शनिवार, मार्च 21, 2009

संकट में सल्तनत


विधानसभा चुनाव में मात खाने के बाद भी महारानी की दिक्कतें कम नहीं हो रही हैं। झालावाड़ लोकसभा सीट पर उनके पुत्र दुष्यंत सिंह इस बार पसीना आ रहा है। वसुंधरा को अपने बेटे को जीत सुनिश्चित करने के लिए दम लगाना पड़ रहा है। आखिर क्यों फंस गए हैं दुष्यंत मुकाबले में?

प्रत्याशियों की घोषणा के बाद भारतीय जनता पार्टी ने प्रचार अभियान में भी कांग्रेस से बाजी मार लेने के बाद भी महारानी का मूड इन दिनों कुछ ठीक नहीं है। बारां जिले से पार्टी के प्रचार अभियान की शुरूआत करते वक्त उनके माथे पर चिंता की लकीरों के बीच चमकता पसीना परेशानी का संकेत कर रहा था। महारानी कुछ दिन पहले भी यहां मतदाताओं की नब्ज टटोलने आईं थीं। वैसे वसुंधरा ही नहीं, राजस्थान की राजनीति को समझने वाले हर शख्स की नजरें इस क्षेत्र पर हैं, क्योंकि महारानी के लाड़ले दुष्यंत सिंह यहां से चुनाव लड़ रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में आसानी से जीत संसद की देहरी चढऩे वाले दुष्यंत इस बार मुकाबले में फंस गए हैं। बेटे को फंसता देख एक बार तो वसुंधरा ने ही मैदान में उतरने की तैयारी कर ली थी, लेकिन खुद का बनाया हुआ एक नियम ही आड़े आ गया, जिसके तहत विधायकों को टिकट नहीं देने का फैसला हुआ था। हालांकि सूबे की सियासत में सक्रिय रहने का मोह भी इसकी एक वजह था। फिलहाल, दुष्यंत को ही झालावाड़-बारां सीट से मैदान में उतार दिया गया है और महारानी वोटरों को बेटे के पक्ष में मोडऩे के लिए दिन-रात एक कर रही हैं। करें भी क्यों नहीं, यदि दुष्यंत हार गए तो वसुंधरा की 20 साल पुरानी सियासी विरासत हाथ से निकल जाएगी।
झालावाड़ के साथ वसुंधरा के राजनीतिक रिश्ते की बात करें तो वे यहां से 1989 में पहली बार लोकसभा चुनाव लडऩे क्या आईं, यहीं की होकर रह गईं। यहां की जनता को वे और उन्हें यहां की जनता खूब रास आई। महारानी यहां से लगातार पांच बार सांसद का चुनाव जीतीं। कांग्रेस हर चुनाव में प्रत्याशी बदल उन्हें हराने का प्रयास करती रही, पर सफलता नहीं मिली। 2003 उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद भी उनका झालावाड़ जिले के प्रति प्रेम बरकार रहा। वे जिले की झालरापाटन सीट से विधायक का चुनाव लड़ीं। स्वयं के सूबे की सियासत में सक्रिय होने के बाद जब अपनी विरासत को संभालाने की बारी आई तो बेटे दुष्यंत से अच्छा विकल्प क्या हो सकता था। उन्हें राजनीति में लाने का इससे अच्छा मौका क्या हो सकता था। राज्य में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के पक्ष में चली लहर और तेज हो गई थी। लिहाजा उन्होंने दुष्यंत को झालावाड़ से मैदान में उतार दिया। इन चुनावों में झालावाड़ के मतदाताओं ने दुष्यंत को भी उतना ही समर्थन दिया जितना कि महारानी को मिलता था। वे आसानी से चुनाव जीत गए।
झालावाड़ के रास्ते संसद की सीढिय़ा चढ़ते ही दुष्यंत का राजनीति में सफल पदार्पण तो हो गया, पर इस एंट्री के मुताबिक प्रदर्शन करने का दबाव भी उन पर आ गया। राज्य की मुख्यमंत्री का बेटा होना उनके लिए फायदेमंद और नुकसानदायक, दोनों रहा। फायदा यह हुआ कि राज्य सरकार ने उनके क्षेत्र में विकास कार्यों के लिए धन की कोई कमी नहीं आने दी। विकास के काम भी खूब हुए, पर सबका श्रेय मुख्यमंत्री को मिलता चला गया। सियासत के शुरूआती दौर में एक राजनेता के लिए इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता है कि काम भी होता रहे और श्रेय भी नहीं मिले। महारानी को जब इसका आभास हुआ तो उन्होंने दुष्यंत का आगे करना शुरू किया, पर क्षेत्र में वसुंधरा की लोकप्रियता के सामने वे कहीं दिखे ही नहीं। वे अपनी मां के आभामंडल में ओझल ही होते चले गए। कुल मिलाकर वे अपनी अलग पहचान बनाने में नाकाम रहे।
क्षेत्र की जनता कई मुद्दों को लेकर दुष्यंत सिंह से खासी नाराज है। एक सांसद के रूप में वे ज्यादातर मोर्चों पर नाकाम साबित हुए। झालावाड़ को रेलवे लाइन से जोडऩे और अफीम काश्तकारों के पट्टों की बहाली में उन्होंने लोगों को निराश ही किया। पिछले लोकसभा चुनाव में दुष्यंत सिंह के खिलाफ कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े संजय गुर्जर की मानें तो महारानी के बेटे ने सांसद धर्म का पालन ही नहीं किया। गुर्जर बताते हैं कि 'दुष्यंत सिंह राजस्थान की पूरी सरकारी मशीनरी के इस्तेमाल से चुनाव जीते थे। जीतते पर उन्होंने सांसद धर्म का पालन करने की बजाय सरकार का कर्ज उतारना शुरू किया। यहां तक की सांसद कोष की राशि भी राजस्थान सरकार की योजनाओं में खर्च की गई। उन्होंने अपने क्षेत्र की कम राज्य सरकार के कामकाज की चिंता ज्यादा रहती थी।' दुष्यंत सिंह की ओर से विकास कार्यों के दावों पर गुर्जर कहते हैं, 'जिन विकास कार्यों की दुहाई देकर वोट मांग रहे हैं, उन्हें क्षेत्र की जनता विधानसभा चुनाव में ही नकार चुकी है। पूरे क्षेत्र में कांगे्रस ने भाजपा पर भारी बढ़त बनाई थी। लोकसभा चुनाव में भी वोटिंग का यही पैटर्न रहेगा और दुष्यंत सिंह चुनाव हारेंगे।' हालांकि दुष्यंत सिंह अपनी जीत के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त नजर आते हैं। वे कहते हैं, 'मेरे संसदीय क्षेत्र में विकास से कोई भी अछूता नहीं रहा है। पर्यटन, पेयजल, कृषि और रोजगार समेत लगभग सभी क्षेत्रों में रिकॉर्ड विकास हुआ है। केंद्र सरकार की भारी उपेक्षा के बाद भी हम विकास की गंगा बहाने में कामयाब रहे हैं। केंद्र सरकार ने हर स्तर पर विकास का अवरुद्ध करने का प्रयास किया। मैंने बड़ी कोशिशों के बाद काली सिंध बांध के लिए चार सौ करोड़ रुपए मंजूर करवाए, लेकिन केंद्रीय जल आयोग ने ही इस पर अडंगा लगा दिया। अफीम काश्तकारों के पट्टे निरस्त करने में भी केंद्र सरकार की साजिश है, लेकिन क्षेत्र की जनता जागरुक है। वह असलियत जानती है। मुझे इस बार भी भारी समर्थन मिलेगा और मैं जीतूंगा।'
विकास के दावों और लोगों की नाराजगी को अपनी जगह छोड़ दें तो भी दुष्यंत की राह आसान नहीं है, क्योंकि परिसीमन के बाद उनके संसदीय क्षेत्र में शामिल हुए बारां जिले में भारतीय जनता पार्टी का जनाधार में भारी कमी आई है। यह वही बारां जिला है, जहां विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को एक भी सीट नसीब नहीं हुई थी। मदन दिलावर और प्रताप सिंह सिंघवी सरीखे दिग्गज भाजपाई भी चुनाव हार गए थे। वसुंधरा राजे भी यह अच्छी तरह जानती हैं कि बारां जिले में अच्छा प्रदर्शन किए बिना दुष्यंत का जीतना संभव नहीं है। लिहाजा उन्होंने पूरा ध्यान यहीं लगा रखा है। कुछ दिन पहले ही वे यहां तीन दिन तक रुककर गई हैं। वे यहां क्षेत्र के प्रभावशाली व्यक्तियों से मिलीं और बेटे दुष्यंत के लिए समर्थन मांगा। भाजपा के प्रचार अभियान की शुरूआत भी उन्होंने न केवल यहां से की, बल्कि कई दिनों तक यहीं डटी रहीं। महरानी यहां मेहनत तो खूब कर रही हैं, पर उतनी सफलता नहीं मिल रही है। इसका बड़ा कारण यह है कि इस क्षेत्र में परंपरागत रूप से कांग्रेस के वोटर ज्यादा है।
क्षेत्र में गुर्जर मतदाताओं की भारी संख्या भी दुष्यंत के लिए चिंता का विषय है। आरक्षण आंदोलन के बाद इस बात की संभावना कम ही है कि गुर्जर भाजपा को वोट देंगे। भले ही उम्मीदवार के रूप में उनकी समधन का बेटा ही क्यों न हो। हालांकि कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला अभी भी महारानी के सुर में सुर मिला रहे हैं, पर आम गुर्जर उनकी बात मानने को तैयार नहीं हैं। विधानसभा चुनाव के समय भी उन्होंने गुर्जरों से भाजपा के पक्ष में मतदान करने की अपील की थी, लेकिन इसका कोई खास असर नहीं हुआ था। वैसे भी कर्नल बैंसला का इस क्षेत्र में उतना प्रभाव नहीं है। हालांकि गुर्जरों को मनाने के लिए दुष्यंत के साथ-साथ उनकी पत्नी निहारिका पिछले काफी समय से क्षेत्र में सक्रिय है। निहारिका गुर्जरों से बेटी की लाज रखने के लिए मिन्नते कर रही हैं। उनकी अपील कुछ काम कर सकती है।
बेटे की कमजोर स्थिति के चलते सल्तनत पर आए संकट से निपटने के लिए महारानी सभी रास्तों पर एक साथ चल रही हैं। चलना उनकी मजबूरी भी है और जिम्मेदारी भी। मजबूरी अपनी सल्तनत को बचाने की है और जिम्मेदारी दिक्कत में फंसे बेटे को निकालने की है। हार के खतरे से जूझ रहे दुष्यंत स्वयं कोई हल ढूंढऩे की बजाय एक बार फिर से महारानी के पीछे-पीछे चल रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि मां की अंगुली पकड़ कर वे एक बार फिर से संसद की सीढिय़ां चढ़ जाएंगे। वहीं, रास्ते में आ रही रुकावटों को देख महारानी शायद ये सोचने पर मजबूर हो रही कि 'इससे अच्छा तो मैं ही चुनाव लड़ लेतीं।'

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