शनिवार, अगस्त 15, 2009

अधूरा अफसाना

वतन आजाद हुआ, तो हर शख्स ने चुन-चुनकर इसकी राहों में कुछ ख्वाब बिछाए। और जिन लोगों ने हमें आजादी की मंजिल तक पहुंचाया, उनकी भी ख्वाहिश थी कि हर ख्वाब को हकीकत में बदला जाए, हर आंख के आंसू को मुस्कान में बदला जाए......लेकिन तब से अब तक एक लंबा अर्सा गुजर चुका है.... और आज ज्यादातर लोगों का यही मानना है कि यह वो मुल्क नहीं है, जिसका सपना कभी बापू या नेहरू ने देखा था या जिसके लिए हमारे वीर सिपाही हंसते-हंसते शहीद हो गए थे। क्या आजादी वाकई एक ऎसा अधूरा अफसाना है, जिसके हर लफ्ज में कोई दर्दभरी दास्तान छिपी है इसी अहम सवाल का जवाब तलाशने के लिए आजादी की सालगिरह पर हमने तीन ऎसे लोगों को चुना, जिनका आजादी की लडाई के साथ सीधा रिश्ता रहा है। ये हैं महात्मा गांधी के पडपोते तुषार गांधी, सुभाषचंद्र बोस के पडपोते सूर्यकुमार बोस और भगतसिंह के भांजे प्रो। जगमोहन। उनके जवाब में हमें देश और समाज की एक धुंधली तस्वीर तो नजर आती है, पर साथ ही यह उम्मीद भी मौजूद है कि अगर इरादे बुलंद हों, तो कोहरे के पार एक विशाल नीले आसमान को भी हम छू सकते हैं।
बापू, सुभाष और भगत के सपनों का देश
तुषार गांधी- आजादी के बाद हमने बापू के सिद्धांतों की उपेक्षा करते हुए विकास का जो मॉडल अपनाया, उसने देश के भीतर ही दो देश बना दिए हैं। एक तरफ कुछ ऎसे लोग हैं, जो करोडों रूपए की बेंटले कार चला रहे हैं, तो दूसरी तरफ बैलगाडी चलाने वाले लोग भी हैं। लेकिन जहां पहले वर्ग की तादाद बेहद सीमित है, वहीं दूसरा वर्ग तेजी से बढ रहा है। इस खाई को पाटने के लिए हमें बापू के कहे मुताबिक शासन की नीतियां अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को ध्यान में रखकर बनानी होंगी।
सूर्यकुमार बोस- मेरा भी कुछ ऎसा ही मानना है। नेताजी सरीखे हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के सपने का भारत अभी तक नहीं बन पाया है। आतंकी हमलों से दहशत का माहौल है। राजनेता आतंकवाद पर लगाम कसने की बजाय अपने व्यक्तिगत हितों को पूरा करने और जेब भरने में लगे हुए हैं। संसद और विधानसभाओं को तो इन्होंने अखाडा बना दिया है। सिस्टम की खामियों को देखकर मन में कभी-कभी विद्रोह का विचार आता है।
प्रो.जगमोहन-मुझे दुख तो इस बात का है कि इस बार हमारे सामने अंग्रेज नहीं, बल्कि अपने ही लोग हैं। कहने को तो भारत आजाद हो गया है, लेकिन देश के नीति-निर्माता अभी भी इसे गुलाम रखना चाहते हैं। अंग्रेजों के अपने फायदे के लिए चलाई गई परिपाटियों को हम आज तक ढोते आ रहे हैं। हम अपने शहीदों के लिए अलग से स्मारक तक नहीं बना पाए और इंडिया गेट को वह दर्जा देने की भूल करते चले जा रहे हैं।
समाज की दशा और दिशा
तुषार गांधी- बेहद शर्मनाक है कि हम अभी तक समाज से कुरीतियों को खत्म नहीं कर पाए। समाज धर्म और जाति के दुष्चक्र में फंसता चला जा रहा है। इस तरह का वैमनस्य देश की एकता और अखंडता के लिए घातक है। हमें यह याद रखना चाहिए कि हजारों स्वतंत्रता सेनानियों ने समाज का यह वीभत्स रूप देखने के लिए कुर्बानी नहीं दी थी और आज हम इसी का नाम लेकर देश के टुकडे-टुकडे कर रहे हैं।
सूर्यकुमार बोस- देखिए, समाज का ताना-बाना जितना सुलझा हुआ होगा, देश उतना ही आगे बढेगा। विकास की रफ्तार को बढाने के लिए हमें बदलते वक्त के मुताबिक चलना होगा। ऎसी घटनाएं देखकर ठेस पहुंचती है कि आज इक्कीसवीं सदी में एक युवक को उन्मादी भीड ने पीट-पीट कर महज इसलिए मार डाला, क्योंकि उसने अपने गौत्र की लडकी से शादी कर ली थी। समाज के ठेकेदारों को परंपराओं के नाम पर रूढियों को थोपना बंद करना चाहिए।
प्रो.जगमोहन-मैं सोचता हूं कि समाज का विकास तभी होता है, जब उसमें स्वनियंत्रण हो। पश्चिम की संस्कृति ने समाज को उन्मुक्त तो बनाया है, लेकिन कई विकारों के साथ। रिश्ते जिम्मेदारी के बोझ से मुक्त होना चाहते हैं। इस भटकाव से समाज का पूरा ढांचा चरमरा गया है। नाउम्मीदी के बीच यह राहत की बात है कि देश की आत्मा कहे जाने वाले गांवों में स्थिति फिर भी ठीक है।
महिला अधिकारों की बात
तुषार गांधी- अब महिलाओं की स्थिति पहले की अपेक्षा सुधरी है, लेकिन अभी लंबी लडाई लडना बाकी है। महिलाओं को शासन के स्तर पर ही नहीं, समाज के स्तर पर भी सच्ची भागीदारी सुनिश्चित करने की जरूरत है। हालांकि यह सब इतना सहज नहीं है। पीढियों से समाज के जिस तबके को अबला समझते आए हों, उसे बराबरी का दर्जा देने में जोर तो आएगा। सुकून की बात है कि महिलाएं अपने हकों को हासिल करने के लिए उठ खडी हुई हैं।
सूर्यकुमार बोस- मेरे मुताबिक देश की आबादी के आधे हिस्से को दरकिनार कर विकास के बारे में सोचना बेमानी है। आज की नारी यह साबित कर चुकी है कि वह कमजोर और लाचार नहीं है। ऎसा कोई क्षेत्र नहीं है जहां महिलाओं ने अपनी कामयाबी के झंडे नहीं गाडे हों, फिर क्यों उसे बराबरी का हक देने में आनाकानी की जा रही है। संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के 33 फीसदी आरक्षण का मामला चंद नेताओं की जिद की वजह से लंबे समय से अटका पडा है।
प्रो.जगमोहन-झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का उदाहरण हम सबके सामने है। उन्होंने ऎसे समय में गुलामी की जंजीरों को तोडने का हौसला दिखाया था, जब पूरा देश निराशा में डूबा हुआ था। देश में लक्ष्मीबाई आज भी हैं, बस हम उन्हें अपना जौहर दिखाने का मौका नहीं देते। कितने शर्म की बात है कि लोग लडकी को जन्म लेने से पहले ही मार डालने का पाप करने से भी नहीं हिचकते हैं। समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए कन्या भू्रण हत्या पर जल्द से जल्द लगाम लगाना जरूरी है।
हमारा एक सपना है
तुषार गांधी- मैं तो चाहता हूं कि देश में समानता आधारित समाज की स्थापना हो। धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर लोगों से भेदभाव नहीं किया जाए। यह भेदभाव समाप्त हो जाएगा तो आधी समस्याएं तो वैसे ही हल हो जाएंगी। हमें देश की 'विविधता में एकता' को बरकरार रखना होगा। इसके अलावा मेरा प्रयास रहेगा कि बापू से जुडी हर चीज को देश में लाया जाए, ताकि उनकी अनमोल धरोहर को नीलामी जैसी शर्मसार करने वाली प्रक्रिया से नहीं गुजरना पडे।
सूर्यकुमार बोस- इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि हर क्षेत्र में देश का विकास हो। यहां की प्रतिभाएं देश के विकास में अपना योगदान दें। सरकार इस तरह के इंतजाम करे कि प्रतिभाशाली युवा देश से पलायन नहीं करें। युवा भी इस ओर ध्यान दें। वे महज ऊंचे वेतन के आकर्षण में अपना वतन नहीं छोडें। यदि मजबूरी में बाहर जाना भी पडे, तो अपनी मातृभूमि को नहीं भूलें। बाहर रहते हुए भी अपने देश की तरक्की में भागीदार बनने का प्रयास करें।
प्रो.जगमोहन-आप यूं क्यों नहीं सोचते कि यदि हम शहीदों के सपनों को पूरा कर पाएं, तो देश का कल्याण तो अपने आप हो जाएगा। लोगों को यह बताने की जिम्मेदारी हमारी है कि स्वतंत्रता सेनानी देश के बारे में क्या सोचते थे। स्वतंत्रता संग्राम का आधा-अधूरा सच ही लोगों का पता है। इतिहास का यह अनछुआ पक्ष बहुत रोमांचक है। और हां, हमें आजादी की जंग में कुर्बान हुए वीरों की याद में ऎसे स्मारक को मूर्त रूप देना है जो हमारी जमीन पर, हमने ही बनाया हो।

1 टिप्पणी:

  1. विभिन्न पहलुओं पर ' महात्मा गांधी के पडपोते तुषार गांधी, सुभाषचंद्र बोस के पडपोते सूर्यकुमार बोस और भगतसिंह के भांजे प्रो. जगमोहन के विचार पढ़े.यह अपने आप में एक अनूठी पोस्ट पढने को मिली.
    इन सभी के विचारों को जानकार ख़ुशी हुई .सूर्य कुमार जी की यह बात'बाहर रहते हुए भी अपने देश की तरक्की में भागीदार बनने का प्रयास करें' ठीक है मगर मेरे विचार में जो देश से दूर हैं वो अपने वतन के ज्यादा नज़दीक हैं..कम से कम आज की तारीख में और हर संभव प्रयास उनका रहता है की वे अपने देश के लिए जब भी जरुरत हो कुछ न कुछ योगदान कर सकें.
    उम्मीद है देश को आगे देखने का उनका सपना पूरा हो.और हर भारतीय का भी.
    स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनायें

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