सोमवार, दिसंबर 14, 2009

अब तो शर्म करो चिकने घड़ों

संसद पर हमले की आठवीं बरसी की श्रद्धांजलि सभा में मात्र ग्यारह सांसदों की उपस्थिति अपने फर्ज से उदासीन होते राजनेताओं की एक और शर्मनाक दास्तां है। यह संसद और सदस्यों की रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले जांबाजों की शहादत का तो अपमान है ही, लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं हैं। हालांकि माननीय सांसदों के लिए श्रद्धांजलि सभा में जाना अनिवार्य नहीं था, लेकिन वे जाते तो देश की हिफाजत करने वाले जवानों का हौसला बढ़ता और यह संदेश भी जाता कि आतंक के खिलाफ युद्ध में देश की संसद पूरी तरह से एकजुट है। पिछले कुछ दिनों में ही राजनेताओं के व्यवहार की बानगी पूरे देश ने देखी। सदस्यों की अनुपस्थिति के चलते लोक सभा में प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा, राज्यसभा में जब लगातार छह सांसद प्रश्नकाल में गैरहाजिर रहे, तो सभापति को कहना पड़ा कि लोक सभा का वायरस राज्यसभा में भी आ गया है और पंजाब विधानसभा में तो सदस्यों ने सदन को अखाड़ा ही बना दिया और आपस में ही पिल पड़े। अलबत्‍ता नेताओं ने लोक तंत्र को कलंकित करने वाली इनसे भी बड़ी ढेरों कारगुजारियां की हैं, लेकिन इन दिनों न केवल इनकी संख्‍या में इजाफा हुआ है, बल्कि इस मर्ज की गिरफ्त में आने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्‍या में भी खासा इजाफा हुआ है। इस तरह के नेता अब कम ही बचे हैं, जिनके आचरण को मिसाल के तौर पर पेश कि या जा सके । ऐसा करके नेता जनता के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं। आखिर जनता ऐसे नुमाइंदों को कब तक बर्दाश्त करेगी, जो अपने कर्तव्यों को निभाने की बजाय लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं।
सवाल यह है कि जनप्रतिनिधि अपनी जिस्मेदारियों से मुंह क्‍यों चुरा रहे हैं? वे न तो सदन में नजर आते हैं, न ही सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ करने वाले कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते हैं। यह देश की राजनीति के बदलते चेहरे और चरित्र की विसंगतियां हैं। सत्‍तर के दशक तक यह माना जाता था कि राजनीति सेवा का एक माध्यम है और राजनेता जनसेवक । चुनाव जीतने का एक ही नुस्खा था - जनता के बीच रहो और काम करो, लेकिन अब राजनीति, चुनाव और नेता तीनों के मायने बदल गए हैं। आम राजनेता का न तो उद्देश्य जनसेवा रह गया है और न ही उसके चरित्र में इतना बल बचा है कि वह काम और जनसंपर्क के दम पर चुनाव जीत लें। राजनीति में टिके रहने के लिए वे अपने कार्यों की बजाय हथकंडों पर निर्भर रहते हैं। ये हथकंडे तरह-तरह से मतदाताओं को लुभाने से लेकर शक्ति प्रदर्शन, सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे और अंतत: बूथों पर कब्‍जे तक जाते हैं। हैरत इस बात पर होती है कि राजनेताओं का लोकतंत्र के विरुद्ध अमर्यादित आचरण रोकने के लिए मीडिया, आयोग या न्यायपालिका जितने उपाय निकालते हैं, राजनेता अमर्यादित आचरण करने के उससे ज्यादा तरीके निकाल लेते हैं। इस सांप-सीढ़ी के खेल से देश कब तक बच पाएगा? जब नेताओं के आचरण पर हो-हल्ला मचता है, तो वे ऐसा बहाना बनाते हैं कि उनकी बुद्धिमता पर हंसी आती है। जाहिर है, यह सच से मुंह मोडऩे का एक उपाय भर है। इससे उबरना तभी संभव है जब राजनेता खुद अपनी नैतिक जिस्मेदारी महसूस करें। आचरण और चरित्र की पवित्रता में वे रुचि लें और इसके लिए संकल्पबद्ध हों। अनुशासित होना इसकी पहली शर्त है। क्‍या देश के नेताओं से आम जनता को ऐसी उम्‍मीद करनी चाहिए?

शनिवार, दिसंबर 05, 2009

फिर न हो पुरानी चूक


प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा से बातचीत में केंद्र की ओर से बरती जा रही सावधानी पूरी तरह से जायज है। असम में आतंक के पर्याय रहे इस संगठन पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है। सरकार 1992 के अपने कड़वे अनुभवों को दोहराना नहीं चाहती। उस समय बातचीत को जरिया बनाकर उल्फा ने अपने पांच नेताओं को रिहा करवा लिया था। अनूप चेतिया के नेतृत्व में वार्ता के लिए जेल से रिहा किए गए ये पांचों नेता तब बांग्लादेश भाग गए थे और आतंकी गतिविधियों को फिर से शुरू कर दिया था। अच्छी बात है कि सरकार ने अपनी पिछली गलती से सबक लिया है, लेकिन असम में शांति स्थापित करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। यह वह समय है जब सरकार की चतुराई उल्फा को जमींदोज कर सकती है। संगठन के कमांडर इन चीफ परेश बरुआ को छोड़कर वर्तमान में इस संगठन के लगभग सभी शीर्ष नेता सुरक्षा एजेंसियों के कब्जे में हैं। उल्फा को खड़ा करने वाले अरविंद राजखोवा भी भारत के सामने हथियार डाल चुके हैं। उनका आत्मसमर्पण यह साबित करने के लिए काफी है कि लगातार कमजोर हो रहा यह संगठन अब समझौते की राह पर है। यह ऐसी स्थिति है जब सरकार अपनी शर्र्तों के आधार पर समझौता करवा सकती है। असम के मुख्यमंत्री के सुझाव पर भी गौर करना जरूरी है। वे चाहते हैं कि उल्फा नेताओं को सुरक्षित रास्ता दे दिया जाए, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि वे आजाद होने के बाद फिर से उल्फा को मजबूत कर कत्लेआम नहीं मचाएंगे? क्या उल्फा के सरगनाओं को माफी देना उन लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं है, जो बरसों से जारी हिंसा का शिकार हुए हैं?
केंद्र सरकार ने इस मसले पर जो रुख अपना रखा है, उसे देखकर तो यह लगता है कि वह इस बार दबाव में कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। वार्ता शुरू करने से पहले यह तय कर लेना समझदारी है कि बातचीत किनसे की जानी है और किन मुद्दों पर होनी है। जब तक अरविंद राजखोवा संप्रभुता की मांग को नहीं छोड़ते हैं, बातचीत का कोई अर्थ नहीं है। परेश बरुआ की भूमिका को भी सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है। वे वर्तमान में सबसे अधिक ताकतवर हैं और अब तक भारत की पकड़ से बाहर हैं। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजखोवा की ओर से किए गए समझौते को वे मानने से इनकार कर दें। ध्यान रहे ऐसा पहले भी हो चुका है। 2005 में उल्फा ने वार्ता के लिए 11 सदस्यीय दल पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप (पीसीजी) बनाया था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने इस समूह के साथ तीन दौर की बातचीत की थी, लेकिन इसमें उल्फा के किसी बड़े नेता के शामिल नहीं होने से कोई नतीजा नहीं निकला। सरकार को पता होना चाहिए कि उल्फा अब इतना मजबूत नहीं रहा है कि उसकी शर्र्तों के सामने झुका जाए। सरकार को वार्ता के लिए तब ही तैयार होना चाहिए, जब उल्फा हिंसा और संप्रभुता की मांग छोड़ दे। असम में शांति स्थापित करने के लिए उन अपराधियों को माफी नहीं दी जा सकती, जिनके हाथ हजारों बेगुनाहों के खून से रंगे हैं। केंद्र सरकार को इसी रुख पर कायम रहना चाहिए कि आत्मसमर्पण करने वाले उल्फा नेताओं को न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा और बातचीत संविधान के दायरे में रहकर ही की जाएगी।

शुक्रवार, दिसंबर 04, 2009

पुरानी चाल का नया चोला


अफगानिस्तान-पाकिस्तान मुद्दा अमेरिका के लिए गले की फांस बनता जा रहा है। उसने कभी नहीं सोचा होगा कि इन दोनों मुल्कों में संघर्ष इतना लंबा खिंचेगा। वह यहां पर कार्रवाई रोक भी नहीं सकता, क्योंकि ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा मिट्टïी में मिल जाएगी। अपनी नाक बचाए रखने के लिए जीतना उसकी मजबूरी है। अमेरिका जीत सुनिश्चित करने के लिए पुराने ढर्रे पर लौट आया है। बराक ओबामा ने ना-नुकुर करते हुए आखिरकार अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने की इजाजत दे दी है। नई अफ-पाक नीति बनाने में अमेरिकी रणनीतिकारों ने खूब माथापच्ची की है, लेकिन इसकी सफलता पर कई तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं।
अफगानिस्तान में तालिबान को मात देने के लिए अमेरिका ने 30 हजार नए सैनिक उतारने का फैसला किया है। साथ ही यह भी कहा गया है कि इस बार लड़ाई निर्णायक होगी और जीतने पर डेढ़ साल में उनके सैनिक वापस घर लौट आएंगे। यह पहला मौका है, जब अमेरिका ने सैनिकों की तैनाती के साथ, उनकी वापसी के लिए कोई समय सीमा निर्धारित की है। अफगानिस्तान में अतिरिक्त सैनिकों की तैनाती से अमेरिकी सैनिकों की संख्या करीब एक लाख हो जाएगी। एक साल में इस पर 30 अरब अमेरिकी डॉलर (करीब 13 अरब रुपये) का खर्च आएगा। सैनिकों की तैनानी और बढ़ते खर्चे से ज्यादा चिंता अमेरिका को आठ साल से जारी जंग को जीतने की है। अफगानिस्तान में फतह हासिल करना अमेरिका के लिए नाक का सवाल बन गया है। ओबामा भी स्वीकार करते हैं कि अफगानिस्तान दूसरा वियतनाम नहीं है। जो लोग ऐसा कह रहे हैं, वह इतिहास की गलत व्याख्या कर रहे हैं। अफगानिस्तान छोड़ देना अल-कायदा और तालिबान के हौसले को बुलंद करेगा। इससे अमेरिका और उसके सहयोगियों पर तथा हमलों का जोखिम पैदा हो जाएगा।
ओबामा अफगानिस्तान में सैनिक बढ़ाने के हिमायती नहीं रहे हैं, पर उन्हें मजबूरी में यह फैसला लेना पड़ा। अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सेना के शीर्ष कमांडर जनरल स्टैनली मैकक्रिस्टल ने चेतावनी दी थी कि तालिबान के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अभियान में यदि अतिरिक्त सैनिक नहीं भेजे गए तो अफगानिस्तान में अमेरिका का यह अभियान संभवत: असफल हो जाएगा। मैकक्रिस्टल ने ओबामा को भेजी गुप्त आकलन रिपोर्ट में कहा था कि अफगानिस्तान में तालिबान के साथ जारी संघर्ष में अमेरिका की असफलता बढ़ रही है और आने वाले समय में आतंकवादी गतिविधियां फिर से तेज हो सकती हैं। ओबामा प्रशासन ने मैकक्रिस्टल के तर्र्कों पर सहमत होते हुए सैनिकों की संख्या तो बढ़ा दी है, लेकिन डेढ़ साल के भीतर फतह हासिल करना उसके लिए आसान नहीं है। अफगानिस्तान में स्थिति दिनों-दिन खराब होती जा रही है। पाकिस्तान में छिपे आतंकियों ने दुबारा मोर्चा संभाल लिया है। फिलहाल उनके निशाने पर नाटो सेना के अड्डे और विदेशी दूतावास हैं। आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले एक साल में ही 500 से ज्यादा नाटो सैनिक आत्मघाती हमलों में हताहत हो चुके हैं। अमेरिका द्वारा सैनिकों की संख्या बढ़ाने से ये हमले और बढ़ सकते हैं। ओबामा प्रशासन को अफगान नागरिकों के गुस्से की चिंता भी खाए जा रही है। पिछले दस साल से हिंसा का दंश झेल रही जनता अमेरिका की भूमिका से कतई खुश नहीं है। मैकक्रिस्टल ने अपनी रिपोर्ट में भी इसका खुलासा किया था। इसी का नतीजा है कि अमेरिका ने सैनिक बढ़ाने के फैसले के साथ इस तर्क को जोड़ा है कि वे अफगानी नागरिकों को बेहतर जीवन सुनिश्चित करने की दिशा में काम करेंगे। अमेरिका ने राष्ट्रपति हामिद करजई को भी चेतावनी भरे लहजे में कह दिया है कि वे नतीजे दें या हटने को तैयार रहें।
अमेरिका पाकिस्तान की स्थिति पर भी खासा परेशान है। ओबामा ने अपने भाषण में जिस तरह से कहा कि पाकिस्तान आतंकियों का सुरक्षित ठिकाना बन गया है, उसे देखकर कहा जा सकता है कि वह अब नरमी बरतने वाला नहीं है। अमेरिका को यह अहसास होने लगा है कि पाकिस्तान हुक्मरान भलमनसाहत के लायक नहीं हैं। अमेरिका ने आतंकियों के नेटवर्क को ध्वस्त करने के लिए ड्रोन हमले बढ़ाने के आदेश तो दे दिए हैं, लेकिन इसका विपरीत असर भी पड़ सकता है। आतंकी पलटवार करते हुए आत्मघाती हमलों की संख्या में और इजाफा कर सकते हैं। पहले ही यहां की जनता हिंसा से त्रस्त है और अमेरिका से नाराज है। आने वाले वक्त में यह गुस्सा और भड़क सकता है। ओबामा प्रशासन भी इस खतरे से वाकिफ है। वो आतंकियों का सफाया करने के साथ-साथ आम जनता से हमदर्दी जताना नहीं भूल रहे हैं। पाकिस्तान को दी जानी वाली सहायता मेें की गई भारी वृद्धि को इस रूप में देखा जा सकता है। पाकिस्तानी जनता और सेना इस बात को अच्छी तरह जानती है कि अमेरिका से मिलने वाली आर्थिक सहायता का क्या मतलब है? यदि मदद नहीं मिलती है, तो पाकिस्तान की स्थिति क्या हो सकती है? अमेरिका के लिए परेशानी की बात यह है कि पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठनों को जिन्हें पहले आईएसआई बढ़ावा दे रही थी, अब कई राज्यों में विद्रोह कर रहे हैं। पाकिस्तानी सेना और आईएसआई इस बात को लेकर काफी आत्मविश्वास में थे कि वे लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों को काबू में कर लेंगे, लेकिन आतंकवादी संगठनों का इतिहास बताता है कि इस तरह के संगठनों को लंबे समय तक दबाकर नहीं रखा जा सकता है। अमेरिका इस बात की काफी नजदीक से जांच-पड़ताल करेगा कि आईएसआई इस तरह के संगठनों को किसी तरह की आर्थिक सहायता न पहुंचा पाए। साथ ही इस बात को भी देखेगा कि इस तरह के संगठन जनता से पैसों की उगाही के लिए कोई खतरनाक तरीका न अपना सकें। यदि पाकिस्तानी सेना और सरकार अमेरिका और दूसरे अन्य देशों से आर्थिक सहायता हासिल करना चाहती है, तो उसे जिहादी संगठनों के खिलाफ प्रतिबंध लगाना होगा।
नई अफ-पाक नीति में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भारत का संदर्भ भले ही न दिया हो, लेकिन दोनों मुल्कों को आतंक का सुरक्षित ठिकाना बताकर उन्होंने दिल्ली को राहत पहुंचाई है। यही नहीं पाकिस्तान में मौजूद परमाणु अस्त्र आतंकियों के हाथ लगने की आशंका जताकर भी ओबामा ने वही किया है, जिसकी उम्मीद भारतीय खेमे को थी। अफगानिस्तान क्षेत्र में सैन्य दबाव बढ़ाने के अमेरिकी फैसले पर भारत को संतोष होना चाहिए। भारत फिलहाल यही चाहता है कि अमेरिका कहीं से भी पाक और अफगानिस्तान में अपना दबाव कम न करे, जहां आतंकी भारत विरोधी करतूतों की साजिश रच रहे हैं। यह तय है कि अफ-पाक नीति में भारत की दिलचस्पी दो स्तर पर ज्यादा होती है। पहला, पाक में मौजूद आतंकी संगठनों पर अमेरिकी शिकंजा कसने की झलक इस नीति में भारत हमेशा तलाशता है। दूसरा, अफगानिस्तान में भारत की भूमिका को लेकर अमेरिका की प्रतिक्रिया। इस लिहाज से ओबामा की नई अफ-पाक नीति भारत की इच्छा के मुताबिक है।

पृथ्वी को बचाने की पहल


भारत ने कार्बन उत्सर्जन में 25 फीसदी कमी करने की घोषणा कर साबित कर दिया है कि वह धरती को बढ़ते ताप से बचाने की दिशा में पूरी ईमानदारी से जुटा हुआ है। यह कमी 2005 की तुलना में होगी और इसके लिए 2020 तक का समय तय किया गया है। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर होने वाले अहम सम्मेलन से पहले भारत का कार्बन उत्सर्जन में कटौती का फैसला मायने रखता है। हालांकि इसकी इस आधार पर आलोचना की जा सकती है कि भारत अमेरिका और चीन के दबाव के सामने झुक गया है, फिर भी व्यापक दृष्टिकोण से भारत की सराहना होनी चाहिए। कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से भारत दुनिया में चौथे पायदान पर है, लेकिन वह ग्लोबल वार्र्मिंग पर लगाम कसने के लिए शीर्ष तीनों देशों- चीन, अमेरिका और रूस से न केवल ज्यादा फ्रिकमंद है, बल्कि संजीदा भी है। भारत इस दिशा में पहले से ही नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज (एनएपीसीसी) पर काम कर रहा है, जिसमें आठ अभियान - सौर, उन्नत ऊर्जा दक्षता, हिमालय के पर्यावरण को बनाए रखने, हरा-भरा भारत, कृषि और तापमान परिवर्तन के लिए रणनीतिक ज्ञान शामिल है। इसके विपरीत चीन और अमेरिका कार्बन उत्सर्जन में कटौती के मसले पर गाहेबगाहे आनाकानी करते रहे हैं। हालांकि उन्होंने कटौती के लक्ष्य निर्धारित कर दिए हैं, लेकिन इन्हें हासिल कैसे किया जाएगा, यह स्पष्ट नहीं है। क्या जलवायु परिवर्तन इतनी छोटी समस्या है कि इससे निपटने के लिए महज दिखावा किया जाए? आखिर चीन और अमेरिका अपनी जिम्मेदारी कब समझेंगे? क्या ये देश नाममात्र का कार्बन उत्सर्जन करने वाले मुल्कों पर दबाव बनाकर दुनिया को विनाश की ओर नहीं धकेल रहे हैं?
अमेरिका ने 2020 तक उत्सर्जन में 17 फीसदी तक की कटौती का लक्ष्य रखा है, जो 2005 के स्तर से कम है। चीन ने कहा है कि वह 2020 तक सकल घरेलू उत्पाद की प्रति यूनिट ऊर्जा तीव्रता में 40-45 फीसदी तक की कमी करेगा। अगर 1990 के स्तर की बात करें, तो अमेरिका द्वारा उत्सर्जन में की गई यह कटौती महज तीन फीसदी बैठती है। इसके अलावा अमेरिका घरेलू लक्ष्यों तक ही सीमित बना हुआ है और बहुराष्ट्रीय कानूनी बाध्यता को लेकर किए गए समझौते से दूरी बनाए हुए है। चीन का भी यही हाल है। उसने संकेत दिया है कि कार्बन उत्सर्जन में इजाफा तो बरकरार रहेगा, लेकिन इसकी रफ्तार में कमी आएगी। इसमें चीनी अर्थव्यवस्था के विकास की गति की शर्त अलग से जुड़ी हुई है। यदि चीन की अर्थव्यवस्था सात फीसदी प्रति वर्ष की दर से बढ़ती है, तो उसका उत्सर्जन 50 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से अधिक है। अगर अर्थव्यवस्था 10 फीसदी की दर से विकास करती है, तो यह उत्सर्जन 150 फीसदी तक बढ़ेगा जो 2005 के स्तर से काफी अधिक है। क्या ये आंकड़े साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं कि चीन और अमेरिका पृथ्वी को बचाने के लिए कोरी गप्पबाजी कर रहे हैं? यदि इन दोनों मुल्कों का यही रवैया रहा, तो कोपेनहेगन में भी कुछ खास हासिल होने वाला नहीं है। ऐसी स्थिति में जब जब पृथ्वी के अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है, तो विकसित देशों को संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठते हुए बढ़ते ताप पर लगाम कसने के लिए ईमानदार प्रयास करने चाहिए। इसमें जितनी देर होगी खतरा उतना ही बड़ा होता जाएगा।

गुरुवार, दिसंबर 03, 2009

चिंतन से आगे


गहलोत सरकार की ओर से दो दिन के चिंतन के बाद की गई घोषणाएं सुशासन के स्वप्न को साकार करने में मददगार साबित हो सकती हैं, बशर्ते इन पर ईमानदारी से अमल हो। यह अच्छी बात है कि सरकार अपने एक साल के कामकाज की समीक्षा कर रही है, लेकिन इसकी सार्थकता खामियों को दुरुस्त करने की दिशा में पहल करने पर ही है। सरकार ने गांव, गरीब और किसान को केंद्र में रखते हुए हर क्षेत्र में विकास का इरादा जाहिर किया है। भले ही इसका मकसद पंचायत चुनावों में मतदाताओं का लुभाना हो, लेकिन इनके दम पर राज्य में विकास को गति तो दी ही जा सकती है। अच्छा काम कर राजनीतिक लाभ हासिल करने में बुराई ही क्या है? सरकार की ओर से की गई घोषणाओं में सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'नई कृषि नीतिÓ बनाने का फैसला है। राज्य में किसान जिस तरह की समस्याओं से जूझ रहे हैं, उन्हें देखते हुए लंबे समय से पृथक कृषि नीति की आवश्यकता महसूस की जा रही थी। देर से ही सही सरकार ने किसानों की सुध तो ली। इस घोषणा से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि सरकार इसमें ऐसे उपायों को शामिल करे, जिससे किसानों को अपना जीवन त्रासद नहीं लगे। हर गांव के लिए अलग मास्टर प्लान बनाने का निर्णय भी अपने आप में ऐतिहासिक है। जनसंख्या की बढ़ती रफ्तार को देखते हुए गांवों का नियोजित विकास समय की मांग है। मास्टर प्लान बनने से गांवों की बसावट तो व्यवस्थित होगी ही, पानी के निकास की भी समुचित व्यवस्था होगी। निजी अस्पतालों में गरीबों के ऑपरेशन की घोषणा कर सरकार ने यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि राज्य में इलाज की कमी की वजह से किसी की मौत नहीं हो।
सरकार ने नगरीय विकास की प्रतिबद्धता को भी दोहराया है। हर शहर के लिए 'सिटी डवलपमेंट प्लानÓ बनाने की घोषणा बेतरतीब ढंग से बढ़ रहे शहरों को नियोजित करने में कारगर साबित हो सकती है। अवैध रूप से विकसित हो रही कॉलोनियों पर लगाम कसने के लिए 'नई टाउनशिप पॉलिसीÓ की घोषणा भी एक स्वागतयोग्य कदम है। इससे न केवल भूमाफियाओं पर लगाम कसेगी, बल्कि शहरों को योजनाबद्ध ढंग से विकसित करने में भी मदद मिलेगी। सरकार 26 जनवरी से 'प्रशासन शहरों के संगÓ अभियान भी शुरू करने जा रही है। यह एक सफल प्रयोग है, जिसमें आम जनता को छोटे-छोटे कामों के लिए दफ्तरों में चक्कर नहीं काटने पड़ते। क्या सरकार हमेशा के लिए ऐसी व्यवस्था नहीं कर सकती कि लोगों को प्रशासन एक ही स्थान पर सहज रूप से उपलब्ध हो जाए? शहरों में ही नहीं, गांवों में भी ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि प्रशासन गांवों से ही सबसे अधिक दूर होता है। पटवारियों और ग्रावसेवकों को मोबाइल देने से संवाद जरूर कायम होगा, लेकिन महज इससे दूरी पटने वाली नहीं है। दो दिन के गहन चिंतन-मनन के बाद लोकलुभावन घोषणाएं करने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि इन्हें पूरा नहीं करना आत्मघाती साबित होता है। जनता वोट की चोट से एक बार में ही हिसाब बराबर कर लेती है। सरकार का मुखिया होने के नाते यह उनकी जिम्मेदारी है कि वह मंत्रियों और अधिकारियों को इन घोषणाओं को मूर्त रूप देने के लिए पाबंद करें। सिर्फ उनके जवाबदेह बनने से काम नहीं चलेगा, सरकार से जुड़े हर शख्स की जिम्मेदारी तय करना भी उन्हीं का काम है। जब तक यह नहीं होगा न तो चिंतन का कोई अर्थ है और न ही घोषणाओं का।

बुधवार, दिसंबर 02, 2009

अपूरणीय क्षति


राज्यपाल एस.के. सिंह का निधन न केवल राजस्थान, बल्कि समूचे देश के लिए एक अपूरणीय क्षति है। राजस्थान के राज्यपाल के तौर पर वे यह साबित करने में कामयाब रहे कि राज्यपाल का पद महज संवैधानिक प्रधान का नहीं होता। वे मुख्यमंत्री व मंत्रियों को शपथ दिलाने और राजकीय मेहमानों के स्वागत-सत्कार तक ही नहीं सिमटे, बल्कि राज्य के जनजीवन से जुडऩे में सफल रहे। इस उपक्रम में उन्होंने सरकार का विरोध झेलने से भी परहेज नहीं किया। जनहित से जुड़े मुद्दों पर बेबाकी और साफगोई से बोलने का साहस उनके पास ही था। चाहे प्रदेश में शिक्षा के स्तर की बात हो या आरक्षण का मुद्दा, वे पूरी शिद्दत से सक्रिय रहे। विश्वविद्यालयों में शोध के स्तर पर वे खासे चिंतित थे। उन्होंने इसके सुधार के लिए महत्वपूर्ण सुझाव भी प्रस्तुत किए थे। शोध ही नहीं, शिक्षण पद्धति, परीक्षा प्रणाली आदि पर वे समय-समय पर मार्गदर्शन करते रहे। निजी विश्वविद्यालयों की बेतरतीब स्थापना पर उन्होंने कड़ा एतराज जताते हुए कहा था कि इससे शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होगी। आरक्षण व्यवस्था में आई विकृतियों पर उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए, उनसे असहमत तो हुआ जा सकता है, लेकिन नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे इस मायने में भी खास थे कि वे शिकायत करने से ज्यादा ध्यान समस्या के समाधान करने पर देते थे। उनका मकसद जनमानस को उद्वेलित करने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि वे उसे बदलाव के लिए भी तैयार करते थे। असल में उन्होंने राजस्थान के राज्यपाल रहते हुए भारतीय लोकतंत्र के इस पद की गरिमा व मान बढ़ाने के साथ-साथ इसकी प्रासंगिकता को भी सिद्ध किया।
एस. के. सिंह जहां भी रहे, उन्होंने अपने काम की छाप छोड़ी। उनकी गिनती देश के शीर्ष राजनयिकों में होती थी। विदेश सेवा में रहते हुए उन्होंने शानदार काम किया। जिस समय कश्मीर मसले पर पाकिस्तान ने राजनीति शुरू की थी, तो सिंह अमेरिका जाकर इस मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र को तटस्थ बनाने में न केवल कामयाब हुए, बल्कि यह आश्वासन लेने में भी सफल रहे कि संयुक्त राष्ट्र संघ शिमला समझौते का समर्थक है, जिसमें सभी मुद्दों पर द्विपक्षीय चर्चा का प्रावधान है। सिंह पाकिस्तान में सर्वाधिक समय तक राजदूत रहे, वह भी उस दौर में जब दोनों देशों के बीच संबंधों में तनाव चरम पर था। उन्होंने न केवल कश्मीर में पाकिस्तान की दखलंदाजी से संबंधित कई महत्वपूर्ण सूचनाएं भारत को दीं, बल्कि दोनों के संबंधों को पटरी पर लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चीन को कूटनीतिक मोर्चे पर घेरने में भी उनके योगदान को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल रहते हुए उन्होंने इस क्रम को बरकरार रखा। अरुणाचल समेत समूचे पूर्वोत्तर में आधारभूत ढांचे के विकास में उनका सक्रिय योगदान रहा। महात्मा गांधी के विचारों को अपने जीवन में आत्मसात कर उन्होंने पूरी दुनिया में मानवाधिकार के क्षेत्र में काम किया। एक मायने में उन्होंने गांधी के दूत के रूप में कार्य करते हुए गांधी दर्शन को जन-जन तक पहुंचाने का प्रयास किया। अपने काम के दम पर उन्होंने पाकिस्तान, अफगानिस्तान, जॉर्डन, लेबनान व साइप्रस में भारतीय राजदूत रहते हुए इन देशों अपने अनगिनत शुभचिंतक पैदा किए। व्यापक कार्यक्षेत्र और बहुमुखी प्रतिभा के धनी एस. के. सिंह का असामयिक निधन से जो शून्य पैदा हुआ है, उसे भर पाना नामुमकिन है।

मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

जनप्रतिनिधियों का आचरण


भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सोमवार को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पहली बार कार्यवाही इसलिए स्थगित करनी पड़ी, क्योंकि प्रश्न पूछने वाले अधिकांश सांसद अपने सवाल का जवाब जानने के लिए सदन में उपस्थित नहीं थे। सांसदों का बंक मारना अब कोई नई बात नहीं रही है, लेकिन कम से कम उनसे यह उम्मीद तो की जाती है कि अपने प्रश्न का जवाब सुनने के लिए वे सदन में हाजिर रहें। माननीय सदस्यों के सवाल का जवाब तैयार करने के लिए सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ती है और इसके लिए संबंधित विभागों के मंत्रियों को तैयारी भी करनी पड़ती है। इस समूचे प्रकरण का शर्मनाक पहलू यह रहा कि माननीय सदस्यों ने लोकसभा अध्यक्ष को अपने नहीं आने की सूचना देना भी उचित नहीं समझा। इस संदर्भ में देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद से लेकर राज्य विधानसभा और ग्राम पंचायत तक में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का यह गैर जिम्मेदाराना आचरण एक 'फैशनÓ का रूप अख्तियार कर चुका है, जो लोकतंत्र की सेहत के लिए एक खतरनाक बीमारी से किसी तरह कम नहीं है। नेताओं की इस प्रवृत्ति से सभी दल दुखी हैं और कांग्रेस व भाजपा सहित सभी दलों के प्रमुख अपनी पार्टी से चुनकर आने वाले सभी सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने की कई बार सख्त हिदायतें दे चुके हैं। लोकसभा अध्यक्ष और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष भी निर्वाचित सदस्यों को बार-बार चेता रहे हैं कि उनकी अनुपस्थिति से कई महत्वपूर्ण निर्णय अटक जाते हैं। इन तमाम प्रयासों के बावजूद नेताओं के आचरण में सुधार नहीं आना चिंता का विषय है।
नेताओं के इसी आचरण से दुखी होकर सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए कहा था, 'संसद में अब न तो कोई प्रश्न करता है और न ही कोई किसी मुद्दे पर बहस करता है। बस शोर-शराबा करता है और धरना देता है, क्योंकि सांसदों को ऐसा लगता है कि शोर-शराबा करने और धरना देने से मीडिया का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित होगा और इसका उन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा।Ó संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर औसतन 26,035 रुपए खर्च आता है। ऐसे में समय और जनता के धन की कीमत हमारे जनप्रतिनिधियों को भलीभांति समझनी चाहिए। बेलगाम होते जनप्रतिनिधियों के इस आचरण का उपचार न तो दंडात्मक कार्रवाई में है और न ही पार्टी प्रमुखों की हिदायतों में। आम मतदाता ही नेताओं की बैठकों से नदारद रहने की गैर जिम्मेदाराना प्रवृत्ति को सुधार सकता है। अब लोगों के पास सूचना के अधिकार का एक ऐसा हथियार है, जिसके जरिए अपने प्रतिनिधि की पाई-पाई का हिसाब रखा जा सकता है। जब लोगों में जागरुकता आएगी और वे ऐसे लोगों को चुनाव में नकारना शुरू करेंगे, तो नेताओं की अक्ल अपने आप ठिकाने आ जाएगी। जनता को प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, लेकिन वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। ऐसे में वापस बुलाने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए, ताकि जनहित की अनदेखी करने वाले प्रतिनिधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके। मतदाताओं की जागरुकता और जनप्रतिनिधियों की कर्तव्यनिष्ठा के बिना भारत के महाशक्ति बनने के देशवासियों के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता है।