रविवार, जनवरी 18, 2009

बोलती बंद


चौतरफा हमलों ने बिंदास बोलने वाली वसुंधरा को बेजुबां कर दिया है। धड़ाधड़ लग रहे आरोपों के बाद भी उनका मौन नहीं टूट रहा है। शेखावत के हमलों के बाद गहलोत सरकार ने भी महारानी पर शिकंजा कस दिया है। आखिर क्यों नहीं निकल पा रही हैं वसुंधरा इस चक्रव्यूह से?

सियासत में सिंहासन पर सवारी करने वालों को ही सलामी मिलती है। वसुंधरा राजे आजकल राजनीति के इसी सच से रूबरू हो रही हैं। विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद शुरू हुए मुसीबतों के दौर ने रफ्तार पकड़ ली है। बाबोसा का बवंडर भयानक तूफान की शक्ल अख्तियार कर रहा है। विरोधी खेमा शेखावत के साथ हो लिया है। संघ हिसाब चुकता करने पर आमादा है। किरोड़ी सुलह के मूड में नहीं हैं। परंपरागत झालावाड़ सीट खतरे में है। अशोक गहलोत ने पिछली सरकार की करतूतों पर कार्रवाई का मन बना लिया है। कुल मिलाकर महारानी को सियासी पटकनी देने की पूरी तैयारी हो रही है। इस चक्रव्यूह से निकलने के लिए वसु मैडम इधर-अधर हाथ-पैर मार रही हैं, लेकिन इस किलेबंदी को भेदने का कोई तरीका नहीं सूझ रहा है।
विधानसभा चुनाव में उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं आने पर महारानी को सूबे की सियासत से विदा करने की अटकलें लगाई जा रही थीं। सूत्रों के मुताबिक राजनाथ सिंह ने तो इसके लिए पूरा मन बना लिया था, लेकिन लालकृष्ण आडवाणी की पहल पर वसुंधरा को 'जीवनदान' मिल गया। दरअसल, महारानी प्रतीक्षारत आडवाणी को यह समझाने में कामयाब रहीं कि सूबे में बागियों की वजह से उनका करिश्मा काम नहीं आया, लोकसभा चुनाव में यदि उन्हें 'फ्री हैंड' दिया गया तो वे पिछला प्रदर्शन दोहराने में कामयाब होंगी। आडवाणी के कहने पर राजनाथ सिंह ने सूबे की भाजपा में वसुंधरा की बादशाहत तो कायम रखी, लेकिन लोकसभा चुनाव तक सबकुछ ठीक करने की नसीहत के साथ।
नेता प्रतिपक्ष बनने के बाद वसुंधरा 'डेमेज कंट्रोल' की तैयारी कर ही रही थीं कि 'बाबोसा' ने ताल ठोक दी। शेखावत थमने का नाम नहीं ले रहे हैं, एक के बाद एक आरोप लगाते जा रहे हैं। भैरों सिंह की इस मुहीम से महारानी की छवि को खासा नुकसान हुआ है। शेखावत, वसुंधरा के लिए बड़ा सिरदर्द हैं। उनका हर कदम महारानी के लिए परेशानी बढ़ाने वाला है। वैसे भी भाजपा के पास शेखावत को लेकर तीन ही विकल्प हैं पहला, उन्हें मान-मनौव्वल कर शांत किया जाए दूसरा, उन्हें पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ाया जाए और तीसरा उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया जाए। शेखावत के तल्ख रुख को देखकर पक्के तौर पर यह कहा जा सकता है कि वे चुप बैठने वालों में से नहीं हैं। यदि पार्टी उन्हें टिकट देती है और वे जीत कर आते हैं तो फिर सूबे की सियासत से वसुंधरा का पत्ता साफ होने में देर नहीं लगेगी। पार्टी उन्हें टिकट नहीं देती है तो वे खुद तो चुनाव लड़ेगे ही बाकी सीटों पर उम्मीदवार भी खड़े करेंगे। हालांकि इनमें से जीतने वालों की संख्या बहुत कम होगी, लेकिन वे भाजपा के उम्मीदवारों को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में तो रहेंगे ही।
शेखावत इफैक्ट को अपने हाल पर छोड़ दें तो भी महारानी की मुसीबतें कम नहीं हैं। विधानसभा चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाला 'कास्ट फैक्टर' अभी भी भाजपा के पक्ष में नहीं है। भाजपा की ओर से सुलह के ठंडे पड़ते प्रयासों के बीच किरोड़ी लाल मीणा ने कांग्रेस की ओर रुख कर लिया है। कांग्रेस पहले ही उनकी पत्नी गोलमा देवी को मंत्री बनाकर उपकृत कर चुकी है। सूत्रों के मुताबिक किरोड़ी कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव लडऩा चाहते हैं। कांग्रेस भी इसके लिए तैयार हो गई है, बस सीट को लेकर मशक्कत चल रही है। यदि ऐसा होता है तो भाजपा को बड़ा नुकसान होना तय है, क्योंकि मीणा वोटर आधा दर्जन से ज्यादा सीटों पर हार-जीत तय करने की स्थिति में हैं। दूसरी ओर, विश्वेंद्र सिंह भले ही विधानसभा चुनाव में हार गए हों, लेकिन वसुंधरा के जाट विरोधी होने के मैसेज की मरहम-पट्टी अभी तक नहीं हुई है। जाटों को मनाने में देरी घातक हो सकती है, क्योंकि कांग्रेस जाटों को कुछ ज्यादा ही तवज्जों दे रही है। गुर्जरों के मामले में वसुंधरा अभी भी दुविधा में है। भाजपा के खैरख्वाह कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला की समाज पर कमजोर होती पकड़ से उलझन और बढ़ गई है। फिलहाल, भाजपा गुर्जर आरक्षण का ठीकरा कांग्रेस के सिर फोडऩे की रणनीति पर काम कर रही है। पार्टी राज्यपाल के पास लंबित आरक्षण विधेयक पर हस्ताक्षर करने की लगातार मांग कर गुर्जरों को यह समझाने का प्रयास कर रही है कि वसुंधरा सरकार ने तो आरक्षण दे दिया है, पर कांग्रेस की वजह से उन्हें इसका लाभ नहीं मिल रहा है। हालांकि आम गुर्जर इस बात को मानने को तैयार नहीं है।
लोकसभा चुनाव में पिछले प्रदर्शन को दोहराने में वसुंधरा के लिए संघ का रवैया भी एक बड़ी बाधा है। पुष्ट सूत्रों के मुताबिक संघ का एक धड़ा भाजपा में महारानी के बढ़ते कद से चिंतित है। संघ को इस बात का डर सता रहा है कि वसुंधरा आने वाले समय में नरेंद्र मोदी के लिए चुनौती बन सकती हैं। संघ महारानी को मोदी के मुकाबले खड़ा करना नहीं चाहता। वैसे भी मुख्यमंत्री बनने के बाद वसुंधरा और संघ के रिश्तों में कड़वाहट ही आती गई। मुख्यमंत्री रहते हुए महारानी ने कभी भी आरएसएस को ज्यादा तवज्जो नहीं दी। संघ ने भी उनकी कई नीतियों की खुली आलोचना की। शेखावत के सक्रिय होने से वसुंधरा और संघ में समझौता होने के आसार और कम हो गए हैं। संघ के सक्रिय नहीं होने की स्थिति में आडवाणी द्वारा दिए टारगेट को पूरा कर पाना वसुंधरा के बूते में नहीं होगा।
लोकसभा चुनाव में अच्छे प्रदर्शन के दबाव के बीच वसुंधरा को स्वयं के सियासी भविष्य की चिंता भी सता रही है। उनकी दो चिंताए हैं पहली, लोकसभा चुनाव में पार्टी की कम से कम 15 सीटें निकालना और अपने पुत्र दुष्यंत सिंह को झालावाड़ में विजयी बनाना। यदि उनकी दोनों चिंताएं सही साबित हुर्इं तो महारानी की स्थिति 'न घर की रहेगी न घाट की'। एक ओर लोकसभा चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं करने पर उनका नेता प्रतिपक्ष का ओहदा बचा पाना मुमकिन नहीं होगा वहीं, दुष्यंत सिंह हार गए तो परंपरागत झालावाड़ सीट से भी हाथ धोना पड़ेगा। इस दुविधा से निकलने के लिए वसुंधरा कई रास्तों पर विचार कर रही हैं। उनके पास पहला विकल्प यह है कि वे 'रणछोड़' बन कर झालवाड़ से लोकसभा का चुनाव लड़ केंद्र की राजनीति की ओर रुख करें और फिर दुष्यंत सिंह का झालारापाटन से विधायक का चुनाव लड़वाया जाए। इससे उनकी परंपरागत सीटें भी बच जाएंगी और भैरों सिंह शेखावत सहित विरोधियों के तेवर भी ढीले पढ़ जाएंगे। बस, दिक्कत एक ही है, यदि केंद्र में एनडीए की सरकार नहीं बनी तो वे महज एक सांसद बन कर रह जाएंगी। दूसरे विकल्प के तौर पर ऐसे में महारानी राज्य की राजनीति में ही सक्रिय रहकर झालावाड़ से किसी और को उम्मीदवार बनाने के बारे में भी सोच रही हैं।
चारों ओर से घिरी महारानी को शिकस्त देने का अशोक गहलोत को अच्छा मौका मिला है। उन्होंने वसुंधरा के शासनकाल की खामियों को ढूंढ़, घेरने की पूरी तैयारी कर ली है। शेखावत की सनसनी के बाद गहलोत ने अपना अभियान और तेज कर दिया है। दीनदयाल ट्रस्ट मामले में वसुंधरा सहित छह लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो चुकी है और इसी प्रकार के अन्य मामलों की पड़ताल हो रही है। गहलोत बड़ी चतुराई से रणनीति पर काम कर रहे हैं। वे जांच को तसल्ली से आगे बढ़ा रहे हैं ताकि लोगों को यह नहीं लगे कि 'बदले की भावना' से कार्रवाई हो रही है, बल्कि यह मैसेज जाए कि 'वे इसी लायक थीं।'

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