शनिवार, दिसंबर 27, 2008

कीमती किरोड़ी

किरोड़ी लाल मीणा सूबे की सियासत के केंद्र में हैं। जहां भाजपा घर वापसी के लिए मान-मनौव्वल में जुटी है वहीं, कांग्रेस सत्कार को तैयार खड़ी है। किरोड़ी पत्ते खोलने की बजाय दोनों के बीच कदमताल कर रहे हैं। क्या होगी उनकी अगली चाल?

कथाक्रम मई 2007 से शुरू होता है। गुर्जर आरक्षण के मसले पर सरकार के रवैये से तिलमिलाए किरोड़ी लाल मीणा सीएम हाऊस जाकर वसुंधरा राजे को खूब खरी-खोटी सुनाते हैं। महारानी मौन रहती हैं। सियासत की अपनी शैली के एकदम विपरीत। आंदोलन समाप्त होता है। महारानी एक-एक की खबर लेना शुरू करती हैं। निशाने पर होते हैं किरोड़ी। उन्हें किनारे करने की रणनीति के तहत कई मीणा विधायकों को समानांतर खड़ा किया जाता है। खाद्य एवं आपूर्ति मंत्रालय के अधिकारों पर भी केंची चलती है। इस बीच गुर्जर आरक्षण आंदोलन का दूसरा दौर शुरू हो जाता है। किरोड़ी फिर सक्रिय होते हैं। सरकार पर दबाव बनाने के लिए मीणा विधायकों से इस्तीफे का आह्वान करते हुए पत्नी के हाथों खुद का इस्तीफा भिजवाते हैं। भाजपा और किरोड़ी के रिश्तों को लगी शनि की साढ़े साती यहीं समाप्त नहीं होती है। वसुंधरा के राज को जंगलराज बताते हुए मीणा समूचे सूबे का दौरा करते हैं। चुनाव का मौसम आते ही प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर और कोषाध्यक्ष रामदास अग्रवाल को भी लपेटे में ले लेते हैं। दोनों को टिकटों का सौदागर बताते हुए कहते हैं, 'जिनकी हैसियत वार्ड पंच का चुनाव जीतने की नहीं है वे प्रत्याशियों का चयन करते हैं।' अदावत पर आमादा किरोड़ी के खिलाफ निर्णायक कार्रवाई तय होती है। टिकट काटा जाता है। विरोधियों को चुन-चुनकर टिकट बांटे जाते हैं। किरोड़ी भाजपा के खिलाफ खुली जंग का ऐलान करते हैं। परिणाम भी उनके मुताबिक आते हैं। भाजपा को एक दर्जन से ज्यादा सीटों का सीधा नुकसान। वसुंधरा सरकार की विदाई में अहम भूमिका निभाने वाले 'किरोड़ी फैक्टर' को नहीं सुलझाने की यह टीस भाजपा के किसी भी नेता के मुंह से सुनी जा सकती है।
विधानसभा चुनाव में पार्टी की खिलाफत कर मैदान में उतरने वालों में से किरोड़ी सबसे ज्यादा फायदे में रहे। खुद जीते, पत्नी गोलमा देवी को मंत्री पद मिला, समर्थक विजयी हुए और विरोधियों को करारी शिकस्त मिली। चुनाव परिणामों ने इस दिग्गज मीणा नेता के लिए संजीवनी का काम किया। कल तक उनकी सियासत समाप्त करने में जुटे भाजपाई अब उनकी मान-मनौव्वल में लगे हैं। पार्टी लोकसभा चुनाव से पहले 'किरोड़ी फैक्टरÓ को सुलझाना चाहती है। पार्टी की ओर से राजेंद्र सिंह राठौड़ और एस.एन. गुप्ता लगातार किरोड़ी के संपर्क में हैं। चर्चा तो यहां तक चली थी कि मीणा को नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी दी जा सकती है। सूत्रों के मुताबिक मीणा का घर वापसी का मन भी बना था, लेकिन प्रदेश भाजपा का शीर्ष नेतृत्व राह में रोड़ा बन गया। जहां किरोड़ी, ओम माथुर और वसुंधरा के रहते घर वापसी के मूड में नहीं है वहीं, लोकसभा चुनाव सिर पर होने की वजह से केंद्रीय नेतृत्व बदलाव नहीं करना चाहता है। राजनाथ सिंह की ओर से ओम माथुर को 'फ्री हैंड' मिलने के बाद किरोड़ी से सुलह की संभावना और कम हो गई है। माथुर ने बागियों के लिए 'प्रवेश निषेध' की नीति अपनाते हुए कड़ी कार्रवाई के संकेत दिए हैं। वैसे दोनों के बीच शुरू से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है। माथुर को बाहरी और थोपा हुआ अध्यक्ष कहने के बाद किरोड़ी उन्हें 'टिकटों का दलाल' तक कह चुके हैं। हालांकि माथुर ने खुले तौर पर किरोड़ी के खिलाफ कुछ नहीं बोले, लेकिन अंदरखाने सबक सिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। सूत्रों के मुताबिक महारानी तो किरोड़ी से सुलह के पक्ष में थीं पर माथुर नहीं माने। उन्हीं के कहने पर किरोड़ी का टिकट काटा गया। ऐसे में यदि वसुंधरा खेम की ओर से किरोड़ी को मनाने के प्रयास जारी रहे तो माथुर के अंदर की घुटन गरम लावे की तरह कभी भी बाहर आ सकती है।
सूबे में भाजपा से रूठने वालों का स्वाभाविक ठिकाना कांग्रेस होता है। पर किरोड़ी के कदम कुछ ठिठके हुए हैं। वहज साफ है वे 'यूज एंड थ्रो' की स्थिति से दो-चार होना नहीं चाहते। विश्लेषकों के मुताबिक कांग्रेस को किरोड़ी की जरूरत तो है, लेकिन सरकार चलाने के लिए कम लोकसभा चुनाव के लिए ज्यादा। यही वहज है कि कांग्रेस की ओर से न तो किरोड़ी को मनाने की ज्यादा कोशिशें नहीं हुईं और न ही किसी बड़े नेता ने उनसे संपर्क किया। हालांकि किरोड़ी, राहुल गांधी और सोनिया गांधी के राजनीतिक सलाहकार अहमद पटेल के अलावा अशोक गहलोत, दिग्विजय सिंह व मुकुल वासनिक से कई बार मिल चुके हैं। कांग्रेस की ओर से इस बात का ध्यान जरूर रखा गया कि किरोड़ी को नाराज होना का कोई बहाना न मिले। गहलोत सरकार के गठन के समय भी उनसे बात की गई। सूत्रों के मुताबिक उन्हें मंत्री बनाने का प्रस्ताव भी दिया गया। राजी नहीं होने पर उनकी पत्नी को राज्य मंत्री बनाया। केंद्रीय मंत्री नमोनारायण मीणा की उपस्थिति के कारण भी कांग्रेस सोच-समझकर कदम उठा रही है। किरोड़ी के कांग्रेस में आने से दोनों नेताओं में वर्चस्व की लड़ाई छिड़ सकती है। आने वाले दिनों में मीणा बिरादरी के दो दिग्गजों के बीच संतुलन कायम करना कांग्रेस के लिए कड़ी चुनौती होगी। किरोड़ी को भी इसका अहसास है कि कांग्रेसे के कुनबे में जाने से उन्हें नमोनारायण की कड़ी चुनौती मिलेगी। भाजपा में वे मीणा समाज के इकलौते बड़े नेता थे, लेकिन कांग्रेस में ऐसा नहीं होगा। किरोड़ी किसी कीमत पर समाज में अपनी पकड़ कमजोर नहीं करना चाहेंगे।
किरोड़ी को करीब से जानने वाले बताते हैं कि उनकी मनोदशा को भांपना सहज नहीं है। 'वेट एंड वॉच' की स्थिति के बीच पल-पल बदलते बयान राजनैतिक विश्लेषकों को उलझा देते हैं। किरोड़ी एक ओर कहते हैं कि मैं राजनीति में शुद्धिकरण की लड़ाई लड़ रहा हूं। ओम माथुर और वसुंधरा राजे की तानाशाही के खिलाफ मैंने आवाज उठाई और जनता ने हमारा साथ दिया। भाजपा का नेतृत्व अभी भी उन्हीं पर भरोसा कर रहा है। लोकसभा चुनाव में फिर से सबक सिखाएंगे। भाजपा की करारी हार तय है। साथ ही संघ की विचारधारा पर कायम रखने का जिक्र करते हुए कहते हैं भाजपा तो मेरा घर है। वहीं, दूसरी ओर गहलोत सरकार को समर्थन देने, पत्नी गोलमा का मंत्री पद लेने और बार-बार कांग्रेस के बड़े नेताओं से संपर्क साधने की वजह से कांग्रेस के कुनबे में जाने के कयास भी ठंडे नहीं पड़ते हैं। किरोड़ी का मन टटोलने की कोशिश की तो 'कांग्रेस और भाजपा के बीच खड़े होकर कदमताल कर रहा हूं' कहते हुए सवाल को टाल गए। कांग्रेस के प्रति 'सॉफ्ट कॉर्नर' के बारे में पूछे जाने पर 'अब कोई इतना ख्याल रखे तो हमारा भी तो कुछ फर्ज बनता है...' कहते हुए आगामी कदम का संकेत दे दिया। कांग्रेस में जाने के कयासों को पुष्ट करते हुए उनकी पत्नी गोलमा देवी कहती हैं 'मैं कांग्रेस के समर्थन पर कायम रहूंगी। न तो खुद भाजपा में जाऊंगी और न ही इन्हें जाने दूंगी।'

गुरुवार, दिसंबर 18, 2008

हाथी ने उड़ाए होश


सूबे की सियासत में तेज रफ्तार से बढ़ता हाथी, हाथ के लिए चुनौती बन गया है। विधानसभा चुनाव में बसपा के प्रदर्शन से कांग्रेस के कान खड़े हो गए हैं। लोकसभा चुनावों में मायावती की टीम कई सीटों पर कांग्रेस को उलझा सकती है। क्या सोनिया बिग्रेड बसपा इफेक्ट से निपट पाएगी?

मरुधरा में सियासत का सिरमौर बनने के बाद कांग्रेस ने दिल्ली की गद्दी पर फिर से काबिज होने की कवायद तेज कर दी है। गहलोत की ताजपोशी के बाद पार्टी को लोकसभा चुनाव में राजस्थान से काफी उम्मीदें हैं, लेकिन कड़ी टक्कर देने की तैयारी कर रही भाजपा के अलावा मजबूत होती बसपा ने कांग्रेस को मुसीबत में डाल दिया है। मायावती की प्रधानमंत्री बनने की महत्त्वाकांक्षा यहां भी खतरा बनती नजर आ रही है। विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी के दमदार प्रदर्शन से कांग्रेस में खलबली मची हुई है। पार्टी को परंपरागत वोट बैंक खिसकने का भय सता रहा है। प्रदेश में बसपा को सीटें तो 6 ही मिलीं, लेकिन बाकी आंकड़े चौंकाने वाले हैं। पार्टी के उम्मीदवार 10 सीटों पर दूसरे और 71 पर तीसरे स्थान पर रहे। वोट प्रतिशत तकरीबन दोगुना होकर 7.6 प्रतिशत पर पहुंच गया। बसपा विधानसभा चुनाव के प्रदर्शन को आम चुनावों में भी दोहराने की पूरी तैयारी कर ली है। छह सीटों पर तो उम्मीदवार भी घोषित कर दिए हैं और प्रचार अभियान भी शुरू हो गया है।
राजस्थान का वोटर शुरू से ही द्विदलीय व्यवस्था में विश्वास रखता आया है। तीसरी ताकत बनने का प्रयास कई सियासी पार्टियों ने किए पर सफलता नहीं मिली। फिलहाल बसपा इस मकसद में कुछ हद तक कामयाब होती दिख रही है। उत्तर प्रदेश में सफल हुई 'सोशल इंजीनियरिंग' को राजस्थान में भी शुरूआती सफलता मिल रही है। मायावती ने उत्तर प्रदेश में सत्ता संभालने के बाद जिन क्षेत्रों में पार्टी की स्थिति मजबूत करने की दिशा में ध्यान देना शुरू किया उनमें राजस्थान मुख्य है। उन्होंने सबसे पहले पार्टी के संगठनात्मक ढांचे को मजबूत करने पर जोर दिया। प्रदेश के कई हिस्सों में सभाएं की। अप्रैल में आयोजित 'सर्वसमाज भाईचारा बनाओ रेली' में उमड़ी भारी भीड़ के बाद कयास लगाए जा रहे थे कि पार्टी इस बार के चुनावों में अच्छी उपस्थिति दर्ज करवा सकती है।
बसपा की रणनीति देखकर साफ संकेत मिलता है कि मायावती राजस्थान की 'कास्ट केमिस्‍िटी' को अच्छी तरह समझ गई हैं। वे दलित व अल्पसंख्यकों के अलावा राज्य की राजनीति में दखल रखने वाले 'प्रेशर ग्रुप्स' को अपना टारगेट बना रही हैं। हालांकि वे अपनी रणनीति में पूरी तरह से सफल नहीं हो पाई हैं। उत्तर प्रदेश में सोशल इंजीनियरिंग के सूत्रधार माने जाने वाले अनंत मिश्र ने राजस्थान ब्राह्मण महासभा के अध्यक्ष व कांग्रेसी नेता भंवर लाल शर्मा को पार्टी में लाने की पुरजोर कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। जाट मतदाताओं पर पकड़ बनाने के लिए मायावती ने अपनी सरकार के काबीना मंत्री लक्ष्मीनारायण चौधरी को राजस्थान भेजा। उन्होंने जाट बाहुल्य इलाकों का सघन दौरा किया। बसपा को समर्थन देने पर जाट मुख्यमंत्री का शगूफा भी छोड़ा पर बात नहीं बनी। गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल ने जरूर बसपा का दामन थामा परंतु मायावती को उनका काम करने का तरीका रास नहीं आया। उनके रहते मीणा मतदाताओं के अलगाव का भी खतरा था। कुछ ही दिनों में पार्टी ने गुंजल को बाहर का रास्ता दिखा दिया। कांग्रेसी दिग्गज नटवर सिंह व उनके पुत्र जगत सिंह के साथ बसपा की ज्यादा नहीं निभी। बसपा भी उन्हें ठुकराने वालों की जमात में शामिल हो गई।
शुरूआती असफताओं के वाबजूद विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तैयारी के साथ उतरी। चुनाव की तारीख घोषित होने से पहले ही ज्यादातर उम्मीदवार तय हो गए थे। प्रचार अभियान में भी पार्टी ने पूरी ताकत झोंकी। मायावती ने क्षेत्र के तूफानी दौरे किए। उनकी सरकार के कई मंत्री यही डेरा डाले रहे। पहली बार लगा कि बसपा राज्य में रस्मी तौर पर चुनाव नहीं लड़ रही है। परिणाम भी पहले से बेहतर रहे। सीट और मतों का हिस्सा तो बड़ा ही दूसरी पार्टियों की जीत-हार में भी अहम भूमिका निभाई। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व विधानसभा चुनावों में बसपा के प्रदर्शन से खासा खुश है। प्रदेशाध्यक्ष डूंगरराम गेदर ने बताया कि 'इन चुनावों में हमारा जनाधार तेजी से बढ़ा। सीटों की संख्या को नहीं देखें। हमें और ज्यादा सीटें मिलती यदि हमने कुछ बुनियादी गलतियां नहीं की होतीं। हम इन गलतियों को दूर कर लोकसभा चुनावों में और अच्छा प्रदर्शन करेंगे। हम जल्दी ही सभी सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर देंगे।'
राज्य की राजनीति में बसपा के बढ़ते प्रभाव से कांग्रेस का परेशान होना लाजमी है। पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी ने बताया कि 'बहुजन समाज पार्टी ने प्रदेश में कांग्रेस के लिए नई चुनौती पेश की है। विधानसभा चुनाव में हमें इसका नुकसान हुआ। यदि बसपा नहीं होती तो हमें विधानसभा चुनाव में स्पष्ट बहुमत मिलता। लोकसभा चुनावों में यह नुकसान नहीं हो, इसके उपाय किए जा रहे हैं।' विश्लेषकों के मुताबिक बसपा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का खेल बिगाड़ सकती है। हाथी 8 से 10 सीटों पर हाथ का हुलिया बिगाड़ सकता है। सूबे में सरकार बनाने के बाद कांग्रेस इतना बड़ा नुकसान नहीं उठाना चाहेगी। कांग्रेस को सबसे ज्यादा नुकसान डांग, बृज व मेवात क्षेत्र में होने का अनुमान है। बसपा यहां कांग्रेस के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब हो गई है। क्षेत्र में दलितों व अल्पसंख्यकों के अलावा मीणा जाति का बसपा को भरपूर समर्थन मिल रहा है। क्षेत्र में दिग्गज जाट नेता विश्वेंद्र सिंह भी बसपा का तोड़ नहीं ढूंढ पाए। विधानसभा की कई सीटों पर तो कांग्रेस तीसरे से चौथे स्थान पर खिसक गई। विश्वेंद्र को भी हार का मुंह देखना पड़ा।
राजस्थान में बसपा के बढ़ते जनाधार से कांग्रेस आलाकमान भी चिंतित है। सोनिया गांधी के सिपेहसालार बसपा फेक्टर का एनकाउंटर करने में जुटे हुए हैं। पार्टी परंपरागत वोटों में बसपा के सेंधमारी के लिए कोई रास्ता नहीं छोडऩा चाहती। मुख्यमंत्री के रूप में गहलोत के चयन एवं मंत्रिमंडल के गठन में हुई देरी से साफ हो गया है कि आलाकमान हर कदम फूंक-फूंक कर रख रहा है। पार्टी लोकसभा चुनाव से ऐन पहले कोई बड़ी चूक नहीं करना चाहती। गहलोत सरकार के गठन में यह ध्यान रखा गया कि किसी बड़े नेता की अनदेखी नहीं हो। हर वर्ग, हर जाति को प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया। पार्टी को अच्छी तरह पता है कि बसपा के बाद बड़ी संख्या में बागी में मैदान में आ गए तो मुश्किल खड़ी हो सकती है। हालांकि पार्टी का मानना है कि लोकसभा चुनाव में बसपा इतनी प्रभावशाली नहीं रहेगी। प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सी.पी. जोशी इसका कारण बताते हुए कहते हैं, 'लोकसभा चुनाव, विधानसभा के चुनावों से अलग होते हैं। यहां क्षेत्र बड़ा होता है और मुद्दे अलग। इन चुनावों में बसपा उतना प्रभाव नहीं डालेगी।'

शुक्रवार, दिसंबर 12, 2008

गहलोत की गुगली


अशोक गहलोत सूबे के नए सरदार बन गए हैं। मरुधरा की सियासत का सिरमौर बनने की दौड़ में बाकी दावेदार उनके सामने बोने साबित हुए। दूसरा धड़ा गहलोत के बढ़ते कद के सामने खुद ही हलकान हो गया। आखिर क्यों पड़े गहलोत सब पर भारी?

'उन्हें है शौक अगर बिजलियां गिराने का, हमारा काम भी है आशियां बनाने का' माजिद देवबंदी का यह शेर सूबे के नए सीएम अशोक गहलोत की ताजपोशी पर फिट बैठता है। कांग्रेस के पक्ष में चुनाव परिणाम आने पर यह तय माना जा रहा था कि सहरा गहलोत के सिर ही सजेगा। डॉ. सी.पी जोशी और हरेंद्र मिर्धा सरीखे दिग्गजों के हार जाने के बाद लग रहा था कि गहलोत को चुनौती देने वाला कोई नहीं हैं, लेकिन एक नहीं, चार-चार दावेदार सामने आ गए। शीशराम ओला, सी.पी. जोशी, गिरिजा व्यास और कर्नल सोनाराम। पर गहलोत के सामने एक न टिक सका। चारों की दावेदारी का पटाखा फुस्स हो गया। गहलोत पर हाइकमान ने तो विश्वास जताया ही विधायक भी उनके पक्ष में लामबंद हो गए। 'मारवाड के गांधी' की इस कामयाबी के बाद यह कहना पड़ेगा कि गहलोत सिर्फ जादू के ही नहीं, राजनीति के भी बेहतरीन फनकार हैं।
चुनाव परिणाम आते ही दिग्गज कांग्रेसी परसराम मदेरणा की सक्रियता को देखकर लगा कि गहलोत की राह आसान नहीं होगी। मदेरणा ने किसान मुख्यमंत्री के बहाने किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाने की योजना पर काम किया। इससे पहले कि वे कोई नाम सामने लाते, जाट नेता शीशराम ओला और कर्नल सोनाराम ने दावेदारी जता दी। मदेरणा ने दोनों में से किसी का खुला समर्थन नहीं किया। गहमागहमी के बीच गहलोत जाट विधायकों में सेंध लगाने में कामयाब हो गए। आठ विधायक खुले तौर पर गहलोत के समर्थन में उतर आए। इन्होंने दिग्गज जाट नेताओं कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि 'मुख्यमंत्री जाति नहीं, योग्यता के आधार पर चुना जाना चाहिए। जाति की राजनीति का कांग्रेस को पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है, यदि रवैया नहीं बदला तो लोकसभा चुनाव में भी बड़ा नुकसान होगा।' विधायकों की यह पीड़ा सही भी है। इस चुनाव में मतदाताओं ने साफ संकेत दे दिया है कि जाति का जोर अब नहीं चलेगा। गौरतलब है कि जाति की जाजम पर बैठकर सियासत करने वाले ज्यादातर दिग्गजों को चुनाव में हार ही नसीब हुई है। कांग्रेस की ओर से विश्वेंद्र सिंह, हरेंद्र मिर्धा, नारायण सिंह, परसराम मोरदिया, भंवर लाल शर्मा और अतर सिंह भड़ाना को मुंह की खानी पड़ी। भाजपा में सुमित्रा सिंह, जसकौर मीणा, ऊषा मीणा तथा मदन दिलावर को भी वोटरों ने ठेंगा दिखा दिया। गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल तो तीसरे स्थान पर रहे।
राजस्थान जाट महासभा के रुख से भी गहलोत की दावेदारी मजबूत हुई। महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने पहली पसंद शीशराम ओला को बताया, लेकिन साथ ही कहा कि गहलोत से भी गुरेज नहीं है। उल्लेखनीय है कि पिछले चुनावों में महासभा ने गहलोत की खुली खिलाफत कर कांग्रेस के सफाये में अहम भूमिका निभाई थी। बड़ी संख्या में जाटों के गहलोत की ओर हो जाने से मदेरणा की पूरी रणनीति फ्लॉप हो गई। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने आखिरी कोशिश के रूप में सी.पी. जोशी की ओर रुख किया। जोशी को भी लगा बात बन सकती है। कुछ विधायकों का समर्थन भी मिला, लेकिन चुनाव में एक वोट से मिली हार ने यहां भी दुख दिया। तल्ख मिजाज जोशी के समर्थक बढऩे की बजाय घटते ही गए। उधर गिरिजा व्यास अकेले के दम पर ही ताल ठोंकती रहीं। कोई बड़ा नेता उनके साथ नहीं लगा। कम सक्रियता की वजह विधायकों का समर्थन भी नहीं मिला। समर्थकों की भीड़ के अलावा शीशराम ओला के साथ भी कोई दिग्गज सक्रिय नहीं हुआ। उन्हें अपनी कौम का भी पूरा समर्थन नहीं मिला। अधिक उम्र भी आड़े आ गई। महज शेखाबाटी तक ही प्रभाव होना भी नुकसानदायक रहा। हालांकि गिरिजा व्यास और ओला की महत्त्वाकांक्षा भी इतनी प्रबल नहीं रही, क्योंकि दोनों को पहले से ही अच्छे पद मिले हुए हैं।
पूरे घटनाक्रम में गहलोत की दावेदारी कभी भी कमजोर नहीं पड़ी। गहलोत ने सिर्फ दो जगह नजर रखी, आलाकमान और विधायक। आलाकमान तो पहले से ही उनके साथ था। गहलोत ने पूरा ध्यान समर्थक विधायकों की फेहरिस्त लंबी करने में लगाया। मदेरणा का 'किसान कार्ड' गहलोत के 'जो खेती करे, वही किसान' बयान से फेल हो गया। गहलोत का खेमा 'किसान का मतलब जाट नहीं' आवाज बुलंद करवाने में कामयाब रहा। विधायक दल की बैठक से पहले कांग्रेस कार्यालय के बाहर ओला और गहलोत समर्थकों के बीच हुई तीखी तकरार को देखकर लग रहा था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी गहलोत की राह आसान नहीं रहेगी। पर जिस सलीके से मुख्यमंत्री का चयन हुआ और जिस तरह से आलाकमान से सहमति ली गई, उसके बाद विरोध की ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है। दिग्विजय सिंह और मुकुल वासनिक ने आलाकमान से गहलोत के नाम पर मुहर लगाने के बाद सर्वसम्मति बनाने पर जोर दिया। रायशुमारी में 96 में से 82 विधायकों ने गहलोत का समर्थन किया। इतने भारी समर्थन के बाद गहलोत के वर्चस्व को चुनौती देना आसान नहीं होगा।

इधर मचा बबाल

विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा में मचा बबाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। बोले चाहे कोई, लेकिन लहजा तल्ख ही होता है। कई दिग्गज तो मीडिया के सामने भी भला-बुरा कहे से गुरेज नहीं कर रहे हैं। निशाने पर हैं मात खाई महारानी वसुंधरा राजे। साथ में ओम माथुर भी हैं। भाजपा में चल रही अंदरूनी जंग का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां कांग्रेस विधायक दल के नेता बनने के बाद अशोक गहलोत मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं वहीं, भाजपा विधायक दल की बैठक तक तय नहीं हुई है। दो खेमों में बंटी भाजपा में अब नेता प्रतिपक्ष पर जोर-आजमाइश हो रही है। पार्टी के ज्यादातर नेता वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं। इसके लिए घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। दोनों नेताओं को संघ का भी समर्थन मिल रहा है। सूत्रों की मानें तो वसुंधरा खेमा किरोड़ी लाल मीणा को आगे करने की रणनीति में जुटा है। महारानी के विश्वस्त राजेंद्र सिंह राठौड़ और एस.एन. गुप्ता, किरोड़ी को मनाने में जुटे हैं। सूत्रों के मुताबिक किरोड़ी का पार्टी में वापसी का मन भी बन रहा है। मन टटोलने की कोशिश की तो किरोड़ी बोले, 'मैंने पार्टी छोड़ी ही नहीं तो वापस ज्वाइन करने का सवाल कहां से आया। मैं तो आज भी भाजपा की विचारधारा को मान रहा हूं। कुछ लोगों ने पार्टी को बंधक बना रखा है, बेड़ा गर्क करने में लगे हुए हैं। मैंने उसकी खिलाफत की तो मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन जनता ने यह दिखाया कि मैं सही था और वो गलत।'
पार्टी में चल रही उठापटक से केंद्रीय नेतृत्व भी चिंतित है। आसन्न लोकसभा चुनाव से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वसुंधरा राजे और ओम माथुर को दिल्ली तलब किए जाने के बाद पार्टी में व्यापक फेरबदल के कसास लगाए जा रहे हैं। पार्टी सूत्रों के मुताबिक राजनाथ सिंह वसुंधरा को राजस्थान की राजनीति से विदा करने के मूड में हैं। प्रतिक्षारत लालकृष्ण आडवाणी भी खुले तौर पर महारानी का पक्ष नहीं ले रहे हैं। दरअसल, आडवाणी को लोकसभा चुनाव में राजस्थान से इसी तरह के परिणाम आने का डर सता रहा है। चुनाव में गुजरात मॉडल का मैजिक नहीं चलने के बाद ओम माथुर पर भी तलवार लटकी हुई है।

सोमवार, दिसंबर 08, 2008

नहीं रहा राजे का राज


सूबे की जनता ने वसुंधरा सरकार को नकार दिया है। महारानी के विकास के दावों पर आंदोलनों और भ्रष्टाचार की गूंज भारी पड़ी। दूसरी ओर कांग्रेस के सरकार बनाने की स्थिति में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए दौड़ तेज हो गई है। फिलहाल अशोक गहलोत सबसे आगे हैं।

'हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती डूबी थी वहां जहां पानी कम था' ये पंक्तियां वसुंधरा राजे पर सौ फीसदी सच साबित होती हैं। सूबे की सल्तनत से वसुंधरा को विदाई करने में भाजपाई भी पीछे नहीं रहे। महारानी के सियासत करने के अलहदा तौर-तरीकों की वजह से पार्टी के भीतर उनके विरोधियों की बड़ी फौज तैयार हो गई। विरोधियों के इस कुनबे ने महारानी को मात देकर ही दम लिया। दूसरी ओर कांग्रेसियों का एकजुट होकर चुनावी समर में उतरना कारगर रहा। हालांकि कांग्रेस पूर्ण बहुमत के मेजिकल फिगर को नहीं छू पाई, लेकिन यह तय है कि सरकार कांग्रेस की ही बनेगी।
भाजपा के हार के कारणों का विश्लेषण करें तो पिछले कुछ समय से वसुंधरा का हर दांव उल्टा पड़ा। गुर्जर आरक्षण आंदोलन उनके लिए गले की फांस बन गया। गुर्जर तो नाराज हुए साथ ही मीणाओं ने भी भाजपा से मुंह मोड़ लिया। किरोड़ी लाल मीणा को किनारे करने का फैसला महारानी के लिए भारी पड़ा। किरोड़ी, मीणा मतदाताओं को भाजपा के खिलाफ लामबंद करने में सफल रहे। उन्होंने 20 से 25 सीटों पर भाजपा को सीधा नुकसान पहुंचाया। हालांकि विश्वेंद्र की बगावत ने भाजपा के लिए उतनी भारी नहीं पड़ी। विश्वेंद्र स्वयं की सीट भी नहीं निकाल पाए। यही हाल गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल का रहा। वे भी नहीं जीत पाए। देवी सिंह भाटी की बेरुखी से निश्चित रूप से पार्टी को नुकसान हुआ। एंटीइंकंबेंसी से मुकाबला करने के मकसद गुजरात की तर्ज पर विधायकों के टिकट काटने का फैसला भी महारानी के लिए मुफीद साबित नहीं हुआ। अधिकांश विधायक बगावत पर उतर आए। जीते तो कम ही, लेकिन पार्टी के उम्मीदवार को भी नहीं जीतने दिया।
इस हार के बाद सूबे की भाजपा में खलबली मचना निश्चित है। वसुंधरा विरोधी खेमे के कई नेता खुलेआम मीडिया के सामने कह रहे हैं कि हार के लिए महारानी जिम्मेदार हैं। उनके हठी स्वाभाव और तानाशाही रवैये के कारण ही राज्य में भाजपा की सरकार नहीं बनी। आने वाले दिनों में वसुंधरा विरोधियों के और मुखर होने की संभावना है। पिछले पांच वर्ष से विरोधियों को दरकिनार करने वाला पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भी अब उनकी बात सुननी पड़ेगी, क्योंकि आम चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। प्रतीक्षारत आडवाणी और राजनाथ सिंह को राजस्थान से बड़ी उम्मीद है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक हार के कारणों के पोस्टमॉर्टम के बाद राज्य भाजपा में वसुंधरा का दखल कम होना तय है। राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा जताए जा रहे अनुमान के मुताबिक विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद वसुंधरा स्वयं ही राज्य की राजनीति से किनारा कर लोकसभा चुनाव लड़ केंद्र की ओर रुख कर सकती हैं। प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर अपना ओहदा बरकरार रखने में कामयाब हो सकते है। माथुर पहले ही राजनाथ-आडवाणी को समझा चुके हैं कि राज्य में उनके मुताबिक काम नहीं हो रहा है।
कांग्रेस इस चुनाव में पूरी रणनीति के साथ उतरी थी। टिकट वितरण में भी पूरी सावधानी बरती गई। ध्यान रखा गया कि पार्टी के किसी कद्दावर नेता की अनदेखी नहीं हो। जिन दिग्गजों के टिकट काटे गए उनके रिश्तेदारों को टिकट दिया गया। जातियों को जुटाने के जतन में कांग्रेस काफी आगे रही। पिछले चुनाव में पार्टी की हार का अहम कारण बने जाटों को मनाने में पार्टी सफल रही। राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने कांग्रेस को खुला समर्थन दिया। राजपूत नेता लोकेंद्र सिंह कालवी ने भी पार्टी का साथ दिया। कांग्रेस का आक्रामक चुनाव प्रचार भी कारगर रहा। पार्टी के निशाने पर भाजपा से ज्यादा वसुंधरा राजे रहीं। राजे के राज में हुए भ्रष्टाचार को पार्टी ने पूरे जोर-शोर से उठाया। पिछले पांच साल तक भले ही कांग्रेस विधानसभा में कोई बड़ा मुद्दा नहीं उठा पाई, लेकिन प्रचार के दौरान कांग्रेस वसुंधरा सरकार को घेरने में कामयाब रही। अशोक गहलोत धरती पकड़ खामोशी तोड़ बेहद आक्रामक हो गए। उन्होंने समूचे प्रदेश में धुंआधार प्रचार किया और सौ से अधिक सभाएं कीं।
राजस्थान में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की दौड़ शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसमें सबसे आगे हैं। गहलोत की दावेदारी मजबूत होने के कई कारण हैं। एक तो कांग्रेस के पूरे चुनाव कैंपेन की कमान उनके हाथ में रही, दूसरा दस जनपथ से उनका निकटता। आलाकमान की सूची में गहलोत का नाम सबसे ऊपर है। प्रदेशाध्यक्ष सी।पी. जोशी, हरेंद्र मिर्धा और बी.डी. कल्ला सरीखे दिग्गजों के चुनाव हार जाने के बाद गहलोत और मुख्यमंत्री की कुर्सी के बीच दूरियां कम हो गई हैं। अब उन्हें एकमात्र खतरा दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा से है। मदेरणा आलाकमान के सामने जाट मुख्यमंत्री की मांग करके दिक्कत खड़ी कर सकते हैं। टिकट वितरण के दौरान मदेरणा के तीखे तेवर देखने को मिले थे। उन्होंने गहलोत पर निशाना साधते हुए टिकट वितरण में धनबल के प्रयोग का आरोप लगाया था। मदेरणा के प्रभाव को देखते हुए आलाकमान ने उन्हें तुरंत दिल्ली तलब कर सुलह कराने का प्रयास किया था, लेकिन मदेरणा इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं। हालांकि उनके लिए भी दिक्कतें कम नहीं हैं। पार्टी के सभी जाट नेता उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं। अधिक उम्र भी एक बाधा है। उनके बाद कर्नल सोनाराम भी दौड़ में शामिल हैं। राहुल गांधी की पसंद पर जाएं तो सचिन पायलट भी दौड़ में हैं।


''जनता भाजपा के कुशासन के तंग आ चुकी थी। जनता ने कांग्रेस को चुन सुशासन का मार्ग प्रशस्त किया है। वसुंधरा राजे के पांच साल के कार्यकाल को राजस्थान मौजमस्ती, मटरगश्ती, मुद्रा, मदिरापान और भ्रष्टाचार के रूप में याद रखेगा।''

- अशोक गहलोत, पूर्व मुख्यमंत्री


''लोकतंत्र में मतदाता का फैसला अंतिम होता है। भाजपा उसे स्वीकार करती है। हमें चुनाव परिणामों से बहुत उम्मीदे थीं, लेकिन हमारा आकलन गलत साबित हुआ। हार के लिए कौनसे कारण जिम्मेदार हैं, मिल-बैठकर पता करेंगे।''

- वसुंधरा राजे सिंधिया, मुख्यमंत्री

क्यों जीती कांग्रेस?
सत्ता विराधी लहर का फायदा मिला। भाजपा में असरदार बागियों की संख्या ज्यादा होना कांग्रेस के लिए मुफीद रहा। आक्रामक प्रचार का भी मिला लाभ।


क्यों हारी भाजपा?
चुनाव अभियान में वसुंधरा अकेली पड़ीं। भितरघात और बागियों ने बिगाड़ा गणित। जातिगत समीकरण भी रहे खिलाफ। गोलीकांड और आंदोलनों को नहीं भूले लोग।

मंगलवार, दिसंबर 02, 2008

नारा ही क्या जो जुबां न चढ़े!


नारों की अपनी ताकत है। नारे वह कमाल दिखा जाते हैं, जो हजारों सभाओं-भाषणों-रैलियों के बस में नहीं होता। लेकिन, वक्त के साथ बदल रहे नारों की धार कुंद होती जा रही है। औपचारिकता भरे नारे लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ पा रहे हैं।

सतहत्तर के आम चुनाव में 'यह देखो इंदिरा का खेल, खा गई शक्कर पी गई तेल' और 'हलधर किसान, जनता पार्टी का निशान' गली-मोहल्लों में खूब गूंजा। इन नारों से जनता पार्टी के पक्ष में ऐसा माहौल बना कि कांग्रेस का सफाया हो गया। इंदिरा गांधी समेत कई दिग्गज चुनाव हार गए और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। अगले चुनाव में कांग्रेस ने 'जात पर ना पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर' नारा देकर अपार सफलता हासिल की। भारतीय लोकतंत्र में नारों की अहमियत इन दो चुनावों तक ही सीमित नहीं रही। हर चुनाव में एक से बढ़कर एक चुटीले नारे बने। कुछ नारे तो इतने प्रभावी रहे कि कायजयी बन गए। इंदिरा गांधी का 'गरीबी हटाओ' आज भी उतना ही चर्चित और प्रासंगिक है। 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो .....' की गूंज से बहुजन समाज पार्टी ने दलित वोटों को अपने कब्जे में कर लिया। 'जीतेगा गुजरात' और 'आपणो गुजरात, आग्वो गुजरात' के सहारे नरेंद्र मोदी ने हेट्रिक बना ली।
नारों के सफल फसलफे के बीच सियासत का हालिया हुलिया देखें तो कहानी अलहदा है। छह राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में किसी भी सियासी दल ने ऐसा नारा नहीं दिया जो जनता की आवाज बन सके। सबसे पहले दिल्ली की बात। दस साल से विपक्ष में बैठी भाजपा ने 'महंगी पड़ी कांग्रेस' नारा दिया है। पार्टी को उम्मीद है कि महंगाई से त्रस्त जनता शीला दीक्षित सरकार को नकार देगी। वहीं, हेट्रिक लगाने की तैयारी कर रही कांग्रेस 'विकास को थमने न दो' की दुहाई दे रही है। समूचा दिल्ली इन्हीं नारों से अटा पड़ा है। राजस्थान में भी कहानी ऐसी ही है। भाजपा ने 'जय-जय राजस्थान' के बाद 'अब नहीं रुकेगा राजस्थान' नारा बनाया। राज्य में विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इन नारों के साथ पांच साल और मांग रही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस 'राज बदल कर दम लेगा, अब नहीं झुकेगा राजस्थान' के साथ चुनावी समर में कूदी है। छत्तीसगढ़ के चुनावों में इस बार भी चावल अहम मुद्दा बनता हुआ दिखाई दे रहा है। यहां भाजपा ने '3 रुपए चावल, फोकट में नुन, भाजपा सरकार को फिर से चुन' नारा दिया है। कांग्रेस यहां 'भ्रष्टाचारियों का राज बदल दो' के साथ रमन सिंह सरकार के खिलाफ जनादेश मांग रही है। मध्य प्रदेश में भाजपा 'हमारा प्रयास-निरंतर विकास' के साथ जनता के बीच गई है। सूबे में सत्ता संभालने का ख्वाव देख रही कांग्रेस अभी तक कोई बड़ा नारा नहीं दे पाई है। हालांकि हालिया चुनाव छह विधानसभाओं के लिए हो रहे हैं, लेकिन 'पीएम इन वेटिंग' लालकृष्ण आडवाणी ने प्रचार के दौरान 'जीतेगी भाजपा, जीतेगा भारत' के साथ आम चुनाव की तैयारी भी शुरू कर दी है।
सत्ता के सिंहासन पर बैठाने वाले नारे कभी-कभी उल्टे भी पड़ जाते हैं। भाजपा के 'इंडिया शाइनिंग' को कौन भूल सकता है। चुनावी इतिहास के सबसे महंगा, विवादित और सवालों से घिरा यह नारा भाजपा ने 2004 के आम चुनावों से पहले दिया। इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया के अलावा होर्डिंस में भी यही नारा छाया रहा है। टीवी पर सिर्फ पोलिया ड्रोप्स का विज्ञापन ही इससे ज्यादा दिखा। सरकार ने इसे 9,472 बार छोटे पर्दे पर दिखाया। यदि खर्चे के लिहाज से देखें तो इस पर 500 करोड़ से ज्यादा खर्चा आया। विपक्ष ने इसके खिलाफ खूब हो-हल्ला मचाया। चुनाव आयोग ने रोक भी लगाई। भाजपा को 'इंडिया शाइनिंग' अभियान से बड़ी उम्मीदे थीं, लेकिन चुनावों में वोटरों ने इस सिरे से नकारते हुए वाजपेयी सरकार को विदा कर दिया। गुजरात में कांग्रेस की कहानी भी कुछ ऐसी है। विधानसभा चुनावों में पार्टी ने मोदी से मुकाबला करने के लिए 'चक दे इंडिया' की तर्ज पर 'चक दे गुजरात' नारा दिया। नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक चुनावी सभा में कांग्रेस इस नारे का जिक्र करते हुए लोगों से 'चक दे' का अर्थ पूछा। वाक्पटुता के बादशाह मोदी को मनमाफिक जवाब नहीं मिला तो उन्होंने इसे बाहरी नारा करार दे दिया। कुल मिलाकर कांग्रेस के पूरे केंपेन की हवा निकल गई। मोदी को मात देने का सपना भी अधूरा रह गया।
भारतीय राजनीति में नारों का इस्तेमाल मतदाताओं को उद्वेलित कर जनावेग पैदा करने में होता रहा है। लेकिन, इस बार के चुनावों को देखकर लग रहा है कि नारे बन ही नहीं पा रहे हैं। वस्तुत: चुनाव आयोग द्वारा प्रचार के तौर-तरीकों में बदलाव का असर भी नारों पर पड़ा है। भौंपू पर लगी बंदिशों के बाद अब ज्यादातर नारे विज्ञापनों तक ही सिमट कर रह गए हैं। इन्हें जनता की जुबान अभी तक नहीं मिल पाई है। मौटे तौर पर इसके दो कारण हैं पहला, नारे जनभावनाओं से नहीं जुड़ पा रहे हैं और दूसरा, राजनेता इस दिशा में उतनी क्रिएटिविटी नहीं दिखा रहे हैं। यदि वर्तमान के नारों की नब्बे के दशक तक दिए नारों से तुलना करें तो अंतर साफ दिखाई देता है। पहले जो नारे दिए जाते थे वे जनभावनाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे। जनता की नब्ज पकड़कर राजनीतिक दल नारे गढ़ते थे। नारों में उन मुद्दों को समेटा जाता था जिन पर जनता की नजरें रहती थीं। बोफोर्स तोप सौदे के समय विपक्ष का नारा 'गली-गली में शोर है, राजीव गांधी ...' खूब चर्चित रहा। यहां तक की आकाशवाणी पर प्रसारित हुए एक लाईव प्रोग्राम में एक बच्चे ने कविता की जगह इस नारे को बोल दिया था। वर्तमान में राजनीतिक दल नारों के स्थान पर चुनाव प्रबंधन पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की मानें तो चुनाव जीतने के लिए नारे नहीं जनता को विकास चाहिए। नारों का महत्व तो है, लेकिन माहौल बनाने तक, कार्यकर्ताओं में जोश भरने तक। राजस्थान में भाजपा के निजाम ओम माथुर भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहते हैं कि नारों से चुनाव नहीं जीते जाते, शिक्षित और समझदार मतदाता नारे नहीं काम देखता है। राजनेताओं के इन दावों के बीच चुनावी महासमर में चुटीले नारों की कमी अवश्य खल रही है।