शनिवार, जनवरी 31, 2009

एक और सिंह ...


जसंवत सिंह और वसुंधरा राजे के बीच चल रहा सियासी संघर्ष चरम पर है। जहां जसवंत सिंह ने शेखावत के कंधे पर बंदूक रखकर निशान साध दिया है वहीं, महारानी मानवेंद्र सिंह की सियासत समाप्त कर पटकनी देने की तैयारी कर रही हैं। राजपूताने के दो भाजपाई दिग्गजों में छिड़ी जंग की परतें खोलती अंतर्कथा।

भैरों सिंह शेखावत के तल्ख बयानों से थर्रायी वसुंधरा राजे की सेहत आने वाले दिनों में भी सुधरने के आसार नहीं हैं। बाबोसा के बवंडर के बाद जसवंत सिंह की आंधी आने के हालात बन रहे हैं। सूबे की राजनीति में स्वयं के सियासी सपनों के चकनाचूर होने के बाद पुत्र मानवेंद्र की सियासत पर आए संकट से जसवंत सिंह की भृकुटि तन गई है। निशाने पर हमेशा की तरह वसुंधरा राजे ही हैं। ताजा संघर्ष की वजह मानवेंद्र सिंह की लोकसभा चुनाव में सीट बदलने की इच्छा है। वे इस बार बाड़मेर की बजाय जोधपुर या जालौर से चुनाव लडऩे का मानस बना रहे हैं। दरअसल, बाड़मेर में मानवेंद्र की हालत इस बार पतली है जबकि जोधपुर व जालौर में राजपूत वोटों की अच्छी संख्या के चलते जीत की संभावना ज्यादा है, लेकिन वसुंधरा उन्हें यह एडवांटेज लेने नहीं देना चाहतीं। जसवंत सिंह को भी इस बात का आभास है, इसलिए इन दिनों वे बाड़मेर में डेरा डाले हुए हैं।
ऐसा नहीं है कि जसवंत सिंह और वसुंधरा राजे के बीच हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। पांच-छह साल पहले तक दोनों के बीच अच्छे संबंध थे। एनडीए सरकार में साथ-साथ मंत्री भी रहे। भैरों सिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति बन कर दिल्ली जाने और वसुंधरा को अपनी विरासत संभलाने तक भी सबकुछ ठीक था। दिक्कतों का दौर 2003 में हुए विधानसभा चुनाव से शुरू हुआ। इन चुनावों ने महारनी ने 'बाबोसा' की उम्मीद के मुताबिक अहमियत नहीं दी। अपने 'गुरू' की यह अनदेखी जसवंत सिंह को रास नहीं आई। गौरतलब है कि राजपूताने के इस ठाकुर को राजनीति में भैरों सिंह शेखावत ही लाए थे। विधानसभा चुनाव हुए और भाजपा को राजस्थान में पहली बार पूर्ण बहुमत मिला। विधायक दल का नेता चुनने के लिए जसवंत सिंह ही पार्टी के केंद्रीय पर्यवेक्षक की हैसियत से जयपुर आए और वसुंधरा के नाम पर मुहर लगाई। इसी दिन जब वसुंधरा ने सार्वजनिक तौर पर जसवंत सिंह के पैर छूं कर आशीर्वाद लिया तो लगा कि दोनों के बीच कोई मनमुटाव नहीं है।
वसुंधरा के सीएम बनने के कुछ ही महीनों बाद लोकसभा चुनाव हुए। एनडीए को तो बहुमत नहीं मिला पर राजस्थान में वसुंधरा का जादू चला और पार्टी 25 में से 21 सीटें जीतने में कामयाब रही। बदले हुए हालातों में वसुंधरा और जसंवत की राजनैतिक हैसियत में बड़ा फेरबदल हो गया। जहां सिंह महज एक सांसद रह गए वहीं, वसुंधरा एक अहम सूबे की मुख्यमंत्री तो थी हीं पार्टी में भी उनका कद बड़ गया। जसवंत सिंह को वसुंधरा के बड़ते कद से ज्यादा चिंता खुद की सियासत बचाए रखने की थी। उन्होंने एक बार तो राजस्थान की राजनीति में सक्रिय होने का मानस बनाया, लेकिन वसुंधरा के आभामंडल के चलते उनके लिए गुजांइश ही नहीं बची थी। कदम पीछे खीचने के अलावा उनके पास कोई रास्ता ही नहीं था। वे यह सोच कर पीछे हटे कि सूबे में सरकार तो अपनी ही है। सत्ता सुख तो भोगा ही जा सकता है, लेकिन उनके लिए यह गलतफहमी साबित हुई। वसुंधरा ने धीरे-धीरे आंखे दिखाना शुरू कर दिया। कई मसलों पर दोनों में तनातनी होने लगी। जसवंत सिंह को सबसे ज्यादा बुरा तब लगा जब वे बाड़मेर के एक दल के साथ हिंगलाज माता के दर्शन करने के लिए पाकिस्तान गए। सिंह को उम्मीद थी महारानी इस दल को बॉर्डर तक विदा करने आएंगी, लेकिन वे नहीं आईं। सीमा के दूसरी ओर सिंध के मुख्यमंत्री द्वारा किए गए भव्य स्वागत और बलुचिस्तान के मुख्यमंत्री द्वारा दिए गए भोज ने जले पर नमक छिड़कने का काम किया।
बाड़मेर में आई बाढ़ के बाद दोनों के रिश्तों में और तनाव आ गया। बाढ़ से मची भारी तबाही के बाद राहत पहुंचाने के लिए मानवेंद्र सिंह और जसवंत सिंह ने वसुंधरा से कई बार गुहार की, लेकिन रस्म निभाने के लिए ही राहत कार्य शुरू हो सके। राहत कार्यों की धीमी गति से नाराज जसवंत सिंह उस समय आग बबूला हो गए जब महारानी ने अपने बेटे दुष्यंत सिंह को बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों के हालात का जायजा लेने के लिए बाड़मेर भेज दिया । सूत्रों को मुताबिक जसवंत सिंह ने दुष्यंत को खूब खरी-खोटी सुनाई। उन्होंने यहां तक कहा कि 'तुम यहां क्या करने आए हो। मैं मानवेंद्र को झालावाड़ जायजा लेने के लिए भेजूं तो तुम्हें कैसा लगेगा।' भीषण बाढ़ के दौरान राहत में हुई देरी से स्थानीय लोगों का सांसद मानवेंद्र सिंह से नाराज होना स्वाभाविक था। वसुंधरा राजे ने मुख्यमंत्री रहते हुए बाड़मेर के साथ बाढ़ की स्थिति के अलावा भी सौतेला व्यवहार ही किया। राज्य की विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत यहां नाममात्र का ही काम हुआ। उन्होंने यह सब तयशुदा रणनीति के तहत किया ताकि यहां से सिंह परिवार का पत्ता साफ हो जाए।
वसुंधरा राजे जब मुख्यमंत्री थीं तो उन्हें चाहने वालों की कमी नहीं थी। एक महाशय ने तो वाकायदा मंदिर बना देवी रूप में उन्हें स्थापित कर पूजा शुरू कर दी। महारानी को घेरने का जसवंत सिंह के पास यह अच्छा मौका था। जसवंत सिंह की पत्नी शीतल कंवर इसे हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का खिलवाड़ बताते हुए थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंच गईं। उन्होंने कई बार थाने के चक्कर काटे पर किसी ने रिपोर्ट नहीं लिखी। शीतल कंवर ने न्यायालय में गुहार लगाई। न्यायालय ने रिपोर्ट दर्ज करने के आदेश दिए, लेकिन फिर भी एफआईआर दर्ज नहीं की गई। मामला जब न्यायालय की अवमानना तक जा पहुंचा तो शिकायत दर्ज हुई। हालांकि पुलिस ने इसे कुछ ही दिनों में यह कहते हुए रफादफा कर दिया कि इस मसले में किसी ने कुछ भी गलत नहीं किया। इस घटना के कुछ दिनों बाद ही जसवंत सिंह ने अपने पैतृक गांव जसोल में 'रियाण' का आयोजन किया। उल्लेखनीय है कि 'रियाण' मारवाड़ में दशकों से चली आ रही एक परंपरा है जिसमें आए हुए महमानों से अफीम की मनुहार की जाती है। जसवंत सिंह अपने गांव में हर साल यह आयोजन करते हैं। इस बार फर्क सिर्फ इतना था कि मेहमान के तौर पर वसुंधरा विरोधी खेमे के नेताओं ने अफीम की मनुहार ली। वसुंधरा के लिए विरोधियों को घेरने का यह अच्छा मौका था। महारानी के इशारों पर पुलिस ने अगले ही दिन जसवंत व अन्य के खिलाफ मामला दर्ज कर लिया।
जसवंत सिंह ने पार्टी के स्तर पर भी कई बार वसुंधरा राजे को पटकनी देने की कोशिश की, लेकिन प्रतीक्षारत आडवाणी के आशीर्वाद के चलते वे महारानी का कुछ नहीं बिगाड़ पाए। हालांकि वसुंधरा विरोधी खेमे के कमांडर के तौर पर उनके सैनिकों की संख्या में निरंतर इजाफा हुआ। कई बार अपनी फौज के साथ दिल्ली में डेरा भी डाला। एक बार तो उन्होंने वसुंधरा को सीएम की कुर्सी से हटाने के लिए राजनाथ सिंह को भी राजी कर लिया था, पर आडवाणी ने सारा खेल खराब कर दिया। आखिर में प्रदेशाध्यक्ष के तौर पर महेश शर्मा की जगह ओम माथुर के भेजने पर बात थमी। इस दौरान जसवंत सिंह ने वाकयुद्ध लगातार जारी रखा और वसुंधरा सरकार की कई नीतियों की खुलेआम आलोचना की। बोलने में वसुंधरा भी कहां पीछे रहने वाली। उन्होंने जसवंत की अगुवाई में उनके खिलाफ लामबंद हुए नेताओं को 'खंडहर' और 'पुरानी हवेली' तक कह डाला। हर चाल पर मात खाने से हताश जसवंत सिंह वसुंधरा को यही कह पाए कि 'एक दिन तो सभी को खंडहर होना है।'
मुख्यमंत्री रहते हुए तो वसुंधरा राजे ने जसवंत को हर चाल पर मात दी, लेकिन अब ऐसा करना मुश्किल है। महारानी के पास अब सरकारी तंत्र नहीं है। उनके खास सिपेहसालार भी अब पाला बदलने लगे हैं। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद पार्टी में भी उनकी पोजीशन पहले जैसी नहीं रही है। जसवंत सिंह भी ऐसे ही मौके की तलाश में थे। सूत्रों के मुताबिक शेखावत के बदले हुए तेवरों के पीछे जसवंत सिंह का ही दिमाग काम कर रहा है। महारानी को सूबे की सियासत से विदा करने का पूरा एक्शन प्लान उन्होंने ही तैयार किया है। दूसरी ओर जसवंत के 'बाबोसा ब्रह्मास्त्र' को एनकाउंटर करने के लिए वसुंधरा ने मानवेंद्र सिंह की सियासी जमीन खिसकाने का रास्ता अपनाया है। यानि दोनों एक-दूसरे को पटकनी देने पर आमादा है। यह तो आने वाला वक्त की बताया कि इस सियासी संघर्ष में किसे जीत मिलती है और किसके हिस्से में हार आती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें