शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009
पृथ्वी को बचाने की पहल
भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी कमी करने की घोषणा कर साबित कर दिया है कि वह धरती को बढ़ते ताप से बचाने की दिशा में पूरी ईमानदारी से जुटा हुआ है। यह कमी 2005 की तुलना में होगी और इसके लिए 2020 तक का समय तय किया गया है। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले अहम सम्मेलन से पहले भारत का कार्बन उत्सर्जन में कटौती का फैसला मायने रखता है। हालांकि इसकी इस आधार पर आलोचना की जा सकती है कि भारत अमेरिका और चीन के दबाव के सामने झुक गया है, फिर भी व्यापक दृष्टिकोण से भारत की सराहना होनी चाहिए। कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से भारत दुनिया में चौथे पायदान पर है, लेकिन वह ग्लोबल वार्र्मिंग पर लगाम कसने के लिए शीर्ष तीनों देशों- चीन, अमेरिका और रूस से न केवल ज्यादा फ्रिकमंद है, बल्कि संजीदा भी है। भारत इस दिशा में पहले से ही नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) पर काम कर रहा है, जिसमें आठ अभियान - सौर, उन्नत ऊर्जा दक्षता, हिमालय के पर्यावरण को बनाए रखने, हरा-भरा भारत, कृषि और तापमान परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान शामिल है। इसके विपरीत चीन और अमेरिका कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मसले पर गाहेबगाहे आनाकानी करते रहे हैं। हालांकि उन्होंने कटौती के लक्ष्य निर्धारित कर दिए हैं, लेकिन इन्हें हासिल कैसे किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। क्या जलवायु परिवर्तन इतनी छोटी समस्या है कि इससे निपटने के लिए महज दिखावा किया जाए? आखिर चीन और अमेरिका अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? क्या ये देश नाममात्र का कार्बन उत्सर्जन करने वाले मुल्कों पर दबाव बनाकर दुनिया को विनाश की ओर नहीं धकेल रहे हैं?
अमेरिका ने 2020 तक उत्सर्जन में 17 फीसदी तक की कटौती का लक्ष्य रखा है, जो 2005 के स्तर से कम है। चीन ने कहा है कि वह 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद की प्रति यूनिट ऊर्जा तीव्रता में 40-45 फीसदी तक की कमी करेगा। अगर 1990 के स्तर की बात करें, तो अमेरिका द्वारा उत्सर्जन में की गई यह कटौती महज तीन फीसदी बैठती है। इसके अलावा अमेरिका घरेलू लक्ष्यों तक ही सीमित बना हुआ है और बहुराष्ट्रीय कानूनी बाध्यता को लेकर किए गए समझौते से दूरी बनाए हुए है। चीन का भी यही हाल है। उसने संकेत दिया है कि कार्बन उत्सर्जन में इजाफा तो बरकरार रहेगा, लेकिन इसकी रफ्तार में कमी आएगी। इसमें चीनी अर्थव्यवस्था के विकास की गति की शर्त अलग से जुड़ी हुई है। यदि चीन की अर्थव्यवस्था सात फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है, तो उसका उत्सर्जन 50 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से अधिक है। अगर अर्थव्यवस्था 10 फीसदी की दर से विकास करती है, तो यह उत्सर्जन 150 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से काफी अधिक है। क्या ये आंकड़े साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि चीन और अमेरिका पृथ्वी को बचाने के लिए कोरी गप्पबाजी कर रहे हैं? यदि इन दोनों मुल्कों का यही रवैया रहा, तो कोपेनहेगन में भी कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। ऐसी स्थिति में जब जब पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है, तो विकसित देशों को संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठते हुए बढ़ते ताप पर लगाम कसने के लिए ईमानदार प्रयास करने चाहिए। इसमें जितनी देर होगी खतरा उतना ही बड़ा होता जाएगा।
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