सोमवार, जुलाई 13, 2009

नए निजाम, पुरानी मुसीबतें

सूबे में भाजपा के नए निजाम अरुण चतुर्वेदी आते ही पुरानी मुसीबतों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। उनके आते ही पार्टी के भीतर चल रहा घमासान और तेज हो गया है। पार्टी का कोई भी बड़ा नेता उन्हें स्वीकार करने के मूड में दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में क्या चतुर्वेदी भाजपा के कील-कांटों को दुरुस्त कर पाएंगे? एक रिपोर्ट!

अरुण चतुर्वेदी। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के नए निजाम। हाईकमान ने उन्हें नियुक्त तो किया सूबे में पार्टी को पटरी पर लाने के लिए, लेकिन उनके आते ही असंतोष थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज नेताओं की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। विधायक व पूर्व मंत्री देवी सिंह भाटी ने तो चतुर्वेदी की नियुक्ति का विरोध करते हुए भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से ही इस्तीफा दे दिया है। भाटी के बाद विधायक रोहिताश्व ने भी बागी तेवर दिखाते हुए कहा है कि नए अध्यक्ष एक कमजोर व्यक्ति हैं उनकी राजस्थान में कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। चतुर्वेदी को पूरे प्रदेश के भूगोल तक का ज्ञान नहीं है। पार्टी उनके नेतृत्व में मजबूत नहीं हो सकती। हालांकि चतुर्वेदी सबको साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं। वे पार्टी के आला नेताओं से मिलकर सहयोग करने की गुजारिश कर रहे हैं, पर संघ के अलावा कोई भी उनके साथ चलने को तैयार नहीं है।

हम पहले ही बता चुके है कि राजस्थान में भाजपा वसुंधरा राजे, वसुंधरा विरोधी और संघ के रूप में तीन खेमों में बंटी है। अरुण चतुर्वेदी संघ खेमे से हैं। प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए संघ ने ही उनका नाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास भेजा था। हालांकि उनके साथ मदन दिलावर और सतीश पूनिया का नाम भी शामिल था, लेकिन मुहर चतुर्वेदी के नाम पर लगी। संघ और पार्टी के प्रति वफादारी के अलावा युवा होने का फायदा उन्हें मिला। विवादों से दूर रहना भी उनके काम आया। गौरतलब है कि प्रदेशाध्यक्ष बनने से पहले वे पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी थे। उनके इन पदों पर रहते हुए पार्टी के भीतर खूब घमासान मचा। खेमेबंदी भी जमकर हुई, पर चतुर्वेदी ने इनसे दूरी ही बनाए रखी। वे 'सबके साथ और किसी के साथ नहीं वाली नीति पर चले। संघ के प्रति जरूर उनका 'साफ्ट कॉर्नर' रहा। राज्य में संघ के भीतर भी कई धड़े बने हुए हैं, पर चतुर्वेदी के सभी से अच्छे संबंध हैं।

अरुण चतुर्वेदी को जिनती आसानी से पार्टी अध्यक्ष पद मिला है, काम करना उतना ही मुश्किल है। वे स्वयं भी मानते हैं कि इस जिम्मेदारी को संभालना आसान नहीं है। विशेष बातचीत में उन्होंने माना कि लगातार दो हार झेलने के बाद पार्टी में शक्ति का संचार करना आसान काम नहीं है। वे कहते हैं, 'हार का ज्यादा असर कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। वे बहुत जल्दी मायूस हो जाते हैं। सबसे ज्यादा जरूरी काम कार्यकर्ताओं को ही सक्रिय करना है, क्योंकि पार्टी के उन्हीं के दम पर कायम है। कार्यकर्ताओं में जोश भरने का पूरी योजना मेरे दिमाग में है। स्थानीय निकायों के चुनावों को देखते हुए हम जल्दी ही इस पर काम शुरू करेंगे।' चतुर्वेदी कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में भले ही कामयाब हो जाएं, लेकिन बड़े नेताओं के बीच लगातार चौड़ी खाई को भरने में उन्हें पसीना आ जाएगा। उन्हें पद संभालने से पहले ही इसका ट्रेलर मिल गया। आमतौर पर नए अध्यक्ष की नियुक्ति की घोषणा होते ही बधाई देने और स्वागत करने के लिए नेताओं मजमा लगना शुरू हो जाता है, लेकिन चतुर्वेदी के साथ ऐसा नहीं हुआ। पार्टी का कोई भी आला नेता उन्हें बधाई देने नहीं पहुंचा। बाद में वे स्वयं एक-एक करके सभी नेताओं के यहां गए और सहयोग मांगा।

सूबे में भाजपा के नए निजाम के लिए कदम-कदम पर मुश्किलें हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती नियुक्ति के बाद पनपे असंतोष को थामना है। चतुर्वेदी के लिए देवी सिंह भाटी का पार्टी छोड़ देना और रोहिताश्व की खुली खिलाफत से ज्यादा घातक उन्हें पटकनी देने के लिए अंदरखाने बन रही रणनीतियां हैं। उनके विरोधियों, खासतौर पर वसुंधरा खेमे में नए अध्यक्ष को लेकर खलबली मची हुई है। सूत्रों से जो जानकारियां मिल रही हैं वे चतुर्वेदी के लिए खतरनाक हैं। महारानी इस मसले पर केंद्रीय नेतृत्व के संपर्क में हैं और उन्होंने अपने समर्थकों को फिलहाल चुप रहने को कहा है। साथ ही चतुर्वेदी की अध्यक्षता में होने वाली बैठकों से दूर रहने को कहा है। जरूरत पडऩे पर वे अपने लमावजे के साथ दिल्ली भी जा सकती हैं। यहां हालत कुछ-कुछ वैसे ही हो रहे जो ओम माथुर के अध्यक्ष बनने के समय हुए थे। उस समय वसुंधरा नहीं चाहती थीं कि उनके विश्वस्त डॉ। महेश शर्मा को हटाकर ओम माथुर को प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी जाए, लेकिन राजनाथ सिंह ने माथुर को राजस्थान भेज दिया। महारानी ने उनकी वापसी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, पर वे सफल नहीं हुईं। इस मामले में आडवाणी भी उनकी कुछ मदद नहीं कर पाए। माथुर राजस्थान आ तो गए, लेकिन महारानी ने उन्हें ज्यादा तवज्जों नही दी। पार्टी के नितिगत निर्णयों में माथुर की ज्यादा नहीं चली।

महारानी अच्छी तरह जानती हैं कि एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व फिलहाल अपना फैसला नहीं बदलेगा। नए अध्यक्ष का विरोध वे उन्हें हटाने के लिए नहीं, बल्कि उन पर दबाव बनाने के लिए कर रही हैं। वे हाईकमान के सामने ये साबित करना चाहती हैं कि चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले से राज्य में पार्टी के ज्यादातर लोग सहमत नहीं हैं। इससे केंद्रीय नेताओं के सामने चतुर्वेदी का कद छोटा हो जाएगा, महारानी चाहती भी यही हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा खेमा चतुर्वेदी के लिए ओम माथुर से भी बदतर हालात पैदा करने की योजना बना रहा है। इसके तहत उन पर एक साथ हमला बोलने की बजाय धीरे-धीरे वार किया जाएगा। वे जितने समय भी अध्यक्ष पद पर रहे, असंतोष बरकरार रहे। जरूरत के हिसाब से यह कम-ज्यादा होता रहे।

महारानी खेमे को अपनी जगह छोड़ दें तो भी चतुर्वेदी की राह आसान नही हैं। वसुंधरा विरोधी खेमा उनके लिए दिक्कतें खड़ी कर सकता है। हालांकि इनमें से कई नेताओं से चतुर्वेदी के अच्छे संबंध हैं। पक्का संघी होने के कारण भैरों सिंह शेखावत, हरिशंकर भाभड़ा और ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे वरिष्ठ नेता भी उनका विरोध नहीं करेंगे। इन दिग्गजों के कहने से और भी कई नेता नए अध्यक्ष का सहयोग कर सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा विरोधी ज्यादातर नेता चतुर्वेदी का सहयोग करने तो तैयार हैं, लेकिन इस शर्त पर कि वे वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत करने की उनकी मुहीम का हिस्सा बनें। गौरतलब है कि ये नेता लंबे समय से महारानी के खिलाफ सक्रिय है। इनकी लाख कोशिशों के बाद भी वसुंधरा ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर चुनावों में पार्टी की हार के बाद वे नेता प्रतिपक्ष बनने में सफल रही। वसुंधरा के विरोधी उन्हें पटकनी देने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। यदि प्रदेशाध्यक्ष उनके पक्ष का रहा तो वे महारानी हटाओ मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने में सफल हो सकते हैं। वसुंधरा विरोधी खेमें में एक ही व्यक्ति हैं जो चतुर्वेदी के लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं। वे हैं घनश्याम तिवाड़ी। तिवाड़ी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं हैं। जिस समय महारानी मुख्यमंत्री थीं और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही थी तो तिवाड़ी कुर्सी की दौड़ में सबसे आगे थे। प्रदेशाध्यक्ष को लेकर उनके नाम की चर्चा इस बार तो थी ही ओम माथुर के समय भी रही। यदि वे लोकसभा चुनाव नहीं हारते तो अध्यक्ष पद के लिए वे ही सबसे तगड़े दावेदार थे।

वैसे भले ही अरुण चतुर्वेदी आते ही मुश्किलों में घिर गए हों, पर मुसीबतें महारानी के लिए भी कम नहीं है। जिस तरह से अन्य राज्यों में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व परिवर्तन कर रहा है, उसी क्रम में राजस्थान से वसुंधरा का नंबर भी आ सकता है। ओम माथुर के इस्तीफे के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़े जाने को दबाव उन पर पहले से ही है। पार्टी में यह स्वर मुखर होने लगा है कि हार के लिए ओम माथुर से ज्यादा जिम्मेदार वसुंधरा हैं। इसलिए माथुर की तर्ज पर उन्हें भी इस्तीफा देना चाहिए। वसुंधरा को भी इसका अहसास है। वे इस बात के लिए लॉबिंग कर रही है कि राजस्थान में एक साथ दो परिवर्तन पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित होंगे। अरुण चतुर्वेदी के खिलाफ असंतोष को हवा देकर वे पार्टी के आला नेताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि यदि उन्हें बदलकर किसी और को जिम्मेदारी दी गई तो इसी तरह से विरोध के स्वर उभरेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबियों की मानें तो राजस्थान की जिम्मेदारी अरुण चतुर्वेदी को सौंपकर पार्टी ने वसुंधरा को भविष्य के कदम का संकेत दे दिया है। राजनाथ सिंह तो महारानी को हटाने के लिए पूरा मन बना चुके हैं, पर लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। आडवाणी के आशीर्वाद से महारानी भले ही नेता प्रतिपक्ष पद पर बनी रहें, लेकिन राज्य भाजपा में मचा घमासान कम होने वाला नहीं है।

शनिवार, जुलाई 11, 2009

आदर्श नहीं बन पाए माइकल जैक्सन

संगीत और डांस के अनूठे संगम से समां बांध देने वाले माइकल जैक्सन की मृत्यु के बाद कला जगत को हुई क्षति की भरपाई शायद ही कभी हो पाए। इसमें कोई दोराय नहीं है कि माइकल जैक्सन एक बेहतरीन कलाकार थे। उनकी द थ्रिलर एलबम हो या डेंजरस टूर या फिर उनका मून वॉक डांस, सबने रिकॉर्ड बनाए और खूब लोकप्रियता हासिल की। उनकी सभी एलबमों को मिला दिया जाए तो साढ़े सात करोड़ से ज्यादा प्रतियां तो उनके रहते हुए बिक चुकी थीं। संगीत की दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार 'ग्रेमी अवॉर्ड' उन्होंने 13 बार जीता। दुनिया का ऐसा कोई कोना नहीं है जहां उन्हें दीवानगी की हद तक चाहने वाले नहीं हों। वे जहां भी जाते छा जाते। इतना कुछ होते हुए माइकल जैक्सन का जीवन लोगों के लिए आदर्श नहीं बन पाया। उनके जीवन से संगीत को निकाल दिया जाए तो याद करने लायक शायद ही कुछ बचे।

माइकल जैक्सन और विवादों का चोली दामन का साथ रहा। कॅरियर के शुरूआती दौर में जब उन्होंने अपना रंग-रूप बदलने के लिए सर्जरी करवाई तो उनकी काफी आलोचना हुई। यह सर्जरी उनके लिए सिरदर्द ही साबित हुई। शरीर में कई तरह के विकार पैदा हो गए। इन्हें ठीक करवाने के लिए उन्होंने खासी मशक्कत की, पर सफलता नहीं मिली। पिछले कुछ सालों से तो वे दवाईयों के सहारे ही जिंदा थे। 1993 में एक 13 साल के लड़के ने माइकल जैक्सन पर यौन शोषण का आरोप लगाया। हालांकि बाद में यह मामला आपसी समझौते में सुलझ गया। बताया जाता है कि इसके लिए माइकल को बड़ी रकम चुकानी पड़ी। 2003 में टेलीविजन पर प्रसारित एक डोक्यूमेंट्री में माइकल जैक्सन द्वारा किए गए यौन उत्पीडनों को सिलसिलेवार ढंग से दिखाया गया। इसके प्रसारण के बाद उन्होंने स्वयं स्वीकार किया कि वे ऐसा करते रहे हैं। 2005 में उनके लिखाफ एक 11 साल के लड़के का अपहरण कर यौन दुराचार करने का मामला दर्ज हुआ। माइकल जैक्सन नशे के भी आदी थे। इसी के चलते उन्हें अपने मशहूर एलबम 'डेंजरस' का वर्ल्‍ड टूर भी रद्द करना पड़ा। माइकल जैक्सन का वैवाहिक जीवन भी सफल नहीं रहा वे अपनी पत्नियों के साथ बहुत कम समय तक रहे। अपने अनाप-शनाप खर्चों के चलते वे एक बार तो दिवालिया होने की स्थिति में आ गए थे। कुल मिलाकर विवादों का बंवडर हमेशा उनके साथ चला। उन्होंने विवादों से स्वयं को बचाने की खूब कोशिश की, पर विवाद थमने की बजाय बढ़ते ही गए।

दुनिया की चर्चित शख्शियतों में माइकल जैक्सन अकेले नही हैं जो अपने विवादास्पद क्रियाकलापों के चलते किसी के 'आइडियल' नहीं बन पाए। इस फेहरिस्त में कई बड़े नाम शामिल हैं। इन लोगों ने अपने-अपने क्षेत्र में तो खूब नाम कमाया, पर जिंदगी के बाकी मोर्चों पर ये फिसड्डी साबित हुए। सवाल यह उठता है कि ऐसी कौनसी वजह हैं कि ये लोग विवादों में फंसते चले जाते हैं? जितना अनुशासन ये अपने काम में दिखाते हैं, उतना बाकी जगह क्यों नहीं दिखा पाते? इसका बड़ा वजह यह है कि ऊंचा मुकाम हासिल करने के बाद इन लोगों को किसी की फ्रिक नहीं होती है। इतनी शोहरत पाने के बाद वे दुनिया के हिसाब से नहीं बल्कि दुनिया को अपने हिसाब से चलाने के बारे में सोचते हैं। समाज के नियम-कायदों की इनकी नजर में कोई अहमियत नहीं होती है। कई लोग जानबूझकर विवाद पैदा करते हैं। उन्हें लगता है कि इससे कम से कम वे 'लाइम लाइट' में तो रहते हैं। हालांकि माइकल जैक्सन के मामले में ऐसा नहीं है। उन्होंने शायद ही कभी सुर्खिया बटोरने के लिए किसी विवाद को जन्म दिया हो। उन पर तो सफल होने का जूनून सवार था, लेकिन जब सफल हुए तो जीवन जीना ही भूल गए। इसी का नतीजा है कि आज जब वे इस दुनिया में नहीं हैं तो उन्हें श्रद्धांजलि देने वाली करोड़ों नम आंखों के साथ विवादों के किस्सों, संपत्ति, कर्ज और बेटे-बेटियों के भरण-पोषण को लेकर ढेरों सवाल भी हैं। इन सवालों के बीच उन जैसा कलाकार तो हर कोई बनना चाहेगा, पर उन जैसा विवादों से भरा व कष्‍टप्रद जीवन कोई नहीं जीना चाहेगा।
(11 जुलाई को डेली न्‍यूज़ में प्रकाशित)

गुरुवार, जुलाई 09, 2009

सक्रिय हुए सूरमा


ओम माथुर का प्रदेशाध्यक्ष पद से मोहभंग क्या हुआ उनकी जगह लेने वालों की कतार लग गई। कई धड़ों में बंटी भाजपा के आला नेता एकाएक सक्रिय हो गए हैं। सब किसी अपने को जिम्मेदारी दिलाना चाहते हैं। सूबे की भाजपा में अध्यक्ष पद के लिए चल रही रस्साकशी के छोर खोजती रिपोर्ट!


भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश कार्यालय। पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद यहां सन्नाट पसरा रहता था, पर पिछले कुछ दिनों से अचानक पुरानी रौनक लौट आई है। नेताओं की आवाजाही तो बढ़ी ही है, कार्यकर्ताओं का आना-जाना भी शुरू हो गया है। पार्टी दफ्तर में हुई इस हलचल की वजह प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर की विदाई तय होना है। कोई उनकी जगह लेने के लिए तो कोई नए निजाम की टीम में शामिल होने के लिए लाबिंग में जुटा है। आलाकमान ने भी राजस्थान में पार्टी का नया कप्तान तलाशने की कवायद शुरू कर दी है। पार्टी किसी ऐसे चेहरे की तलाश में है जो महारानी की मर्जी का हो, जिसके नाम पर संघ मुहर लगाए, जिसे भैरों सिंह शेखावत का भी आशीर्वाद प्राप्त हो और जो वसुंधरा विरोधियों की नजरों में भी नहीं खटकता हो।


वैसे भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी राजस्थान में बदलाव करने के मूड में नहीं था, लेकिन ओम माथुर काम करने को राजी नहीं हुए। उन्होंने मौजूदा हालातों में पद पर बने रहने से साफ तौर पर इंकार कर दिया। माथुर को मनाने में नाकाम रहने के बाद पार्टी नए प्रदेशाध्यक्ष को लेकर पशोपेश में है। आलाकमान ऐसे नेता को राजस्थान की जिम्मेदारी देना चाहता है जिससे किसी को ऐतराज नहीं हो और जो पार्टी में चल रही खींचतान को खत्म करने की दिशा में काम कर सके, पर फिलहाल ऐसे किसी नाम पर सहमति बनती दिखाई नहीं दे रही है। प्रदेशाध्यक्ष के चयन को लेकर भाजपा तीन खेमों वसुंधरा राजे, संघ और संघ समर्थित वरिष्ठ नेताओं में बंटी हुई है। इनमें से महारानी का खेमा अभी भी सबसे मजबूत है। विरोधी मान रहे थे कि दो चुनावों में मिली हार और माथुर के इस्तीफे के बाद महारानी पर नेता प्रतिपक्ष पद छोडऩे का दबाव बनेगा, लेकिन पार्टी राज्य में दोहरा बदलाव करना नहीं चाहती है।


वर्तमान परिस्थितियों इस बात की संभावना ज्यादा है कि प्रदेशाध्यक्ष पद महारानी की मर्जी से ही किसी को दिया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक वे किसी जाट पर दांव खेलना चाहती हैं। गौरतलब है कि चुनावों में भाजपा की पराजय के पीछे जाटों की नाराजगी को बड़ी वजह माना जा रहा है। प्रदेशाध्यक्ष पद पर जाट नेताओं के तौर पर डॉ। दिगंबर सिंह, रामपाल जाट और सुभाष महरिया के नामों की चर्चा है। दोनों वसुंधरा के करीबी हैं, पर महरिया के नाम पर संघ ऐतराज कर सकता है। ऐसे में दिगंबर सिंह का दावा मजबूत है। वसुंधरा के करीबियों की मानें तो महारानी ने दिगंबर को अध्यक्ष बनने के लिए तैयार रहने को कहा है। इसी के चलते पार्टी कार्यालय में उनका आना-जाना अचानक बढ़ गया है। आजकल वे अपना ज्यादातर वक्त यहीं बिता रहे हैं। दिगंबर के साथ दिक्कत एक ही है कि जाटों पर उनका प्रभाव भरतपुर तक ही सीमित है। शेखावाटी क्षेत्र में उनकी इतनी पकड़ नहीं है। यही परेशानी रामपाल जाट के साथ भी है।


यदि किसी गैर जाट को मौका दिया जाता है तो महारानी के विश्वस्तों में से रामदास अग्रवाल की लॉटरी खुल सकती है। सूत्रों के मुताबिक वे इसके लिए लॉबिंग भी कर रहे हैं। उन्हें महारानी का समर्थन तो हासिल है ही, संघ से भी उनके अच्छे संबंध हैं। भैरों सिंह शेखावत से उनकी ट्युनिंग उस जमाने से है जब बाबोसा मुख्यमंत्री और वे स्वयं प्रदेशाध्यक्ष थे। डॉ। किरोड़ी लाल मीणा के भाजपा छोड़ देने के बाद वसुंधरा विरोधियों में उनकी खिलाफत करने वाले ज्यादा नहीं हैं। केंद्रीय नेताओं से मधुर रिश्ते अग्रवाल के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। अग्रवाल के लिए उम्र एक बाधा हो सकती है। पार्टी नेतृत्व अग्रवाल सरीखे पुरानी पीढ़ी के नेता को जिम्मेदारी देने की बजाय किसी नए नेता को राज्य का जिम्मा सौंपना ज्यादा पसंद करेगा। संघ ने भी पार्टी को यही राय दी है कि राजस्थान में भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले बेहतर खड़ा करने के लिए किसी नए चेहरे को दायित्व सौंपा जाए।


संघ समर्थक दावेदारों की बात करें तो पूर्व मंत्री मदन दिलावर, प्रदेश उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और सतीश पूनिया का नामों की चर्चा है। संघ के सूत्रों की मानें तो ये तीन नाम पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भेज दिए गए हैं। संघ ने सूबे की 'कास्ट केमिस्ट्री' और पार्टी के भीतर अब तक के कामकाज की समीक्षा के आधार पर ये नाम भेजे हैं। इन नामों से में मदन दिलावर को दलित होने का फायदा मिल सकता है। लेकिन पार्टी के आला नेताओं का एक धड़ा उनके नाम पर हामी भरने को तैयार नहीं है। इनका मानना है कि दिलावर की धार्मिक कट्टरता पार्टी के लिए कभी भी संकट खड़ा कर सकती है। वसुंधरा के शासनकाल में मंत्री रहते हुए वे कई मर्तबा सरकार को परेशानी में डाल चुके हैं। स्वाभाव से तल्ख दिलावर के लिए वसुंधरा के साथ कड़वे संबंध नुकसानदायक साबित हो सकती है। अरुण चतुर्वेदी के साथ भी यही है। महारानी से उनका शुरू से छत्तीस का आंकड़ा है। विधानसभा चुनावों के समय चतुर्वेदी ने सिविल लाइन क्षेत्र से टिकट हासिल करने में अपना पूरा दम लगा दिया, पर कामयाब नहीं हुउ। वसुंधरा ने उनकी जगह युवा मोर्चा के अध्यक्ष अशोक लाहोटी को उम्मीदवार बना दिया, जो भैरों सिह शेखावत के भतीजे और कांग्रेस उम्मीदवार प्रताप सिंह खाचरियावास से हार गए। चतुर्वेदी पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी है, पर शायद ही ऐसा कोई मौका हो जब उन्होंने वसुंधरा की तारीफ की हो। ऐसे में यदि आलाकमान चतुर्वेदी को जिम्मेदारी देता है तो खींचतान कम होने की बजाय और बढ़ जाएगी।


जहां तक सतीश पूनिया की दावेदारी का सवाल है तो इनके साथ भी वही दिक्कत है जो मदन दिलावर और अरुण चतुर्वेदी के साथ है। पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए महारानी ने पूनिया को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, पूनिया चूरु क्षेत्र की राजनीति से निकल कर आए हैं। यहां राजेंद्र सिंह राठौड़ और उनके बीच शुरू से ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही है। वसुंधरा ने इसका फायदा उठाने की रणनीति पर काम किया। पूनिया का पटकनी देने के लिए उन्होंने राजेंद्र राठौड़ को अपने खेमें में शामिल कर लिया। महारानी का वरदहस्त प्राप्त होते ही राठौड़ ने पूनिया की जड़े खोदना शुरू किया। राठौड़ की मुहीम कामयाब रही और आज हालत यह है कि पूनिया खुद की ही पार्टी में पूरी तरह से हाशिए पर हैं। वसुधंरा कभी नहीं चाहेंगी कि पूनिया प्रदेशाध्यक्ष बन पहले से भी ज्यादा ताकतवर बन जाएं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनकी हालत जख्मी शेर सरीखी है। मौका मिला तो शिकार को बख्शने का सवाल ही पैदा नहीं होता।


इन तीन नामों के अलावा संघ की ओर से घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया का नाम लंबे समय से चल रहे हैं। ये दोनों नेता वसुंधरा विरोधी खेमे का अहम हिस्सा हैं। जसवंत सिंह को इनका सरदार माना जाता है और भैरों सिंह शेखावत को सलाहकार। इस खेमें लंबे से समय से महारानी के खिलाफ मुहीम छेड़ रखी है। प्रदेशाध्यक्ष पद से माथुर के इस्तीफे के बाद यह खेमा फिर से सक्रिय हो गया है। ये लोग पार्टी के आला नेताओं से मिलकर वसुंधरा पर नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे के लिए दबाव बना रहे हैं। इनका कहना है कि जिस तरह से माथुर ने पार्टी की हार की जिम्मेदारी ली है, उसी तरह से महारानी को भी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दे देना चाहिए। आलाकमान से जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि महारानी से इस्तीफा देने के लिए कहा जाएगा। ऐसे में वसुंधरा के विरोधियों ने अपना पूरा ध्यान प्रदेशाध्यक्ष के पद को झटकने में लगा दिया है।


लोकसभा चुनाव से पहले तक गुलाबचंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी में से तिवाड़ी की दावेदारी ज्यादा मजबूत नजर आ रही थी, पर जयपुर से गिरधारी लाल भार्गव की विरासत बचाने में नाकाम रहने के बाद वे कमजोर पड़ गए हैं। हालांकि अभी भी उन्हें संघ का समर्थन प्राप्त है, लेकिन उनके काम करने के तरीके से खिन्न होकर कल तक उनके साथ रहने वाले कई लोग खिलाफत करने लगे हैं। लोकसभा चुनावों में अतिआत्मविश्वास तिवाड़ी को अब तक दुख दे रहा है। दरअसल, अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होने के कारण तिवाड़ी ने दूसरी पंक्ति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जों नहीं दी। चुनाव परिणाम तो उनके लिए निराशाजनक रहे ही, समर्थक भी नाराज हो गए। वसुंधरा विरोधी होने का ठप्पा तो उन पर पहले से ही लगा हुआ है। इन हालातों में आलाकमान तिवाड़ी को मौका देकर खींचतान का नया मैदान तैयार करने की भूल शायद ही करे।


ओम माथुर के विकल्प के तौर पर गुलाबचंद कटारिया की दावेदारी की चर्चा भले ही आखिर में की जा रही हो, पर वर्तमान में वे सबसे मजबूत स्थिति में हैं। कल तक जिस 'भोली छवि' और 'ढुलमुल व्यक्तित्व' को उनकी कमजोरी बताया जाता था, अब वही उन्हे सूबे में भाजपा का मुखिया बनवा सकती है। संघ तो उनका साथ देने के लिए पहले से ही तैयार है। कई गुटों में बंटी पार्टी समझौते के रूप में कटारिया के नाम पर सहमत हो सकती है। कटारिया भले ही वसुंधरा विरोधी मुहीम में शामिल रहे हो, लेकिन उन्होंने कभी उनसे व्यक्तिगत बैर नहीं बांधा। वसुंधरा उनके नाम पर इसलिए राजी हो सकती है कि कटारिया उनके लिए भविष्य में ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले नहीं हैं। कटारिया को करीब से जानने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कठोर निर्णय लेने और विवादों में पडऩे से परहेज है। यदि कटारिया अध्यक्ष बनते हैं तो वे शायद ही महारानी के कामकाज में कोई दखल दें।


दावेदारों की भीड़ के बीच भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह आखिर किस पर भरोसा करे। आलाकमान की दुविधा यह है कि वह किस धड़े की बात मानें और किसे अनदेखा करे। पार्टी का प्रयास है कि राज्य के बड़े नेता किसी एक नाम पर सहमत हो जाएं और टकराव टल जाए। सूत्रों के मुताबिक आलाकमान पार्टी नेताओं को यही समझाने का प्रयास कर रहा है कि अध्यक्ष कोई भी बने सब मिलकर फिर से खड़ा करने का काम करें। नेताओं के लिए भी यही करना ठीक है, क्योंकि पार्टी से ही उनकी अहमियत है।

मंगलवार, जुलाई 07, 2009

बिके सब, कोई कम कोई एकदम!

हरमोहन धवन जी ने अपनी आप बीती में मीडिया के कड़वे सच से एक बार फिर परदा उठाया है। मैं इसे थोड़ा और उपर खिसकाने की जुर्रत कर रहा हूं। मैं यहां अपने पत्रकार मित्रों के मुंह से सुनी बातें भी नहीं करुंगा। मैं आपको वहीं बता रहा हूं जो अपनी आंखों से देखा है। मेरा इरादा पत्रकारों की जमात, जिसमें मैं खुद भी शामिल हूं को कठघरे में खड़ा करने का नहीं है, पर इतना जरूर कहना चाहता हूं कि जो व्‍यापारी करोड़ों का निवेश करेगा वह तो केवल लाभ के बारे में ही सोचेगा, लेकिन पत्रकार द्वारा उसकी हां में हां मिलाना कहां तक जायज है? सवाल आपके सामने है जबाव भी आपको ही खोजना है...

बात लोकसभा चुनावों की है। जगह है राजस्थान के एक दैनिक अखबार का न्यूज़ रूम। यहां रोज की तरह समाचारों को अंतिम रूप दिया जा रहा है, पर माहौल कुछ बदला-बदला है। न्यूज़ एडीटर की टीम में आज एक नया शख्स दिखाई दे रहा है। यह व्यक्ति संस्थान में काम नहीं करता है, लेकिन समाचार बनाने में खूब दखल दे रहा है। समाचार बन जाते हैं, पर यह व्यक्ति वहीं डटा रहता है। पेज बनने की प्रक्रिया पूरी होने के बाद जब अखबार छपने चला जाता है तभी वह रवाना होता है। जी हां, लोकसभा चुनाव के दौरान उम्मीदवारों के मीडिया मैनेजरों की पहुंच इसी तरह से राज्य के बड़े कहे जाने वाले समाचार पत्रों तक रही। हालांकि संस्करणों के हिसाब से इसमें ऊंच-नीच देखने को मिली। पंद्रहवीं लोकसभा चुनाव के लिए ज्यों ही पार्टी ने उम्मीदवारों की घोषणा की मीडिया समूह 'मोटी कमाई' के लिए सक्रिय हो गए। बाकायदा पैकेज बनाए गए। पैकेज का मोटा या छोटा होना चुनाव लड़ने वाले की व्यक्तिगत हैसियत और उसकी पार्टी पर निर्भर था। औसत रूप से इसकी राशि 5 से 15 लाख रूपए के बीच में रही।

मीडिया समूहों की एक पूरी टीम उम्मीदवारों को पैकेज का मजमून समझाने आती। इन्हें उम्मीदवारों के चुनाव कार्यालयों तक में आने से गुरेज नहीं रहता। हैरत की बात तो यह रही कि इसमें मार्केटिंग के लोगों के अलावा पत्रकार भी शामिल होते थे। जब बात पैसों पर आ जाए तो डीलिंग में सारी बातें खुलकर होती। कितना कवरेज मिलेगा, कैसे मिलेगा, दूसरी पार्टी के प्रत्याशी से क्या डील हुई है या होगी, उसने भी इतने ही पैसे दे दिए तो क्या होगा सरीखे सवाल उम्मीदवार या उनके नुमाइंदों की ओर से दागे जाते। टीम हर सवाल का जबाव देने की कोशिश करती। आखिर में मोलभाव होता। इतना तो कीजिए...थोड़ा और....जैसी मिन्नतों के बीच टीम की ओर से पैकेज को अधिकतम रखने का प्रयास होता, लेकिन कम मिलने पर भी डील होती। कुल मिलाकर इस टीम का एक ही उद्देश्य था, किसी को बख्शा नहीं जाए सबसे कुछ न कुछ लिया जाए। किसी से खबरें प्लांट करने के नाम पर तो किसी से विज्ञापन के नाम पर। कहते हैं बेईमानी का काम पूरी ईमानदारी से किया जाता है, लेकिन कई उम्मीदवारों को शिकायत रही कि पैकेज देते वक्त उनसे जो वादे किए उन्हें पूरा नहीं किया गया। जब इसकी शिकायत की जाती तो एक ही जबाव मिलता, 'इतने पैकेज में यही मिलेगा, ज्यादा चाहिए तो ओर पैसे दो।'
जब बड़े अखबारों की यह हालत रही तो छोटों की स्थिति तो बदतर होनी ही थी। पीत पत्रकारिता के दम पर जिंदा रहने वाले इन अखबारों से तो वैसे भी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। बड़े अखबारों की तर्ज पर इस बार इन्होंने भी पैकेज सिस्टम शुरू किया था, लेकिन यह कारगर नहीं रहा। इन्हें जिस उम्मीदवार से जितना पैसा मिल गया उसी से संतोष करना पड़ा। हालांकि इन्होंने अपने काम में पूरी ईमानदारी बरती। जिससे दाम मिला उसका पूरा काम किया और जिससे नहीं मिला उसका काम तमाम किया। इन अखबारों में ऐसे उम्मीदवारों को जीतता हुआ बताया गया जिन्हें पांच हजार वोट भी नहीं मिले और उन उम्मीदवारों को मुकाबले से बाहर बताया गया जो लाखों वोटों के अंतर से चुनाव जीते। समाचारों को अतिशियोक्तिपूर्ण तरीके से लिखे जाने की सारी हदें इन अखबारों ने पार कीं।
वैसे तो यह सब पत्रकारिता के मूल्यों को मिट्टी में मिलाने वाले कार्यकलाप थे, पर राहत की बात यह रही कि राज्य का कोई भी बड़ा समाचार पत्र किसी पार्टी विशेष का पोस्टर या मुख पत्र नहीं बना। उन खबरों को छोड़ दिया जाए जो उम्मीदवारों ने पैसे देकर प्लांट कराई थीं, तो बाकी समाचारों के कंटेंट में ज्यादा बेईमानी नहीं की गई। जो खबरें प्लांट कराई गईं, उनमें भी सब कुछ उम्मीदवार की मर्जी से या अतिशियोक्तिपूर्ण नहीं था। इस बात का पूरा ध्यान रखा गया कि पाठक को वह समाचार ही लगे, विज्ञापन नहीं। हां, उम्मीदवारों के चुनावी दौरों या किसी बड़े नेता की सभा के कवरेज में जरूर भेदभाव देखने को मिला। मसलन, किसी बड़े नेता की सभा में खूब भीड़ आई, लेकिन पार्टी के कुछ स्थानीय नेता उसमें नहीं आए। अगले दिन अखबारों में यह खबर उम्मीदवार के साथ उनकी ट्यूनिंग के हिसाब से ही आई। जिनसे अच्छे पैकेज की डील हुई उन्होंने खबर छापी 'सभा में उमड़ा जनसैलाब' और जिनसे नहीं हुई उन्होंने खबर छापी 'पार्टी की फूट उजागर'।
कितने शर्म की बात है कि लोकतंत्र का चौथा स्तंभ होने का दावा करने वाला मीडिया लोकतंत्र के बाकी तीन स्तंभों को मजबूत करने की झूठी मुहिम में स्वयं ही ध्वस्त होता जा रहा है। इससे ज्यादा दुखद बात क्या होगी कि एक तरफ मीडिया मतदाताओं को जागरूक करने का अभियान चला स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान की बातें करता है और दूसरी तरफ उन्हीं उम्मीदवारों या पार्टियों के हाथों बिक जाता है। कुल मिलाकर मीडिया एक मंडी में तब्दील हो चुका है, जहां बिकते सब हैं, कोई कम तो कोई एकदम!
(पाक्षिक पत्रिका ‘प्रथम पवक्ता’ में प्रकाशित)

झुग्गियों में जश्न


महाराष्ट्र के पिंपरी चिंचवाड शहर में रहने वाली सुलभ उबाले इन दिनों बेहद खुश हैं। उनकी कंपनी को एक बड़ा ऑर्डर जो मिला है। उबाले न तो कोई उद्योगपति हैं और न ही किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी की प्रबंधक हैं। वे तो स्वावलंबन की नई इबारत लिखने वाले सामूहिक प्रयासों की एक कड़ी हैं। पिंपरी चिंचवाड में उनकी जैसी 160 महिलाएं हैं जिन्होंने अपने दम पर 'स्वामिनी बचत गट अखिल संघ लिमिटेड' यानी एसएमबीजीएएस नामक कंपनी बनाई है। इनमें से ज्यादातर महिलाएं झुग्गियों में रहती हैं और कुछ दिन पहले तक दूसरों के घरों में काम किया करती थीं। इन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि कभी ऐसा काम शुरू कर पाएंगी जिस पर उनका मालिकाना हक तो होगा ही, दूसरों को को रोजगार मुहैया कराने का अवसर भी मिलेगा।


'स्वामिनी' को 1 करोड़ रुपये के निवेश के साथ शुरू किया गया है। मामूली हैसियत रखने वाली महिलाओं के लिए इतनी बड़ी रकम जुटाने का सफर किसी जंग जीतने जैसा था। दिक्कतों के कई दौर आए, पर इरादा कमजोर नहीं पड़ा। सबसे पहले इन महिलाओं ने अपने पास जमा पूंजी को एकत्रित करना शुरू किया। शुरूआत में इसे इतनी सफलता नहीं मिली, क्योंकि बरसों की मेहनत और परिवार का पेट काटकर की गई बचत के जाया जाने का डर सबके मन में था। धीरे-धीरे इस संदेह को दूर कर जब आत्मनिर्भर होने का सपना दिखाया तो कारवां बढ़ता गया और 20 लाख रुपए इक्कटृठा हो गए। इससे समूह की सदस्यों का हौंसला बढ़ा और बाकी पैसों के लिए प्रयास करना शुरू किया। कई संस्थाओं और महकमों को अपनी योजना के बारे में समझाया। आखिर में मेहनत रंग लाई और इस पूरी परियोजना से प्रभावित होकर पिंपरी चिंचवाड नगर निगम ने 'स्वामिनी' को 30 लाख रुपये की सब्सिडी देने का फैसला किया। बाकी बचे 50 लाख रुपए का बैंक ऑफ बड़ौदा से अग्रिम कर्ज ले लिया। इसे सात साल की अवधि में चुकता करना है।


'स्वामिनी' ने अपनी पहली इकाई तलवाड के औद्योगिक क्षेत्र में स्थापित की है और यहां प्लास्टिक के बैग बनाए जाते हैं। ईकाई शुरू हुए अभी कुछ ही दिन हुए हैं और कंपनी को बड़ा ऑर्डर भी मिल गया। पुणे की प्लास्टिक बनाने वाली एक कंपनी ने आगामी सात साल के लिए 700 किलोग्राम प्रतिदिन के हिसाब से 250 दिनों तक प्लास्टिक बैग बनाने का करार किया है। कंपनी चलाने वाली महिलाओं की खुशी उस समय दोगुनी हो गई जब उन्हें पता लगा कि उनके यहां का उत्पाद अमरीका और दुबई के बाजारों में बेचा जाएगा। वे इसे एक चुनौती भी मानती हैं। कंपनी की सदस्य स्वाती मजूमदार बताती हैं कि 'विदेशी बाजार में माल का निर्यात किए जाने की वजह से हमारे सामने बेहतर गुणवत्ता वाले बैग तैयार करने की चुनौती होगी। इसलिए फिलहाल हम मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहे हैं।' पुणे की कंपनी के ऑर्डर की आपूर्ति करने के लिए कंपनी में जोर-शोर से काम चल रहा है।


महिलाओं के सामूहिक प्रयासों खड़ी हुई 'स्वामिनी' लोगों के लिए किसी कौतूहल से कम नहीं है। क्षेत्र के लोगों तो क्या, इन महिलाओं के परिवारजनों को भी इस बात का यकीन नहीं हो रहा है कि कल तक घरेलू कामकाज में सिमटी रहने वाली औरत इतनी काबिल है। समूह की एक सदस्य सुलभ उबाले कहती हैं, 'पहले ये महिलाएं गरीब थीं और समाज में इनकी स्थिति भी अच्छी नहीं थी, पर अब इस रोजगार के जरिए उनकी हालत सुधरी है। कई लोगों को तो अब भी यह विश्वास नहीं होता है कि इन महिलाओं ने खुद की एक औद्योगिक इकाई खोली है।' साथ मिलकर काम करने की मिसाल कायम करने वाली ये महिलाएं यहीं रुकना नहीं चाहती है, उनकी मंजिल बहुत आगे है। अभी उनकी 'स्वामिनी' ने प्लास्टिक बैग बनाने की एक इकाई लगाई है, भविष्य में इन्हें बढ़ाने की भी योजना है। अब तो इलाके के लोगों को भी यकीन होने लगा है कि 'स्वामिनी' का सफर यहीं थमने वाला नहीं है।


'स्वामिनी' सदस्य महिलाओं के लिए ही नहीं, इलाके की उन महिलाओं के लिए भी वरदान साबित हो रही है जो काम करने की कूवत तो रखती हैं, पर जिन्हें उचित अवसर नहीं मिलता है। प्लास्टिक बैग बनाने वाली इकाई में इस समय तकरीबन 70 महिलाएं काम कर रही हैं। इन्हें यहां न केवल काम करने का बढिय़ा माहौल मिल रहा है, बल्कि अच्छी तनख्वाह भी मिल रही है। इनमें से ज्यादातर वही हैं जो मामूली वेतन पर घरों में काम करती थीं। 'स्वामिनी' ने इनके हुनर को पहचाना और घरेलू कामकाज करने वाली महिलाओं को ट्रेनिंग देकर कुशल कामगार बना दिया। पुणे की प्लास्टिक बनाने वाली कंपनी के ऑर्डर को पूरा करने का जिम्मा इन्हीं के ऊपर है। 'स्वामिनी' से जुड़े हर शख्स को उम्मीद है कि जुलाई के दूसरे हफ्ते में जब उत्पादन की पहली खेप आएगी तो हर कोई उसकी तारीफ करेगा। देश तो क्या सात समंदर पार भी उसे वाहवाही मिलेगी।
(5 जुलाई को राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित)