शनिवार, दिसंबर 18, 2010

ताज गया, राज बरकरार


वसुंधरा राजे सिंधिया भले ही सत्ता में नहीं हैं और आलाकमान उन्हें राजस्थान से दूर हर संभव कोशिश कर चुका है, लेकिन जनता के बीच आज भी उनका जादू बरकरार है। उनकी यदा-कदा होने वाली सभाओं में लोगों की बढ़ती तादात चौंकाने वाली है। जनता को रिझाने की कला में वे निश्चित रूप से पहले से कहीं ज्यादा पारंगत हो गई हैं।
स्थान- राजधानी जयपुर का महारानी कॉलेज। मौका- छात्रसंघ का उद्घाटन समारोह। आमतौर पर ऐसे अवसरों का उपयोग छात्रसंघ के पदाधिकारी बड़े राजनीतिज्ञों को बुलाकर विद्यार्थियों के बीच अपनी धाक कामय करने के लिए और राजनेता युवाओं में अपनी लोकप्रियता बढ़ाने के लिए करते हैं। महारानी कॉलेज में भी ऐसा ही हुआ, लेकिन हुआ बेहद अलहदा ढंग से और वजह बनीं सूबे की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया। दरअसल, वे महारानी कॉलेज में हुए इस जलसे में बतौर मुख्य अतिथि शिरकत कर रही थीं। पहले तो उन्होंने भाषण में दौरान नारी उत्थान की बातें कर खूब तालियां बटोरीं और जब नाचने-गाने का दौर शुरु हुआ तो मंच पर लड़कियों के साथ ठुमके लगा सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। सूबे के राजनीतिज्ञों को भले ही यह अटपटा लगे, लेकिन वसुंधरा राजे का सियासत करने का यही अंदाज है और इसी के दम सत्ता छिनने के बाद भी जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बरकरार है।
वसुंधरा राजे ने केवल राजस्थान की राजनीति में कई मिथकों को तोड़ते हुए आगे बढ़ीं, बल्कि आज भी उन्हें तोड़ रही हैं। जनता से जुडऩे की प्रक्रिया में उन्हें ऐसे तौर-तरीके अपनाने से कोई गुरेज नहीं है, जो प्रदेश के राजनीतिज्ञों के लिए अब तक अछूत रहे हैं। वे सूबे के जिस भी कोने में जाती हैं, उसी रंग में रंग जाती हैं। वे लोगों की हर मनुहार स्वीकार करती हैं। इससे न केवल उनकी लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई, बल्कि जनता के बीच उनकी स्वीकार्यता भी बढ़ी। इसी के दम पर भाजपा के भीतर उनकी कद-काठी मजबूत हुई। आज स्थिति यह है कि उनका विरोध करने वाले नेता भी दबे स्वर से यह स्वीकार करते हैं कि राजस्थान भाजपा में ‘जनाधार’ के मामले में उनके कद का कोई नेता नहीं है। वसुंधरा भी यह जानती हैं और इसी के दम पर अपने विरोधियों को कई बार जमीन भी दिखा चुकी हैं। इतना ही नहीं राजस्थान की राजनीति के भीष्म पितामह कहे जाने वाले भैरों सिंह शेखावत और पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह को भी सीधी चुनौती दे चुकी हैं। यहां सवाल यह है कि आखिर इतना सब होने के बाद भी सूबे की सियासत में महारानी की जड़े कैसे मजबूत होती गईं, उनका जादू आज भी कैसे बरकरार है?
वसुंधरा राजे के सियासी सफर पर नजर डालें तो साफ हो जाता है कि वे बड़े ही केलकूलेटिव तरीके से आगे बढ़ीं। न तो कभी जल्दबाजी की और न ही कभी जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी हुईं। और इन सबके बीच उन्होंने जनता और खुद के बीच दूरियां पैदा नहीं होने दीं। उन्हें राजनीति में लाने का श्रेय निश्चित रूप से भैरों सिंह शेखावत को जाता है। उनकी अंगुली पकड़ कर 1985 में वे विधानसभा चुनाव में धौलपुर से विजयी रहीं, लेकिन वे जैसे-जैसे आगे बढ़ती गईं आत्मनिर्भर होती गईं। 1989 के लोकसभा चुनाव में वे झालावाड़ सीट पर किस्मत आजमाने पहुंचीं और अच्छे अंतर से जीतने में सफल रहीं। वसुंधरा को झालावाड़ और झालावाड़ की जनता को वसुंधरा खूब रास आईं। उन्होंने लगातार पांच बार संसद में झालावाड़ की नुमाइंदगी की। इस दौरान केंद्र में अटल बिहारी सरकार में उन्हें राज्य मंत्री का ओहदा भी मिला। 2003 में भैरों सिंह शेखावत का उप राष्ट्रपति बनना वसुंधरा के लिए वरदान साबित हुआ। बाबोसा उन्हें अपना राजनीतिक वारिस बनाकर दिल्ली रवाना हो गए। वसुंधरा के विरोध में पहली बार स्वर इसी समय उभरे थे। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया।
यह वह समय था जब राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। गहलोत के 1998 में प्रचंड बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई थी। चुनाव नजदीक आते ही टिकट चाहने वाले नेता जरूर सक्रिय हुए, लेकिन कार्यकर्ता अभी भी पार्टी से कटे हुए थे। कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और भाजपा के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए महारानी की ‘परिवर्तन यात्रा’ बेहद सफल रही। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस यात्रा के बाद ही वसुंधरा को इस बात का आभास हुआ कि वे अब राजनीति के सही ट्रेक पर हैं।
महारानी की राजनीति करने की अपनी ही शैली है, एकदम रजवाड़ों की मानिंद। ना-नुकुर करने और ऑर्डर देने वालों को वे पसंद नहीं करती हैं। भैरों सिंह शेखावत से तनातनी इसी वजह से शुरू हुई। हालांकि उनके ‘खास’ कहे जाने वाले कई लोगों ने भी दूरियां बढ़ाने के काम किए। इस तनातनी के बीच विधानसभा चुनाव उन्होंने अपनी रणनीति से लड़ा। परिणाम आए तो वसुंधरा ने इतिहास रच दिया। राजस्थान में भाजपा के लिए जो करिश्मा शेखावत सरीखे दिग्गज नहीं कर पाए, महारानी ने करके दिखाया। भाजपा को विधानसभा में पहली दफा पूर्ण बहुमत मिला। मुख्यमंत्री बनते ही महारानी ने अपनों को उपकृत और विरोधियों को ठिकाने लगाना शुरू कर दिया। इधर वसुंधरा के समर्थकों का कारवां तेजी से बढ़ रहा था तो विरोधी ‘बाबोसा’ का आशीर्वाद प्राप्त जसवंत सिंह के नेतृत्व में एकजुट हो रहे थे। वसुंधरा विरोधी खेमे ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। मिलती भी कैसे, वसुंधरा को आडवाणी का वरदहस्त जो प्राप्त था। खैर विरोधी खेमा भी कहा मानने वाला था। उन्होंने वसुंधरा न सही उनके चहेते डॉ. महेश शर्मा को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटवाकर ही दम लिया।
नए अध्यक्ष ओम माथुर से वसुंधरा की पटरी बैठती इससे पहले ही गुर्जर आरक्षण आंदोलन हो गया। आंदोलन से वसुंधरा की सियासी सफलता में अहम भूमिका निभाने वाली ‘कास्ट केमिस्ट्री’ तो गड़बड़ाई ही कद्दावर नेता किरोड़ी लाल मीणा से भी बैर बंध गया। खैर, जैसे-तैसे कर आंदोलन समाप्त हुआ तो विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। महारानी मन मुताबिक चुनाव की तैयारी नहीं कर पाईं। पूरे प्रचार अभियान में वे अकेली तो थीं ही, गहलोत के आक्रामक प्रचार के अलावा अपनी ही पार्टी के लोगों की ओर से उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को भी झेल रही थीं। खुद के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों की दुहाई देने के बाद भी वे क्लोज फाइट में हारकर सत्ता से बाहर हो गईं। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद वसुंधरा विरोधी उन्हें राजस्थान से रुखसत करने के लिए सक्रिय हो गए, लेकिन विधायकों के समर्थन के चलते वे नेता प्रतिपक्ष बनने में कामयाब हो गईं। कुछ दिनों में ही आम चुनाव का कार्यक्रम घोषित हो गया। इनके परिणाम भी निराशाजनक आए। पिछली बार 21 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 4 सीटों पर सिमट गई।
वसुंधरा इस हार का कोई बहाना ढूंढ़ती इससे पहले ही उत्तराखंड में खंडूरी और यहां ओम माथुर ने हार की जिम्मेदारी लेते हुए पद छोडऩे की पेशकश कर दी। वसुंधरा पर भी पद छोडऩे का दबाव बढऩे लगा, पर खंडूरी और माथुर के इस्तीफे स्वीकार करने में हुई देरी को उन्होंने मौके की तरह लिया। इतने में अरुण चतुर्वेदी सूबे में भाजपा के नए निजाम बन गए। वसुंधरा ने अपने किसी सिपेहसालार को अध्यक्ष बनाने की लाख कोशिश की, पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। चतुर्वेदी ने आते ही ऐसा कोई काम नहीं किया कि वे वसुंधरा को शिकस्त देना चाहते हैं, लेकिन सियासत की अपनी शैली के अनुरूप महारानी ने चतुर्वेदी को हलकान करने के काम करना शुरू कर दिया। इसके लिए उन्होंने जो तरीका और समय चुना, वह पार्टी आलाकमान को अखर गया। वसुंधरा ने पार्टी दफ्तर में बैठकर कायकर्ताओं से मिलना शुरु किया तो विरोधियों ने प्रचारित किया कि महारानी पार्टी दफ्तर में दरबार लगा रही हैं। उन्होंने इसकी रिपोर्ट तुरंत केंद्रीय नेतृत्व को भी भेज दी। वसुंधरा की इस हरकत को आलाकमान ने पार्टी के भीतर समानांतर संगठन चलाने के तौर पर देखा।
महारानी से पहले से ही नाराज चल रहे राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने अकेले कोई निर्णय करने की बजाय लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, जसवंत सिंह, रामलाल, गोपीनाथ मुंडे, श्योदान सिंह एवं बालआप्टे के अलावा संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी और सुरेश सोनी से चर्चा कर वसुंधरा को इस्तीफा देने के लिए कहा। वसुंधरा ने इस्तीफा तो दिया, लेकिन कई महीने बाद। इस दौरान उन्होंने पार्टी के आला नेताओं को यह अहसास करा दिया कि राजस्थान में जनता और कार्यकर्ताओं के बीच उनकी जड़े कितनी गहरी हैं। पार्टी के ज्यादातर विधायकों ने खुलेआम यहां तक कह दिया कि ‘विधायक दल का नेता चुनने का अधिकार विधायकों का है। हमने वसुंधरा राजे को नेता चुना है। पार्टी उन्हें हटा नहीं सकती है। जहां तक हार की जिम्मेदारी लेने का सवाल है तो लोकसभा चुनावों में हुई हार की जिम्मेदारी लेते हुए सबसे पहले आडवाणी जी और राजनाथ सिंह जी को इस्तीफा देना चाहिए। वसुंधरा ही हमारी नेता रहेंगी भले ही हमे पार्टी ही क्यों न छोडऩी पड़े।’
आलाकमान ने उन्हें नेता प्रतिपक्ष के पद से तो हटा दिया, लेकिन प्रदेश भाजपा में आज भी उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। सीधे तौर पर उनकी मर्जी के खिलाफ जाने की हिम्मत केंद्रीय नेतृत्व में भी नहीं है। नए नेता प्रतिपक्ष के मसले को ही ले लें। इतने महीने बीत जाने के बाद भी पार्टी को नेता प्रतिपक्ष नहीं मिला है। पार्टी से जुड़े सूत्रों की मानें तो बजट सत्र यानी तीन-चार महीने तक नेता प्रतिपक्ष का चुनाव टल गया है। प्रदेश प्रभारी कप्तान सिंह सोलंकी और सह प्रभारी किरीट सामैया ने नेता प्रतिपक्ष के लिए प्रदेश के विधायकों और वरिष्ठ नेताओं से जो रायशुमारी की, वह कोरी कवायद साबित हुई। नेता प्रतिपक्ष तो दूर अब तक प्रदेश कार्यकारिणी का ही गठन पूरी तरह से नहीं हो पाया है। खुद सोलंकी ने स्वीकार किया है कि ‘कार्यकारिणी का गठन सही ढंग से नहीं किया गया है। मोर्चा-प्रकोष्ठों तक का गठन अधूरा है। इसमें क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व सही तरीके से नहीं है, कई अच्छे लोग शामिल होने से रह गए है। कुछ जातियों के प्रतिनिधियों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिला, उन पर विचार किया जाएगा और कार्यकारिणी में नाम जोड़े जाएंगे।’
पार्टी आलाकमान आज तक यह तय नहीं कर पाया है कि वसुंधरा पर दबाव कैसे बनाया जाए। सूत्रों की मानें तो केंद्रीय नेतृत्व ने महारानी को किस तरह से राजनीति करनी है, इसकी स्पष्ट लकीर भी खींच दी है। बताया जा रहा है कि आलाकमान ने वसुंधरा के सरकारी आवास पर विधायकों के साथ-साथ अन्य बैठकों पर रोक लगाते हुए निर्देश जारी किए हैं कि सभी बैठकें प्रदेश कार्यालय में आयोजित की जाएं। ऐसे आदेशों के पीछे कारण यही बताया जा रहा है कि किसी नेता के निवास पर पार्टी के किसी नेता के आवास पर पार्टी की किसी भी प्रकार की बैठक आयोजित होने से समानांतर संगठन का संदेश जाता है, जो पार्टी के लिए ठीक नहीं है। गौरतलब है कि विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के पद से इस्तीफा देने के बाद से लगातार अपने निवास पर समर्थक विधायकों और नेताओं की बैठकें करती रही हैं। इस सख्ती के बाद भी आलाकमान को यह पता है कि यदि पार्टी को राजस्थान में सत्ता में फिर से आना है तो यह वसुंधरा राजे के मार्फत ही हो सकता है। प्रदेश में जनता के बीच उनकी बराबर लोकप्रियता और स्वीकार्यता किसी नेता की नहीं है। ऐसे में वसुंधरा को भी इसका अहसास है कि वर्तमान में भले ही कैसी ही परिस्थिति हो, देर-सवेर कमान उनके हाथ में ही आनी है।

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