सोमवार, अप्रैल 20, 2009

अलझती उम्मीदें


सूबे में कांग्रेस 'टारगेट-25' के इर्द-गिर्द और भाजपा पिछले प्रदर्शन के आसपास ठहरने की उम्मीद कर रही है, लेकिन दोनों दलों की ये उम्मीदें कई मोर्चों पर उलझी होने से पूरी होती हुई दिखाई नहीं दे रही हैं। असल में कौन कितने पानी में है? एक आकलन!

राजनीति में जीत मिले या हार संकट पीछा नहीं छोड़ते। सूबे की दोनों पार्टियां इन दिनों सियासत के इसी सच से रूबरू हो रही हैं। जहां कांग्रेस विधानसभा चुनाव में मिली जीत को लोकसभा चुनाव में दोहराने के लिए जूझ रही हैं वहीं, भारतीय जनता पार्टी एक और हार को टालने के लिए संघर्ष कर रही है। सूबे में कांग्रेस ने आम चुनाव की तिथियां घोषित होने से पहले ही तैयारियां शुरू कर दी थीं। 'टारगेट-25' बना पार्टी क्लीन स्वीप के इरादे से मैदान में उतरी। समूचे राजस्थान में कांग्रेस के पक्ष में माहौल को देखकर एकबारगी तो लग रहा था कि पार्टी अपने तय लक्ष्य के करीब पहुंचने में कामयाब हो जाएगी, लेकिन भारतीय जनता पार्टी ने तेजी से अपनी स्थिति में सुधार किया। बिखरी-बिखरी सी दिखने वाली भाजपा अब एकजुट होती दिखाई दे रही है। ताजा हालातों में दोनों पार्टियों के बीच कांटे की टक्कर है।
वैसे इसमें कोई दो राय नहीं है कि राज्य में कांग्रेस की सीटों में इजाफा होगा। गौरतलब है कि पिछले आम चुनाव में कांग्रेस को 25 में से महज 4 सीटों पर कामयाबी मिली थी और शेष सभी 21 सीटें भाजपा के खाते में गई थीं। यदि विधानसभा चुनाव में हुए वोटिंग पैटर्न को आधार माना जाए तो कांग्रेस आसानी से 12 से 14 सीटें जीतने में सफल हो जाएगी। हालांकि कांग्रेसी इससे कहीं ज्यादा की उम्मीद लगाए बैठे हैं। पार्टी सूत्रों के मुताबिक 10 सीटों पर तो कांग्रेस एकतरफा जीत की स्थिति में है और बाकी 15 में से आधी सीटों पर जीत की पूरी उम्मीद है। इस तरह से कांगे्रसी 17 से 18 सीटों पर जीत का दावा कर रहे हैं, लेकिन इस आंकड़े तक पहुंचने के लिए कांग्रेस को खासी मशक्कत करनी पड़ेगी। सूबे में पार्टी का शीर्ष नेतृत्व टिकट वितरण से भी पूरी तरह से संतुष्ट नहीं है। गुटबाजी से बचने के लिए कांग्रेस ने कई सीटों पर बेहद कमजोर प्रत्याशी मैदान में उतार अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। टिकट वितरण में हुई देरी कांग्रेस के लिए नुकसानदायक हो सकती है। कई सीटों पर तो भाजपा उम्मीदवारों की घोषणा के 20 दिन बाद कांगेस ने अपने प्रत्याशी तय किए हैं। इन उम्मीदवारों को पूरे क्षेत्र को कवर करने लायक समय ही नहीं बचा है। पार्टी को कई जगह बगावत का भी सामना करना पड़ रहा है। बूटा सिंह सरीखे दिग्गज नेता के अदावत पर उतर आने का खामियाजा कांग्रेस को उठाना पड़ेगा।
विधानसभा चुनावों में भाजपा की खुली खिलाफत करने वाले डॉ. किरोड़ी लाल मीणा और प्रह्लाद गुंजल की नाराजगी भी कांग्रेस के लिए भारी पड़ सकती है। निर्दलीय मैदान में उतरे किरोड़ी दौसा में तो कांग्रेस उम्मीदवार लक्ष्मण मीणा के लिए मुसीबतें खड़ी कर ही रहे हैं, बाकी सीटों पर भी समीकरण उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि इस पूरे मामले में अशोक गहलोत की रणनीति कारगर तरीके से काम कर रही है। पहले बसपा विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर और फिर परसादी लाल मीणा और रामकिशोर सैनी को अपने साथ लेकर वे किरोड़ी के पर कतरने में कामयाब हो गए हैं। अब न तो मीणा समाज में उनकी उतनी पकड़ बची है और न ही स्वयं की उम्मीदवारी में उतना दम। किरोड़ी एपीसोड को लंबा खींचना कांग्रेस के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। किरोड़ी अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए दौसा सीट पर ही उलझकर रह गए हैं। अन्य सीटों पर कांग्रेस को नुकसान पहुंचाने के लिए उनके पास समय ही नहीं बचा है। प्रह्लाद गुंजल जरूर कांग्रेस के लिए दिक्कतें खड़ी कर सकते हैं। गुंजल को कोटा से टिकट दिलवाने का वादा सूबे के कांग्रेसी निजाम सी.पी. जोशी को भारी पड़ सकता है।
लोकसभा चुनाव में भाजपा की उम्मीदों की बात करें तो विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद वसुंधरा राजे पार्टी को काफी हद तक एकजुट करने में कामयाब रही है। पार्टी पूरी तैयारी के साथ चुनाव मैदान में है। एकाध सीट को छोड़ दें तो पार्टी ने टिकट वितरण भी पूरी मुस्तैदी से किया है। बसपा विधायकों के कांग्रेस में शामिल हो जाने के बाद भाजपा ने अपने कई विधायकों को भी मैदान में उतारा है। ये सभी कांग्रेस उम्मीदवार को कड़ी टक्कर दे रहे हैं। भाजपा ने मौजूदा सांसदों के खिलाफ एंटीइंकंबेंसी को ध्यान में रखते हुए कई सीटों पर नए और युवा चेहरों का उम्मीदवार बना दांव खेला है। हालांकि विधानसभा चुनाव में पार्टी का यह दांव उल्टा पड़ गया था और कई दिग्गजों ने खुली खिलाफत कर दी थी। भाजपा को बगावत का सामना इस बार भी करना पड़ रहा है। कई सीटों पर बागी उम्मीदवार खड़े हो गए हैं। भाजपा में स्टार प्रचारकों की कमी भी खल रही है। प्रदेश में वसुंधरा राजे ही एक ऐसा चेहरा हैं जो भीड़ खींचने में सक्षम हैं। वे भी मुकाबले मं फंसे अपने बेटे दुष्यंत के कारण झालावाड़ से बाहर निकल ही नहीं पा रही हैं।
भाजपा ने कास्ट केमिस्ट्री को भी दुरूस्त करने का प्रयास किया है। पार्टी ने कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को टिकट देकर नाराज चल रहे गुर्जरों को मनाने का प्रयास किया है। हालांकि यह पक्का नहीं है कि बैंसला के कहने से गुर्जर वोट भाजपा को मिल जाएंगे। गोया किरोड़ी लाल मीणा और प्रह्लाद गुंजल की कांग्रेस से नाराजगी का सीधा फायदा भाजपा को होगा। मीणा और गुंजल कांग्रेस को सबक सिखाने के लिए भाजपा के उम्मीदवारों को लाभ पहुंचा सकते हैं। बदले हुए हालातों में भाजपा 10 सीटों पर तो अपनी जीत पक्की मान रही है और बाकी पर फिफ्टी-फिफ्टी की संभावना जता रही है। यदि भाजपा इसके आसपास पहुंचने में कामयाब हो जाती है तो यह पार्टी के जिए बड़ी जीत होगी।

शनिवार, अप्रैल 11, 2009

कमल के कर्नल!


जाति की जाजम पर बैठकर कर सियासत में सफलता के ख्वाब देखने वालों में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला का नाम भी जुडऩे जा रहा है। वे भाजपा का दामन थाम संसद की सीढ़ीयां चढऩे को बेताब हैं। तो क्या आंदोलन के समय हुए समझौते में यह भी शामिल था? अंदर की कहानी!

कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला। सूबे में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के अगुवा। जिनके नेतृत्व में गुर्जरों ने दो ऐसे आंदोलन किए कि समूचे राजस्थान में जनजीवन ठहर गया और सरकार की चूलें हिल गईं। हालांकि इस आंदोलन में गुर्जरों के साथ हर कदम पर छल हुआ। इतनी जान कुर्बान करने के बाद भी उन्हें आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला। गुर्जर समाज का एक तबका इसके लिए कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को जिम्मेदार मानता है। इनके मुताबिक कर्नल ने भाजपा सरकार के सामने घुटने टेक दिए। गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल ने तो उन्हें सरकार का एजेंट तक कहा। कोई कुछ भी कहे, लेकिन आज भी गुर्जर समाज में कर्नल की पकड़ सबसे ज्यादा है। भारतीय जनता पार्टी गुर्जरों में उनके इसी रुतबे का फायदा उठाने की फिराक में है। भाजपा काफी दिनों से बैंसला को पार्टी में लाने और चुनाव लडऩे के लिए मना रही है। सूत्रों के मुताबिक कर्नल इसके लिए राजी हो गए हैं और सवाई माधोपुर संसदीय सीट से मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। यहां से कांग्रेस की और से केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा चुनाव लड़ रहे हैं।
बैंसला का भाजपा मोह नया नहीं है। सेना से रिटायर होने के बाद वे भाजपा के सैनिक प्रकोष्ठ में पदाधिकारी रहे। 2003 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने भाजपा के लिए वोट भी मांगे। वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री के बाद वे उनसे गुर्जरों को एसटी आरक्षण की वादे को याद दिलाने के लिए कई बार मिले। बात बनती नहीं दिखी तो प्रदर्शन भी किया। जब उन्हें लगा कि सरकार कुछ करने की बजाय मामले को टाल रही तो बड़े आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। बैंसला ने गांव-गांव जाकर लोगों को तैयार किया। एकदम सेना की मानिंद। आरपार की लड़ाई के लिए। कर्नल की मेहनत का नतीजा भी निकला। उनके नेतृत्व में एक अविश्वसनिय आंदोलन शुरू हुआ। दर्जनों लोग मारे गए, पर गुर्जर हिले तक नहीं। कर्नल के एक इशारे पर हजारों गुर्जर मरने-मारने को तैयार थे। सरकार को मामले का कोई हल नहीं दिखा। वह इस इंतजार में थी कि गुर्जर थक-हार कर खुद ही रास्ता खोल दें। इस बीच ये आंदोलन कर्नल के हाथों में से निकल कर उत्तर भारत के कई हिस्सों में फैल गया। बैंसला पर समझौते का दबाव बढऩे लगा। वार्ताओं के कई दौर चले और आखिरकार समझौता हुआ। इसमें गुर्जरों को एसटी आरक्षण की संभावनाओं का अध्ययन करने के लिए चोपड़ा कमेटी का गठन, मृतकों के आश्रितों को मुआवजा व नौकरी और आंदोलनकारियों से मुकदमें वापस लेने की घोषणा हुई। कई गुर्जर नेता इस समझौते से खुश नहीं थे। इनके मुताबिक कर्नल आंदोलन के चरम पर ढीले पड़ गए और समझौते के दौरान बहुत कम में मान गए।
समझौते के बाद बैंसला पूरी तरह से महारानी के मुरीद हो गए। कर्नल ने उनकी खूब तारीफ भी की, लेकिन जब सरकार ने अपने वादों से मुकरना शुरू किया तो वे भौचक रह गए। सरकार ने न तो आंदोलनकारियों पर लदे मुकदमों को वापस लिया और न ही मृतकों के आश्रितों को नौकरियां दीं। इतने में ही चोपड़ा कमेटी की रिपोर्ट भी आ गई जिसमें गुर्जरों को एसटी में शामिल करने के दावे को खारिज कर दिया गया। गुर्जरों का गुस्सा उबाल लेने लगा और कर्नल पर आंदोलन के लिए दबाव बढ़ता गया। आखिर उन्हें आंदोलन की घोषणा करनी पड़ी। हालांकि इस घोषणा में गुर्जरों के अलावा महारानी के दबाव ने भी काम किया। दरअसल, उन दिनों बसपा के बेनर तले कई गुर्जर नेता सक्रिय थे और पहले आंदोलन की बरसी पर मायावती की बड़ी सभा की तैयारी कर रहे थे। प्रह्लाद गुंजल भी इनमें शामिल थे। महारानी को डर था कि मायावती की सभा के बहाने गुर्जर आंदोलन का नेतृत्व बैंसला के हाथों से छिटक ओर किसी के हाथों में जा सकता है। इस बारे में गुंजल बताते हैं, 'जगह-जगह गुर्जरों की पंचायतें हो रही थीं। सरकार के साथ समझौते के नाम पर समाज के सम्मान को गिरवी रखने वाले कर्नल साहब के प्रति लोगों में गुस्सा बढ़ रहा था। गुर्जर अपने हक के लिए एक बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहे थे। महारानी नहीं चाहती थीं कि गुर्जरों का नेतृत्व कर्नल साहब के अलावा कोई करे, इसलिए उन्होंने एक सुनियोजित आंदोलन शुरू करवाया। इसकी पूरी पटकथा महारानी ने लिखी, कर्नल साहब ने उसी के अनुसार काम किया।'
आंदोलन के दूसरे दौर में गुर्जरों ने सड़क की बजाय रेल की पटरियों पर कब्जा कर दिल्ली-मुंबई रेलवे ट्रेक को बाधित कर दिया। इस दौरान खूब खून बहा और दर्जनों गुर्जर मारे गए। कई दिनों के बाद सरकार ने आंदोलनकारियों से वार्ता प्रांरभ की। इस बातचीत में राज्य के बाहर के गुर्जर नेता भी शामिल हुए। सरकार पर गुर्जरों की मांगे मानने के लिए दबाव बढ़ ही रहा था कि बैंसला ने फिर से पाला बदल लिया। वे साफ तौर पर महारानी क पक्ष में आ गए। बाहर से आए गुर्जर नेता बैंसला के इस व्यवहार परिवर्तन से रुष्ट होकर वापस हो लिए। कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले रिटायर्ड पुलिस अधिकारी और गुर्जर नेता मसूद चौधरी ने तो साफ तौर पर कहा कि कर्नल समाज का भला नहीं कर रहे हैं, वे साफ तौर पर सरकार के साथ सौदबाजी कर रहे हैं। गुर्जर नेताओं के लाख विरोध के बाद भी बैंसला ने सरकार के साथ समझौता कर लिया। जिसके तहत गुर्जरों को विशेष श्रेणी में आरक्षण का प्रावधान किया गया। वसुंधरा सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में पास कर राज्यपाल के पास भेज दिया था, जहां यह आज तक लंबित है। इस आरक्षण का कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है। यदि राज्यपाल इस पर हस्ताक्षर कर भी देते हैं तो इसमें सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से ज्यादा नहीं होने संबंधी निर्देश का पेंच फंस जाएगा।
वसुंधरा सरकार के साथ हुए समझौते के बाद से ही बैंसला यह प्रचारित कर रहे थे कि 'वसुंधरा सरकार गुर्जरों की भलाई के लिए अपनी सीमाओं के हिसाब से बहुत कुछ कर चुकी है। महारानी तो आरक्षण भी दे चुकीं हैं, लेकिन कांग्रेस के इशारे पर राज्यपाल विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं कर रहे हैं। गेंद अब केंद्र की यूपीए सरकार के पाले में है। यदि आरक्षण विधेयक को लागू करने में दिक्कत आ रही है तो सरकार को संविधान में संशोधन कर आरक्षण की सीमा बढ़ानी चाहिए।' कुल मिलाकर बैंसला इस पूरे मामले को कांग्रेस के ऊपर थोप देना चाहते हैं। महारानी का भी शुरू से यही मकसद था कि कैसे भी करके उनके यह बला टल, कांग्रेस के पाले में चली जाए। कुछ हद तक कर्नल ने यह काम कर दिखाया। इस बीच गुर्जरों पर बैंसला की पकड़ लगातार कमजोर होती जा रही थी। विधानसभा चुनावों में यह साबित हो गया कि गुर्जर अब कर्नल की सारी बातें मानने वाले नहीं हैं। गौरतलब है कि विधानसभा चुनावों में बैंसला ने गुर्जरों से भाजपा को वोट देने की अपील की थी, पर उसका कोई खास असर नहीं हुआ। गुर्जरों ने भाजपा को वोट नहीं दिए।
विधानसभा चुनावों में कर्नल का जादू नहीं चलने के बाद भाजपा का एक धड़ा उन्हें किनारे करने के पक्ष में है। इसका मानना है कि बैंसला का ज्यादा तवज्जों देने से मीणा वोट पूरी तरह से पार्टी से कट जाएंगे। किरोड़ी लाल मीणा के पार्टी छोड़ देने के बाद पहले ही अधिकांश मीणा वोटर भाजपा से रूठ चुके हैं, लेकिन महारानी कर्नल का पूरा पक्ष ले रही हंै। इसके पीछे एक बड़ी वजह है। वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां सीट पर मुकाबले में फंस गए हैं। इस सीट पर गुर्जर वोटर अच्छी संख्या में हैं। यदि दुष्यंत गुर्जर वोट हासिल कर लेते हैं तो उनकी जीत की संभावनाएं बन जाएंगी। बेटे को जिताने के लिए महारानी बैंसला का सक्रिय समर्थन चाहती हैं। इतने समय से नेताओं के संपर्क में रहने के बाद कर्नल ने भी अब सियासत सीख ली है। उन्होंने दुष्यंत की मदद करने की एवज में टोंक-सवाई माधोपुर सीट से भाजपा का टिकट मांग लिया है।
बैंसला को करीब से जानने खुले तौर पर स्वीकारते हैं कि सियासत का कहकरा उन्हें नहीं आता है। वे बहुत जल्दी राजनीतिक चालों में फंस जाते हैं। कर्नल के चुनाव लडऩे के निर्णय से आरक्षण आंदोलन के दौरान उनके दाएं-बाएं खड़े रहने वाले गुर्जर नेता खासे खिन्न हैं। वे कहते हैं कि कर्नल साहब ने ही यह तय किया था कि आरक्षण आंदोलन संघर्ष समिति से जुड़ा कोई भी शख्स चुनाव नहीं लड़ेगा और अब उसके मुखिया ही मैदान में कूद पड़े हैं। आंदोलन के दौरान बैंसला के प्रवक्ता रहे डॉ. रूप सिंह भी उनके राजनीति में आने के निर्णय से खासे खफा हैं। सिंह बताते हैं कि 'जिनकी अगुवाई में हमने सामाजिक आंदोलन शुरू किया था आज वे ही राह भटक गए हैं। कर्नल साहब के चुनाव लडऩे के फैसले ने समाज को पीछे धकेल दिया है। समाज उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। वे उस दल के साथ जा रहे हैं जिनकी सरकार ने 71 निर्दोष गुर्जरों को मार डाला। समाज उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।'
बैंसला के पास राजनीति में आने का अपना ही तर्क है। वे मानते हैं कि राजनीतिक रूप से सक्षम हुए बिना किसी भी समाज का भला नहीं हो सकता। चुनाव लडऩे के मकसद के बार में उन्होंने बताया कि 'मैं राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन समाज के भले के लिए चुनाव लड़ रहा हूं। आंदोलन के दौरान हमारे पास कोई मजबूत नेता होता तो हमें आरक्षण मिल चुका होता। 2010 में आरक्षण की अवधि समाप्त हो रही है। आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा होने चाहिए। मैं संसद में जाकर यही मांग करुंगा। आरक्षण सामाजिक समानता लाने के उद्देश्य से भटक गया है।' शुरू से ही बैंसला के खिलाफ रहे गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल उनके इस तर्क से सहमत नहीं है। वे कहते हैं, 'कर्नल साहब समाज के मान-सम्मान पर पैर रखकर उस कुनबे में शामिल हो रहे हैं जिसने गुर्जरों के 71 बेटों की हत्या करवाई हो। समाज में अब उनकी कोई इज्जत नहीं बची है।'

मंगलवार, अप्रैल 07, 2009

वाकई जादूगर!


अशोक गहलोत सियासत में भी सफल जादूगर साबित हो रहे हैं। बसपा के सभी छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर उन्होंने भाजपा से जोड़तोड़ का विकल्प छीन लिया है, किरोड़ी को कहीं का नहीं छोड़ा है और बसपा के बढ़ते कदमों को रोक दिया है। आखिर कैसे चला गहलोत का जादू? अंदर की कहानी!

सूबे में चल रही सियासी उठापठक के बीच अशोक गहलोत एक बार फिर अपने राजनीतिक कौशल का जौहर दिखाते हुए विजेता साबित हुए हैं। बहुजन पार्टी के सभी छह विधायकों को कांग्रेस में शामिल कर उन्होंने सरकार का पांच साल का बीमा तो करा ही लिया है, डॉ. किरोड़ी लाल मीणा और भारतीय जनता पार्टी को भी पटकनी दे दी है। राजस्थान विधानसभा में कांग्रेस के विधायकों की संख्या अब 102 हो गई है, यानी सरकार को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। अब गहलोत को न तो उन्हें 'डिक्टेट' करने वाले किरोड़ी लाल मीणा की जरूरत है और न ही अन्य किसी के समर्थन की। उन्होंने सुकून से पांच साल सरकार चलाने का इंतजाम कर लिया है।
राजस्थान में पैर जमाने की कोशिश कर रही बहुजन समाज पार्टी ने पहली बार विधानसभा चुनाव गंभीरता से लड़ा था। उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनाव लडऩे तक पार्टी ने खूब मेहनत की। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती और उनकी सरकार के कई मंत्रियों ने राज्य में जमकर प्रचार किया। चुनाव परिणामों में भी इसका असर दिखा और पार्टी छह सीटें जीतने में सफल हुई। साथ ही पार्टी के उम्मीदवार 10 सीटों पर दूसरे और 71 पर तीसरे स्थान पर रहे। वैसे तो बसपा ने कांग्रेस और भाजपा दोनों को नुकसान पहुंचाया, पर ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ। बसपा कई सीटों पर कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रही। चुनाव परिणामों के बाद कांग्रेस के कई आला नेताओं ने साफ तौर पर माना कि बसपा नहीं होती तो राज्य में कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिलता। हालांकि सरकार के गठन में कांग्रेस को कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़े। किरोड़ी लाल मीणा के समर्थन से गहलोत की राह और आसान हो गई।
गहलोत सरकार के गठन में बसपा की भी भूमिका रही। पार्टी ने सरकार को बाहर से समर्थन तो दिया, लेकिन लंबी जद्दोजहद के बाद। दरअसल, बसपा के ज्यादातर विधायक सरकार में शामिल होना चाहते थे। सूत्रों के मुताबिक पार्टी नेतृत्व की ओर से मनाही होने के बाद कई विधायकों ने कांग्रेस में शामिल होने का मन बना लिया था, लेकिन दलबदल कानून और कांग्रेस की ओर से ज्यादा तवज्जों नहीं मिलने के कारण ऐसा नहीं हो पाया। इस बीच बसपा में आपसी फूट सार्वजनिक होने लगी। प्रदेश प्रभारी व राष्ट्रीय महासचिव धर्मवीर अशोक पर पैसे लेकर टिकट बांटने के आरोपों की झड़ी लग गई। बसपा विधायक दल के नेता राजेंद्र सिंह गुढ़ा सहित कई विधायक भी इसमें शामिल हो गए। उन्होंने तो यहां तक कहा कि 'धर्मवीर अशोक ने टिकटों के नाम पर 100 करोड़ रुपए डकार गए। मुझसे भी पांच लाख रुपए मांगे गए।' पार्टी के भीतर बढ़ते विवाद के बीच विधायकों ने कांग्रेस से नजदीकियां बढ़ाना शुरू कर दिया। सूत्रों के मुताबिक बसपा विधायकों ने तो काफी समय पहले ही कांग्रेस में शामिल होने की इच्छा जाहिर कर दी थी, लेकिन गहलोत किसी जल्दबाजी के मूड में नहीं थे।
इस दौरान लोकसभा चुनाव को लेकर सरगर्मियां तेज हो गईं। उम्मीदवार तय करने की बारी आई तो डॉ. किरोड़ी लाल मीणा ने कांग्रेस के लिए मुश्किलें पैदा कर दी। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने कांग्रेस को साफ तौर पर कह दिया कि 'मेरा समर्थन चाहिए तो सात सीटों पर मेरे हिसाब से टिकट देने होंगे।' किरोड़ी की इस डिमांड से कांग्रेसी हक्के-बक्के रह गए। कई नेताओं ने उन्हें मनाने की कोशिश की, पर नहीं माने। अशोक गहलोत ऐसी स्थितियों में काम करने के आदी नहीं है। लिहाजा, वे बोल पड़े 'किरोड़ी कांग्रेस को डिक्टेट नहीं करें। वे पहले पार्टी में शामिल हों और फिर टिकटों पर बात करें।' कांग्रेस के सूत्रों की मानें तो गहलोत किरोड़ी को एक सीट से ज्यादा देने को तैयार नहीं हैं, वह भी उनके पार्टी में शामिल होने के बाद। दरअसल, किरोड़ी दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। वे दौसा से चुनाव तो लडऩा तो चाहते तो हैं पर कांग्रेस के सिंबल पर नहीं। वे कांग्रेस में शामिल हो कर चुनाव लड़ते हैं तो दलबदल कानून के तहत उनकी विधानसभा सदस्यता समाप्त हो जाएगी। ऐसे में वे लोकसभा चुनाव हार गए तो कहीं के नहीं रहेंगे। किरोड़ी इतनी बड़ी रिस्क लेने को तैयार नहीं है।
कांग्रसी नेताओं की ओर से किरोड़ी की मान-मनौव्वल के बीच केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा के एक बयान से खलबली मच गई। उन्होंने गहलोत की उपस्थिति में कहा कि 'किरोड़ी टोंक-सवाई माधोपुर से मेरा टिकट कटवाने में लगे हैं। उनका टिकट कटा तो वे किरोड़ी के प्रचार रथ को गांवों में घुसने नहीं देंगे।' नमोनारायण के इस बयान से किरोड़ी लाल पीले हो गए। उन्होंने गहलोत पर दबाव बनाने के लिए पत्नी गोलमा देवी का इस्तीफा मुख्यमत्री को भिजवाते हुए तल्ख लहजे में कहा कि 'मैं भाजपा को हराने के मकसद से कांग्रेस के साथ आया था। मुख्यमंत्री और प्रदेशाध्यक्ष की उपस्थिति में नमोनारायण मीणा की टिप्पणी दुर्भाग्यजनक है। कांग्रेस मुझ पर हमले करना बंद करे। मैं कांग्रेस के टिकट को ठोकर मारता हूं। उसे जो भी करना है जल्दी करे। देरी कर मुझे बदनाम नहीं करे।' किरोड़ी को पूरी उम्मीद थी कि गहलोत उनके सामने घुटने टेक देंगे, पर ऐसा नहीं हुआ। गहलोत ने नमोनारायण के बयान को 'एक्शन का रिएक्शन' बताते हुए किरोड़ी को पार्टी ज्वाइन करने की सलाह दे डाली।
तेजी से बदले राजनीतिक घटनाक्रम में भाजपा ने अशोक गहलोत को सत्ता से बाहर करने अवसर तलाश लिया। विश्वस्त सूत्रों के मुताबिक पार्टी के आला नेताओं ने किरोड़ी लाल मीणा से संपर्क कर उन्हें मुख्यमंत्री पद का ऑफर दिया। शर्त यह थी कि बसपा समेत सभी निर्दलीय विधायकों को अपने पाले में गहलोत सरकार को गिराएं। गहलोत के जाने पर किरोड़ी सरकार बनाने का दावा पेश करें जिसे भाजपा बाहर से समर्थन दे। किरोड़ी को यह ऑफर पूरी तरह से पसंद आ गया था। हालांकि पहले भाजपा का स्थानीय नेतृत्व इस फॉर्मूले पर राजी नहीं था, लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के दबाव के बाद वह भी तैयार हो गया। इतना ही नहीं वसुंधरा राजे ने तो 2003 के चुनावों में अहम भूमिका निभाने वाले सुधांशु मित्तल को भी जयपुर बुला कर धनबल का खेल खेलने की पूरी तैयारी कर ली थी। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने किरोड़ी को खुश करने के लिए उनके रथ को गांवों में नहीं घुसने देने का बयान देने वाले नमोनारायण मीणा पर रासुका लगाने की मांग कर डाली। भाजपा ने चुनाव आयोग से किरोड़ी लाल और गोलमा देवी की सुरक्षा बढ़ाने की लिखित में मांग भी की।
इससे पहले कि भाजपा की यह योजना आगे बढ़ पाती, गहलोत को इसकी भनक लग गई। उन्होंने इसे एनकाउंटर करने के लिए ऐसा कदम उठाया कि सब भौचक रह गए। राज्य में बसपा के सभी छह के छह विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए। गहलोत ने यह कदम उठा एक तीर से कई शिकार किए हैं। किरोड़ी को तो उन्होंने जमीन सुंघा दी है। किरोड़ी अब घर के रहे हैं न घाट के। सूबे के सीएम बनने का ख्बाव पालने के चक्कर में उन्होंने राज्य सरकार में मजबूत स्थित को गंवा दिया है। हालांकि वे सरकार को महज एक विधायक की हैसियत से सरकार को समर्थन दे रहे थे, पर उनकी मंत्री से ज्यादा चलती थी। स्वयं की पत्नी के अलावा परसादी लाल मीणा और रामकिशोर सैनी तो उनके कहे में चलते ही थे। गहलोत उन्हें अब पहले की बराबर तवज्जों नहीं देंगे, क्योंकि उन्हें अब सरकार चलाने के लिए किरोड़ी के समर्थन की जरूरत नहीं है। जहां तक दौसा से टिकट का सवाल है, गहलोत ने साफ कर दिया है कि किरोड़ी कांग्रेस के टिकट पर यहां से लड़ सकते हैं। कुल मिलाकर समूचे घटनाक्रम के बाद किरोड़ी स्वयं को लुटा हुआ महसूस कर रहे हैं। भाजपा भी अब उन पर उतना ध्यान नहीं देगी। भाजपा तो उन्हें गहलोत सरकार को गिराने तक यूज करने के मूड में थी। इसी बहाने किरोड़ी लोकसभा चुनाव में भाजपा की मदद भी कर देते। यदि किरोड़ी अब फिर से भाजपा का दामन थामते हैं तो घाटे में रहेंगे, क्योंकि जिस भाजपा को पिछले कई महीनों से जमकर कोस रहे थे, उसी के लिए जनता से वोट किस मुंह से मांगेंगे?
गहलोत एक ही झटके में बसपा इफैक्ट से निपटने में भी कामयाब रहे हैं। राज्य में पिछले कुछ समय से बसपा का जनाधार तेजी से बढ़ रहा था। इसका सीधा नुकसान कांग्रेस को हो रहा था। बसपा के विधायकों के पाला बदलने के बाद कम से कम लोकसभा चुनावों तक तो हाथी हाथ का हुलिया नहीं बिगाड़ पाएगा। विधायकों के कांग्रेस में शामिल होने से बसपा को नेताओं की कमी से जूझना पड़ेगा। लोकसभा चुनाव की तैयारियां भी बुरी तरह से प्रभावित होंगी। कई सीटों पर ये विधायक ही लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी में थे। इस पूरे मामले से भाजपा को भी सबक मिला है। पार्टी के पास आगामी पांच साल तक विपक्ष में बैठे रहने के अलावा और कोई चारा नहीं है। वैसे भाजपा को जनादेश भी यही मिला था और लोकतंत्र में जनादेश ही सर्वोपरी होता है।