मंगलवार, दिसंबर 01, 2009

जनप्रतिनिधियों का आचरण


भारतीय संसदीय लोकतंत्र के इतिहास में सोमवार को लोकसभा में प्रश्नकाल के दौरान पहली बार कार्यवाही इसलिए स्थगित करनी पड़ी, क्योंकि प्रश्न पूछने वाले अधिकांश सांसद अपने सवाल का जवाब जानने के लिए सदन में उपस्थित नहीं थे। सांसदों का बंक मारना अब कोई नई बात नहीं रही है, लेकिन कम से कम उनसे यह उम्मीद तो की जाती है कि अपने प्रश्न का जवाब सुनने के लिए वे सदन में हाजिर रहें। माननीय सदस्यों के सवाल का जवाब तैयार करने के लिए सरकार को काफी मशक्कत करनी पड़ती है और इसके लिए संबंधित विभागों के मंत्रियों को तैयारी भी करनी पड़ती है। इस समूचे प्रकरण का शर्मनाक पहलू यह रहा कि माननीय सदस्यों ने लोकसभा अध्यक्ष को अपने नहीं आने की सूचना देना भी उचित नहीं समझा। इस संदर्भ में देखा जाए तो देश की सबसे बड़ी पंचायत संसद से लेकर राज्य विधानसभा और ग्राम पंचायत तक में निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का यह गैर जिम्मेदाराना आचरण एक 'फैशनÓ का रूप अख्तियार कर चुका है, जो लोकतंत्र की सेहत के लिए एक खतरनाक बीमारी से किसी तरह कम नहीं है। नेताओं की इस प्रवृत्ति से सभी दल दुखी हैं और कांग्रेस व भाजपा सहित सभी दलों के प्रमुख अपनी पार्टी से चुनकर आने वाले सभी सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने की कई बार सख्त हिदायतें दे चुके हैं। लोकसभा अध्यक्ष और राज्य विधानसभा के अध्यक्ष भी निर्वाचित सदस्यों को बार-बार चेता रहे हैं कि उनकी अनुपस्थिति से कई महत्वपूर्ण निर्णय अटक जाते हैं। इन तमाम प्रयासों के बावजूद नेताओं के आचरण में सुधार नहीं आना चिंता का विषय है।
नेताओं के इसी आचरण से दुखी होकर सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष रहते हुए कहा था, 'संसद में अब न तो कोई प्रश्न करता है और न ही कोई किसी मुद्दे पर बहस करता है। बस शोर-शराबा करता है और धरना देता है, क्योंकि सांसदों को ऐसा लगता है कि शोर-शराबा करने और धरना देने से मीडिया का ध्यान उनकी तरफ आकर्षित होगा और इसका उन्हें राजनीतिक फायदा मिलेगा।Ó संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर औसतन 26,035 रुपए खर्च आता है। ऐसे में समय और जनता के धन की कीमत हमारे जनप्रतिनिधियों को भलीभांति समझनी चाहिए। बेलगाम होते जनप्रतिनिधियों के इस आचरण का उपचार न तो दंडात्मक कार्रवाई में है और न ही पार्टी प्रमुखों की हिदायतों में। आम मतदाता ही नेताओं की बैठकों से नदारद रहने की गैर जिम्मेदाराना प्रवृत्ति को सुधार सकता है। अब लोगों के पास सूचना के अधिकार का एक ऐसा हथियार है, जिसके जरिए अपने प्रतिनिधि की पाई-पाई का हिसाब रखा जा सकता है। जब लोगों में जागरुकता आएगी और वे ऐसे लोगों को चुनाव में नकारना शुरू करेंगे, तो नेताओं की अक्ल अपने आप ठिकाने आ जाएगी। जनता को प्रतिनिधि चुनने का अधिकार है, लेकिन वापस बुलाने का अधिकार नहीं है। ऐसे में वापस बुलाने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए, ताकि जनहित की अनदेखी करने वाले प्रतिनिधियों को बाहर का रास्ता दिखाया जा सके। मतदाताओं की जागरुकता और जनप्रतिनिधियों की कर्तव्यनिष्ठा के बिना भारत के महाशक्ति बनने के देशवासियों के सपने को पूरा नहीं किया जा सकता है।

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