शनिवार, दिसंबर 05, 2009

फिर न हो पुरानी चूक


प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा से बातचीत में केंद्र की ओर से बरती जा रही सावधानी पूरी तरह से जायज है। असम में आतंक के पर्याय रहे इस संगठन पर भरोसा करना खतरे से खाली नहीं है। सरकार 1992 के अपने कड़वे अनुभवों को दोहराना नहीं चाहती। उस समय बातचीत को जरिया बनाकर उल्फा ने अपने पांच नेताओं को रिहा करवा लिया था। अनूप चेतिया के नेतृत्व में वार्ता के लिए जेल से रिहा किए गए ये पांचों नेता तब बांग्लादेश भाग गए थे और आतंकी गतिविधियों को फिर से शुरू कर दिया था। अच्छी बात है कि सरकार ने अपनी पिछली गलती से सबक लिया है, लेकिन असम में शांति स्थापित करने के लिए इतना ही काफी नहीं है। यह वह समय है जब सरकार की चतुराई उल्फा को जमींदोज कर सकती है। संगठन के कमांडर इन चीफ परेश बरुआ को छोड़कर वर्तमान में इस संगठन के लगभग सभी शीर्ष नेता सुरक्षा एजेंसियों के कब्जे में हैं। उल्फा को खड़ा करने वाले अरविंद राजखोवा भी भारत के सामने हथियार डाल चुके हैं। उनका आत्मसमर्पण यह साबित करने के लिए काफी है कि लगातार कमजोर हो रहा यह संगठन अब समझौते की राह पर है। यह ऐसी स्थिति है जब सरकार अपनी शर्र्तों के आधार पर समझौता करवा सकती है। असम के मुख्यमंत्री के सुझाव पर भी गौर करना जरूरी है। वे चाहते हैं कि उल्फा नेताओं को सुरक्षित रास्ता दे दिया जाए, लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि वे आजाद होने के बाद फिर से उल्फा को मजबूत कर कत्लेआम नहीं मचाएंगे? क्या उल्फा के सरगनाओं को माफी देना उन लोगों के साथ नाइंसाफी नहीं है, जो बरसों से जारी हिंसा का शिकार हुए हैं?
केंद्र सरकार ने इस मसले पर जो रुख अपना रखा है, उसे देखकर तो यह लगता है कि वह इस बार दबाव में कोई समझौता करने को तैयार नहीं है। वार्ता शुरू करने से पहले यह तय कर लेना समझदारी है कि बातचीत किनसे की जानी है और किन मुद्दों पर होनी है। जब तक अरविंद राजखोवा संप्रभुता की मांग को नहीं छोड़ते हैं, बातचीत का कोई अर्थ नहीं है। परेश बरुआ की भूमिका को भी सरकार नजरअंदाज नहीं कर सकती है। वे वर्तमान में सबसे अधिक ताकतवर हैं और अब तक भारत की पकड़ से बाहर हैं। इस आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता कि राजखोवा की ओर से किए गए समझौते को वे मानने से इनकार कर दें। ध्यान रहे ऐसा पहले भी हो चुका है। 2005 में उल्फा ने वार्ता के लिए 11 सदस्यीय दल पीपुल्स कंसल्टेटिव ग्रुप (पीसीजी) बनाया था। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने इस समूह के साथ तीन दौर की बातचीत की थी, लेकिन इसमें उल्फा के किसी बड़े नेता के शामिल नहीं होने से कोई नतीजा नहीं निकला। सरकार को पता होना चाहिए कि उल्फा अब इतना मजबूत नहीं रहा है कि उसकी शर्र्तों के सामने झुका जाए। सरकार को वार्ता के लिए तब ही तैयार होना चाहिए, जब उल्फा हिंसा और संप्रभुता की मांग छोड़ दे। असम में शांति स्थापित करने के लिए उन अपराधियों को माफी नहीं दी जा सकती, जिनके हाथ हजारों बेगुनाहों के खून से रंगे हैं। केंद्र सरकार को इसी रुख पर कायम रहना चाहिए कि आत्मसमर्पण करने वाले उल्फा नेताओं को न्यायिक प्रक्रिया से गुजरना पड़ेगा और बातचीत संविधान के दायरे में रहकर ही की जाएगी।

1 टिप्पणी: