बुधवार, फ़रवरी 03, 2010
'अमर कथा' का अंत
समाजवादी पार्टी से अमर सिंह और उनके समर्थकों की बर्खास्तगी आश्चर्यचकित करने वाली नहीं है, क्योंकि पार्टी में उनकी खिलाफत करने वालों की बढ़ती फेहरिस्त और मुलायम सिंह की 'चुप्पी' से इसके संकेत पहले ही मिल गए थे। पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा देने के बाद उन्होंने जिस तरह से मायावती और सोनिया गांधी की तारीफ की, उसी से साफ हो गया था कि न तो अमर सिंह समाजवादी पार्टी का हिस्सा बने रहना चाहते हैं और न ही मुलायम सिंह की उनमें कोई दिलचस्पी बची है। राजनीति को संभावनाओं का खेल बताने वाले अमर सिंह ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि 14 साल तक एक पार्टी की 'सेवा' करने के बाद उन्हें अनुशासनहीनता का आरोप लगा रुखसत किया जाएगा और उम्र के इस पड़ाव में सियासी ठिकाना तलाशना पड़ेगा। 'अमर कथा' के अंत से दो सवाल बेहद मौजूं हो गए हैं- एक तो अमर सिंह किसके पहलू में अपनी राजनीति को आगे बढ़ाएंगे और दूसरा अपने पारिवारिक सदस्यों की महत्वाकांक्षाओं में उलझे मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी को किस दिशा में ले जाएंगे? अमर सिंह भले ही जनाधार वाले नेता कभी भी न रहे हों, लेकिन वर्तमान में देश की राजनीति जिस संक्रमण के दौर से गुजर रही है, उसमें उन जैसे नेताओं की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण है, यह किसी से छिपा नहीं है। चाहे महंगे होते चुनावों के लिए धन जुटाना हो या बहुमत लायक सीटों का इंतजाम करना, अमर सिंह इनमें उस्ताद रहे हैं। मुलायम सिंह को दूसरा अमर सिंह ढूंढने के लिए तो खासी मशक्कत करनी पड़ेगी ही, यह भी डर सताता रहेगा कि उनके 'हमराज' किसी दूसरी पार्टी में जाने पर मोर्चा न खोल दें। यह सही है कि मुलायम सिंह यादव एक जुझारू राजनेता हैं और उन्होंने यह साबित किया है कि कोई व्यक्ति कैसे अपने बलबूते सशक्त राजनीतिक दल खड़ा कर सकता है, लेकिन अब उन्हें इस पर विचार करना ही होगा कि समय के साथ उनके विश्वासपात्र सहयोगी एक-एक कर अलग क्यों होते जा रहे हैं? मौजूदा स्थितियों में सपा के समक्ष संकट इसलिए और अधिक गहरा नजर आता है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस न केवल उसके जनाधार में सेंध लगाने के लिए तत्पर है, बल्कि इसके लिए कोई मौका भी नहीं छोड़ रही है। बहुत समय नहीं हुआ जब क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में सपा सबसे सशक्त नजर आती थी और संख्या बल के हिसाब से तो वह अभी भी कांग्रेस और भाजपा के बाद तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है, लेकिन उसके लिए यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि वह अपने गढ़ उत्तर प्रदेश में अपनी धार खोती जा रही है। अमर सिंह के निष्कासन के बाद सपा का वह खेमा तो शांत हो जाएगा, जो उन पर परंपरागत वोट बैंक को छिटकाने और पार्टी को अपनी बुनियादी जमीन से भटकाने सरीखे आरोप लगा रहा था, लेकिन इतने भर से पार्टी संकट से नहीं उबर जाएगी। वंशवाद के समक्ष घुटने टेकना मुलायम के लिए भविष्य में भारी पड़ सकता है। मुलायम को यह ध्यान रखना होगा कि एक समय परिवारवाद की राजनीति का मुखर विरोध करने वाली सपा अब वंशवाद की राजनीति का एक उदाहरण बन गई है और ऐसी पार्टियों के लिए जनाधार को बचाए रखना एक बड़ी चुनौती है। अमर सिंह के साथ चलने के आदी हो चुके मुलायम इससे कैसे निपटते हैं, उनका और समाजवादी पार्टी का भविष्य इसी से तय होना है।
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