शुक्रवार, मई 08, 2009

सियासत में सिमटा सौहार्द


बरसों तक भाई-भाई की तरह रहे गुर्जर और मीणा अब एक-दूसरे के खिलाफ लामबंद हो गए हैं। सियासतदां तनाव को मिटाने की बजाय इसे अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं। दहशत भरे इस माहौल के लिए कौन जिम्मेदार है?

गुर्जर आरक्षण आंदोलन से पहले दौसा को राजेश पायलट और मेहंदीपुर बालाजी के लिए जाना जाता था। 2007 में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की अगुवाई में शुरू हुआ गुर्जर आरक्षण आंदोलन अपने दो पड़ावों के बाद अब थम चुका है, लेकिन इसकी लपटें अब तक उठ रही हैं। हालांकि अब मुद्दा गुर्जर आरक्षण का नहीं, बल्कि दो जातियों बीच अस्तित्व की लड़ाई का है। मीणा और गुर्जर जातियों के बीच बढ़ती झड़पों ने क्षेत्र में तनाव बढ़ा दिया है। लोगों में दहशत है। सियासतदां इसे को दूर करने की बजाय, अपना-अपना स्वार्थ साधने में लगे हैं। निर्दलीय चुनाव लड़े डॉ. किरोड़ी लाल मीणा, मीणा जाति और कश्मीर से आए कमर रब्बानी चेची गुर्जर जाति के झंडाबरदार बने हुए हैं। जातिगत पंचायतों में दोनों नेता एक-दूसरे के खिलाफ जमकर जहर उलग रहे हैं।
परिसीमन में दौसा सीट के अनुसूचित जनजाति के आरक्षित होते ही कई मीणा नेताओं की इस सीट पर नजर थी। कांग्रेस के नमोनारायण मीणा ने तो यहां बाकायदा तैयारियां भी शुरू कर दी थी, लेकिन विधानसभा चुनाव के बाद बदली परिस्थितियों किरोड़ी लाल मीणा ने भी यहां से दावेदारी जता दी। किरोड़ी ने कांग्रेस के ऊपर समर्थन देने का दबाव भी बनाया, पर कांग्रेस अपने सिंबल पर किरोड़ी को चुनाव लड़ाना चाहती थी। लंबी जद्दोजहद के बाद किरोड़ी निर्दलीय ही मैदान में उतर गए। किरोड़ी के आने पर नमोनारायण ने यहां से दावेदारी छोड़ दी और वे सामान्य हो चुकी टोंक-सवाई माधोपुर लोकसभा सीट से चुनाव लड़े। कांग्रेस ने यहां से पुलिस अधिकारी रहे लक्ष्मण मीणा को प्रत्याशी बनाया तो भाजपा ने रामकिशोर मीणा को प्रत्याशी बनाया। इन उम्मीदवारों के बीच ही मुकाबला रहता तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन काफी पहले मैदान में कूद चुके कमर रब्बानी चेची के टक्कर में आने से माहौल तनावपूर्ण हो गया।
राजस्थान में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर मीणाओं का ही वर्चस्व रहा है। पहली बार किसी अन्य जाति के नेता ने मीणाओं को उन्हीं के गढ़ में आकर चुनौती दी। चेची कश्मीरी मुसलमान हैं, पर इनके वंशज गुर्जर रहे हैं। दौसा में चेची ने स्वयं को एक गुर्जर के तौर पर ही प्रचारित किया। चेची को गुर्जरों का एकतरफा समर्थन मिलने लगा ही मुसलमान भी उनके साथ हो लिए। सवर्ण जाति के वोटों में भी वे सेंध लगाते नजर आए। उधर, मीणा वोटों के तीन जगहों पर बंटते हुए दिखाई दे रहे थे। किरोड़ी को यह रास नहीं आया। उन्होंने चेची को कश्मीर से आया प्रशिक्षित आतंकवादी बताना शुरू कर दिया। हालांकि दौसा में आतंक फैलाने का काम किराड़ी समर्थकों ने किया। जगह-जगह लोगों को धमकाया गया, पर बात बनती हुई दिखाई नहीं दी। कांग्रेस उम्मीदवार लक्ष्मण मीणा की मानें तो किरोड़ी हिंसा फैलाकर चुनाव जीतना चाहते हैं। मीणा कहते हैं, 'किरोड़ी लोकतंत्र में विश्वास नहीं रखते हैं। उनके पक्ष में माहौल हो तो ठीक है नहीं तो वे गुंडागिर्दी पर उतर आते हैं। विधानसभा चुनाव में भी वे ऐसे ही जीते।'
मतदान के दिन मीणा और गुर्जरों के बीच कई जगह झड़पें हुईं। किरोड़ी के काफिले पर हमला हुआ, लेकिन सूत्रों के मुताबिक यह सब सुनियोजित था ताकि किरोड़ी को मीणाओं की सहानुभूति मिल जाए। मीणा वोटों में हो रहे बटवारे को रोकने के लिए उन्होंने इलाके के पुलिस स्टेशन में दिनभर हुडदंग मचाया। किरोड़ी अपने समर्थकों के साथ चेची की गिरफ्तारी की मांग को लेकर दिन भर पुलिस स्टेशन पर ही बैठे रहे। वे बार-बार अपने पैर में आई खरोंच को दिखाना भी नहीं भूल रहे थे। आखिर में चेची के खिलाफ रिपोर्ट लिखे जाने और अधिकारियों की ओर से चेची पर कार्रवाई के आश्वासन के बाद ही वे वहां से रवाना हुए। मतदान का अगला दिन भी क्षेत्र के लोगों के लिए दहशत भरा रहा। नांगल प्यारीवास गांव में मीणा समाज की महापंचायत के बाद लोगों ने जमकर उपद्रव मचाया। ऐसे हालातों में गुर्जर भी कहां चुप रहने वाले थे। अगले ही दिन उन्होंने भी आरक्षण आंदोलन के दौरान चर्चा में आए सिकंदरा चौराहे पर महापंचायत कर किरोड़ी लाल की गिरफ्तारी की मांग की और आर-पार की लड़ाई का ऐलान किया है।
आम गुर्जर और मीणा यहां शांति से रहने चाहते हैं, लेकिन कुछ लोगों की सियासत में क्षेत्र का सौहार्द्र सिमटता ही जा रहा है। चुनाव परिणाम आने पर यहां स्थिति और बिगड़ सकती है। चेची की हार पर शायद कम बबाल हो, पर किरोड़ी अपनी हार नहीं पचा पाएंगे। प्रचार के दौरान भी किरोड़ी ने चेची के खिलाफ जमकर जहर उगला था। जब हमने उनसे इस बारे में बात की तो वे भड़क उठे और बोले, 'चेची कश्मीर में टे्रनिंग लिया हुआ आतंकवादी है। वो यहां गूजर बनकर लोगों को बरगला रहा है। उसने मेरे ऊपर हमला करवाया। प्रशासन भी उसका साथ दे रहा है। अब क्षेत्र की जनता ही उन्हें सबक सिखाएगी। ऐसे लोग जनप्रतिनिधि तो क्या नागरिक बनने लायक भी नहीं हैं।' चेची उन पर पलटवार करते हुए कहते हैं कि 'आतंकवादी वह है जो आतंक फैलाए। आप दौसा की जनता से पूछ लीजिए कि आतंक कौन फैला रहा है। किरोड़ी के लोगों ने बूथ केप्चरिंग की, लोगों को वोट नहीं डालने दिया और फिर हमले का ड्रामा किया। जनता सब जानती है, परिणाम सबके सिखा देंगे।'
ऐसा नहीं है कि गुर्जर और मीणा जातियों के बीच द्वेषता शुरू से रही है। आरक्षण आंदोलन के पहले तक दोनों जातियों के बीच बेहद अच्छे संबंध रहे। कई मौकों पर दोनों जातियों ने आपसी भाईचारे का परिचय दिया। धाधरेन गांव के 80 वर्षीय लक्खी मीणा उन दिनों को याद करते हुए कहते हैं, 'गुर्जर और मीणाओं में कभी कोई लड़ाई नहीं रही। एक-दूसरे के सुख-दुख में खूब काम आते थे। इतिहास में भी उल्लेख है कि हम आपस में रिश्तेदार रहे हैं, लेकिन आरक्षण की लड़ाई ने सब तबाह कर दिया। गलतियां दोनों तरफ से हुई हैं। कुछ लोगों के बहकावे में आकर दोनों जातियां भ्रमित हो रही हैं।' एक-दूसरे से सटे दोनों जातियों के गांवों में लोगों को थोड़ा सा कुरेदने पर ही पता लग जाता है कि मीणा और गुर्जरों के बीच संबंध कितने प्रगाढ़ रहे हैं। 72 साल के गोविंद गुर्जर कहते हैं कि 'गुर्जर-मीणा एकता के किस्सों की कमी नहीं हैं। महावीर जी में शोभायात्रा का रथ दोनों जातियों के लोग मिलकर खींचते हैं, सांस्कृतिक गतिविधियों में हिस्सा लेते हैं और शादी-समारोह में आते-जाते हैं।'
देश की सबसे बड़ी पंचायत में कई बार दौसा की नुमाइंदगी करने वाले स्वर्गीय राजेश पायलट ने गुर्जर-मीणा रिश्तों में मिठास घोलने के लिए खूब काम किया। कभी-कभार दोनों जातियों के बीच तनाव होता तो पायलट बड़ी सहजता से हल कर देते। आरक्षण आंदोलन में अपना एक हाथ गंवा देने वाले जगन कहते हैं, 'पायलट साहब होते तो आंदोलन में इतना खून-खराबा नहीं होता। दोनों जातियों में उनकी पकड़ थी। गुर्जरों के वोट तो उन्हें मिलते ही थे, मीणाओं के भी वोट भी एकतरफा उन्हें ही मिलते थे। एक बार किरोड़ी लाल उनके खिलाफ चुनाव लड़े थे, तब भी मीणाओं ने पायलट को वोट दिए थे। सब उनकी बात मानते थे। कोई कितने भी गुस्से में हो वे उसे शांत कर देते थे।'
मीणा-गुर्जरों में पनपी इस कटुता के कारणों पर जाएं तो इसके लिए विशुद्ध रूप से कुछ लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं जिम्मेदार हैं। आरक्षण आंदोलन की अगुवाई करने वाले कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के भाजपा का दामन थाम लोकसभा चुनाव लडऩे से यह बात साबित हो गई हैं। आंदोलन के दौरान कर्नल बार-बार यह कहते थे कि यह एक गैर राजनीतिक आंदोलन है। वे इसमें शामिल होने वाले नेताओं के सामने शर्त रखते थे कि भविष्य में चुनाव नहीं लडऩा हो तो आंदोलन में शिरकत कर सकते हैं। आज वही कर्नल स्वयं राजनीति में कूद चुके हैं। वो भी उस पार्टी से जिसकी सरकार को वे तानाशाह और हत्यारी कहते हुए नहीं थकते थे। कर्नल के एक इशारे पर मरने-मारने के लिए तैयार रहने वाले ज्यादातर गुर्जर उनकी राजनीति महत्वाकांक्षा से अभी तक अनभिज्ञ हैं। गुर्जरों का बहुमत आज भी बैंसला के पीछे है जो यह मानता है कि कर्नल गुर्जरों की भलाई के लिए ही राजनीति में आए हैं, लेकिन एक वर्ग जो पढ़ा-लिखा है उनसे खासा खफा है। पत्रकारिता का कोर्स कर रहे राजेश खटाना कहते हैं कि 'कर्नल साहब ने राजनेताओं के साथ रहते-रहते जल्दी ही राजनीति सीख ली। 71 लोगों की लाशों पर चढ़कर वे संसद में पहुंचना चाहते हैं। ये किसी व्यक्ति की महत्वाकांक्षा की अति है। कर्नल साहब के इस कदम से साफ हो गया है कि अपने फायदे के लिए उन्होंने समाज का इस्तेमाल किया।'
बरसों से साथ रहते आ रहे मीणा-गुर्जरों के बीच चौड़ी होती खाई के बीच डॉ. किरोड़ी लाल मीणा का जिक्र करना जरूरी है। किराड़ी हमेशा शीर्ष पर रहने के आदी हैं। मात खाना उन्हें पसंद नहीं है। वे अपना मकसद पूरा करने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते हैं। आरक्षण आंदोलन के दौरान मीणाओं को उकसाने वालों में वे सबसे ऊपर थे। गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के प्रवक्ता रहे डॉ. रूप सिंह की मानें तो किरोड़ी ने ही मीणा और गुर्जरों के बीच नफरत के बीज बोए। वे कहते हैं, 'किरोड़ी ने गांवों में जा-जाकर मीणा भाइयों से कहा कि गुर्जरों को आरक्षण मिल गया तो उनके बच्चों को नौकरियां नहीं मिलेंगी। गुर्जर आरक्षण मांग कर हमारा हक मार रहे हैं।' वे आगे कहते हैं कि 'आम मीणाओं को गुर्जरों को आरक्षण मिलने पर कोई आपत्ति नहीं थी, दिक्कत तो किरोड़ी सरीखे नेताओं को थी जिनकी सियासत संकट में आ सकती थी, ऐसे नेताओं ने ही लोगों को बरगलाया।'

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