बुधवार, मार्च 17, 2010

जुबान संभालिए मौलाना साब...


मौलाना कल्बे जव्वाद का यह कहना कि खुदा ने महिलाओं को अच्छे नस्ल के बच्चे पैदा करने के लिए बनाया है, यदि वे घर छोड़कर राजनीति में आ जाएंगी तो घर कौन संभालेगा, महिला विरोधी तो है ही, इस्लाम की गलत व्याख्या करने का दुस्साहस भी है। ऐसा आए दिन होता है, जब इस्लामिक धर्मग्रंथों का हवाला देकर महिलाओं के लिए कई कार्य वर्जित बताए जाते हैं। उन्हें पुरुषों के मुकाबले समाज में कम अधिकार दिए जाने को सही ठहराया जाता है। इसकी सबसे अहम वजह मौलवियों द्वारा इस्लाम में औरतों के अधिकारों और प्रतिष्ठा को गलत तरीके से वर्णित करना है। ये उलेमा ऐसा अपने रूढि़वादी नजरिए के कारण करते हैं, वे इस्लाम के संदर्भ में हेरफेर करके शिक्षा, पर्दा, शादी, तलाक और औरतों के कामकाज के बारे में गलत विचार पेश करते हैं। इस्लाम में ऐसा उल्लेख कहीं नहीं है कि औरतों को फलां काम करना चाहिए और फलां नहीं। मिसाल के तौर पर कुरान के संदर्भ को ही लें। कुरान का पहला शब्द है 'इकराÓ जिसका अर्थ है 'पढ़ोÓ। इसमें यह कहीं नहीं कहा गया है कि पुरुष ही पढं़े, औरतें नहीं। इस्लाम में यह बात हर जगह जोर देकर कही गई है कि महिलाओं की पढ़ाई भी पुरुषों की तरह ही जरूरी है। ऐसे कई और भी उदाहरण हैं, जो साबित करते हैं कि मौलाना-मौलवी धर्म को किनारे रख कोरी लफ्फाजी करते हैं। हैरत की बात यह है कि मौलवी-उलेमा इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों से अच्छी तरह वाकिफ हो सकते हैं, लेकिन वे उन्हें नजरअंदाज करते हैं। वे महिलाओं के कर्तव्यों की चर्चा तो हमेशा करते हैं, लेकिन उनके अधिकारों या सुविधाओं का जिक्र नहीं करते। इतिहास में कई जगह उल्लेख है कि मुस्लिम महिलाओं ने उन सब कार्र्यों को अंजाम दिया है, जो पुरुष किया करते थे। यहां तक कि वे युद्ध के दौरान फौजों के साथ रहती थीं और घायलों की सेवा करती थीं। कई औरतें व्यापार के लिए दूसरे शहरों की यात्रा तक करती थीं। इस्लाम का उद्देश्य साफ है कि औरतें अपने काम के लिए घर से बाहर जा सकती हैं, किंतु उस सीमा तक कि ऐसा करने से उनकी मर्यादा, जिंदगी और परिवार पर कोई विपरीत असर न पड़ता हो। औरतों के लिए इस्लाम की भूमिका एक अभिभावक की तरह है। इस्लाम धर्म को मानने का यह आशय कदापि नहीं है कि औरतों को दयनीय अवस्था में रखा जाए। जरा सोचें कि वे मौलवी कभी भी उन विवाहित मुस्लिम महिलाओं की समस्याओं के बारे में चर्चा क्यों नहीं करते, जिनके पति खाड़ी और अरब देशों में कई साल तक अपनी पत्नी को घर पर अकेला छोड़कर नौकरी कर रहे हैं, जबकि इस्लाम यह छूट नहीं देता कि कोई भी पति चार महीने से अधिक अपनी पत्नी से अलग रहे। आखिर क्यों इस्लाम के तथाकथित ठेकेदार सिर्फ औरतों के कर्तव्यों की ही बातें करते हैं? वे महिलाओं के अधिकारों और इस्लाम के उन तोहफों पर रोशनी नहीं डालते, जो औरतों की बेहतरी के लिए उन्हें दिए गए हैं। वक्त आ गया है कि इस्लाम की नुमाइंदगी करने वाले इस पर गंभीरता से विचार करें। मौलाना-मौलवी बेतुके बयान और फतवे जारी करने की बजाय इस पर ज्यादा जोर दें कि महिलाओं के कल्याण के लिए क्या किया जा सकता है। यदि उन्होंने वक्त रहते ऐसा नहीं किया तो समाज में उनका ही आदर कम होगा। रही बात महिलाओं की, तो उनका हर क्षेत्र में आगे बढऩा तय है, राजनीति भी इसमें शामिल है।

गडकरी गुड करी


भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपनी नई टीम में अपेक्षा के अनुरूप युवाओं, महिलाओं और नए चेहरों को अधिक तवज्जो दी है। हालांकि कुछ नामों को देखकर लगता है कि उन्हें मजबूरी में शामिल किया गया है, फिर भी गडकरी बिना काम किए दाएं-बाएं बने रहकर पार्टी की छवि बिगाडऩे वालों से परहेज करते हुए दिखाई दिए हैं। यह तो समय ही बताएगा कि इस नई टीम के साथ गडकरी जैसा प्रदर्शन करना चाह रहे हैं, वैसा कर पाते हैं या नहीं, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने बिना किसी लाग-लपेट के पार्टी की व्याधियों को दुरुस्त करने की ठानी है। यह किसी से नहीं छिपा है कि भाजपा में राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व में मतभेद मनभेद में बदल गए हैं और ऐसी ही स्थिति अनेक राज्यों में भी है। यद्यपि फिलहाल शांति नजर आ रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि पार्टी के नेता गिले-शिकवे दूर कर गडकरी के नेतृत्व में एकजुट हो गए हैं। भाजपा की समस्याएं इसलिए और बढ़ गई हैं, क्योंकि एक तो वह औरों से अलग दल की अपनी छवि खो चुकी है और दूसरे उसके पास ऐसे मुद्दों का अभाव है, जो कार्यकर्ताओं में उत्साह का संचार कर सकें। भाजपा अपने जिन मुद्दों के लिए जानी जाती थी, वे अब उसकी नैया पार नहीं लगा सकते, क्योंकि एक तो उसने ही उन्हें मझधार में छोड़ा और दूसरे अब आम जनमानस की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। इसके बावजूद भाजपा अपनी खोई हुई शक्ति इसलिए फिर से प्राप्त कर सकती है, क्योंकि राष्ट्रीय दल के रूप में कांग्रेस के विकल्प की आवश्यकता महसूस की जा रही है। नितिन गडकरी ने अपनी नई टीम तो बना ली है, लेकिन यह परिणाम तब ही देगी जब यह सुधार और बदलाव की योजना पर एकजुट होकर, ईमानदारी से अमल करे। यह किसी से छिपा नहीं है कि गुटबाजी भाजपा पर किस कदर हावी हो चुकी है। अन्यथा आज भी लोकसभा में १५० से अधिक सांसदों वाली मुख्य विपक्षी पार्टी के प्रति निराशा का वैसा भाव नहीं होता, जैसा पिछले कुछ अरसे से देखने को मिल रहा है। गडकरी सही कहते हैं कि कार्यकर्ताओं की पहचान बड़े नेताओं के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने से नहीं, गांव-गांव घूमने से होगी। यह तब ही संभव है, जब परिक्रमा के पराक्रम से प्रतिष्ठापित होने की परंपरा को समाप्त किया जाए। गुटबाजी समाप्त करने के अलावा फिलहाल राजनीतिक स्तर पर भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बिहार से है, जहां इस वर्ष चुनाव होने हैं। दूसरी चुनौती उत्तर प्रदेश है, जहां से लोकसभा के लिए 80 सदस्य चुने जाते हैं। इस राज्य में पार्टी पहले ही खिसककर चौथे स्थान पर पहुंच गई है। व्यक्तियों के लिए पदों का सृजन करने के बजाय पदों पर व्यक्तियों के चयन का जैसा स्वरूप उभरेगा, गडकरी भाजपा को उसका खोया हुआ स्थान दिलाने में उतने ही सफल रहेंगे। पिछले दिनों लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा था कि राजनीतिक लोगों के बारे में आम धारणा है कि वे बेईमान हैं। नई परिस्थितियों में भाजपा के सामने इस माहौल को बदलने की भी चुनौती है। इस चुनौती से आचरण की शुचिता और जनहित की प्राथमिकता के बल पर ही निपटा जा सकता है। अपने अनुकरणीय कार्य-व्यवहार से ही भाजपा जन समर्थन हासिल कर सकती है। बेहतर होगा कि नितिन गडकरी के नेतृत्व में भाजपा की नई टीम यह प्रदर्शित करे कि वह अपनी राजनीति के जरिये समाज को दिशा देने और उसका उत्थान करने के लिए समर्पित है।

गुरुवार, मार्च 11, 2010

अभी दूर है दिल्ली


संसद के उच्च सदन यानी राज्यसभा में मंगलवार को इतिहास बना भी और घटा भी। आधी आबादी को संवैधानिक हक देने के लिए सिर्फ संख्याबल के साथ-साथ बाहुबल की भी जरूरत पड़ेगी, इसकी उम्मीद जरा कम थी। जो भी हो सदन से सात सांसदों के निलंबन, मार्शलों के जरिए माननीयों का निष्कासन और अभूतपूर्व हंगामे के बाद अंतत: राज्यसभा में लोकसभा और विधानसभाओं में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने वाला 108वां संविधान संशोधन विधेयक पारित हो ही गया। इससे महिलाओं के राजनीतिक हक की शुरुआत भले ही हो गई हो, लेकिन असल में उनके लिए दिल्ली अभी बहुत दूर है। राज्यसभा में तमाम लानत-मलानत के बाद मंजूर हुए महिला आरक्षण विधेयक को लोकसभा की अग्निपरीक्षा से गुजरना होगा। साथ ही कम से कम 14 विधानसभाओं की पथरीली गलियों को भी पार करना होगा। एक-दूसरे से आगे निकलने और श्रेय लेने की होड़ में महिला आरक्षण विधेयक पर बेमन से ही सही, कांग्रेस, भाजपा और वामपंथियों ने जिस तरह से हाथ मिलाया है, उससे संख्याबल के लिहाज से लोकसभा में भी विधेयक का पारित होना आसान दिख रहा है, लेकिन वास्तव में राह बेहद मुश्किल है। मुलायम, लालू और शरद यादव के बाद ममता बनर्जी की पार्टी के सदस्यों का भी राज्यसभा से अनुपस्थित रहना इसका खुला संकेत है। सरकार को लोकसभा में नई चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। राज्यसभा में पटकनी खाने के बाद मुलायम सिंह यादव और लालू यादव जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के नेताओं से संपर्क साध रहे हैं, उससे कयास लगाया जा रहा है कि सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की तैयारी है। जाहिर तौर पर यह सरकार के लिए यह बड़ी असहज और चुनौतीपूर्ण स्थिति हो सकती है। ध्यान रहे कि महिला बिल पर कांग्रेस के रुख से उसके कुछ सहयोगी भी खुश नहीं हैं। ममता ने तो अपनी असहमति छिपाई भी नहीं। ऐसे ही तमाम छोटे दल हैं, जिनमें आसमान छूती महंगाई पर सरकार के अनमने रुख से गुस्सा बढ़ रहा है। ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव सरकार के लिए परेशानी बढ़ा सकता है। लालू, मुलायम और शरद जैसे विरोधियों को लगता है कि सरकार इसके बाद उन्हें अनसुना करने में असमर्थ होगी। सरकार से समर्थन वापसी की धमकी देकर मुलायम और लालू ने सोमवार को तो सरकार को रोक लिया था, लेकिन मंगलवार तक उसका असर खत्म हो गया। राज्यसभा में सख्ती के सहारे सरकार ने विधेयक पारित करवा लिया। यादव तिकड़ी नहीं चाहते कि लोकसभा में भी इसी तरह की चरम स्थिति पैदा हो। अविश्वास प्रस्ताव के जरिए सरकार को यही संकेत देने की कोशिश होगी। मान लीजिए किसी तरह से लोकसभा में भी विधेयक पारित हो जाता है, तो फिर इसे विधानसभाओं की ड्योढ़ी लांघनी होगी। ध्यान रहे कि कुल 50 फीसदी विधानसभाओं को इस विधेयक पर मुहर लगानी होगी। क्षेत्रीय क्षत्रपों के अब तक के तेवरों को देखते हुए यह आसान कतई नहीं है। कोई भी राजनीतिक दल नहीं चाहेगा कि महिला आरक्षण विधेयक की कीमत सियासी नुकसान के रूप में चुकानी पड़े। बंगाल में ममता तो बिहार में नीतीश और उत्तर प्रदेश में मायावती महिला आरक्षण पर अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों पर बढ़त लेने में कोई हिचक दिखाने वाले नहीं हैं। ममता ने राज्यसभा में अध्यादेश के समर्थन से कन्नी काटने, तो नीतीश ने अपनी पार्टी की टूट के जोखिम पर भी इसके पक्ष में खड़े होने के और क्या निहितार्थ हैं? वहीं मायावती ने विरोध का तरीका ऐसा निकाला, जिससे वह सपा के साथ खड़ी कतई न दिखाई पड़े। उनकी पार्टी ने विरोध तो किया, लेकिन सपा के रुख के विपरीत विधेयक पर चर्चा में भाग लेकर अपने तर्क रखते हुए। पश्चिम बंगाल में वामपंथियों के कब्जे से मुस्लिम वोट बैंक खींचने का ममता को यह अच्छा मौका नजर आया। तब ही तो तृणमूल के दो सांसदों ने अंतिम क्षणों में मुस्लिम समुदाय का अलग कोटा मांगकर राज्यसभा में विधेयक पर वोटिंग से गैरहाजिर हो गए। निश्चित रूप से बिल को बिना बहस पारित कराने पर माकपा की मुहर के बाद ही ममता ने यह राजनीतिक दांव खेला। जहां ममता ने चुनाव से पहले बंगाल विधानसभा में महिला विधेयक पर वाममोर्चा सरकार को असहज करने के लिए आधार तैयार कर लिया, वहीं बिहार में सवर्ण वोट बैंक को खिसकने से बचाने के लिए नीतीश कुमार को भी चुनावी साल में यह विधेयक प्रभावी राजनीतिक अस्त्र समझ में आया। पंचायत में आरक्षण के जरिए पिछड़े वर्ग को पहले ही मोहपाश में बांध चुके बिहार के मुखिया सवर्णों की नाखुशी को नजरअंदाज नहीं कर सकते। राजद की राजनीति को पिछड़ों और अगड़ों दोनों के बीच निष्प्रभावी बनाने के लिए विधेयक के समर्थन का रास्ता ही नीतीश को भाया। इस विधेयक को कानून बनने में सियासी उलझनों के अलावा प्रक्रियागत उलझने भी कम पेचीदा नहीं हैं। लोकसभा की मंजूरी के बाद इसे राष्ट्रपति के पास अधिसूचना के लिए भेजा जायेगा। फिर इस सरकारी गजट को विधानसभाओं की मंजूरी जरूरी होगी। ध्यान रहे देश में कुल 28 विधानसभाएं हैं, जिनमें से कम से कम 14 में इस विधेयक को दो तिहाई बहुमत से मंजूरी मिलनी जरूरी है। यहां से मंजूरी मिलने के बाद संसद और विधानसभाओं में महिलाओं की 33 प्रतिशत सीटें आरक्षित की जाएंगी। केंद्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोइली इसके लिए एक अलग कानून बनाने की वकालत कर रहे हैं। महिला आरक्षण विधेयक में तीन बड़े प्रावधान किये गये हैं। विधेयक में संसद समेत राज्य विधानसभाओं की 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित होंगी। आरक्षण का प्रावधान 15 सालों के लिए होगा। चुनाव क्षेत्रों को रोटेशन प्रणाली के आधार पर आरक्षित किया जायेगा। चुनाव में पहले से ही अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति को मिल रहे आरक्षण कोटे में उसी जाति की महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण प्रदान किया जाएगा। यहां सवाल यह है कि देश की राजनीति इस अहम बदलाव से किस रूप में प्रभावित होगी। यदि संसद के स्तर पर ही बात करें तो, महिला आरक्षण के अमल के आने के बाद देश की सबसे बड़ी पंचायत की लगभग आधी सीटें आरक्षित हो जाएंगी। अनुसूचित जाति व जनजाति के लिए पहले से 131 सीटें आरक्षित हैं। दो सीटें एंग्लो इंडियन समुदाय के सदस्यों के नामांकन के जरिए भरी जाती हैं। इस तरह 545 के सदन में नामांकन से भरी जाने वाली दो सीटें हटाने के बाद 181 सीटें महिलाओं (अनुसूचित जाति-जनजाति समेत) के लिए आरक्षित होंगी। तब अनुसूचित जाति-जनजाति के लिए 87 सीटें आरक्षित रह जाएंगी। इस तरह कुल 268 सीटें आरक्षित होंगी और 275 अनारक्षित होंगी। इससे भी ज्यादा एक और महत्वपूर्ण पहलू है- रोटेशन प्रणाली। यह निश्चित रूप से सांसदों को उनके दायित्व व निष्ठा के प्रति उदासीन भी करेगी। इस रोटेशन प्रणाली के तहत 362 सांसदों को हमेशा मालूम होगा कि अगले लोकसभा चुनाव में उन्हें अपने पुराने लोकसभा क्षेत्र से लडऩे का मौका नहीं मिलेगा। दरअसल रोटेशन प्रणाली लागू होने के बाद 181 महिला सांसदों का चुनाव क्षेत्र बदलेगा, तो दूसरे 181 सदस्य अपने आप प्रभावित होंगे। जाहिर तौर पर कुछ ही कद्दावर नेता ऐसे होंगे, जिन्हें दूसरे लोकसभा क्षेत्र से भी चुनाव लडऩे में बहुत दिक्कत नहीं आएगी। एक तरह से देखें तो एक पारी के बाद सांसदों का राजनीतिक भविष्य अधर में होगा। सबसे बड़ा खतरा यह है कि सांसदों को पता होगा कि पांच साल उन्हें कोई छूने वाला नहीं और अगले चुनाव में उन्हें टिकट मिलने वाला नहीं। ऐसे में वे अपने संसदीय क्षेत्र के प्रति कितनी प्रतिबद्धता दिखाएंगे और उसके विकास में कितनी रुचि लेंगे, इसकी सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है। हालांकि इन तर्कों को आधार बनाकर राजनीति में महिला आरक्षण को नकारा नहीं जा सकता। आरक्षण निश्चित रूप से मिले, लेकिन यह ध्यान रहे कि इससे महिलाओं की स्थिति और लोकतंत्र दोनों मजबूत हो, कमजोर नहीं।