शनिवार, जून 27, 2009

मिशन सुशासन


विधानसभा चुनावों की मामूली जीत को लोकसभा चुनावों में 'क्लीन स्वीप' में तब्दील करने के बाद अशोक गहलोत सब्र और साहस के नए सियासतदां के रूप में उभरे हैं। अब उनका ध्यान सूबे में सुशासन के सपने को साकार करने की ओर है। क्या है उनका मिशन सुशासन? एक रिपोर्ट!

बात 18 जून की है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत हरित राजस्थान योजना का पहला पौधा लगाते हुए कहते हैं, 'मैंने आज असली माली का काम किया है। हम सबको इसी जिम्मेदारी के साथ काम करना चाहिए।' यह पहला मौका नहीं है जब उन्होंने आम लोगों को सरकार से कनेक्ट करने की असरदार अपील की हो। राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी दूसरी पारी के दौरान गहलोत आए दिन कुछ न कुछ ऐसा करते हैं कि विरोधी भी वाह-वाह करने लगते हैं। ऐसा ही नजारा पिछले दिनों जाट समाज द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में देखने को मिला जब भाजपा नेता व राज्यसभा सदस्य डॉ. ज्ञानप्रकाश पिलानिया ने गहलोत की तारीफों के जमकर पुल बांधे। कार्यक्रम में गहलोत और राज्य के तमाम दिग्गज जाट नेताओं की उपस्थित में पिलानिया ने गहलोत के कामकाज की सराहना करते हुए यहां तक कहा कि गहलोत मारवाड़ के ही नहीं समूचे राजस्थान के गांधी हैं। ये वही पिलानिया हैं जिन्होंने राजस्थान में जाटों को ओबीसी आरक्षण दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी और वाजपेयी सरकार द्वारा इसकी घोषणा के बाद वे भाजपा को दामन थाम राज्यसभा पहुंच गए। एक समय था जब पिलानिया, गहलोत को जाट विरोधी साबित करने का कोई मौका नहीं चूकते थे, पर आज वे ही उन पर कायल हैं।
चुनाव की थकान मिटाने के बाद अब अशोक गहलोत का पूरा ध्यान सुचारू रूप से सरकार चलाने पर है। राज्य की जनता को उनसे उम्मीदें भी खूब हैं, क्योंकि इस बार सरकार के पास काम न करने का कोई बहाना नहीं है। विधासनसभा में उन्हें पूर्व बहुमत तो प्राप्त है ही केंद्र में भी कांग्रेस नीत सरकार होने के कारण धन की कमी भी आड़े नहीं आएगी। गहलोत स्वयं भी जानते हैं कि लोगों की उम्मीदों पर खरा उतरना आसान नहीं है। लिहाजा, वे इन दिनों वे सरकार के कील-कांटों को दुरूस्त करने में लगे हैं, ताकि सरकार पूरी ताकत के साथ काम कर सके। सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री कुछ मंत्रियों के कामकाज से संतुष्ट नहीं है। आने वाले दिनों में वे ऐसे मंत्रियों के विभागों में फेरबदल किए जाने की संभावना है। इसमें आधा दर्जन कैबीनेट व कई राज्यमंत्री शामिल हैं। इन मंत्रियों में से ज्यादातर के पर कतरे जाने की संभावना है। माना जा रहा है कि फेरबदल के तहत स्वायत्त शासन व गृह मंत्री शांति धारीवाल, वन एवं खनिज मंत्री रामलाल जाट, जनजाति व तकनीकी शिक्षा मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय का एक-एक विभाग बदला जा सकता है। सार्वजनिक निर्माण राज्यमंत्री प्रमोद जैन भाया का विभाग बदले जाने के कयास लगाए जा रहे हैं। वहीं, बसपा छोड़कर कांग्रेस का दामन थामने वाले छह विधायकों में से कम से कम एक को मंत्री बनाए जाने की चर्चा है। इसके लिए राजकुमार शर्मा और राजेंद्र गुढ़ा का नाम चल रहा है।

मंत्रालयों में बदलाव के अलावा गहलोत का ध्यान राजनीतिक नियुक्तियों की ओर भी है। सूत्रों के मुताबिक आने वाले कुछ दिनों में ही ये नियुक्तियां होनी है। संगठन की ओर से इस प्रक्रिया को जल्दी पूरा करने के काफी दिनों से दबाव आ रहा है। प्रदेशाध्यक्ष डॉ।सी.पी. जोशी तो कई बार सार्वजनिक तौर पर कह चुके हैं कि जब तक आम कार्यकत्र्ता की सरकार में भागीदारी नहीं होगी सत्ता हासिल करने का जश्न अधूरा है। इन नियुक्तियों के माध्यम से गहलोत संगठन के लिए अच्छा काम करने वालों को ईनाम देने की कोशिश करेंगे। इसके लिए पिछले कई दिनों से कांग्रेसी नेता जयपुर में डेरा डाले हुए हैं और अपने-अपने पक्ष में लॉबिंग कर रहे हैं। बात संगठन की चली तो बताते जाएं कि राज्य में पार्टी अध्यक्ष भी बदला जाना है। वर्तमान अध्यक्ष डॉ.सी.पी.जोशी केंद्र की मनमोहन सरकार में कैबीनेट मंत्री बनने के बाद वे संगठन के लिए पूरा समय नहीं दे पा रहे हैं। प्रदेशाध्यक्ष के लिए कई नेताओं का नाम चल रहा है। कास्ट केमिस्ट्री को ध्यान में रखते हुए गहलोत किसी जाट, दलित अथवा अल्पसंख्यक पर दांव खेल सकते हैं।

अशोक गहलोत स्वाभाव से शांत हैं, पर अधिकारियों से काम लेने के मामले में उन्हें चतुर राजनेता माना जाता है। वे कभी भी ब्यूरोक्रेट्स को अपने ऊपर हावी नहीं होने देते। वे आक्रामक तरीके से काम नहीं करते, पर उन्हें काम निकालना आता है। अनुशासन तो उन्हेंं शुरू से ही पसंद रहा है, अधिकारियों से भी वे इसकी अपेक्षा करते हैं। मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को साफ शब्दों में हिदायत दी है कि काम को सही तरीके से व सही समय पर पूरा करने में किसी भी तरह की कौताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। लगता है ब्यूरोक्रेट्स से निपटने के मामले में गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल की गलतियों से काफी-कुछ सीखा है। उन्होंने पिछली बार अधिकारियों पर जरूरत से ज्यादा यकीन किया, जिसका खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। इस बार उनकी एक ही रणनीति है, जो अच्छा काम करे उसे ईनाम दो और जो बुरा करे उसे दंड। उनकी इस रणनीति की बानगी कलक्टरों की तबादला सूची में मिल जाती है। सरकार के लिए दिक्कतें खड़े करने वाले कलक्टरों को कुछ महीनों में ही बदल दिया गया, पर साथ ही सरकार का काम आसान करने वाले कलक्टरों को अच्छी पोस्टिंग का ईनाम भी मिला। पिछले दिनों बुलाई गई कलेक्टर्स कांफ्रेंस में गहलोत ने अधिकारियों को सीधी भाषा में समझा दिया कि आमजन को गुड गवर्नेंस देने के लिए अधिकारियों को बातें कम और काम ज्यादा करनी चाहिए।

सरकारी मशीनरी को दुरूस्त कर गहलोत ऐसे कामों को ज्यादा तवज्जों देना चाहते हैं जो लोकलुभावन हों। पिछली कार्यकाल की तरह वे कठोर निर्णय लेकर लोगों को नाराज करने के मूड में नहीं हैं। उन्होंने किसानों के लिए पांच साल तक बिजली की दरें नहीं बढ़ाने और शराब की दुकानों के समय व संख्या में कटौती की घोषणा कर इसकी शुरूआत भी कर दी है। वे इस बार कर्मचारी विरोधी होने के कलंक को भी धोना चाहते हैं। उन्होंने राज्य में छठे वेतन आयोग की सिफारिशों के लागू करने के बाद ऐसे कर्मचारियों को स्थाई करने के आदेश दिए हैं जो पिछले दस सालों से संविदा के आधार पर काम कर रहे हैं। इसके अलावा विदेशी में नौकरी के इच्छुक लोगों को सरकार द्वारा बनाई गई प्लेसमेंट एजेंसी के मार्फत दूसरों देशों में भेजा जाएगा। इससे लोगों को रोजगार तो मिलेगा ही कबूतरबाजी और धोखाधड़ी से भी निजात मिलेगी। युवाओं को रोजगार मुहैया कराने के लिए सरकार रिक्त पदों के मुताबिक नौकरिया देने की बात पहले ही कह चुकी है।

लोकलुभावन निर्णयों के अलावा गहलोत कुछ ऐसे निर्णय भी करना चाहते हैं जो उनके कार्यकाल में मील का पत्थर साबित हों। मसलन, वे राज्य को विशेष दर्जा दिलाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी शुरू कर दिए हैं। यदि वे इस मुहिम में सफल होते हैं तो राज्य को केंद्र से अनुदान के रूप में ज्यादा वित्तीय सहायता मिल जाया करेगी, जो यहां की माली हालत के लिए संजीवनी का काम करेगी। उल्लेखनीय है कि विशेष श्रेणी के राज्यों को केंद्रीय योजना सहायता का 90 फीसदी हिस्सा अनुदान के रूप में मिलने से इन राज्यों की वित्तीय स्थिति में तेजी से सुधार आया है। देश में फिलहाल ऐसे राज्यों की संख्या 11 है। वैसे तो बिहार और उत्तर प्रदेश समेत कई राज्य विशेष श्रेणी की मांग कर रहे हैं, पर इस मामले में राजस्थान के दावे में काफी दम है। विस्तृत क्षेत्र, मरुस्थल, कम वर्षा, कमजोर आधारभूत ढांचा, पेयजल की समस्या, अकाल व सूखा, बदहाल अर्थव्यवस्था सरीखे कई कारणों से राजस्थान को विशेष राज्य का दर्जा मिल सकता है।

सरकार राज्य के हितों से जुड़े उन मुद्दों को सुलझाने में काफी रुचि ले रही है जो पड़ौसी राज्यों से विवाद के कारण हल नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में गहलोत को एक बड़ी सफलता उस समय मिली जब पंजाब ने राजस्थान के हिस्से का शेष बचा 2670 क्यूसेक पानी देना शुरू कर दिया। गौरतलब है कि 1981 में भाखड़ा व्यास प्रबंधन बोर्ड के साथ हुए समझौते के तहत पंजाब के हरिके बैराज से राजस्थान को रोजाना 9770 क्यूसेक पानी देना तय हुआ था, लेकिन कभी भी 7100 क्सूसेक से ज्यादा पानी नहीं दिया गया। पिछली कई सरकारों ने इसे सुलझाने की कोशिश की थी, पर सफलता नहीं मिली। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने पिछले दिनों इस बारे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से मदद की अपील की थी। प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद राजस्थान को पूरा पानी मिलना शुरू हो गया है। इससे नहरी क्षेत्र में चार लाख हैक्टेयर सिंचाई क्षेत्र बढ़ जाएगा।

पंजाब के साथ विवाद सुलझाने के बाद गहलोत ने हरियाणा से राजस्थान के हिस्से का पानी लेने की कवायद शुरू कर दी है। इस बारे में हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के साथ गहलोत की मीटिंग भी हो चुकी है, जिसमें मामले को जल्दी सुलझाने के लिए दो सदस्यीय कमेटी बनाई गई है। हरियाणा के साथ जल ववाद पर जाएं तो पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच हुए समझौते में राजस्थान को 0।47 एमएफ पानी दिया जाना तय हुआ था, लेकिन भाखड़ा मेनलाइन के सिद्धमुख प्रोजेक्ट से राज्य को महज 0.30 एमएफ पानी मिल रहा है। मामले को हल करने के लिए कई बार वाताएं हो चुकी है, पर नतीजा सिफर ही रहा है। जहां राजस्थान अपने हिस्से को पानी देने पर अड़ा हुआ है वहीं, हरियाणा सरकार का कहना है कि राजस्थान अपने खर्चे पर सतलुज-यमुना नहर का निर्माण कर लेता है तो वह पानी देने को तैयार है। मुख्यमंत्री गहलोत ने अपने पिछले कार्यकाल में इस बाबत एक प्रस्ताव भी बनाकर भेजा था, लेकिन हरियाणा सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया।

मिशन सुशासन के तहत इन तमाम कामों को अंजाम तक पहुंचाने में गहलोत का ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ेगा, क्योंकि राजस्थान में उनका हाथ बंटाने वालों की कमी नहीं है। गहलोत की खिलाफत करने वालों को जिस सहज ढंग से मात मिली है, उसे देखकर शायद ही कोई विरोध करने की हिम्मत जुटा पाए। राज्य के कांग्रेसी कुनबे को अच्छी तरह समझ में आ गया है कि गहलोत के साथ चलकर ही राजनीति को परवान चढ़ाया जा सकता है। उनसे वैर लेने वालों की राजनीति का रास्ता तो रसातल की ओर ही जाता है। लिहाजा, इन दिनों उनके समर्थकों का कारवां बढ़ता ही जा रहा है। इस बीच गहलोत कांग्रेस के वोट बैंक को बनाए रखने और उसे बढ़ाने के प्रयास भी कर रहे हैं। राज्य की राजनीति में जाति के महत्व को ध्यान में रखते हुए वे आजकल विभिन्न जातियों के दिग्गज नेताओं से मेलजोल बढ़ा रहे हैं। राज्य में जातिगत सम्मेलनों की संख्या भी एकाएक बढ़ गई है। इनमें से कमोबेश सभी में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उपस्थित होते हैं। अल्पसंख्यकों को लुभाने के लिए अल्पसंख्यक मामलात विभाग बनना पहले ही तय हो गया है। ऐसा होने से अल्पसंख्यकों के सभी मामले एक ही विभाग के अंतर्गत आ जाएंगे। फिलहाल अल्पसंख्यकों के कई विषय वित्त, कला, संस्कृति, गृह, राजस्व, सामाजिक न्याय व अधिकारिता विभाग में आते हैं। सूत्रों की मानें तो चिकित्सा मंत्री दुर्रु मियां को इसकी जिम्मेदारी दी जा रही है।

रविवार, जून 21, 2009

जाति का जिन्न

चुनावों का मौसम जाने के बाद भी राजस्थान में जाति का जोर कम नहीं हुआ है। अपना राजनीति वजूद कायम रखने की जुगत में नेता सूबे के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। जाति के इस जिन्न से निपटना गहलोत सरकार के लिए एक चुनौती है। एक रिपोर्ट!

अपनी सामाजिक समरसता के लिए विख्यात राजस्थान रह-रह कर उपज रहे जातिगत तनावों को झेलने के लिए अभिशप्‍त है। नेताओं ने अपने सियासी सपनों को सच करने के लिए ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि जातियों के बीच भाईचारा पनपने की बजाय कटुता और कलह बढ़ती ही जा रही है। तनाव यूं ही बढ़ता रहा तो कभी भी कोई अनिष्ट हो सकता है और राज्य में हिंसा फैल सकती है। अशोक गहलोत सरकार को भी इसका अहसास है। सरकार ने मीणा और गुर्जरों के बीच चौड़ी होती खाई को पाटने के मकसद से दोनों जातियों के आला नेताओं के साथ मिलकर एक रोड मेप तैयार किया है। कमाल की बात तो यह है कि माहौल को ठीक करने के लिए अपनी-अपनी जाति के पेरोकार नेता सरकार के साथ तो सुर में सुर मिलाते हैं, पर जमीनी स्तर पर द्वेष बढ़ाने वाले काम ही ज्यादा करते हैं।
राजस्थान में जाति की जाजम पर बैठकर अपनी सियासत चलाने वाले नेताओं की लंबी फेहरिस्त है। इनमें से कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला इन दिनों खासी चर्चाओं में है। गुर्जरों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाने के लिए दो बड़े आंदोलनों के सूत्रधार रहे बैंसला भाजपा का दामन थाम संसद में पहुंचना चाहते थे, लेकिन मामूली अंतर से चुनाव हार गए। इस हार के बाद अपनी राजनीति सिमटती देख बैंसला फिर से अपनी पुरानी भूमिका में आ गए हैं और गुर्जरों को एसटी आरक्षण का दिए जाने का राग अलापने लगे हैं। वे गुर्जरों की सहानूभति और समर्थन बटोरने का कोई भी मौका नहीं चूकते। पिछले दिनों सवाई माधोपुर जिले के बामनवास में गुर्जर और मीणाओं के बीच हुई हिंसक झड़पों के तुरंत बाद वे घटनास्थल पर पहुंच धरने पर बैठ गए थे। वे जहां भी जाते हैं लोकसभा चुनावों में महज 300 वोटों से मिली हार का जिक्र करना नहीं भूलते। वे इसकी वजह मतदान और मतगणना में भारी धांधली बताते हैं और इसके लिए विजयी रहे नमोनारायण मीणा के अलावा समूची मीणा बिरादरी को कठघरे में खड़ा कर देते हैं।
ये सब बैंसला की उस रणनीति का हिस्सा है जिसके तहत वे गुर्जरों का खोया हुआ वि’वास पाने की मुहिम में जुटे हैं। दरअसल, भाजपा का दामन थाम लोकसभा चुनाव लड़ने के बाद से गुर्जर बैंसला से खुश नहीं हैं। विशेष रूप से गुर्जरों की युवा पांत बैंसला पर स्वयं की राजनीति के लिए समाज का इस्तेमाल करने का आरोप लगा रही है। इन लोगों में बैंसला के प्रति गुस्सा इस बात को लेकर है कि कर्नल उस पार्टी में शामिल हो गए जिसकी सरकार ने 70 गुर्जरों को मौत के घाट उतारा। समाज के लोग अब कर्नल और वसुंधरा सरकार के समझौतों पर भी अंगुलियां उठा रहे हैं। गौरतलब है कि इन समझौतों की ज्यादातर बातों पर अमल नहीं पाया है। मसलन, मृतकों के आश्रितों को सरकारी नौकरी, मुकदमों की समाप्ति और आंदोलनकारियों की रिहाई। वैसे गुर्जरों को दो बड़े आंदोलन करने के बाद भी सिवाय तबाही के कुछ हासिल नहीं हुआ। उन्हें वसुंधरा सरकार द्वारा घोषित विशेष श्रेणी के तहत पांच फीसदी आरक्षण का लाभ भी अभी तक नहीं मिल पाया है। इस आशय के विधेयक को विधानसभा में तो पारित कर दिया था, पर यह अभी तक राजभवन में ही अटका हुआ है।
सूत्रों की मानें तो कर्नल बैंसला गुर्जरों को अपनी अगुवाई में संगठित कर फिर से एक बड़ा आंदोलन करना चाहते हैं। उनकी योजना तो 10 जून को भरतपुर जिले के महरावर गांव में महापंचायत के साथ ही आंदोलन शुरू करने की थी, पर क्षेत्र के गुर्जरों की ओर से अपेक्षित समर्थन नहीं मिलने के कारण उन्होंने इसमें बदलाव कर दिया है। नई रणनीति के तहत बैंसला ने कई जातियों के प्रतिनिधियों को साथ लेकर आंदोलन को व्यापक बनाने की कोशिश की है। बैंसला के कहे को सही मानें तो अगला आंदोलन पश्‍िचमी राजस्थान से शुरू होगा और इसे शांतिपूर्ण तरीके से देश भर में चलाया जाएगा। जब कर्नल बैंसला से आंदोलन के मकसद के बारे में पूछा तो वे इधर-उधर की बातें छोड़ तुरंत ही पुराने ढर्रे पर आ गए और कहा कि ‘हमने गुर्जरों को एसटी में शामिल करने की मांग के साथ आंदोलन शुरू किया था और आज भी हम उसी पर कायम है। यह सरकार को तय करना है कि वह गुर्जरों को एसटी दर्जा कैसे देती है। आने वाले कुछ दिनों में कोर कमेटी मुख्यमंत्री से मिलकर अपना पक्ष रखेगी। यदि सरकार हमारी बात मानती है तो ठीक, नहीं तो हम आंदोलन करेंगे। यह अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन होगा और ठोस निर्णय होने पर ही पूरा होगा।’
विश्‍लेषकों के मुताबिक कर्नल बैंसला के क्रियाकलापों से साफ झलकता है कि वर्तमान हालातों में उनका इरादा गुर्जरों का सिरमौर बने रहने के सिवा कुछ नहीं है। यदि वे कोई आंदोलन करेंगे तो गुर्जरों के बीच रहते हुए और गुर्जरों के दम पर करेंगे। आरक्षण आंदोलन को देशव्यापी बनाने और अन्य जातियों को इसमें शामिल करने की बातें बैंसला तभी तक कर रहे हैं जब तक गुर्जर पुराने समर्पण के साथ उनके पीछे खड़े नहीं हुए हैं। जिस दिन गुर्जर पहले की तरह कर्नल के एक इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार हो गए, आंदोलन शुरू हो जाएगा और सिर्फ गुर्जरों के हक की बात होगी। यदि बैंसला गुर्जरों को आंदोलन के लिए तैयार कर लेते हैं तो भाजपा उनका साथ देने के लिए तैयार खड़ी है। सूत्रों की मानें तो भाजपा और विशेष रूप से वसुंधरा राजे गुर्जरों का एक बड़ा आंदोलन खड़ा करने के लिए बैंसला की किसी भी हद तक मदद करने को तैयार हैं। प्रह्लाद गुंजल के रूप में एक आक्रामक गुर्जर नेता की घर वापसी भी महारानी के लिए मुफीद साबित होगी। कुल मिलाकर आने वाले समय में राजस्थान को एक और आंदोलन झेलना पड़ सकता है।
जाति के दम पर राजनीति करने वालों की चर्चा हो और डॉ. किरोड़ी लाल मीणा का जिक्र न हो ऐसा कैसे हो सकता है। मीणा समाज में इनके बराबर कद का कोई नेता नहीं है। डॉ. किरोड़ी को नजदीक से जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे जाति के मामले में वे किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जब गुर्जरों ने एसटी आरक्षण की मांग को लेकर आंदोलन किया था तो किरोड़ी ने खूब हंगामा किया था। इन दिनों उनके बंगले पर मीणा समाज के लोगों का मजमा लगा रहता था। सब डॉ. किरोड़ी के एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार थे। इन लोगों के दम पर वे आरक्षण के मुद्दे पर अपनी पार्टी की सरकार के उपर ही पिल पड़े। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने महारानी को साफ तौर पर चेतावनी दी थी कि गुर्जरों को आरक्षण देकर एसटी कोटे से छेड़छाड़ की गई तो परिणाम अच्छे नहीं होंगे। इस दौरान हुई तनातनी इतनी आगे बढ़ गई कि किरोड़ी को भाजपा से विदा होना पड़ा। भाजपा के बिना भी उन्होंने अपना सियासी वजूद कायम रखा और पहले विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा चुनावों में निर्दलीय उम्मीदवार की हैसियत से चुनाव जीतने में सफल रहे। दोनों दफा उन्होंने जमकर ‘कास्ट कार्ड’ खेला। किरोड़ी ने इन चुनावों को पूरी मीणा बिरादरी की प्रतिष्ठा का प्र’न बनाते हुए वोट मांगे। लोगों ने उन्हें जमकर वोट दिए और वे अच्छे अंतर से जीतने में सफल हुए।
सियासत की आक्रामक शैली को पसंद करने वाले किरोड़ी इन दिनों खूब गरज रहे हैं। इस बार उनका निशाना वसुंधरा राजे नहीं होकर अशोक गहलोत और केंद्र की मनमोहन सरकार है। कर्नल बैंसला द्वारा गुर्जर आरक्षण का ’शिगूफा छोड़े जाने के बाद डॉ. किरोड़ी ने एक बार फिर से चेतावनी देना शुरू कर दिया है कि एसटी कोटे से छेड़छाड़ किसी भी सूरत में बर्दाश्‍त नहीं की जाएगी। उनके ये तल्ख बयान मीणा समाज में तो उनकी खास बढ़ा रहे हैं, पर गुर्जर समाज के लिए तो वे खलनायक ही साबित हो रहे हैं। गुर्जर ही नहीं अन्य कई जातियों को भी किरोड़ी का मीणाओं के पक्ष में कट्टर स्वाभाव नहीं भा रहा है। पिछले दिनों दौसा में एक युवती के अपहरण की घटना के बाद क्षेत्र के प्रतिष्ठित लोगों ने डॉ. किरोड़ी पर अपहरणकर्ताओं को बचाने का आरोप लगाया था।
केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा को भी बड़ा मीणा नेता माना जाता है। हालांकि कट्टरता के मामले में वे किरोड़ी के पासंग भी नहीं हैं। उनकी छवि एक ‘सोफ्ट कास्ट लीडर’ की है। वैसे जाति के दम पर खम ठोकने वाले गुर्जर और मीणा नेता ही नहीं हैं, इसमें जाट, राजपूत और ब्राह्मण नेता भी शामिल हैं। हालांकि ये लोगों को उस स्तर का तनाव देने में सक्षम नहीं हैं। सरकार या राजनीतिक दलों के लिए इन नेताओं को काबू में करना भले ही मुश्‍िकल हो, पर लोग इनकी तरफ से निश्‍िचंत रहते हैं। कांग्रेस की ही बात करें तो राज्य व केंद्र में मंत्री पद की मलाई बंट जाने के बाद प्रदेशाध्यक्ष पद को लेकर खींचतान हो रही है। जहां शीशराम ओला को मंत्री नहीं बनाए जाने के बाद कई जाट नेता अपनी दावेदारी जता रहे हैं वहीं, ब्राह्मण और दलित अपनी बारी बता रहे हैं। कुछ दिनों में होने वाली राजनीतिक नियुक्तियों का भी यही हाल है। जाति के आधार पर प्रतिनिधत्व मांगा जा रहा है। अशोक गहलोत प्रदेशाध्यक्ष और राजनीतिक नियुक्तियों के मसले को मो सुलझा लेंगे पर राजनीति के चलते फैले जातिगत वैमनस्य को कब तक दुरूस्त कर पाएंगे, यह देखना होगा।

गुरुवार, जून 18, 2009

धांधली या पश्‍िचम की धौंस

ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में महमूद अहमदीनेजाद का दुबारा चुने जाने की घोषणा के बाद उपजा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पराजित प्रत्याशी मीर हुसैन मुसावी ने चुनावों में भारी धांधली का आरोप लगाते हुए परिणामों को खारिज कर दिया है। वे इस चुनाव को रद्द कर फिर से मतदान की मांग कर रहे हैं। उनके समर्थक देशभर में प्रदर्शन कर रहे हैं। कई जगह प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया है और लोगों के मारे जाने की भी खबरें आ रही हैं। मामला बिगड़ता देख गार्डियन काउंसिल ने चुनाव परिणामों को अस्थाई घोषित कर दिया है। इस रोक को अहमदीनेजाद की कमजोर होती पकड़ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। वैसे देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई अभी भी अहमदीनेजाद के पक्ष में हैं। गार्डियन काउंसिल के ज्यादातर मौलवी भी उनके पक्ष में हैं। ऐसे में इस बात की संभावना बहुत कम है कि परिणामों को निरस्त किया जाएगा और देश में फिर से चुनाव होंगे।
चुनावों में अहमदीनेजाद की भारी जीत को विपक्षी खेमा पचा नहीं पा रहा है। मुसावी लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि वोटों की गिनती के दौरान भारी हेराफेरी की गई है। हालांकि राष्ट्रपति अहमदीनेजाद और गार्डियन काउंसिल ने ऐसे इलाकों में वोटों की दुबारा गिनती करवाने के हामी भर दी है जहां गड़बड़ी की आशंका जताई जा रही है, लेकिन मुसावी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि मतदान के दौरान ही लाखों मतपत्रों का गायब कर दिया गया था और बड़ी संख्या में लोग अपना वोट नहीं डाल पाए तो दुबारा वोट गिने जाने का क्या अर्थ है? उल्लेखनीय है कि ईरान की जनता ने इन चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 85 प्रतिशत से भी ज्यादा तमदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, जो कि एक रिकॉर्ड है। हालांकि मतदान के दौरान कई जगह मतपत्र समाप्त हो जाने और कई लोगों के वोट नहीं डाल पाने की खबरें मीडिया में आई थीं। मुसावी ने भी इस तरह की अनियमितताएं होने का बयान दिया था, पर उन्होंने उस समय चुनाव आयोग से ऐसे मतदान केंद्रों पर फिर से मतदान कराने की गुजारिश नहीं की।
दरअसल, मुसावी को अपनी जीत का पूरा भरोसा था, पर परिणामों ने उन्हें हैरत में डाल दिया है। उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में भी वे अहमदीनेजाद से बड़े अंतर से पिछड़े हैं। इन चुनावों में मुसावी ने देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को और अहमदीनेजाद ने ईरान की संप्रभुता तथा प्रतिष्ठा को मुद्दा बनाया था। चूंकि अहमदीनेजाद एक भावनात्मक मसले पर चुनाव लड़ रहे थे इसलिए उन्हें जनता का ज्यादा समर्थन मिला। पिछले कुछ सालों में अमरीका और इजराइल की खुली खिलाफत करने के कारण ईरान में अहमदीनेजाद की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। इसी साल अप्रैल में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के नस्लभेद सम्मेलन में जब उन्होंने इजराइल को नस्लभेदी बताया था तो ईरान वापसी पर उनका हीरो सरीखा स्वागत हुआ था। परमाणु कार्यक्रम के मसले पर अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के भारी दबाव के बाद भी अहमदीनेजाद टस से मस नहीं हुए। चुनावों में भी उनके यही भावनात्मक मुद्दे कारगर साबित हुआ और जनता ने उन्हें भारी समर्थन दिया।
अहमदीनेजाद को मिले भारी मतों के बावजूद मुसावी की काबिलियत पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। वे एक अच्छे आर्थिक सुधारक हैं। 1981 से 89 तक ईरान के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अच्छा काम किया। इस दौरान उनकी आर्थिक नीतियों की सभी ने सराहना की। यह इराक के साथ टकराव का दौर था, लेकिन मुसावी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी। मुसावी ने अहमदीनेजाद की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए देश की जनता से वोट मांगे थे। उन्हें उम्मीद थी कि जिस प्रकार 1997 में सुधारवादी नेता मोहम्मद खातमी 70 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट पाकर राष्ट्रपति बने थे, ठीक वैसा ही समर्थन उन्हें हासिल होगा। चुनाव के दौरान खातमी ने मुसावी के पक्ष में जमकर प्रचार भी किया था। लाख कोशिशों के बाद भी मुसावी देश की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने के सपने को लोगों की भावनाओं के साथ जोडऩे में असफल रहे और उन्हें राष्ट्रपति बनने लायक समर्थन नहीं मिला। चुनाव में मिली हार के बाद मुसावी जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह समझ से परे हैं। वे अपनी हार के लिए उसी सिस्टम को दोष दे रहे हैं जिसका वे वर्षों तक हिस्सा रहे हैं। 8 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहने के बाद वे 6 साल तक राष्ट्रपति के सलाहकार रहे। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने चुनाव के दौरान होने वाली गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने की मुहिम नहीं छेड़ी और न ही लोकतंात्रिका प्रक्रिया को पारदर्शी और जबावदेह बनाने का काम किया।
ईरान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव की दौरान अनियमितताएं नहीं हुई होंगी, पर इस बात की कोई गारंटी नही है कि फिर से चुनाव कराने पर ये स्वतंत्र और निष्पक्ष ही होंगे। देश में जब तक सत्ता सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल के पास केंद्रित रहेगी, ज्यादातर निर्णय और प्रक्रियाएं संदेहास्पद ही रहेंगी। बस, इस पर अगुंली उठाने वाले हाथ बदल जाएंगे। ईरान के लोकतंत्र में कई खामियां हैं। यहां शासन की वास्तविक शक्ति जनता से चुने प्रतिनिधियों के पास नहीं बल्कि मौलवियों और रूढ़ीवादियों के पास रहती है। संविधान के मुताबिक तो राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है, पर सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल की सहमति के बिना वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकता है। रक्षा और विदेश मामलों के बारे में सभी फैसले का अधिकार सर्वोच्च नेता के पास होता है। इसके अलावा कार्यपालिका का वास्तविक संचालन गार्डियन काउंसिल करती है। मजलिस यानी संसद में पेश होने वाले विधेयकों को इस काउंसिल से अनुमोदित कराना होता है। यहां तक कि चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के नामों को भी काउंलिस हरी झंडी देती है। हालिया चुनावों में उसने ऐसे 2005 में चुनाव लडऩे वाले सैकड़ों उम्मीदवारों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
ईरान में उपजे हालातों पर पश्चिम देशों के रुख का जिक्र करना भी जरूरी है। ईरान के चुनावों परिणामों से मुसावी के बाद सबसे ज्यादा दुख ये देश ही मना रहे हैं। परिणाम आते ही यहां के मीडिया ने अहमदीनेजाद की जीत को कट्टरपंथ की जीत बताते हुए चिंता जाहिर करना शुरू कर दिया। अहमदीनेजाद हमेशा से इन देशों की आंख का कांटा रहे हैं। परमाणु कार्यक्रम के अलावा कई मौकों पर उन्होंने इन देशों की बादशाहत की हंसी उड़ाई है। दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी वे कह चुके हैं कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में ये देश ऐसा कोई मौका नहीं चूकना चाहते जिसमें अहमदीनेजाद को सत्ता से बाहर होने की संभावना बनती हो। इसी के तहत ईरान में हो रहे विरोध प्रदर्शन को पश्चिम जगत का मीडिया कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है। मंगलवार को तेहरान में हुई रैली को ईरान के इतिहास की सबसे बड़ी रैली के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि तस्वीरों और वीडियो फुटेज से तो ऐसा कुछ प्रतीत नहीं होता है। प्रदर्शनकारियों की भारी भीड़ और सुरक्षाकर्मियों के कड़े रुख की खबरों के बीच जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वे और भी ज्यादा हास्यास्पद लग रहे हैं। बताया जा रहा है कि रैली में सुरक्षाकर्मियों की ओर से की गई गोलीबारी में एक व्यक्ति की मौत हो गई और सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लाखों की भीड़ पर गोली चलाई जाए और एक ही व्यक्ति की मौत हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
पश्चिमी मीडिया अपने हितों की खातिर पहले भी ऐसा भ्रामक कवरेज करता आया है। वह तथ्यों को इस तरह से पेश करता है कि शेष विश्व को लगता है कि यहां तो हालत बहुत ज्यादा खराब है। इस मामले में इराक का उदाहरण लिया जा सकता है। पश्चिमी मीडिया ने यहां किस तरह से अपने मुताबिक सच को तोड़ा-मरोड़ा। ईरान की स्थिति की भ्रामक तस्वीर पेश करने में अमरीकी मीडिया जितना तत्परता दिखा रहा है उसका पासंग भी इराक में अमरीकी सेना के अत्याचारों को दिखाने में लगाया होता तो दुनिया का दादा बनने वाला देश कब का नंगा हो चुका होता। बहरहाल, ईरान ने बहुत जल्दी पश्चिमी देशों के इरादों का भांप लिया है और सरकार ने विदेशी मीडिया पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं। सरकार की अनुमति के बिना अब कोई भी विदेशी मीडियाकर्मी यहां से रिपोर्टिंग नहीं कर पाएगा और न ही प्रदर्शन स्थल पर मौजूद रहेगा। कड़ी पाबंदियों के चलते विदेशी मीडियाकर्मी प्रदर्शन स्थल पर तो नहीं जा रहे हैं, पर माहौल को भयावह बताने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसके लिए अब सबसे ज्यादा इस्तेमाल साइबर मीडिया हो रहा है। ईरानी सरकार अब इस पर नजर लगाए हुए है और प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है।