शनिवार, जनवरी 31, 2009

एक और सिंह ...


जसंवत सिंह और वसुंधरा राजे के बीच चल रहा सियासी संघर्ष चरम पर है। जहां जसवंत सिंह ने शेखावत के कंधे पर बंदूक रखकर निशान साध दिया है वहीं, महारानी मानवेंद्र सिंह की सियासत समाप्त कर पटकनी देने की तैयारी कर रही हैं। राजपूताने के दो भाजपाई दिग्गजों में छिड़ी जंग की परतें खोलती अंतर्कथा।

भैरों सिंह शेखावत के तल्ख बयानों से थर्रायी वसुंधरा राजे की सेहत आने वाले दिनों में भी सुधरने के आसार नहीं हैं। बाबोसा के बवंडर के बाद जसवंत सिंह की आंधी आने के हालात बन रहे हैं। सूबे की राजनीति में स्वयं के सियासी सपनों के चकनाचूर होने के बाद पुत्र मानवेंद्र की सियासत पर आए संकट से जसवंत सिंह की भृकुटि तन गई है। निशाने पर हमेशा की तरह वसुंधरा राजे ही हैं। ताजा संघर्ष की वजह मानवेंद्र सिंह की लोकसभा चुनाव में सीट बदलने की इच्छा है। वे इस बार बाड़मेर की बजाय जोधपुर या जालौर से चुनाव लडऩे का मानस बना रहे हैं। दरअसल, बाड़मेर में मानवेंद्र की हालत इस बार पतली है जबकि जोधपुर व जालौर में राजपूत वोटों की अच्छी संख्या के चलते जीत की संभावना ज्यादा है, लेकिन वसुंधरा उन्हें यह एडवांटेज लेने नहीं देना चाहतीं। जसवंत सिंह को भी इस बात का आभास है, इसलिए इन दिनों वे बाड़मेर में डेरा डाले हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि जसवंत सिंह और वसुंधरा राजे के बीच हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। पांच-छह साल पहले तक दोनों के बीच अच्छे संबंध थे। एनडीए सरकार में साथ-साथ मंत्री भी रहे। भैरों सिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बन कर दिल्ली जाने और वसुंधरा को अपनी विरासत संभलाने तक भी सबकुछ ठीक था। दिक्कतों का दौर 2003 में हुए विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ। इन चुनावों ने महारनी ने 'बाबोसा' की उम्मीद के मुताबिक अहमियत नहीं दी। अपने 'गुरू' की यह अनदेखी जसवंत सिंह को रास नहीं आई। गौरतलब है कि राजपूताने के इस ठाकुर को राजनीति में भैरों सिंह शेखावत ही लाए थे। विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा को राजस्थान में पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। विधायक दल का नेता चुनने के लिए जसवंत सिंह ही पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक की हैसियत से जयपुर आए और वसुंधरा के नाम पर मुहर लगाई। इसी दिन जब वसुंधरा ने सार्वजनिक तौर पर जसवंत सिंह के पैर छूं कर आशीर्वाद लिया तो लगा कि दोनों के बीच कोई मनमुटाव नहीं है।
वसुंधरा के सीएम बनने के कुछ ही महीनों बाद लोकसभा चुनाव हुए। एनडीए को तो बहुमत नहीं मिला पर राजस्थान में वसुंधरा का जादू चला और पार्टी 25 में से 21 सीटें जीतने में कामयाब रही। बदले हुए हालातों में वसुंधरा और जसंवत की राजनैतिक हैसियत में बड़ा फेरबदल हो गया। जहां सिंह महज एक सांसद रह गए वहीं, वसुंधरा एक अहम सूबे की मुख्यमंत्री तो थी हीं पार्टी में भी उनका कद बड़ गया। जसवंत सिंह को वसुंधरा के बड़ते कद से ज्यादा चिंता खुद की सियासत बचाए रखने की थी। उन्होंने एक बार तो राजस्थान की राजनीति में सक्रिय होने का मानस बनाया, लेकिन वसुंधरा के आभामंडल के चलते उनके लिए गुजांइश ही नहीं बची थी। कदम पीछे खीचने के अलावा उनके पास कोई रास्ता ही नहीं था। वे यह सोच कर पीछे हटे कि सूबे में सरकार तो अपनी ही है। सत्ता सुख तो भोगा ही जा सकता है, लेकिन उनके लिए यह गलतफहमी साबित हुई। वसुंधरा ने धीरे-धीरे आंखे दिखाना शुरू कर दिया। कई मसलों पर दोनों में तनातनी होने लगी। जसवंत सिंह को सबसे ज्यादा बुरा तब लगा जब वे बाड़मेर के एक दल के साथ हिंगलाज माता के दर्शन करने के लिए पाकिस्तान गए। सिंह को उम्मीद थी महारानी इस दल को बॉर्डर तक विदा करने आएंगी, लेकिन वे नहीं आईं। सीमा के दूसरी ओर सिंध के मुख्यमंत्री द्वारा किए गए भव्य स्वागत और बलुचिस्तान के मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए भोज ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया।
बाड़मेर में आई बाढ़ के बाद दोनों के रिश्तों में और तनाव आ गया। बाढ़ से मची भारी तबाही के बाद राहत पहुंचाने के लिए मानवेंद्र सिंह और जसवंत सिंह ने वसुंधरा से कई बार गुहार की, लेकिन रस्म निभाने के लिए ही राहत कार्य शुरू हो सके। राहत कार्यों की धीमी गति से नाराज जसवंत सिंह उस समय आग बबूला हो गए जब महारानी ने अपने बेटे दुष्यंत सिंह को बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के हालात का जायजा लेने के लिए बाड़मेर भेज दिया । सूत्रों को मुताबिक जसवंत सिंह ने दुष्यंत को खूब खरी-खोटी सुनाई। उन्होंने यहां तक कहा कि 'तुम यहां क्या करने आए हो। मैं मानवेंद्र को झालावाड़ जायजा लेने के लिए भेजूं तो तुम्हें कैसा लगेगा।' भीषण बाढ़ के दौरान राहत में हुई देरी से स्थानीय लोगों का सांसद मानवेंद्र सिंह से नाराज होना स्वाभाविक था। वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री रहते हुए बाड़मेर के साथ बाढ़ की स्थिति के अलावा भी सौतेला व्यवहार ही किया। राज्य की विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत यहां नाममात्र का ही काम हुआ। उन्होंने यह सब तयशुदा रणनीति के तहत किया ताकि यहां से सिंह परिवार का पत्ता साफ हो जाए।
वसुंधरा राजे जब मुख्यमंत्री थीं तो उन्हें चाहने वालों की कमी नहीं थी। एक महाशय ने तो वाकायदा मंदिर बना देवी रूप में उन्हें स्थापित कर पूजा शुरू कर दी। महारानी को घेरने का जसवंत सिंह के पास यह अच्छा मौका था। जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर इसे हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का खिलवाड़ बताते हुए थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंच गईं। उन्होंने कई बार थाने के चक्कर काटे पर किसी ने रिपोर्ट नहीं लिखी। शीतल कंवर ने न्यायालय में गुहार लगाई। न्यायालय ने रिपोर्ट दर्ज करने के आदेश दिए, लेकिन फिर भी एफआईआर दर्ज नहीं की गई। मामला जब न्यायालय की अवमानना तक जा पहुंचा तो शिकायत दर्ज हुई। हालांकि पुलिस ने इसे कुछ ही दिनों में यह कहते हुए रफादफा कर दिया कि इस मसले में किसी ने कुछ भी गलत नहीं किया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही जसवंत सिंह ने अपने पैतृक गांव जसोल में 'रियाण' का आयोजन किया। उल्लेखनीय है कि 'रियाण' मारवाड़ में दशकों से चली आ रही एक परंपरा है जिसमें आए हुए महमानों से अफीम की मनुहार की जाती है। जसवंत सिंह अपने गांव में हर साल यह आयोजन करते हैं। इस बार फर्क सिर्फ इतना था कि मेहमान के तौर पर वसुंधरा विरोधी खेमे के नेताओं ने अफीम की मनुहार ली। वसुंधरा के लिए विरोधियों को घेरने का यह अच्छा मौका था। महारानी के इशारों पर पुलिस ने अगले ही दिन जसवंत व अन्य के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया।
जसवंत सिंह ने पार्टी के स्तर पर भी कई बार वसुंधरा राजे को पटकनी देने की कोशिश की, लेकिन प्रतीक्षारत आडवाणी के आशीर्वाद के चलते वे महारानी का कुछ नहीं बिगाड़ पाए। हालांकि वसुंधरा विरोधी खेमे के कमांडर के तौर पर उनके सैनिकों की संख्या में निरंतर इजाफा हुआ। कई बार अपनी फौज के साथ दिल्ली में डेरा भी डाला। एक बार तो उन्होंने वसुंधरा को सीएम की कुर्सी से हटाने के लिए राजनाथ सिंह को भी राजी कर लिया था, पर आडवाणी ने सारा खेल खराब कर दिया। आखिर में प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर महेश शर्मा की जगह ओम माथुर के भेजने पर बात थमी। इस दौरान जसवंत सिंह ने वाकयुद्ध लगातार जारी रखा और वसुंधरा सरकार की कई नीतियों की खुलेआम आलोचना की। बोलने में वसुंधरा भी कहां पीछे रहने वाली। उन्होंने जसवंत की अगुवाई में उनके खिलाफ लामबंद हुए नेताओं को 'खंडहर' और 'पुरानी हवेली' तक कह डाला। हर चाल पर मात खाने से हताश जसवंत सिंह वसुंधरा को यही कह पाए कि 'एक दिन तो सभी को खंडहर होना है।'
मुख्यमंत्री रहते हुए तो वसुंधरा राजे ने जसवंत को हर चाल पर मात दी, लेकिन अब ऐसा करना मुश्किल है। महारानी के पास अब सरकारी तंत्र नहीं है। उनके खास सिपेहसालार भी अब पाला बदलने लगे हैं। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद पार्टी में भी उनकी पोजीशन पहले जैसी नहीं रही है। जसवंत सिंह भी ऐसे ही मौके की तलाश में थे। सूत्रों के मुताबिक शेखावत के बदले हुए तेवरों के पीछे जसवंत सिंह का ही दिमाग काम कर रहा है। महारानी को सूबे की सियासत से विदा करने का पूरा एक्शन प्लान उन्होंने ही तैयार किया है। दूसरी ओर जसवंत के 'बाबोसा ब्रह्मास्त्र' को एनकाउंटर करने के लिए वसुंधरा ने मानवेंद्र सिंह की सियासी जमीन खिसकाने का रास्ता अपनाया है। यानि दोनों एक-दूसरे को पटकनी देने पर आमादा है। यह तो आने वाला वक्त की बताया कि इस सियासी संघर्ष में किसे जीत मिलती है और किसके हिस्से में हार आती है।

शुक्रवार, जनवरी 23, 2009

जोश में आए जोशी


सूबे के दो कांग्रेसी दिग्गजों के बीच इन दिनों 'नंबर वन' बनने के लिए होड़ मची हुई है। रस्साकशी में एक छोर पर अशोक गहलोत हैं तो दूसरे पर सी।पी. जोशी। सियासत की इस जुगलजोड़ी पर कांग्रेस कभी फक्र किया करती थी, फिर कैसे पनपा दोनों के रिश्तों में छत्तीस का आंकड़ा?

वे कभी अशोक गहलोत के दाएं-बाएं नजर आते थे। लेकिन, अब गहलोत का नाम सुनते ही उनके माथे पर बल पड़ जाते हैं। अक्सर किस्मत को भी कोसते हैं, 'एक वोट से नहीं हारता तो मैं ही गद्दीनशीं होता'। जी हां, आपने ठीक पहचाना हम सूबे के कांग्रेसी निजाम डॉ. सी.पी. जोशी की ही बात कर रहे हैं। मुख्यमंत्री बनने का सपना टूट जाने के बाद जोशी आजकल दस जनपथ के 'लाड़ले' बनने की मुहिम में जुटे हैं। पिछले दिनों वे सोनिया दरबार में लोकसभा चुनाव की तैयारियों की रिपोर्ट के बहाने दिल्ली गए और अपनी बिसात बिछा कर आ गए। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भनक तक नहीं लगी और राजस्थान में राहुल गांधी का कार्यक्रम तय हो गया। जयपुर में हुए इस कार्यक्रम के दौरान यह साफ तौर पर दिखाई दिया कि सूबे की कांग्रेस में इन दिनों वर्चस्व की जंग छिड़ी हुई है। इस कार्यक्रम से जोशी को 'अपरहैंड' मिलता देख गहलोत आलाकमान को ये समझाने में जुटे हैं कि राजस्थान में वे ही कांग्रेस का भला कर सकते हैं। अपनी अहमियत पर आंच आते देख गहलोत, राहुल के साथ ही दिल्ली के लिए उड़ लिए और आलाकमान की मिन्नतें करने में जुट गए।
जोशी और गहलोत के बीच छिड़ी अस्तित्व की यह लड़ाई पारंपरिक नहीं है। कांग्रेस कभी इस जुगलजोड़ी की मिसालें दिया करती थी। छोटे-छोटे निर्णयों पर भी दोनों के बीच गुफ्तगु होती थी, लेकिन अब दोनों एक दूसरे को पटकनी देने पर आमादा है। जब हमने जोशी और गहलोत के बीच पनपे इस मनमुटाव की तह में जाने की कोशिश की तो पता चला कि तनातनी का यह दौर बहुत पहले से चल रहा है। दरअसल, प्रदेशाध्यक्ष बनते ही जोशी ने यह ख्याल पाल लिया कि सूबे की कांग्रेस उनके इर्द-गिर्द ही चक्कर काटेगी। गहलोत भी उन्हें सलाम ठोकेंगे, लेकिन हुआ इसके उलट। गहलोत ने उन्हें किनारे करना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे जोशी को भी इस बात का आभास होने लगा कि वे 'नंबर वन' होने का भ्रम पाले हुए हैं। लिहाजा उन्होंने शीर्ष पर पहुंचने के लिए हाथ-पैर मारना शुरू किया। आलाकमान की नजरों में छा जाने के मकसद से उन्होंने विधानसभा चुनाव से पहले जयपुर में एक बड़ी रैली का प्लान बनाया। दिन-रात मेहनत की। मेहनत रंग भी लाई। रैली में भारी भीड़ उमड़ी। पर, सीपी की सिट्टी-पिट्टी उस समय गुम हो गई जब पूरे आयोजन के लिए सोनिया गांधी ने अशोक गहलोत की पीठ थपथपाई। खुद की बोई फसल को गहलोत के हाथों कटती देखते जोशी के पास तिलमिलाने के अलावा और कोई चारा न था।
विधानसभा चुनाव के दौरान दोनों के बीच की खाई और चौड़ी हो गई। टिकट के दावेदार जोशी को किनारा कर गहलोत की तरफ दौड़ रहे थे। गहलोत चाहे जयपुर रहें या दिल्ली दावेदारों की भीड़ उन्हें घेरे रहती वहीं, जोशी प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में मक्खी मारते हुए दिखते। उपेक्षा से आहत जोशी आखिर कब तक चुप रहते। वे दावेदारों पर यह कहते हुए बरस पड़े कि 'आप लोगों को क्या लोकसभा का चुनाव लडऩा है जो गहलोत जी को घेरे हुए हो, विधानसभा चुनावों के टिकट तो मैं ही फाइनल करूंगा।' जोशी का गुस्सा उस समय और बढ़ जाता है जब आलाकमान टिकट फाइनल करने में गहलोत को उनसे ज्यादा तवज्जो देने लगा। हालांकि टिकट वितरण में उनकी भी चली, लेकिन 'नंबर दो' की हैसियत से। सूत्रों के मुताबिक जोशी ने इस उपेक्षा पर सोनिया गांधी में सामने नाराजगी भी जाहिर की, लेकिन खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। वजह साफ थी। टिकट वितरण पर दस जनपथ को नाराज कर जोशी, सीएम की दौड़ में पिछडऩा नहीं चाहते थे।
विधानसभा के चुनाव हुए। परिणाम कांग्रेस के लिए तो मुफीद रहे, लेकिन जोशी की उम्मीदों को तीन तेरह कर गए। खुद ही चुनाव हार गए। वो भी महज एक वोट से। फिर भी उन्होंने यह समझ कर प्रयास किए कि क्या पता किस्मत जोर मार जाए। जोशी ने खुले तौर पर मुख्यमंत्री बनने की इच्छा जाहिर की। उन्होंने यह कई बार कहा कि 'चुनाव हारने वाला मुख्यमंत्री नहीं बन सकता है, ऐसा संविधान में कहीं नहीं लिखा है।' वरिष्ठ नेता परसराम मदेरणा के हाथ रखने पर एकबारगी तो लगा कि बात बन सकती है। परंतु, एक वोट से मिली हार के बाद फूटी किस्मत पर दस जनपथ ने फेवीकॉल का जोड़ लगाने का मन नहीं बनाया। धीरे-धीरे उनके बगलगीर रहने वाले विश्वासपात्र भी गहलोत के पीछे हो लिए। आखिर में जोशी अकेले पड़ गए और हुआ वही जो वे नहीं चाहते थे। गहलोत को गद्दी मिली। मुख्यमंत्री बनने के बाद गहलोत के तेवर कड़े होने ही थे। टीम बनाने की बारी आई तो गहलोत ने जोशी से रस्म निभाने के लिए मशवरा किया। किया वही जो उन्हें करना था।
सियासत में हर कदम पर मिली मात के बाद दुखियाए जोशी ने एक बार तो राजनीति से तौबा कर हाथ में चॉक थाम फिर से शिक्षक बन कक्षा में जाने का मन बना लिया था। सूत्रों के मुताबिक जोशी ने इसकी तैयारियां भी शुरू कर दी थीं, लेकिन दस जनपथ से मिले संकेतों के बाद उन्होंने अपना इरादा बदल दिया। सूत्रों के मुताबिक सोनिया गांधी ने लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने पर उन्हें उपकृत करने का वादा किया है। इसी के चलते जोशी ने अपना पूरा ध्यान लोकसभा चुनावों पर केंद्रित कर दिया है। उन्होंने 'टारगेट-25' बनाकर आलाकमान को बड़ा सपना दिखाया है। जोशी ने इस बात का भी पूरा ध्यान रखा है कि आम चुनाव में अच्छे प्रदर्शन का श्रेय हमेशा की तरह अशोक गहलोत न हड़प जाएं। वे चुनाव की रणनीति बनाने में गहलोत को एक सीमा तक ही शामिल कर रहे हैं। 'टारगेट-25' भी अकेले जोशी के दिमाग की उपज है।
राहुल गांधी के जयपुर दौरे ने सी.पी. जोशी के लिए 'ऑक्सीजन' का काम किया है। वैस जोशी ने 'युवराज' के दौरे का बेहतरीन उपयोग किया। वे चाहते तो किसी खुले मैदान में भीड़ के सामने राहुल को मंच पर उतार कर शक्ति प्रदर्शन कर सकते थे। पर, जोशी ने कार्यकत्र्ताओं की बजाय बड़े नेताओं के सामने ताकत दिखाना ज्यादा मुनासिब समझा। उनका यह तरीका कारगर भी रहा। आखिर कांग्रेसी दिग्गजों ने भी मान लिया कि पार्टी प्रदेशाध्यक्ष अभी चुके नहीं है। दस जनपथ तक उनके भी रसूख हैं। कार्यक्रम में राहुल गांधी के 'मैं विधानसभा में कांग्रेस की जीत से संतुष्ट नहीं हूं' कहने पर जोशी के चेहरे पर आई मुस्कान और गहलोत के माथे पर उभरी चिंता की लकीरों से कई संकेत मिलते हैं।
राहुल गांधी की उपस्थिति में जोशी ने यह कहते हुए अशोक गहलोत को कठघरे में खड़ा कर दिया कि 'राज में कार्यकत्र्ताओं की भागीदारी के बिना सत्ता परिर्वतन का लक्ष्य अधूरा है।' जोशी यहीं नहीं रूके उन्होंने यह कहते हुए गहलोत पर तंज कसा कि 'विधानसभा चुनावों में जीत पर ज्यादा इतराने की जरूरत नहीं है, क्योंकि कांग्रेस का वोट महज 1.6 प्रतिशत बढ़ा है। लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करना है तो इसे 10 फीसदी तक बढ़ाना होगा।' जोशी-गहलोत में पनपे मनमुटाव से सबसे ज्यादा उलझन में लोकसभा चुनाव लडऩे की तैयारी कर रहे नेता हैं। दो दिग्गजों के बीच हो रही रस्साकशी के बीच कांग्रेसी नेता यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे टिकट की दावेदारी के लिए किसके पास जाएं। वैसे फिलहाल तो दोनों के पास जाने में ही समझदारी है।

रविवार, जनवरी 18, 2009

बोलती बंद


चौतरफा हमलों ने बिंदास बोलने वाली वसुंधरा को बेजुबां कर दिया है। धड़ाधड़ लग रहे आरोपों के बाद भी उनका मौन नहीं टूट रहा है। शेखावत के हमलों के बाद गहलोत सरकार ने भी महारानी पर शिकंजा कस दिया है। आखिर क्यों नहीं निकल पा रही हैं वसुंधरा इस चक्रव्यूह से?

सियासत में सिंहासन पर सवारी करने वालों को ही सलामी मिलती है। वसुंधरा राजे आजकल राजनीति के इसी सच से रूबरू हो रही हैं। विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद शुरू हुए मुसीबतों के दौर ने रफ्तार पकड़ ली है। बाबोसा का बवंडर भयानक तूफान की शक्ल अख्तियार कर रहा है। विरोधी खेमा शेखावत के साथ हो लिया है। संघ हिसाब चुकता करने पर आमादा है। किरोड़ी सुलह के मूड में नहीं हैं। परंपरागत झालावाड़ सीट खतरे में है। अशोक गहलोत ने पिछली सरकार की करतूतों पर कार्रवाई का मन बना लिया है। कुल मिलाकर महारानी को सियासी पटकनी देने की पूरी तैयारी हो रही है। इस चक्रव्यूह से निकलने के लिए वसु मैडम इधर-अधर हाथ-पैर मार रही हैं, लेकिन इस किलेबंदी को भेदने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा है।
विधानसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं आने पर महारानी को सूबे की सियासत से विदा करने की अटकलें लगाई जा रही थीं। सूत्रों के मुताबिक राजनाथ सिंह ने तो इसके लिए पूरा मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की पहल पर वसुंधरा को 'जीवनदान' मिल गया। दरअसल, महारानी प्रतीक्षारत आडवाणी को यह समझाने में कामयाब रहीं कि सूबे में बागियों की वजह से उनका करिश्मा काम नहीं आया, लोकसभा चुनाव में यदि उन्हें 'फ्री हैंड' दिया गया तो वे पिछला प्रदर्शन दोहराने में कामयाब होंगी। आडवाणी के कहने पर राजनाथ सिंह ने सूबे की भाजपा में वसुंधरा की बादशाहत तो कायम रखी, लेकिन लोकसभा चुनाव तक सबकुछ ठीक करने की नसीहत के साथ।
नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद वसुंधरा 'डेमेज कंट्रोल' की तैयारी कर ही रही थीं कि 'बाबोसा' ने ताल ठोक दी। शेखावत थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, एक के बाद एक आरोप लगाते जा रहे हैं। भैरों सिंह की इस मुहीम से महारानी की छवि को खासा नुकसान हुआ है। शेखावत, वसुंधरा के लिए बड़ा सिरदर्द हैं। उनका हर कदम महारानी के लिए परेशानी बढ़ाने वाला है। वैसे भी भाजपा के पास शेखावत को लेकर तीन ही विकल्प हैं पहला, उन्हें मान-मनौव्वल कर शांत किया जाए दूसरा, उन्हें पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ाया जाए और तीसरा उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। शेखावत के तल्ख रुख को देखकर पक्के तौर पर यह कहा जा सकता है कि वे चुप बैठने वालों में से नहीं हैं। यदि पार्टी उन्हें टिकट देती है और वे जीत कर आते हैं तो फिर सूबे की सियासत से वसुंधरा का पत्ता साफ होने में देर नहीं लगेगी। पार्टी उन्हें टिकट नहीं देती है तो वे खुद तो चुनाव लड़ेगे ही बाकी सीटों पर उम्मीदवार भी खड़े करेंगे। हालांकि इनमें से जीतने वालों की संख्या बहुत कम होगी, लेकिन वे भाजपा के उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में तो रहेंगे ही।
शेखावत इफैक्ट को अपने हाल पर छोड़ दें तो भी महारानी की मुसीबतें कम नहीं हैं। विधानसभा चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला 'कास्ट फैक्टर' अभी भी भाजपा के पक्ष में नहीं है। भाजपा की ओर से सुलह के ठंडे पड़ते प्रयासों के बीच किरोड़ी लाल मीणा ने कांग्रेस की ओर रुख कर लिया है। कांग्रेस पहले ही उनकी पत्नी गोलमा देवी को मंत्री बनाकर उपकृत कर चुकी है। सूत्रों के मुताबिक किरोड़ी कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लडऩा चाहते हैं। कांग्रेस भी इसके लिए तैयार हो गई है, बस सीट को लेकर मशक्कत चल रही है। यदि ऐसा होता है तो भाजपा को बड़ा नुकसान होना तय है, क्योंकि मीणा वोटर आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर हार-जीत तय करने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर, विश्वेंद्र सिंह भले ही विधानसभा चुनाव में हार गए हों, लेकिन वसुंधरा के जाट विरोधी होने के मैसेज की मरहम-पट्टी अभी तक नहीं हुई है। जाटों को मनाने में देरी घातक हो सकती है, क्योंकि कांग्रेस जाटों को कुछ ज्यादा ही तवज्जों दे रही है। गुर्जरों के मामले में वसुंधरा अभी भी दुविधा में है। भाजपा के खैरख्वाह कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की समाज पर कमजोर होती पकड़ से उलझन और बढ़ गई है। फिलहाल, भाजपा गुर्जर आरक्षण का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोडऩे की रणनीति पर काम कर रही है। पार्टी राज्यपाल के पास लंबित आरक्षण विधेयक पर हस्ताक्षर करने की लगातार मांग कर गुर्जरों को यह समझाने का प्रयास कर रही है कि वसुंधरा सरकार ने तो आरक्षण दे दिया है, पर कांग्रेस की वजह से उन्हें इसका लाभ नहीं मिल रहा है। हालांकि आम गुर्जर इस बात को मानने को तैयार नहीं है।
लोकसभा चुनाव में पिछले प्रदर्शन को दोहराने में वसुंधरा के लिए संघ का रवैया भी एक बड़ी बाधा है। पुष्ट सूत्रों के मुताबिक संघ का एक धड़ा भाजपा में महारानी के बढ़ते कद से चिंतित है। संघ को इस बात का डर सता रहा है कि वसुंधरा आने वाले समय में नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती बन सकती हैं। संघ महारानी को मोदी के मुकाबले खड़ा करना नहीं चाहता। वैसे भी मुख्यमंत्री बनने के बाद वसुंधरा और संघ के रिश्तों में कड़वाहट ही आती गई। मुख्यमंत्री रहते हुए महारानी ने कभी भी आरएसएस को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। संघ ने भी उनकी कई नीतियों की खुली आलोचना की। शेखावत के सक्रिय होने से वसुंधरा और संघ में समझौता होने के आसार और कम हो गए हैं। संघ के सक्रिय नहीं होने की स्थिति में आडवाणी द्वारा दिए टारगेट को पूरा कर पाना वसुंधरा के बूते में नहीं होगा।
लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के दबाव के बीच वसुंधरा को स्वयं के सियासी भविष्य की चिंता भी सता रही है। उनकी दो चिंताए हैं पहली, लोकसभा चुनाव में पार्टी की कम से कम 15 सीटें निकालना और अपने पुत्र दुष्यंत सिंह को झालावाड़ में विजयी बनाना। यदि उनकी दोनों चिंताएं सही साबित हुर्इं तो महारानी की स्थिति 'न घर की रहेगी न घाट की'। एक ओर लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करने पर उनका नेता प्रतिपक्ष का ओहदा बचा पाना मुमकिन नहीं होगा वहीं, दुष्यंत सिंह हार गए तो परंपरागत झालावाड़ सीट से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस दुविधा से निकलने के लिए वसुंधरा कई रास्तों पर विचार कर रही हैं। उनके पास पहला विकल्प यह है कि वे 'रणछोड़' बन कर झालवाड़ से लोकसभा का चुनाव लड़ केंद्र की राजनीति की ओर रुख करें और फिर दुष्यंत सिंह का झालारापाटन से विधायक का चुनाव लड़वाया जाए। इससे उनकी परंपरागत सीटें भी बच जाएंगी और भैरों सिंह शेखावत सहित विरोधियों के तेवर भी ढीले पढ़ जाएंगे। बस, दिक्कत एक ही है, यदि केंद्र में एनडीए की सरकार नहीं बनी तो वे महज एक सांसद बन कर रह जाएंगी। दूसरे विकल्प के तौर पर ऐसे में महारानी राज्य की राजनीति में ही सक्रिय रहकर झालावाड़ से किसी और को उम्मीदवार बनाने के बारे में भी सोच रही हैं।
चारों ओर से घिरी महारानी को शिकस्त देने का अशोक गहलोत को अच्छा मौका मिला है। उन्होंने वसुंधरा के शासनकाल की खामियों को ढूंढ़, घेरने की पूरी तैयारी कर ली है। शेखावत की सनसनी के बाद गहलोत ने अपना अभियान और तेज कर दिया है। दीनदयाल ट्रस्ट मामले में वसुंधरा सहित छह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुकी है और इसी प्रकार के अन्य मामलों की पड़ताल हो रही है। गहलोत बड़ी चतुराई से रणनीति पर काम कर रहे हैं। वे जांच को तसल्ली से आगे बढ़ा रहे हैं ताकि लोगों को यह नहीं लगे कि 'बदले की भावना' से कार्रवाई हो रही है, बल्कि यह मैसेज जाए कि 'वे इसी लायक थीं।'

शुक्रवार, जनवरी 09, 2009

शेखावत की सनसनी


सूबे की सियासत में भैरों सिंह शेखावत की सक्रियता से वसुंधरा खेमा स्तब्ध है। महारानी को राजनीति में 'एंट्री' दिलाने वाले शेखावत अब उन्हें 'आउट' करने में जुटे हैं। आखिर क्यों आई दोनों के मधुर रिश्तों में खटास?

भैरों सिंह शेखावत। ग्यारह बार विधायक चुने गए। तीन बार मुख्यमंत्री रहे। और फिर देश के उपराष्ट्रपति बने। राजनीति का ऐसे मंझे हुए खिलाड़ी से किसी गलती की उम्मीद करना बेमानी है। लेकिन उनसे गलती हुई। गलती सियासत का वारिस चुनने में। इस गलती को उन्होंने मान भी लिया है और ठीक करने की मुहीम भी शुरू कर दी है। संकेतों को छोड़ सीधी बात करें तो भैरों सिंह शेखावत ने वसुंधरा राजे को सूबे की सियासत से विदा करने के योजना पर अमल करना शुरू कर दिया है। शेखावत ने वसुंधरा को राजस्थान से हटाने और पार्टी के शुद्धिकरण की बात कहकर भाजपा में भूचाल ला दिया है। उन्होंने वसुंधरा के नेतृत्व वाली पूर्व सरकार के खिलाफ 22 हजार करोड़ रुपए के भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच पूर्व न्यायाधीश की अध्यक्षता में करा पूरा पैसा दोषियों से वसूलने की मांग करके पार्टी के लिए नया संकट खड़ा कर दिया है। शेखावत के राजस्थान से लोकसभा का चुनाव लडऩे की घोषणा करने के बाद भले ही राजनैतिक विश्लेषक इसे आडवाणी के लिए खतरा और राजनाथ सिंह के लिए चुनौती बता रहे हों, लेकिन भैरों सिंह को करीब से जानने वालों की मानें तो उनका निशाने पर केवल वसुंधरा हैं। वे उन्हें राजस्थान से विदा करके ही दम लेंगे। 'बाबोसा' के तीखे तेवरों से घबराई महारानी यह पता लगाने में जुटी हुई हैं कि शेखावत किस बात से नाराज हुए हैं? कौनसा फैसला उन्हें खटक गया है?
वसुंधरा राजे को सियासत में सफलता का स्वाद चखाने का श्रेय भैरों सिंह शेखावत को ही जाता है। वसुंधरा भिंड-मुरैना से लोकसभा का चुनाव हारने के बाद शेखावत के संपर्क में आईं। राजमाता विजयराजे सिंधिया की बेटी होने के कारण शेखावत ने भी उनकी तरफ पूरा ध्यान दिया और 1985 के विधानसभा चुनाव में धौलपुर से टिकट दिया। वसुंधरा यहां से जीत तो गईं, लेकिन शेखावत इससे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने वसुंधरा को लोकसभा में भेजने के लिए झालावाड़ में मैदान तैयार किया। यहां से 1989 में पहली बार जीतने के बाद महारानी ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे यहां से लगातार पांच बार सांसद रहीं। इस दौरान शेखावत उपराष्ट्रपति का चुनाव जीत गए। राजस्थान से विदा होने से पहले शेखावत ने एक ऐसे नेता की तलाश शुरू की जो उनकी राजनीतिक विरासत को संभाल सके। आखिर में वसुंधरा को उन्होंने अपना वारिस बनाया। युवा, तेजतर्रार और भरोसेमंद मानकर शेखावत अपनी विरासत उन्हें संभला गए। विधानसभा चुनाव नजदीक थे। पार्टी ने उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर दिया। चुनावों में महारानी का जादू चला और भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल करते हुए 120 सीटें हासिल कीं। वसुंधरा राज्य की पहली मुख्यमंत्री बनीं। शेखावत और महारानी के बीच गुरू-शिष्य परंपरा ने यहीं से दम तोडऩा शुरू कर दिया।
राजनीति में सत्ता का सुरूर बहुत जल्दी सिर चढ़ता है। वसुंधरा ने सत्ता संभालते ही पार्टी अपना अलग कैडर विकसित करने की चाहत से शेखावत समर्थकों को किनारे करना शुरू किया। शेखावत का दूत बनकर जसवंत सिंह ने कई बार रिश्तों में आई खटास में चाशनी घोलने की कोशिश की, लेकिन बात बनने की बजाय बिगड़ती ही गई। तवज्जो नहीं मिलने सेे जसवंत सिंह नाराज अलग से हो गए। उन्होंने विरोधी खेमे को लामबंद कर मोर्चा खोल लिया। शेखावत के विश्वस्त होने के नाते पार्टी के तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष ललित किशोर चतुर्वेदी भी उनके साथ हो लिए। वसुंधरा सरकार की नीतियों की खुलेआम आलोचना की जाने लगी। सांसद कैलाश मेघवाल ने तो मुख्यमंत्री पर करोड़ों के घोटाले का आरोप जड़ दिया। मेघवाल, शेखावत के खास सिपेहसालार हैं। वे उनके मुख्यमंत्रित्वकाल में तीनों बार मंत्री रहे। इन बयानों ने वसु मैडम के तेवरों को और तीखा कर दिया। उन्होंने ललित किशोर चतुर्वेदी की जगह महेश शर्मा को सूबे में पार्टी का निजाम बनवाकर विरोधियों को पस्त करने का कोशिश की, लेकिन इससे अदावत और तेज हो गई।
गुर्जर आरक्षण आंदोलन के दौरान दोनों खेमों के बीच रिश्ते और पेचीदा हो गए। सूत्रों के मुताबिक आंदोलन के दौरान उपजे हालातों से शेखावत काफी व्यथित थे। उन्होंने इसके लिए वसुंधरा राजे को जिम्मेदार ठहराते हुए केंद्रीय नेतृत्व से राज्य में मुख्यमंत्री बदलने की मांग भी की। राजस्थान के कई भाजपा नेताओं ने नेतृत्व परिर्वतन की मांग को लेकर दिल्ली में डेरा डाले रखा। राजनाथ सिंह तो एक बार वसुंधरा को विदा पर राजी हो गए थे, लेकिन आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हुए। मामले को दबाने के लिए फेरबदल के नाम पर महेश शर्मा की जगह ओम माथुर प्रदेशाध्यक्ष बना दिया। ओम माथुर के साथ काम करने में भी महारानी ने काफी ना-नुकर किया। लालकृष्ण आडवाणी तक से गुहार लगाई कि चुनाव से ऐन पहले कोई परिवर्तन करना सही नहीं है। लेकिन राजनाथ सिंह ने निर्णय नहीं बदला। विरोधी खेमा अभी भी महारानी की विदाई की कोशिश कर रहा था। एक-दूसरे की ओर से तल्ख टिप्पणियां भी हो रही थीं। वसुंधरा ने बोखलाहट में पार्टी के दिग्गज नेताओं को 'खंडहर' तक कह दिया। उनका सीधा इशारा भैरों सिंह शेखावत की ओर ही था। कुलीनों का कुनबा कही जाने वाली भाजपा में पार्टी स्तर पर इतनी तल्ख बयानबाजी पहली बार देखने को मिली।
उपराष्ट्रपति के रूप में कार्यकाल समाप्त होने के बाद शेखावत समर्थकों ने उन पर फिर से राज्य की राजनीति में सक्रिय होने का दबाव बनाना शुरू किया, लेकिन वे इसे टालते रहे। राज्य के अलग-अलग हिस्सों से नेता और कार्यकर्ता बड़ी संख्या उनसे वसुंधरा सरकार की कार्यशैली का विरोध जताने आने लगे। कई लोग तो यहां तक उलाहना देते थे कि 'बाबोसा आप ही लाए थे इन्हें'। इस बीच चुनाव का समय नजदीक आ गया। टिकट की मारामारी शुरू हो गई। लाख कोशिशों के बाद भी शेखावत के कुछ ही समर्थक टिकट पाने में कामयाब रहे। उन्हें अपने दामाद नरपत सिंह राजवी को टिकट दिलवाने के लिए खासी मशक्कत करनी पड़ी। सूत्रों के मुताबिक शेखावत की गुहार पर राजनाथ सिंह के दखल के बाद राजवी का टिकट दिया गया। राजवी को यह कहकर टिकट देने में आनाकानी की गई कि किसी को भी सीट बदलने की इजाजत नहीं दी जाएगी। जबकि राजेंद्र सिंह राठौड़ का नाम बदली हुई सीट पर पहली लिस्ट में ही फाइनल हो गया। इतना ही नहीं राजवी को हराने के लिए भी कई भाजपाईयों ने खूब कोशिश की। पार्टी सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा नहीं चाहती थीं कि राजवी जीतें। अपने दामाद की हालत पतली होते देख आखिर में प्रचार अभियान की कमान शेखावत को संभालनी पड़ी। सभाएं की, जनसंपर्क किया, फोन किए। राजवी तो जीत गए, लेकिन शेखावत की टीस और गहरी हो गई।
विधानसभा चुनाव में भाजपा की हार के बाद शेखावत ने वसुंधरा को राजस्थान की राजनीति से विदा करने का पूरा प्रयास किया। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने राजनाथ-आडवाणी के सामने भाजपा की हार के लिए जिम्मेदार वसुंधरा की कारिस्तानियों का तफसील से ब्योरा रखा। उन्होंने लोकसभा चुनावों का वास्ता देकर वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष नहीं बनाने की बात भी कही। पर उनकी एक नहीं सुनी गई। पार्टी स्तर पर हर मोर्चे पर लगातर हुई उपेक्षा से आहत शेखावत का लावा उस समय फूट पड़ा जब कोटा में उनके समर्थकों ने वसुंधरा सरकार की कारगुजारियों के लिए उन्हें ब्लेम किया। शेखावत ने लोकसभा चुनाव लडऩे की घोषणा करते हुए वसुंधरा पर खूब बरसे। उन्होंने इस बात पर अफसोस जाहिर किया कि मैं ही उन्हें राजस्थान की राजनीति में लाया था, लेकिन उनके नेतृत्व में सरकार राह भटक गई और लोगों की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरी। वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने वसुंधरा को विदा करने की बात भी कही। शेखावत को करीब से जानने वाले यह अच्छी तरह जानते हैं कि वे जो कहते हैं कर गुजरते हैं। शेखावत बयान देकर ठहरने वालों में से नहीं हैं। अब सिर्फ यह देखना बाकी है कि वे अपने कहे को अंजाम तक कैसे पहुंचाते हैं।

शुक्रवार, जनवरी 02, 2009

सुरूर पर सख्ती


गहलोत ने नशे पर नकेल कसते हुए अवैध शराब कारोबारियों को शिकंजे में लेने के बाद मयखाने खुलने के समय में चार घंटे की कटौती की है। मदहोश होकर वाहन चलाने वालों के खिलाफ अभियान पहले से ही चल रहा है। सुरा के खिलाफ सरकार के इस संघर्ष को लोगों का भारी समर्थन मिल रहा है।

रात के आठ बजने को हैं। दुकान के बाहर ग्राहकों की अच्छी खासी भीड़ जमा है। लेकिन दुकानदार की नजरें ग्राहकों पर कम घड़ी पर ज्यादा हैं। ठीक आठ बजते ही हाथ में पैसे लिए खड़े ग्राहकों को किनारे कर दुकानदार शटर खींच ताला जड़ देता है। चौंकिए मत, यह नजारा आजकल सूबे की शराब की दुकानों पर आम है। सरकार के आदेश के बाद राज्य के मयखाने सुबह दस बजे खुलते हैं और रात को आठ बजे बंद हो जाते हैं। पहले शराब की दुकानों का समय सुबह नौ बजे से रात ग्यारह बजे तक था, लेकिन सच्चाई यह थी कि ये दुकानें अल सुबह खुलने वाली दूध की डेयरियों से पहले खुल जाती थीं और रात को इन पर समय का कोई नियंत्रण नहीं था।
विधानसभा चुनाव में वसुंधरा सरकार की आबकारी नीति भी एक बड़ा मुद्दा थी। कांग्रेस ने प्रचार के दौरान 'बातें दूध की और दुकाने दारू की' जुमले के साथ वसुंधरा राजे पर खूब कटाक्ष किए। दरअसल, पिछली सरकार ने शराब माफिया पर शिकंजा कसने के नाम पर आबकारी नीति में किए गए बदलावों का दूसरा ही रूप सामने आया। सरकार ने बेहिसाब शराब की दुकानों के लाइसेंस बांटे। सरकार पर सुरा का ऐसा सुरूर चढ़ा की मयखाना खोलने के लिए न तो मंदिर से गुरेज किया और न ही पाठशाला से परहेज। दुकान खोलने के लिए बने सारे नियम-कायदों को ताक पर रख दिया। गली-गली मदिरालय खुल गए। सरकार ने इनके भीतर-बाहर पीने की अघोषित अनुमति दे दी। शराब की दुकानें बार में तब्दील हो गईं। खुलेआम जाम छलकाने की पाबंदी का असर गायब हो गया। नशे में धुत्त लोग खुलेआम सड़कों पर नजर आने लगे। छेड़छाड़ की घटनाएं बढ़ गईं। दुर्घटनाओं में इजाफा हुआ। कुल मिलाकर पूरे राज्य में नशे के कारोबारियों की एक समानांतर व्यवस्था विकसित हो गई। धीरे-धीरे परंपरागत रूप से हथकढ़ शराब से जुड़े तत्व भी इससे जुड़ते गए। आबकारी विभाग के उस संशोधन ने जिसके अनुसार पुलिस का दखल लगभग समाप्त कर दिया था, अवैध शराब के कारोबारियों के हौसलों को परवान चढ़ाया। कुल मिलाकर एक ऐसी सुरा संस्कृति का जन्म हुआ, जिसकी कल्पना प्रदेशवासियों ने नहीं की थी।
गहलोत के सत्ता संभालने से ठीक पहले जयपुर जिले के हनतपुरा में जहरीली शराब पीने से 23 लोगों की मौत हो गई थी। पीडि़त लोगों के दर्द ने मुख्यमंत्री को झकझोर कर रख दिया। वहीं से उन्होंने नशे पर नकेल डालने की ठान ली। सबसे पहले अवैध शराब के कारोबारियों पर शिकंजा कसने के लिए मुख्यमंत्री ने तीन महीने की कार्ययोजना तैयार की। इसके तहत आबकारी विभाग और पुलिस ने संयुक्त रूप से अभियान शुरू कर दिया है। अब तक हजारों लीटर अवैध शराब नष्ट की जा चुकी है। यह कार्रवाई पहले से अलग है। पहले आबकारी विभाग अवैध शराब को नष्ट तो कर देता था, लेकिन कुछ समय बाद वहां फिर से कारोबार शुरू हो जाता था। कई स्थानों पर तो आबकारी विभाग की शह पर ही यह काम होता था। ऐसा नहीं हो इसके लिए मुख्यमंत्री ने दोनों विभाग के अधिकारियों को पाबंद करते हुए जबावदारी तय कर दी है। गहलोत ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि कहीं भी दुबारा काम शुरू नहीं होना चाहिए। राज्य में मुख्यमंत्री स्तर पर अवैध शराब के खिलाफ इस तरह की पहल पहली बार देखने में आ रही है।
राजमाता गायत्री देवी के पोते और होटल रामबाग के निदेशक विजित सिंह के 'हिट एंड रन' मामले के बाद गहलोत ने नशे के कारोबार के खिलाफ बड़ी कार्रवाई का मन बना लिया। गौरतलब है कि शराब के नशे में धुत्त विजित सिंह कॉलेज छात्रा बबीता को कार से कुचलने के बाद भाग गया था। पुलिस ने विजित पर धारा 304 ए व 185 के तहत मुकदमा दर्ज कर कुछ ही देर में जमानत पर छोड़ दिया। लोगों में आक्रोश बढऩे पर गहलोत ने पुलिस अधिकारियों की क्लास लेते हुआ पूछा कि जब सलमान और संजीव नंदा के मामले में धारा 304 लग सकती है तो विजित के खिलाफ क्यों नही? सीएम की फटकार के बाद पुलिस ने विजित के केस में धारा 304 भी जोड़ दी। विजित मामले के बाद परिवहन विभाग के तेवर भी सख्त हो गए। ट्रेफिक पुलिस ने शराब पीकर वाहन चलाने वालों पर कार्रवाई तेज हो गई है। इससे दुर्घटनाओं के अलावा छेड़छाड़ की घटनाओं में भी कमी आने की उम्मीद है।
गहलोत ने जिस समय शराब की दुकानें खुलने के समय में कटौती का आदेश जारी किया तो लोगों ने शराब माफिया के सक्रिय होने, गश्त के दौरान पुलिस के भ्रष्ट होने और तस्करी बढऩे सरीखी आशंका जताई थी। लेकिन सरकार के कड़े रवैये के चलते सारी आशंकाएं निर्मूल साबित हुईं। सरकार की सख्ती के चलते आठ बजते ही दुकानें पूरी तरह से बंद हो जाती हैं। अधिकारियों को स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि वे नियमों की पालना सुनिश्चित करें। नियम तोडऩे वाले दुकानदारों के लाइसेंस निरस्त किए जाएं। सरकार ने इसके लिए आबकारी प्रवर्तन दस्ते को पुलिस के बराबर अधिकार दिए हैं। शराब माफिया-आबकारी-पुलिस गठजोड़ को पनपने से रोकने के लिए ढिलाई बरबतने वाले अफसरों पर कार्रवाई का प्रावधान भी किया गया है। सरकार इस बात का पूरा ध्यान रखा है कि सिस्टम की ओर से कोई चूक नहीं हो। गहलोत के इरादों को अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि शराब की दुकानों के समय में कटौती का आदेश जारी होते ही आबकारी विभाग ने तुरत-फुरत में फोन और एसएमएस से दुकानदारों को सूचना दी और आठ बजते-बजते पुलिस ने समूचे प्रदेश में दुकानें बंद करा दीं। नशाखोरी के खिलाफ सरकार की ओर से चलाए जा रहे अभियान का लोगों का भारी समर्थन मिल रहा है। लोग शराब माफिया के खिलाफ धीरे-धीरे लामबंद हो रहे हैं। राज्यों के अलग-अलग हिस्सों से शराब की दुकानों को जबरन बंद कराने की घटनाएं एकाएक बढ़ गई हैं। अनेक स्थानों पर विद्यार्थियों, महिलाओं एवं व्यापारियों ने नशे के खिलाफ मुहिम छेड़ रखी है।
शराब की दुकान खुलने के समय में की गई कटौती को मिले व्यापक जनसमर्थन के बाद सरकार ने नई आबकारी नीति बनाने की कसरत शुरू कर दी है। धार्मिक स्थलों और शैक्षणिक संस्थानों के पास खुली दुकानों का बंद होना तो तय माना जा रहा है। नई नीति में सरकार राजस्व में न्यूनतम कटौती पर शराब की दुकानों में अधिकतम कमी करना चाहती है। सूत्रों के मुताबिक सरकार का मयखानों में 30 फीसदी कमी का इरादा है। इसके लिए सरकार के पास दो विकल्प हैं। पहले विकल्प के तहत सरकार अंग्रेजी व देशी शराब की दुकान का एक ही लाइसेंस जारी कर सकती है। इससे दुकानों की संख्या में भारी कमी आएगी और राजस्व पर भी असर नहीं पड़ेगा। राज्य में देशी शराब की 6660 दुकानें हैं। दूसरे विकल्प के तहत दुकानों की लाइसेंस फीस दुगुनी की जा सकती है। इससे दुकानें कम होने पर भी राजस्व में कमी नहीं होगी। इसके अलावा सरकार केरल, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु व कर्नाटक की तर्ज पर देशी शराब की बिक्री पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की संभावना पर भी विचार कर रही है। इसके विकल्प के तौर पर सस्ती अंग्रेजी शराब की बिक्री शुरू की जा सकती है। इससे शराब की दुकानों की संख्या में तो कमी आएगी ही शराब तस्करी और अवैध हथकढ़ शराब के उत्पादन पर भी अंकुश लगेगा। सरकार ने 'ड्राई डे' की संख्या को फिर से सात करने का मन बनाया है। नई आबकारी नीति में इनकी संख्या घटाकर चार कर दी गई थी।