मंगलवार, दिसंबर 02, 2008

नारा ही क्या जो जुबां न चढ़े!


नारों की अपनी ताकत है। नारे वह कमाल दिखा जाते हैं, जो हजारों सभाओं-भाषणों-रैलियों के बस में नहीं होता। लेकिन, वक्त के साथ बदल रहे नारों की धार कुंद होती जा रही है। औपचारिकता भरे नारे लोगों की जुबान पर नहीं चढ़ पा रहे हैं।

सतहत्तर के आम चुनाव में 'यह देखो इंदिरा का खेल, खा गई शक्कर पी गई तेल' और 'हलधर किसान, जनता पार्टी का निशान' गली-मोहल्लों में खूब गूंजा। इन नारों से जनता पार्टी के पक्ष में ऐसा माहौल बना कि कांग्रेस का सफाया हो गया। इंदिरा गांधी समेत कई दिग्गज चुनाव हार गए और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। अगले चुनाव में कांग्रेस ने 'जात पर ना पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर' नारा देकर अपार सफलता हासिल की। भारतीय लोकतंत्र में नारों की अहमियत इन दो चुनावों तक ही सीमित नहीं रही। हर चुनाव में एक से बढ़कर एक चुटीले नारे बने। कुछ नारे तो इतने प्रभावी रहे कि कायजयी बन गए। इंदिरा गांधी का 'गरीबी हटाओ' आज भी उतना ही चर्चित और प्रासंगिक है। 'तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो .....' की गूंज से बहुजन समाज पार्टी ने दलित वोटों को अपने कब्जे में कर लिया। 'जीतेगा गुजरात' और 'आपणो गुजरात, आग्वो गुजरात' के सहारे नरेंद्र मोदी ने हेट्रिक बना ली।
नारों के सफल फसलफे के बीच सियासत का हालिया हुलिया देखें तो कहानी अलहदा है। छह राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में किसी भी सियासी दल ने ऐसा नारा नहीं दिया जो जनता की आवाज बन सके। सबसे पहले दिल्ली की बात। दस साल से विपक्ष में बैठी भाजपा ने 'महंगी पड़ी कांग्रेस' नारा दिया है। पार्टी को उम्मीद है कि महंगाई से त्रस्त जनता शीला दीक्षित सरकार को नकार देगी। वहीं, हेट्रिक लगाने की तैयारी कर रही कांग्रेस 'विकास को थमने न दो' की दुहाई दे रही है। समूचा दिल्ली इन्हीं नारों से अटा पड़ा है। राजस्थान में भी कहानी ऐसी ही है। भाजपा ने 'जय-जय राजस्थान' के बाद 'अब नहीं रुकेगा राजस्थान' नारा बनाया। राज्य में विकास की गंगा बहाने का दावा करने वाली मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इन नारों के साथ पांच साल और मांग रही हैं। दूसरी ओर कांग्रेस 'राज बदल कर दम लेगा, अब नहीं झुकेगा राजस्थान' के साथ चुनावी समर में कूदी है। छत्तीसगढ़ के चुनावों में इस बार भी चावल अहम मुद्दा बनता हुआ दिखाई दे रहा है। यहां भाजपा ने '3 रुपए चावल, फोकट में नुन, भाजपा सरकार को फिर से चुन' नारा दिया है। कांग्रेस यहां 'भ्रष्टाचारियों का राज बदल दो' के साथ रमन सिंह सरकार के खिलाफ जनादेश मांग रही है। मध्य प्रदेश में भाजपा 'हमारा प्रयास-निरंतर विकास' के साथ जनता के बीच गई है। सूबे में सत्ता संभालने का ख्वाव देख रही कांग्रेस अभी तक कोई बड़ा नारा नहीं दे पाई है। हालांकि हालिया चुनाव छह विधानसभाओं के लिए हो रहे हैं, लेकिन 'पीएम इन वेटिंग' लालकृष्ण आडवाणी ने प्रचार के दौरान 'जीतेगी भाजपा, जीतेगा भारत' के साथ आम चुनाव की तैयारी भी शुरू कर दी है।
सत्ता के सिंहासन पर बैठाने वाले नारे कभी-कभी उल्टे भी पड़ जाते हैं। भाजपा के 'इंडिया शाइनिंग' को कौन भूल सकता है। चुनावी इतिहास के सबसे महंगा, विवादित और सवालों से घिरा यह नारा भाजपा ने 2004 के आम चुनावों से पहले दिया। इलेक्ट्रोनिक व प्रिंट मीडिया के अलावा होर्डिंस में भी यही नारा छाया रहा है। टीवी पर सिर्फ पोलिया ड्रोप्स का विज्ञापन ही इससे ज्यादा दिखा। सरकार ने इसे 9,472 बार छोटे पर्दे पर दिखाया। यदि खर्चे के लिहाज से देखें तो इस पर 500 करोड़ से ज्यादा खर्चा आया। विपक्ष ने इसके खिलाफ खूब हो-हल्ला मचाया। चुनाव आयोग ने रोक भी लगाई। भाजपा को 'इंडिया शाइनिंग' अभियान से बड़ी उम्मीदे थीं, लेकिन चुनावों में वोटरों ने इस सिरे से नकारते हुए वाजपेयी सरकार को विदा कर दिया। गुजरात में कांग्रेस की कहानी भी कुछ ऐसी है। विधानसभा चुनावों में पार्टी ने मोदी से मुकाबला करने के लिए 'चक दे इंडिया' की तर्ज पर 'चक दे गुजरात' नारा दिया। नरेंद्र मोदी ने प्रत्येक चुनावी सभा में कांग्रेस इस नारे का जिक्र करते हुए लोगों से 'चक दे' का अर्थ पूछा। वाक्पटुता के बादशाह मोदी को मनमाफिक जवाब नहीं मिला तो उन्होंने इसे बाहरी नारा करार दे दिया। कुल मिलाकर कांग्रेस के पूरे केंपेन की हवा निकल गई। मोदी को मात देने का सपना भी अधूरा रह गया।
भारतीय राजनीति में नारों का इस्तेमाल मतदाताओं को उद्वेलित कर जनावेग पैदा करने में होता रहा है। लेकिन, इस बार के चुनावों को देखकर लग रहा है कि नारे बन ही नहीं पा रहे हैं। वस्तुत: चुनाव आयोग द्वारा प्रचार के तौर-तरीकों में बदलाव का असर भी नारों पर पड़ा है। भौंपू पर लगी बंदिशों के बाद अब ज्यादातर नारे विज्ञापनों तक ही सिमट कर रह गए हैं। इन्हें जनता की जुबान अभी तक नहीं मिल पाई है। मौटे तौर पर इसके दो कारण हैं पहला, नारे जनभावनाओं से नहीं जुड़ पा रहे हैं और दूसरा, राजनेता इस दिशा में उतनी क्रिएटिविटी नहीं दिखा रहे हैं। यदि वर्तमान के नारों की नब्बे के दशक तक दिए नारों से तुलना करें तो अंतर साफ दिखाई देता है। पहले जो नारे दिए जाते थे वे जनभावनाओं को ध्यान में रखकर बनाए जाते थे। जनता की नब्ज पकड़कर राजनीतिक दल नारे गढ़ते थे। नारों में उन मुद्दों को समेटा जाता था जिन पर जनता की नजरें रहती थीं। बोफोर्स तोप सौदे के समय विपक्ष का नारा 'गली-गली में शोर है, राजीव गांधी ...' खूब चर्चित रहा। यहां तक की आकाशवाणी पर प्रसारित हुए एक लाईव प्रोग्राम में एक बच्चे ने कविता की जगह इस नारे को बोल दिया था। वर्तमान में राजनीतिक दल नारों के स्थान पर चुनाव प्रबंधन पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी की मानें तो चुनाव जीतने के लिए नारे नहीं जनता को विकास चाहिए। नारों का महत्व तो है, लेकिन माहौल बनाने तक, कार्यकर्ताओं में जोश भरने तक। राजस्थान में भाजपा के निजाम ओम माथुर भी उनके सुर में सुर मिलाते हुए कहते हैं कि नारों से चुनाव नहीं जीते जाते, शिक्षित और समझदार मतदाता नारे नहीं काम देखता है। राजनेताओं के इन दावों के बीच चुनावी महासमर में चुटीले नारों की कमी अवश्य खल रही है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें