रविवार, मार्च 15, 2009

जूझते जादूगर


अशोक गहलोत इन दिनों तीन-तीन मोर्चों पर एक साथ जूझ रहे हैं। सहयोगी साथ चलने के बजाय आगे चलने पर आमादा हैं, संगठन में कई नेता कुर्सी पाने का ख्वाब बुन रहे हैं और सरकार में अनुभवी मंत्रियों की कमी खल रही है। गहलोत कैसे पार पाएंगे इन मुश्किलों से? अंदर की कहानी!

सहयोगी, संगठन और सरकार, तीनों में से किसी का नाम सुनते ही अशोक गहलोत के माथे पर बल पड़ जाते हैं। पड़ें भी क्यों नहीं, तीनों ओर से संकट खड़े होते रहते हैं। सहयोगी आए दिन आंखे दिखाकर यह याद दिलाना नहीं भूलते कि सरकार उन्हीं के सहारे चल रही है, संगठन यानी कांग्रेस के कई दिग्गज गहलोत के गद्दीनशीं होने के सच को अभी तक पचा नहीं पा रहे हैं और अनुभवी मंत्रियों की कमी के चलते सरकार चलाने में भी उन्हें दिक्कत आ रही है। एक साथ तीन-तीन मोर्चों पर जूझना गहलोत के लिए नया अनुभव है, क्योंकि पिछली सरकार वे भारी बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बने थे। सहयोगी तो थे ही नहीं, संगठन में किसी ने उनके खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं जुटाई और सरकार तो वे अपने ढंग से चलाते ही थे, लेकिन इस बार कहानी अलहदा है। लिहाजा, गहलोत के तेवर इस बार बदले-बदले से हैं। वे इन दिनों सियासत में सफल होने के लिए 'संतुलन' नाम का नया सलीका सीख रहे हैं।
गहलोत के सामने आए संकटों की फेहरिस्त में सबसे पहले सहयोगियों की बात करें तो राज्य में कांग्रेस पहली बार इनके सहारे सरकार चला रही है। हालांकि सरकार बनाते समय अशोक गहलोत को कोई परेशानी नहीं आई थी, क्योंकि साधारण बहुमत का आंकड़ा तो जीत कर आए कांग्रेस के बागियों के घर वापसी से ही पूरा हो गया। किरोड़ी लाल मीणा के समर्थन देने से बहुमत और पुख्ता हो गया। गहलोत ने भी सरकार बनाते ही यह सीख लिया कि समर्थन देने वालों को कैसे खुश रखना है। किसी को मंत्री बना दिया तो किसी को संसदीय सचिव। किरोड़ी लाल मीणा को भी मंत्री पद का प्रस्ताव दिया, लेकिन उन्होंने पत्नी गोलमा देवी को मंत्री बनवा दिया। ऐसा नहीं है कि किरोड़ी को मंत्री पद का मोह नहीं रहा, लेकिन उनका इरादा सांसद का चुनाव लडऩे का है। वो भी परिसीमन के चलते अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हुई दौसा सीट से। किरोड़ी की इस मंशा ने गहलोत के लिए मुश्किल खड़ी कर दी है, क्योंकि केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा भी यहीं से चुनाव लडऩा चाहते हैं। बात यहीं तक होती तो ठीक थी, लेकिन सूबे की सरकार के तीन मंत्रियों परसादी लाल मीणा, गोलमा देवी और रामकिशोर सैनी के रुख ने गहलोत को मुश्किल में डाल रखा है।
यूं तो परसादी लाल गहलोत मंत्रिमंडल में कैबीनेट मंत्री हैं, पर वे सरकार के साथ चलने की बजाय किरोड़ी के पीछे-पीछे चलना ज्यादा पसंद करते हैं। वैसे परसादी पुराने कांग्रेसी हैं, लेकिन विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। वे किरोड़ी के समर्थन पर निर्दलीय ही मैदान में कूद पड़े और अच्छे मतों से जीत भी गए। जीतते ही उन्होंने साफ कर दिया कि वे किरोड़ी के कहे अनुसार सरकार को तो समर्थन दे रहे हैं, पर कांग्रेस में वापसी नहीं कर रहे हैं। मंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कई मौकों पर यह साबित किया कि उनके असली मुखिया अशोक गहलोत नहीं किरोड़ी लाल हैं। किरोड़ी के दौसा से लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छा पर भी उनका साफ रुख है। वे कहते हैं, 'कांग्रेस लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करना चाहती है तो दौसा से किरोड़ी लाल को उम्मीदवार बनाए, नहीं तो परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहे।' गहलोत को परसादी लाल इस चेतावनी भरी सलाह में गोलमा देवी भी सुर मिलाती हैं। उनसे तो उम्मीद भी यही है। वैसे भी वे पत्नी धर्म निभाकर गलत भी क्या कर रही हैं? किरोड़ी के सहारे ही वे विधायक बनीं, फिर मंत्री बनीं। अब पति को संसद पहुंचाने के लिए सरकार को आंख दिखाने का काम तो वे कर ही सकती हैं। रामकिशोर सैनी के साथ भी ऐसा ही है। किरोड़ी का हाथ थामकर ही वे विधानसभा चुनाव जीते और फिर मंत्री बने, फिर अब उनका साथ कैसे छोड़ सकते हैं। बहरहाल, किरोड़ी लाल के बाद अपनी सरकार के तीन मंत्रियों के जिद पर अडऩे के बाद उपजे हालातों से निपटना गहलोत के लिए बेहद मुश्किल है, वे किरोड़ी को दौसा से उम्मीदवार बनाए जाने की पैरवी करते हैं तो नमोनारायण नाराज होते हैं और नहीं करते हैं तो किरोड़ी के साथ-साथ स्वयं की सरकार के ही दो मंत्री नाराज होते हैं। अब यह गहलोत को तय करना है कि वे किसे नाराज करते हैं।
सहयोगियों की अलावा संगठन के स्तर पर भी गहलोत को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। पार्टी के कई नेता अभी भी सीएम की कुर्सी को मोह नहीं त्याग पाए हैं। वैसे गहलोत विरोधी धड़े के नेताओं की फेहरिस्त काफी लंबी है, लेकिन अभी सी.पी. जोशी उन्हें कड़ी चुनौती दे रहे हैं। विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण के समय गहलोत और जोशी के बीच पनपी खाई निरंतर चौड़ी ही होती जा रही है। जोशी को एक वोट से मिली शिकस्त और गहलोत की ताजपोशी के बाद दोनों के बीच की दूरियां और बढ़ गईं। पिछले दिनों राहुल गांधी और सोनिया गांधी के कार्यक्रमों में भी यह साफ तौर पर दिखाई दिया कि आने वाले दिनों में गहलोत की राह आसान नहीं होगी। मंत्रिमंडल विस्तार में हुई देरी से यह बात साबित हो जाती है कि न तो कांग्रेस में संगठन स्तर पर सब कुछ ठीक चल रहा है और न ही आलाकमान ने इस बार गहलोत को फ्रीहैंड दे रखा है। लाख कोशिशों के बाद भी गहलोत अपने कई चहेतों को मंत्रिमंडल में जगह नहीं दिला पाए, जबकि कई लोगों को मजबूरी में शपथ दिलवानी पड़ी। रघुवीर मीणा को ही लें। मीणा तीसरी बार विधायक बने हैं। उन्हें गहलोत का भी खास माना जाता है। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनते ही सभी ने कयास लगाए थे कि मीणा का कैबीनेट मंत्री बनना तय है, लेकिन गहलोत लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें उप मुख्य सचेतक ही बना पाए। वैसे विरोधी धड़ा चाहे कितनी ही कोशिश क्यों न करे, पर वे आज भी आलाकमान की पहली पसंद है और उनकी इस पोजीशन को हिलाना भी आसान नहीं है।
अशोक गहलोत को सहयोगियों और संगठन के स्तर पर ही समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ रहा है, सरकार के स्तर पर भी उन्हें कई परेशानियां झेलनी पड़ रही हैं। कांग्रेस के ज्यादातर अनुभवी नेताओं के चुनाव हार जाने के कारण सरकार के सुचारू संचालन में गहलोत को दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। इसी के चलते स्वयं को जनता का मुनीम और सरकार को जनता की ट्रस्टी बताने वाले गहलोत 39 विभागों का काम स्वयं ही देख रहे थे। हालांकि मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद इनमें से कई विभाग उन्होंने सहयोगियों को सौंप दिए हैं, लेकिन अभी भी उनके पास एक दर्जन से ज्यादा विभाग है। परेशानी अनुभवी मंत्रियों की कमी की ही नहीं है, सरकार के काम करने के तरीके को लेकर भी है। गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल से काफी सबक सीखा है। उन्होंने यह बात तो साफ तौर पर समझ में आ गई हैं कि सियासत में सफल होने के लिए चुस्त-दुरुस्त से ज्यादा लोकलुभावन सरकार ज्यादा कारगर रहती है। गौरतलब है कि गहलोत के पिछले कार्यकाल में शासन तो अच्छा किया था, लेकिन कर्मचारियों और युवा वर्ग से नाराजगी ले ली थी। गहलोत इस बार पिछला शासन दोहराना नहीं चाहते हैं। वे इस कलंक को भी धोना चाहते हैं कि गहलोत का शासन आर्थिक दृष्टि से राज्य पर भारी पड़ता है। हालांकि ऐसा करना चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि छठे वेतन आयोग की सिफारिश लागू करने, वैश्विक मंदी और घटते राजस्व के चलते लोकलुभावन घोषणाएं करना आसान नहीं होगा।
एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहे अशोक गहलोत ने कई मौकों पर यह साबित किया है कि वे इनसे निपट लेंगे। उनके पक्ष में सबसे बड़ी बात यह है कि वे प्रत्येक चीज को सकारात्मक ढंग से लेते हैं। पिछले दिनों किए गए निर्णयों में इसकी साफ झलक देखने को मिलती है। सुरूर पर सख्ती, भू-माफियाओं पर शिकंजा और 17 हजार करोड़ रुपए की वार्षिक योजना बनाने व उसे क्रियान्वित करने के निर्णय इस बात के संकेत देते हैं कि वे सहयोगी, संगठन और सरकार के स्तर पर मिल रही चुनौतियों से पार पा लेंगे और राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी दूसरी पारी सफलतापूर्वक पूरी करेंगे।

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