संसद पर हमले की आठवीं बरसी की श्रद्धांजलि सभा में मात्र ग्यारह सांसदों की उपस्थिति अपने फर्ज से उदासीन होते राजनेताओं की एक और शर्मनाक दास्तां है। यह संसद और सदस्यों की रक्षार्थ अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले जांबाजों की शहादत का तो अपमान है ही, लोकतंत्र के लिए भी शुभ संकेत नहीं हैं। हालांकि माननीय सांसदों के लिए श्रद्धांजलि सभा में जाना अनिवार्य नहीं था, लेकिन वे जाते तो देश की हिफाजत करने वाले जवानों का हौसला बढ़ता और यह संदेश भी जाता कि आतंक के खिलाफ युद्ध में देश की संसद पूरी तरह से एकजुट है। पिछले कुछ दिनों में ही राजनेताओं के व्यवहार की बानगी पूरे देश ने देखी। सदस्यों की अनुपस्थिति के चलते लोक सभा में प्रश्नकाल स्थगित करना पड़ा, राज्यसभा में जब लगातार छह सांसद प्रश्नकाल में गैरहाजिर रहे, तो सभापति को कहना पड़ा कि लोक सभा का वायरस राज्यसभा में भी आ गया है और पंजाब विधानसभा में तो सदस्यों ने सदन को अखाड़ा ही बना दिया और आपस में ही पिल पड़े। अलबत्ता नेताओं ने लोक तंत्र को कलंकित करने वाली इनसे भी बड़ी ढेरों कारगुजारियां की हैं, लेकिन इन दिनों न केवल इनकी संख्या में इजाफा हुआ है, बल्कि इस मर्ज की गिरफ्त में आने वाले जनप्रतिनिधियों की संख्या में भी खासा इजाफा हुआ है। इस तरह के नेता अब कम ही बचे हैं, जिनके आचरण को मिसाल के तौर पर पेश कि या जा सके । ऐसा करके नेता जनता के धैर्य की परीक्षा ले रहे हैं। आखिर जनता ऐसे नुमाइंदों को कब तक बर्दाश्त करेगी, जो अपने कर्तव्यों को निभाने की बजाय लोकतंत्र की मर्यादाओं को तार-तार कर रहे हैं।
सवाल यह है कि जनप्रतिनिधि अपनी जिस्मेदारियों से मुंह क्यों चुरा रहे हैं? वे न तो सदन में नजर आते हैं, न ही सामाजिक ढांचे को सुदृढ़ करने वाले कार्यक्रमों की शोभा बढ़ाते हैं। यह देश की राजनीति के बदलते चेहरे और चरित्र की विसंगतियां हैं। सत्तर के दशक तक यह माना जाता था कि राजनीति सेवा का एक माध्यम है और राजनेता जनसेवक । चुनाव जीतने का एक ही नुस्खा था - जनता के बीच रहो और काम करो, लेकिन अब राजनीति, चुनाव और नेता तीनों के मायने बदल गए हैं। आम राजनेता का न तो उद्देश्य जनसेवा रह गया है और न ही उसके चरित्र में इतना बल बचा है कि वह काम और जनसंपर्क के दम पर चुनाव जीत लें। राजनीति में टिके रहने के लिए वे अपने कार्यों की बजाय हथकंडों पर निर्भर रहते हैं। ये हथकंडे तरह-तरह से मतदाताओं को लुभाने से लेकर शक्ति प्रदर्शन, सांप्रदायिक सौहार्द बिगाडऩे और अंतत: बूथों पर कब्जे तक जाते हैं। हैरत इस बात पर होती है कि राजनेताओं का लोकतंत्र के विरुद्ध अमर्यादित आचरण रोकने के लिए मीडिया, आयोग या न्यायपालिका जितने उपाय निकालते हैं, राजनेता अमर्यादित आचरण करने के उससे ज्यादा तरीके निकाल लेते हैं। इस सांप-सीढ़ी के खेल से देश कब तक बच पाएगा? जब नेताओं के आचरण पर हो-हल्ला मचता है, तो वे ऐसा बहाना बनाते हैं कि उनकी बुद्धिमता पर हंसी आती है। जाहिर है, यह सच से मुंह मोडऩे का एक उपाय भर है। इससे उबरना तभी संभव है जब राजनेता खुद अपनी नैतिक जिस्मेदारी महसूस करें। आचरण और चरित्र की पवित्रता में वे रुचि लें और इसके लिए संकल्पबद्ध हों। अनुशासित होना इसकी पहली शर्त है। क्या देश के नेताओं से आम जनता को ऐसी उम्मीद करनी चाहिए?
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आज कल के हालात देखते हुए कोई उम्मीद करना बेवकूफी होगी।
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