ने यहां तक स्वयं कांग्रेस ने भी नहीं लगाया था। कांग्रेस इवीएम मशीनों के दुरूपयोग से जीती है। मैं आपको कई उदाहरण दे सकता हूं कि जहां यह साबित हो जाता है। पी. चिदंबरम के मामले में भी ऐसा ही हुआ।
यदि ऐसा है तो आपकी ओर से शिकायत क्यों नहीं की गई?
- इसके कानूनी पहलुओं पर विचार करने के बाद जल्दी ही ऐसा किया जाएगा। हम तो चाहते हैं कि जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं वहां इवीएम की बजाय मतपत्रों से ही मतदान हो।
क्या भाजपा संघ और हिंदुत्व से तौबा करना चाहती है?
- इसमें से ज्यादातर वे लोग है जो सत्ता के आकर्षण से भाजपा में हैं न कि विचारधारा से प्रभावित होकर। यह उनकी मर्जी है। हमने किसी को बांध थोड़े ही रख रखा है। यदि उन्हें लगता है कि संघ और हिंदुत्व के बिना वे सत्ता में आ सकते हैं तो हमें कोई आपत्ति नहीं है। जो भी हो, सभी बातें स्पष्ट रूप से हो जाएं तो अच्छा है। किसी के मन में शंका नहीं रहनी चाहिए। शंका समस्या पैदा करती है। उसे जितना जल्दी हल कर लें उतना अच्छा है। जहां तक हिंदुत्व की बात है तो यह तो एक जीवन पद्धति है, भाजपा इसे क्यों छोडऩा चाहेगी।
आप हिंदुत्व को कैसे परिभाषित करते हैं?
- हिंदुत्व पांच मूल तत्वों से बना है। पहला, उपासना की प्रत्येक पद्धति का सम्मान करना। दूसरा, जड़ है या चेतन सब बराबर हैं। तीसरा, मनुष्य प्रकृति का हिस्सा है न कि स्वामी। चौथा, महिलाओं का सम्मान और पांचवा जीवन का मकसद भौतिक आवश्यकताओं को पूरा करने तक ही सीमित नहीं है। इन पांचों तत्वों का समग्र रूप हिंदुत्व है।
भाजपा इस पर कहां तक खरी उतरी है?
जाहिर तौर पर पूरी तरह से तो खरी नहीं उतरी है। यदि वह ऐसा कर पाती तो देश में उसके समर्थन में कमी नहीं आती। कहीं न कहीं तो चूक हुई है। मेरे ख्याल से भाजपा यह तय नहीं कर पाई कि उसे किसी दिशा में चलना है। मूल विचार के विपरीत काम करने का प्रयास हुआ। यह सब उन लोगों की वजह से हुआ जो सत्ता की खातिर भाजपा में आए हैं।
भाजपा के अलावा संघ की और क्या समस्याएं हैं?
- पहली बात तो भाजपा हमारे लिए कोई समस्या नहीं है। जहां तक संघ की अन्य समस्याओं का प्रश्न है तो इतने विशाल संगठन में सब कुछ एक साथ ठीक रखना मुश्किल काम है। फिलहाल कोई बड़ी समस्या तो नहीं है। कुछ कार्यक्रमों में उतार-चढ़ाव चलता रहता है।
संघ की वार्षिक रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि शाखाओं व उनमें आने वाले लोगों की संख्या...
- शहरी क्षेत्रों की कुछ शाखाओं में ऐसा हुआ है, लेकिन आप इसका सामान्यीकरण नहीं कर सकते हैं। आप ये भी तो देखिए कि हमारी ज्यादातर शाखाएं बहुत अच्छी तरह से संचालित हो रही हंै। हर आयु और वर्ग के लोग इनमें आ रहे हैं। शहरों की कुछ शाखाओं का ठीक ढंग से नहीं चलना चिंता का विषय है। जल्दी ही इसका समाधान निकाल लिया जाएगा।
युवा और बुद्धिजीवी वर्ग आपसे दूर क्यों होता जा रहा है?
- हमसे न युवा दूर हो रहे हैं और न ही बुद्धिजीवी। दोनों वर्ग हमसे निरंतर जुड़ रहे हैं। हां, यह जरूरी कहा जा सकता है कि जीवन में कड़ी प्रतिस्पर्धा के चलते युवा अब उतनी सक्रियता से हमारे कार्यक्रमों में हिस्सा नहीं ले रही है। हमारा प्रयास है कि वे प्रतिस्पर्धा और अपने सामाजिक दायित्वों के बीच संतुलन बनाते हुए कार्य करें।
संघ के भीतर अनुशासनहीनता बढऩे की क्या वजह है?
- अनुशासन तो संघ का आधार है। कई जगह पर अनुशासनहीनता की जानकारी मुझे भी मिली है। अनुशासन बनाए रखने के लिए जरूरी है कि लोगों का पूर्णत: आप पर विश्वास हो। अनुसरणकर्ता का नीतियों और तौर-तरीकों से सहमत होना जरूरी है। हम देख रहे हैं कि दिक्कत कहां पर है।
संघ को राजनीति में सक्रिय होने का कितना नुकसान हुआ?
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ एक सामाजिक संगठन है। हम राजनीति में कभी सक्रिय नहीं हुए। सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जरूर जनसंघ और जनता पार्टी बनी। इनमें ज्यादातर संघ से जुड़े हुए ही लोग थे। हमारी विचाराधारा भी समान थी, इसलिए संघ ने इनका समर्थन किया। इसका मकसद राजनीति करने का बिल्कुल नहीं था।