शनिवार, जून 19, 2010

दो कोड़ी के लेखक और करोड़ों की किताब


कहते हैं किताबों से बेहतर कोई दोस्त नहीं होता, लेकिन जिंदगी को राह दिखाने वाली किताबें जब आधे-अधूरे तथ्यों और कही-सुनी बातों को प्रमाणित करती हुई दिखाई दें, तो यह दोस्ती से दगा नहीं तो और क्या है? ऐसी पुस्तकों को लिखने वाले या तो जानी-मानी हस्तियों की जिंदगी के अंतरंग और निहायत निजी क्षणों को मिर्च-मसाला लगाकर पाठकों को परोसते हैं या धार्मिक मान्यताओं पर कटाक्ष करते हैं।
यदि कोई लेखक पाठकों को सचाई से रूबरू कराने के लिए ऐसा करे, तो वह शाबासी का हकदार है, लेकिन पिछले पांच-छह साल में मुझे तो ऐसी कोई पुस्तक याद नहीं आती, जिसमें लेखक ने इतिहास के अनछुए पक्ष को उजागर किया हो। साफ है, जल्द प्रसिद्ध होने की लालसा रखने वाले लेखक जानबूझकर ऐसे विषयों पर अपनी कलम चलाते हैं, जो विवादित हैं और जो पुस्तक और लेखक को फटाफट हिट करने की की कुव्वत रखते हैं। क्या यह लेखकीय धर्म से धोखा नहीं है? इसी पृष्ठभूमि में इन दिनों जो पुस्तक चर्चाओं में है वह है- जेवियर मोरो की 'एल सारी रोजो'। 2008 में ही स्पेनिश में छप चुकी है। यह पुस्तक सोनिया गांधी की जिंदगी पर आधारित है और इसका फे्रंच व डच में भी अनुवाद हो चुका है, लेकिन भारतीयों के एक बड़े वर्ग का इन भाषाओं से खास वास्ता नहीं होने से इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। परंतु जैसे ही इसे अंग्रेजी में प्रकाशित करने की तैयारी शुरू हुई कांग्रेसी नेताओं ने बखेड़ा खड़ा कर दिया।
अभिषेक मनु सिंघवी ने तो सार्वजनिक रूप से यहां तक कह दिया कि वे इस पुस्तक को भारत में नहीं छपने देंगे। हो सकता है सिंघवी सोनिया गांधी की नजरों में अपनी साख मजबूत करने के लिए ऐसा कर रहे हों, लेकिन जेवियर मोरो ने भी छोटा अपराध नहीं किया है। माना कि 'एल सारी रोजो' इतिहास की पुस्तक न होकर एक उपन्यास है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वे इतिहास की ही मनचाही व्याख्या कर दें। जब उन्हें अपनी कल्पना शक्ति का ही प्रदर्शन करना था, तो सोनिया गांधी को पात्र बनाने की जरूरत क्या थी? वे किसी काल्पनिक पात्र के इर्द-गिर्द ही कथानक बुनते।
हो सकता है सोनिया गांधी के बारे में मोरो ने सच लिखा हो, लेकिन इसके प्रमाण के रूप में वे उनके कुछ गिने-चुने करीबियों के नाम ही बता पाए हैं। जब किसी 'रियल' व्यक्ति को पात्र बनाया जाए, तो लेखक से यह उम्मीद तो की ही जाती है कि वह तथ्यों को भी 'रियल' तरीके से पेश करे। उपन्यास में भी लेखक को तथ्यों से छेड़छाड़ की आजादी नहीं दी जा सकती, लेकिन ऐसा हो रहा है। साहित्यिक विधाओं में ही नहीं विशुद्ध रूप से इतिहास के लेखक भी सुर्खियां बटोरने के लिए तथ्यों को अपने हिसाब से पेश कर रहे हैं। जसवंत सिंह का उदाहरण हमारे सामने है। 'ए कॉल टू ऑनर' में उन्होंने दावा किया था कि कांग्रेस के शासनकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में विदेशी जासूस रहा करता था, लेकिन पूछे जाने पर वे उसका नाम भी नहीं बता पाए। 'जिन्ना- इंडिया, पार्टिशन, इंडिपेंडेंस' में जिन्ना के महिमा मंडन और सरदार पटेल की आलोचना उन्होंने किस आधार पर की, यह उनकी पार्टी भी नहीं समझ पाई। हां, उनकी पुस्तक जरूर धड़ाधड़ बिकी। जहां तक जेवियर मोरो का सवाल है, तो वे परिवार की परंपरा को ही निभा रहे हैं। उनके चाचा डोमिनिक लापियर भारत की आजादी और बंटवारे पर आधारित विवादित पुस्तक 'फ्रीडम एट मिडनाइट' लिखकर ही लोकप्रिय हुए थे। 'एल सारी रोजो' के अंग्रेजी अनुवाद 'द रेड साड़ी' ने छपने से पहले ही धूम मचा दी है। यहां तक कि हिंदी के खांटी पाठक भी अब 'लाल साड़ी' का इंतजार कर रहे हैं।
कभी-कभी ऐसा लगता है कि नए दौर के लेखक सफल होने के जुनून में इतने उतावले हो गए हैं कि नए तथ्य और पात्र खोजने का उनके पास समय ही नहीं है। यही वजह है विवादित पुस्तकों की फेहरिस्त लंबी होती जा रही है और कालजयी रचनाएं ढूंढने से भी नहीं मिल रही हंै। जरा गौर कीजिए वर्तमान में ऐसे कितने लेखक हैं, जिन्हें उनके कृतित्व के लिए आने वाली पीढिय़ां भी याद करेंगी? जब लेखक का लेखन कार्य से ज्यादा ध्यान खुद की ब्रांडिंग और किताब की मार्केटिंग पर रहेगा, तो वह क्या मौलिक रच पाएगा?

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