सोमवार, जुलाई 13, 2009

नए निजाम, पुरानी मुसीबतें

सूबे में भाजपा के नए निजाम अरुण चतुर्वेदी आते ही पुरानी मुसीबतों के चक्रव्यूह में फंस गए हैं। उनके आते ही पार्टी के भीतर चल रहा घमासान और तेज हो गया है। पार्टी का कोई भी बड़ा नेता उन्हें स्वीकार करने के मूड में दिखाई नहीं दे रहा है। ऐसे में क्या चतुर्वेदी भाजपा के कील-कांटों को दुरुस्त कर पाएंगे? एक रिपोर्ट!

अरुण चतुर्वेदी। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के नए निजाम। हाईकमान ने उन्हें नियुक्त तो किया सूबे में पार्टी को पटरी पर लाने के लिए, लेकिन उनके आते ही असंतोष थमने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है। उन्हें अध्यक्ष बनाए जाने से नाराज नेताओं की फेहरिस्त लगातार लंबी होती जा रही है। विधायक व पूर्व मंत्री देवी सिंह भाटी ने तो चतुर्वेदी की नियुक्ति का विरोध करते हुए भाजपा की प्राथमिक सदस्यता से ही इस्तीफा दे दिया है। भाटी के बाद विधायक रोहिताश्व ने भी बागी तेवर दिखाते हुए कहा है कि नए अध्यक्ष एक कमजोर व्यक्ति हैं उनकी राजस्थान में कोई राजनीतिक पहचान नहीं है। चतुर्वेदी को पूरे प्रदेश के भूगोल तक का ज्ञान नहीं है। पार्टी उनके नेतृत्व में मजबूत नहीं हो सकती। हालांकि चतुर्वेदी सबको साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे हैं। वे पार्टी के आला नेताओं से मिलकर सहयोग करने की गुजारिश कर रहे हैं, पर संघ के अलावा कोई भी उनके साथ चलने को तैयार नहीं है।

हम पहले ही बता चुके है कि राजस्थान में भाजपा वसुंधरा राजे, वसुंधरा विरोधी और संघ के रूप में तीन खेमों में बंटी है। अरुण चतुर्वेदी संघ खेमे से हैं। प्रदेशाध्यक्ष पद के लिए संघ ने ही उनका नाम भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के पास भेजा था। हालांकि उनके साथ मदन दिलावर और सतीश पूनिया का नाम भी शामिल था, लेकिन मुहर चतुर्वेदी के नाम पर लगी। संघ और पार्टी के प्रति वफादारी के अलावा युवा होने का फायदा उन्हें मिला। विवादों से दूर रहना भी उनके काम आया। गौरतलब है कि प्रदेशाध्यक्ष बनने से पहले वे पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी थे। उनके इन पदों पर रहते हुए पार्टी के भीतर खूब घमासान मचा। खेमेबंदी भी जमकर हुई, पर चतुर्वेदी ने इनसे दूरी ही बनाए रखी। वे 'सबके साथ और किसी के साथ नहीं वाली नीति पर चले। संघ के प्रति जरूर उनका 'साफ्ट कॉर्नर' रहा। राज्य में संघ के भीतर भी कई धड़े बने हुए हैं, पर चतुर्वेदी के सभी से अच्छे संबंध हैं।

अरुण चतुर्वेदी को जिनती आसानी से पार्टी अध्यक्ष पद मिला है, काम करना उतना ही मुश्किल है। वे स्वयं भी मानते हैं कि इस जिम्मेदारी को संभालना आसान नहीं है। विशेष बातचीत में उन्होंने माना कि लगातार दो हार झेलने के बाद पार्टी में शक्ति का संचार करना आसान काम नहीं है। वे कहते हैं, 'हार का ज्यादा असर कार्यकर्ताओं पर पड़ता है। वे बहुत जल्दी मायूस हो जाते हैं। सबसे ज्यादा जरूरी काम कार्यकर्ताओं को ही सक्रिय करना है, क्योंकि पार्टी के उन्हीं के दम पर कायम है। कार्यकर्ताओं में जोश भरने का पूरी योजना मेरे दिमाग में है। स्थानीय निकायों के चुनावों को देखते हुए हम जल्दी ही इस पर काम शुरू करेंगे।' चतुर्वेदी कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में भले ही कामयाब हो जाएं, लेकिन बड़े नेताओं के बीच लगातार चौड़ी खाई को भरने में उन्हें पसीना आ जाएगा। उन्हें पद संभालने से पहले ही इसका ट्रेलर मिल गया। आमतौर पर नए अध्यक्ष की नियुक्ति की घोषणा होते ही बधाई देने और स्वागत करने के लिए नेताओं मजमा लगना शुरू हो जाता है, लेकिन चतुर्वेदी के साथ ऐसा नहीं हुआ। पार्टी का कोई भी आला नेता उन्हें बधाई देने नहीं पहुंचा। बाद में वे स्वयं एक-एक करके सभी नेताओं के यहां गए और सहयोग मांगा।

सूबे में भाजपा के नए निजाम के लिए कदम-कदम पर मुश्किलें हैं। उनके सामने सबसे पहली चुनौती नियुक्ति के बाद पनपे असंतोष को थामना है। चतुर्वेदी के लिए देवी सिंह भाटी का पार्टी छोड़ देना और रोहिताश्व की खुली खिलाफत से ज्यादा घातक उन्हें पटकनी देने के लिए अंदरखाने बन रही रणनीतियां हैं। उनके विरोधियों, खासतौर पर वसुंधरा खेमे में नए अध्यक्ष को लेकर खलबली मची हुई है। सूत्रों से जो जानकारियां मिल रही हैं वे चतुर्वेदी के लिए खतरनाक हैं। महारानी इस मसले पर केंद्रीय नेतृत्व के संपर्क में हैं और उन्होंने अपने समर्थकों को फिलहाल चुप रहने को कहा है। साथ ही चतुर्वेदी की अध्यक्षता में होने वाली बैठकों से दूर रहने को कहा है। जरूरत पडऩे पर वे अपने लमावजे के साथ दिल्ली भी जा सकती हैं। यहां हालत कुछ-कुछ वैसे ही हो रहे जो ओम माथुर के अध्यक्ष बनने के समय हुए थे। उस समय वसुंधरा नहीं चाहती थीं कि उनके विश्वस्त डॉ। महेश शर्मा को हटाकर ओम माथुर को प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी जाए, लेकिन राजनाथ सिंह ने माथुर को राजस्थान भेज दिया। महारानी ने उनकी वापसी के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, पर वे सफल नहीं हुईं। इस मामले में आडवाणी भी उनकी कुछ मदद नहीं कर पाए। माथुर राजस्थान आ तो गए, लेकिन महारानी ने उन्हें ज्यादा तवज्जों नही दी। पार्टी के नितिगत निर्णयों में माथुर की ज्यादा नहीं चली।

महारानी अच्छी तरह जानती हैं कि एक बार नियुक्ति हो जाने के बाद पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व फिलहाल अपना फैसला नहीं बदलेगा। नए अध्यक्ष का विरोध वे उन्हें हटाने के लिए नहीं, बल्कि उन पर दबाव बनाने के लिए कर रही हैं। वे हाईकमान के सामने ये साबित करना चाहती हैं कि चतुर्वेदी को अध्यक्ष बनाए जाने के फैसले से राज्य में पार्टी के ज्यादातर लोग सहमत नहीं हैं। इससे केंद्रीय नेताओं के सामने चतुर्वेदी का कद छोटा हो जाएगा, महारानी चाहती भी यही हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा खेमा चतुर्वेदी के लिए ओम माथुर से भी बदतर हालात पैदा करने की योजना बना रहा है। इसके तहत उन पर एक साथ हमला बोलने की बजाय धीरे-धीरे वार किया जाएगा। वे जितने समय भी अध्यक्ष पद पर रहे, असंतोष बरकरार रहे। जरूरत के हिसाब से यह कम-ज्यादा होता रहे।

महारानी खेमे को अपनी जगह छोड़ दें तो भी चतुर्वेदी की राह आसान नही हैं। वसुंधरा विरोधी खेमा उनके लिए दिक्कतें खड़ी कर सकता है। हालांकि इनमें से कई नेताओं से चतुर्वेदी के अच्छे संबंध हैं। पक्का संघी होने के कारण भैरों सिंह शेखावत, हरिशंकर भाभड़ा और ललित किशोर चतुर्वेदी सरीखे वरिष्ठ नेता भी उनका विरोध नहीं करेंगे। इन दिग्गजों के कहने से और भी कई नेता नए अध्यक्ष का सहयोग कर सकते हैं। सूत्रों के मुताबिक वसुंधरा विरोधी ज्यादातर नेता चतुर्वेदी का सहयोग करने तो तैयार हैं, लेकिन इस शर्त पर कि वे वसुंधरा को राजस्थान से रुखसत करने की उनकी मुहीम का हिस्सा बनें। गौरतलब है कि ये नेता लंबे समय से महारानी के खिलाफ सक्रिय है। इनकी लाख कोशिशों के बाद भी वसुंधरा ने मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर चुनावों में पार्टी की हार के बाद वे नेता प्रतिपक्ष बनने में सफल रही। वसुंधरा के विरोधी उन्हें पटकनी देने का कोई मौका नहीं चूकना चाहते। यदि प्रदेशाध्यक्ष उनके पक्ष का रहा तो वे महारानी हटाओ मुहिम को अंजाम तक पहुंचाने में सफल हो सकते हैं। वसुंधरा विरोधी खेमें में एक ही व्यक्ति हैं जो चतुर्वेदी के लिए समस्या खड़ी कर सकते हैं। वे हैं घनश्याम तिवाड़ी। तिवाड़ी की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं किसी से छिपी नहीं हैं। जिस समय महारानी मुख्यमंत्री थीं और प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की बात चल रही थी तो तिवाड़ी कुर्सी की दौड़ में सबसे आगे थे। प्रदेशाध्यक्ष को लेकर उनके नाम की चर्चा इस बार तो थी ही ओम माथुर के समय भी रही। यदि वे लोकसभा चुनाव नहीं हारते तो अध्यक्ष पद के लिए वे ही सबसे तगड़े दावेदार थे।

वैसे भले ही अरुण चतुर्वेदी आते ही मुश्किलों में घिर गए हों, पर मुसीबतें महारानी के लिए भी कम नहीं है। जिस तरह से अन्य राज्यों में भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व परिवर्तन कर रहा है, उसी क्रम में राजस्थान से वसुंधरा का नंबर भी आ सकता है। ओम माथुर के इस्तीफे के बाद नेता प्रतिपक्ष का पद छोड़े जाने को दबाव उन पर पहले से ही है। पार्टी में यह स्वर मुखर होने लगा है कि हार के लिए ओम माथुर से ज्यादा जिम्मेदार वसुंधरा हैं। इसलिए माथुर की तर्ज पर उन्हें भी इस्तीफा देना चाहिए। वसुंधरा को भी इसका अहसास है। वे इस बात के लिए लॉबिंग कर रही है कि राजस्थान में एक साथ दो परिवर्तन पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित होंगे। अरुण चतुर्वेदी के खिलाफ असंतोष को हवा देकर वे पार्टी के आला नेताओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि यदि उन्हें बदलकर किसी और को जिम्मेदारी दी गई तो इसी तरह से विरोध के स्वर उभरेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के करीबियों की मानें तो राजस्थान की जिम्मेदारी अरुण चतुर्वेदी को सौंपकर पार्टी ने वसुंधरा को भविष्य के कदम का संकेत दे दिया है। राजनाथ सिंह तो महारानी को हटाने के लिए पूरा मन बना चुके हैं, पर लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। आडवाणी के आशीर्वाद से महारानी भले ही नेता प्रतिपक्ष पद पर बनी रहें, लेकिन राज्य भाजपा में मचा घमासान कम होने वाला नहीं है।

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