सोमवार, दिसंबर 08, 2008

नहीं रहा राजे का राज


सूबे की जनता ने वसुंधरा सरकार को नकार दिया है। महारानी के विकास के दावों पर आंदोलनों और भ्रष्टाचार की गूंज भारी पड़ी। दूसरी ओर कांग्रेस के सरकार बनाने की स्थिति में आने के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए दौड़ तेज हो गई है। फिलहाल अशोक गहलोत सबसे आगे हैं।

'हमें तो अपनों ने लूटा गैरों में कहां दम था, मेरी कश्ती डूबी थी वहां जहां पानी कम था' ये पंक्तियां वसुंधरा राजे पर सौ फीसदी सच साबित होती हैं। सूबे की सल्तनत से वसुंधरा को विदाई करने में भाजपाई भी पीछे नहीं रहे। महारानी के सियासत करने के अलहदा तौर-तरीकों की वजह से पार्टी के भीतर उनके विरोधियों की बड़ी फौज तैयार हो गई। विरोधियों के इस कुनबे ने महारानी को मात देकर ही दम लिया। दूसरी ओर कांग्रेसियों का एकजुट होकर चुनावी समर में उतरना कारगर रहा। हालांकि कांग्रेस पूर्ण बहुमत के मेजिकल फिगर को नहीं छू पाई, लेकिन यह तय है कि सरकार कांग्रेस की ही बनेगी।
भाजपा के हार के कारणों का विश्लेषण करें तो पिछले कुछ समय से वसुंधरा का हर दांव उल्टा पड़ा। गुर्जर आरक्षण आंदोलन उनके लिए गले की फांस बन गया। गुर्जर तो नाराज हुए साथ ही मीणाओं ने भी भाजपा से मुंह मोड़ लिया। किरोड़ी लाल मीणा को किनारे करने का फैसला महारानी के लिए भारी पड़ा। किरोड़ी, मीणा मतदाताओं को भाजपा के खिलाफ लामबंद करने में सफल रहे। उन्होंने 20 से 25 सीटों पर भाजपा को सीधा नुकसान पहुंचाया। हालांकि विश्वेंद्र की बगावत ने भाजपा के लिए उतनी भारी नहीं पड़ी। विश्वेंद्र स्वयं की सीट भी नहीं निकाल पाए। यही हाल गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल का रहा। वे भी नहीं जीत पाए। देवी सिंह भाटी की बेरुखी से निश्चित रूप से पार्टी को नुकसान हुआ। एंटीइंकंबेंसी से मुकाबला करने के मकसद गुजरात की तर्ज पर विधायकों के टिकट काटने का फैसला भी महारानी के लिए मुफीद साबित नहीं हुआ। अधिकांश विधायक बगावत पर उतर आए। जीते तो कम ही, लेकिन पार्टी के उम्मीदवार को भी नहीं जीतने दिया।
इस हार के बाद सूबे की भाजपा में खलबली मचना निश्चित है। वसुंधरा विरोधी खेमे के कई नेता खुलेआम मीडिया के सामने कह रहे हैं कि हार के लिए महारानी जिम्मेदार हैं। उनके हठी स्वाभाव और तानाशाही रवैये के कारण ही राज्य में भाजपा की सरकार नहीं बनी। आने वाले दिनों में वसुंधरा विरोधियों के और मुखर होने की संभावना है। पिछले पांच वर्ष से विरोधियों को दरकिनार करने वाला पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भी अब उनकी बात सुननी पड़ेगी, क्योंकि आम चुनाव ज्यादा दूर नहीं है। प्रतीक्षारत आडवाणी और राजनाथ सिंह को राजस्थान से बड़ी उम्मीद है। पार्टी सूत्रों के मुताबिक हार के कारणों के पोस्टमॉर्टम के बाद राज्य भाजपा में वसुंधरा का दखल कम होना तय है। राजनैतिक विश्लेषकों द्वारा जताए जा रहे अनुमान के मुताबिक विधानसभा चुनाव में मिली हार के बाद वसुंधरा स्वयं ही राज्य की राजनीति से किनारा कर लोकसभा चुनाव लड़ केंद्र की ओर रुख कर सकती हैं। प्रदेशाध्यक्ष ओमप्रकाश माथुर अपना ओहदा बरकरार रखने में कामयाब हो सकते है। माथुर पहले ही राजनाथ-आडवाणी को समझा चुके हैं कि राज्य में उनके मुताबिक काम नहीं हो रहा है।
कांग्रेस इस चुनाव में पूरी रणनीति के साथ उतरी थी। टिकट वितरण में भी पूरी सावधानी बरती गई। ध्यान रखा गया कि पार्टी के किसी कद्दावर नेता की अनदेखी नहीं हो। जिन दिग्गजों के टिकट काटे गए उनके रिश्तेदारों को टिकट दिया गया। जातियों को जुटाने के जतन में कांग्रेस काफी आगे रही। पिछले चुनाव में पार्टी की हार का अहम कारण बने जाटों को मनाने में पार्टी सफल रही। राजस्थान जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील ने कांग्रेस को खुला समर्थन दिया। राजपूत नेता लोकेंद्र सिंह कालवी ने भी पार्टी का साथ दिया। कांग्रेस का आक्रामक चुनाव प्रचार भी कारगर रहा। पार्टी के निशाने पर भाजपा से ज्यादा वसुंधरा राजे रहीं। राजे के राज में हुए भ्रष्टाचार को पार्टी ने पूरे जोर-शोर से उठाया। पिछले पांच साल तक भले ही कांग्रेस विधानसभा में कोई बड़ा मुद्दा नहीं उठा पाई, लेकिन प्रचार के दौरान कांग्रेस वसुंधरा सरकार को घेरने में कामयाब रही। अशोक गहलोत धरती पकड़ खामोशी तोड़ बेहद आक्रामक हो गए। उन्होंने समूचे प्रदेश में धुंआधार प्रचार किया और सौ से अधिक सभाएं कीं।
राजस्थान में कांग्रेस की जीत के बाद मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की दौड़ शुरू हो गई है। पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत इसमें सबसे आगे हैं। गहलोत की दावेदारी मजबूत होने के कई कारण हैं। एक तो कांग्रेस के पूरे चुनाव कैंपेन की कमान उनके हाथ में रही, दूसरा दस जनपथ से उनका निकटता। आलाकमान की सूची में गहलोत का नाम सबसे ऊपर है। प्रदेशाध्यक्ष सी।पी. जोशी, हरेंद्र मिर्धा और बी.डी. कल्ला सरीखे दिग्गजों के चुनाव हार जाने के बाद गहलोत और मुख्यमंत्री की कुर्सी के बीच दूरियां कम हो गई हैं। अब उन्हें एकमात्र खतरा दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा से है। मदेरणा आलाकमान के सामने जाट मुख्यमंत्री की मांग करके दिक्कत खड़ी कर सकते हैं। टिकट वितरण के दौरान मदेरणा के तीखे तेवर देखने को मिले थे। उन्होंने गहलोत पर निशाना साधते हुए टिकट वितरण में धनबल के प्रयोग का आरोप लगाया था। मदेरणा के प्रभाव को देखते हुए आलाकमान ने उन्हें तुरंत दिल्ली तलब कर सुलह कराने का प्रयास किया था, लेकिन मदेरणा इतनी आसानी से मानने वाले नहीं हैं। हालांकि उनके लिए भी दिक्कतें कम नहीं हैं। पार्टी के सभी जाट नेता उन्हें मुख्यमंत्री बनाए जाने के पक्ष में नहीं हैं। अधिक उम्र भी एक बाधा है। उनके बाद कर्नल सोनाराम भी दौड़ में शामिल हैं। राहुल गांधी की पसंद पर जाएं तो सचिन पायलट भी दौड़ में हैं।


''जनता भाजपा के कुशासन के तंग आ चुकी थी। जनता ने कांग्रेस को चुन सुशासन का मार्ग प्रशस्त किया है। वसुंधरा राजे के पांच साल के कार्यकाल को राजस्थान मौजमस्ती, मटरगश्ती, मुद्रा, मदिरापान और भ्रष्टाचार के रूप में याद रखेगा।''

- अशोक गहलोत, पूर्व मुख्यमंत्री


''लोकतंत्र में मतदाता का फैसला अंतिम होता है। भाजपा उसे स्वीकार करती है। हमें चुनाव परिणामों से बहुत उम्मीदे थीं, लेकिन हमारा आकलन गलत साबित हुआ। हार के लिए कौनसे कारण जिम्मेदार हैं, मिल-बैठकर पता करेंगे।''

- वसुंधरा राजे सिंधिया, मुख्यमंत्री

क्यों जीती कांग्रेस?
सत्ता विराधी लहर का फायदा मिला। भाजपा में असरदार बागियों की संख्या ज्यादा होना कांग्रेस के लिए मुफीद रहा। आक्रामक प्रचार का भी मिला लाभ।


क्यों हारी भाजपा?
चुनाव अभियान में वसुंधरा अकेली पड़ीं। भितरघात और बागियों ने बिगाड़ा गणित। जातिगत समीकरण भी रहे खिलाफ। गोलीकांड और आंदोलनों को नहीं भूले लोग।

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