शुक्रवार, दिसंबर 12, 2008

गहलोत की गुगली


अशोक गहलोत सूबे के नए सरदार बन गए हैं। मरुधरा की सियासत का सिरमौर बनने की दौड़ में बाकी दावेदार उनके सामने बोने साबित हुए। दूसरा धड़ा गहलोत के बढ़ते कद के सामने खुद ही हलकान हो गया। आखिर क्यों पड़े गहलोत सब पर भारी?

'उन्हें है शौक अगर बिजलियां गिराने का, हमारा काम भी है आशियां बनाने का' माजिद देवबंदी का यह शेर सूबे के नए सीएम अशोक गहलोत की ताजपोशी पर फिट बैठता है। कांग्रेस के पक्ष में चुनाव परिणाम आने पर यह तय माना जा रहा था कि सहरा गहलोत के सिर ही सजेगा। डॉ. सी.पी जोशी और हरेंद्र मिर्धा सरीखे दिग्गजों के हार जाने के बाद लग रहा था कि गहलोत को चुनौती देने वाला कोई नहीं हैं, लेकिन एक नहीं, चार-चार दावेदार सामने आ गए। शीशराम ओला, सी.पी. जोशी, गिरिजा व्यास और कर्नल सोनाराम। पर गहलोत के सामने एक न टिक सका। चारों की दावेदारी का पटाखा फुस्स हो गया। गहलोत पर हाइकमान ने तो विश्वास जताया ही विधायक भी उनके पक्ष में लामबंद हो गए। 'मारवाड के गांधी' की इस कामयाबी के बाद यह कहना पड़ेगा कि गहलोत सिर्फ जादू के ही नहीं, राजनीति के भी बेहतरीन फनकार हैं।
चुनाव परिणाम आते ही दिग्गज कांग्रेसी परसराम मदेरणा की सक्रियता को देखकर लगा कि गहलोत की राह आसान नहीं होगी। मदेरणा ने किसान मुख्यमंत्री के बहाने किसी जाट को मुख्यमंत्री बनाने की योजना पर काम किया। इससे पहले कि वे कोई नाम सामने लाते, जाट नेता शीशराम ओला और कर्नल सोनाराम ने दावेदारी जता दी। मदेरणा ने दोनों में से किसी का खुला समर्थन नहीं किया। गहमागहमी के बीच गहलोत जाट विधायकों में सेंध लगाने में कामयाब हो गए। आठ विधायक खुले तौर पर गहलोत के समर्थन में उतर आए। इन्होंने दिग्गज जाट नेताओं कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि 'मुख्यमंत्री जाति नहीं, योग्यता के आधार पर चुना जाना चाहिए। जाति की राजनीति का कांग्रेस को पहले ही बहुत नुकसान हो चुका है, यदि रवैया नहीं बदला तो लोकसभा चुनाव में भी बड़ा नुकसान होगा।' विधायकों की यह पीड़ा सही भी है। इस चुनाव में मतदाताओं ने साफ संकेत दे दिया है कि जाति का जोर अब नहीं चलेगा। गौरतलब है कि जाति की जाजम पर बैठकर सियासत करने वाले ज्यादातर दिग्गजों को चुनाव में हार ही नसीब हुई है। कांग्रेस की ओर से विश्वेंद्र सिंह, हरेंद्र मिर्धा, नारायण सिंह, परसराम मोरदिया, भंवर लाल शर्मा और अतर सिंह भड़ाना को मुंह की खानी पड़ी। भाजपा में सुमित्रा सिंह, जसकौर मीणा, ऊषा मीणा तथा मदन दिलावर को भी वोटरों ने ठेंगा दिखा दिया। गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल तो तीसरे स्थान पर रहे।
राजस्थान जाट महासभा के रुख से भी गहलोत की दावेदारी मजबूत हुई। महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने पहली पसंद शीशराम ओला को बताया, लेकिन साथ ही कहा कि गहलोत से भी गुरेज नहीं है। उल्लेखनीय है कि पिछले चुनावों में महासभा ने गहलोत की खुली खिलाफत कर कांग्रेस के सफाये में अहम भूमिका निभाई थी। बड़ी संख्या में जाटों के गहलोत की ओर हो जाने से मदेरणा की पूरी रणनीति फ्लॉप हो गई। सूत्रों के मुताबिक उन्होंने आखिरी कोशिश के रूप में सी.पी. जोशी की ओर रुख किया। जोशी को भी लगा बात बन सकती है। कुछ विधायकों का समर्थन भी मिला, लेकिन चुनाव में एक वोट से मिली हार ने यहां भी दुख दिया। तल्ख मिजाज जोशी के समर्थक बढऩे की बजाय घटते ही गए। उधर गिरिजा व्यास अकेले के दम पर ही ताल ठोंकती रहीं। कोई बड़ा नेता उनके साथ नहीं लगा। कम सक्रियता की वजह विधायकों का समर्थन भी नहीं मिला। समर्थकों की भीड़ के अलावा शीशराम ओला के साथ भी कोई दिग्गज सक्रिय नहीं हुआ। उन्हें अपनी कौम का भी पूरा समर्थन नहीं मिला। अधिक उम्र भी आड़े आ गई। महज शेखाबाटी तक ही प्रभाव होना भी नुकसानदायक रहा। हालांकि गिरिजा व्यास और ओला की महत्त्वाकांक्षा भी इतनी प्रबल नहीं रही, क्योंकि दोनों को पहले से ही अच्छे पद मिले हुए हैं।
पूरे घटनाक्रम में गहलोत की दावेदारी कभी भी कमजोर नहीं पड़ी। गहलोत ने सिर्फ दो जगह नजर रखी, आलाकमान और विधायक। आलाकमान तो पहले से ही उनके साथ था। गहलोत ने पूरा ध्यान समर्थक विधायकों की फेहरिस्त लंबी करने में लगाया। मदेरणा का 'किसान कार्ड' गहलोत के 'जो खेती करे, वही किसान' बयान से फेल हो गया। गहलोत का खेमा 'किसान का मतलब जाट नहीं' आवाज बुलंद करवाने में कामयाब रहा। विधायक दल की बैठक से पहले कांग्रेस कार्यालय के बाहर ओला और गहलोत समर्थकों के बीच हुई तीखी तकरार को देखकर लग रहा था कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भी गहलोत की राह आसान नहीं रहेगी। पर जिस सलीके से मुख्यमंत्री का चयन हुआ और जिस तरह से आलाकमान से सहमति ली गई, उसके बाद विरोध की ज्यादा गुंजाइश नहीं बची है। दिग्विजय सिंह और मुकुल वासनिक ने आलाकमान से गहलोत के नाम पर मुहर लगाने के बाद सर्वसम्मति बनाने पर जोर दिया। रायशुमारी में 96 में से 82 विधायकों ने गहलोत का समर्थन किया। इतने भारी समर्थन के बाद गहलोत के वर्चस्व को चुनौती देना आसान नहीं होगा।

इधर मचा बबाल

विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा में मचा बबाल थमने का नाम नहीं ले रहा है। बोले चाहे कोई, लेकिन लहजा तल्ख ही होता है। कई दिग्गज तो मीडिया के सामने भी भला-बुरा कहे से गुरेज नहीं कर रहे हैं। निशाने पर हैं मात खाई महारानी वसुंधरा राजे। साथ में ओम माथुर भी हैं। भाजपा में चल रही अंदरूनी जंग का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जहां कांग्रेस विधायक दल के नेता बनने के बाद अशोक गहलोत मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं वहीं, भाजपा विधायक दल की बैठक तक तय नहीं हुई है। दो खेमों में बंटी भाजपा में अब नेता प्रतिपक्ष पर जोर-आजमाइश हो रही है। पार्टी के ज्यादातर नेता वसुंधरा राजे को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं। इसके लिए घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया का नाम सामने आ रहा है। दोनों नेताओं को संघ का भी समर्थन मिल रहा है। सूत्रों की मानें तो वसुंधरा खेमा किरोड़ी लाल मीणा को आगे करने की रणनीति में जुटा है। महारानी के विश्वस्त राजेंद्र सिंह राठौड़ और एस.एन. गुप्ता, किरोड़ी को मनाने में जुटे हैं। सूत्रों के मुताबिक किरोड़ी का पार्टी में वापसी का मन भी बन रहा है। मन टटोलने की कोशिश की तो किरोड़ी बोले, 'मैंने पार्टी छोड़ी ही नहीं तो वापस ज्वाइन करने का सवाल कहां से आया। मैं तो आज भी भाजपा की विचारधारा को मान रहा हूं। कुछ लोगों ने पार्टी को बंधक बना रखा है, बेड़ा गर्क करने में लगे हुए हैं। मैंने उसकी खिलाफत की तो मुझे बाहर का रास्ता दिखा दिया, लेकिन जनता ने यह दिखाया कि मैं सही था और वो गलत।'
पार्टी में चल रही उठापटक से केंद्रीय नेतृत्व भी चिंतित है। आसन्न लोकसभा चुनाव से मुश्किलें और बढ़ गई हैं। वसुंधरा राजे और ओम माथुर को दिल्ली तलब किए जाने के बाद पार्टी में व्यापक फेरबदल के कसास लगाए जा रहे हैं। पार्टी सूत्रों के मुताबिक राजनाथ सिंह वसुंधरा को राजस्थान की राजनीति से विदा करने के मूड में हैं। प्रतिक्षारत लालकृष्ण आडवाणी भी खुले तौर पर महारानी का पक्ष नहीं ले रहे हैं। दरअसल, आडवाणी को लोकसभा चुनाव में राजस्थान से इसी तरह के परिणाम आने का डर सता रहा है। चुनाव में गुजरात मॉडल का मैजिक नहीं चलने के बाद ओम माथुर पर भी तलवार लटकी हुई है।

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