मंगलवार, जून 08, 2010

अब तो संभल जाओ कॉमरेडों


भले ही आज के दौर में किस्से-कहानियां सुनने-सुनाने की परंपरा जीवित नहीं बची हो, लेकिन भेडिय़ा वाली कहानी ज्यादातर लोगों की स्मृति में है। इसमें एक भेड़पालक भेडिय़ा आया...भेडिय़ा आया... कहकर गांव वालों के साथ मसखरी करता, लेकिन एक दिन सचमुच भेडिय़ा आ जाता है और वह मुश्किल में पड़ जाता है। पश्चिम बंगाल की वाम मोर्चा सरकार के साथ भी कुछ ऐसा ही है। राजनीतिक विश्लेषक प्रत्येक विधानसभा चुनाव से पहले यह कयास लगाते कि इस बार उनका गढ़ ढहने वाला है, लेकिन परिणाम आते और वाम मोर्चा फिर सत्ता में आ जाता। बाकी राजनीतिक दलों के लिए पहेली बन चुकी इस उपलब्धि पर वाम नेता इतराये भी खूब, किंतु आजकल उनकी बोलती बंद है और वजह है ममता बनर्जी। ममता बनर्जी ने पहले पंचायत चुनाव, फिर लोकसभा चुनाव और अब स्थानीय निकाय चुनाव में उन्हें जिस तरह से शिकस्त दी है, उसके बाद यह कहा जाने लगा है कि इस बार सचमुच हार का भेडिय़ा आने वाला है। स्थानीय निकायों के चुनाव नतीजों से जाहिर है कि राज्य की जनता बदलाव के लिए बेचैन है। जब पंचायत चुनावों में वाम मोर्चा की हार हुई थी, तब इसके कुछ नेताओं ने कहा था कि जनता ने गलती की है, लेकिन यह क्षणिक है। अब उन्हें इस बात का अहसास होना चाहिए कि जनता बार-बार गलती नहीं कर रही है, बल्कि वह यह संकेत दे रही है कि वह वाम शासन से उकता चुकी है। तृणमूल कांग्रेस का शानदार प्रदर्शन यह साबित करने के लिए पर्याप्त है कि ममता बनर्जी का आत्मविश्वास हवाई नहीं है। अब वे केवल शहरी मध्यवर्ग की लीडर नहीं रह गई हैं, बल्कि किसानों-मजदूरों और राज्य के बुद्धिजीवियों का समर्थन भी उन्हें मिल रहा है। सिंगूर और नंदीग्राम के बाद गांव का वंचित तबका भी उनके साथ खड़ा हो गया है।
वाम दलों को पश्चिम बंगाल में स्थापित करने का श्रेय ज्योति बसु को है। उन्होंने अपने कार्यकाल की शुरुआत में भूमि सुधारों के एजेंडे को लागू कर पश्चिम बंगाल में क्रांतिकारी परिवर्तन की नींव रखी। भूमिहीन मजदूरों को जमीन का मालिक बनाया। एक फसली जमीन को बहुफसली बनाया। नतीजतन, एक ऐसा राज्य जो अकाल की मार झेलने के लिए अभिशप्त था, अपने पैरों पर उठ खड़ा हुआ। 1980 के दशक में खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने के साथ ही यह दूसरे राज्यों को निर्यात करने लगा, लेकिन यहीं आकर विकास की कहानी ठहर गई। कृषि पैदावार में कुलांचे भर रहा राज्य औद्योगिक विकास में पिछडऩे लगा। इसके लिए भी वामपंथी राजनीति जिम्मेदार थी। आंदोलन की आग से तपकर निकली राजनीति बदली हुई परिस्थितियों को समझ नहीं पाई और एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गई जहां आगे कोई रास्ता ही नहीं है। फिर भी ज्योति बसु ने यह भ्रम बरकरार रखा कि बंगाल तरक्की कर रहा है, लेकिन राजनीति के रंगमंच से उनके हटते ही पर्दे के पीछे की असलियत सामने आने लगी। सर्वहारा की राजनीति करने वाले वामपंथी नेता जब जमीनी हकीकत से कटने लगे, तो इससे पैदा होने वाले शून्य को भरने के लिए किसी राजनीतिक ताकत की जरूरत बढ़ती ही जा रही थी। लंबे समय से वामपंथियों के खिलाफ मोर्चा खोले बैठी बंगाल की अग्निकन्या ममता बनर्जी उन ताकतों में शीर्ष बनकर उभरीं। उनका साथ दिया माओवादियों और दूसरे गैर-राजनीतिक दलों और संगठनों ने। इन नई ताकतों को वामपंथ से निराश पूर्व वामपंथी लेखकों, कलाकारों और विचारकों का भी खुला समर्थन मिला। मजबूत विकल्प की संभावना देखकर राज्य की जनता ने भी उन पर पूरा भरोसा जताया। ऐसे में राज्य में अगले विधानसभा चुनाव में वामपंथियों की सत्ता छिन जाए, तो हैरानी नहीं होनी चाहिए।
वाम मोर्चे की पतली हालत का ठीकरा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टïाचार्य के सिर फोड़ा जा रहा है। हो सकता है कि राज्य के औद्योगिक विकास और निवेश के लिए उनकी पहल में कोई खोट न हो, लेकिन उन्होंने नंदीग्राम और सिंगूर के जनाक्रोश का ठोस समाधान खोजने की बजाय विवाद का कुप्रबंधन किया। इससे पार्टी न केवल किसानों में अलोकप्रिय हुई, अपितु शहरी मध्यवर्ग में भी उसकी तीखी आलोचना हुई। वैसे वाम राजनीति आज दोराहे पर खड़ी है, तो उसके लिए ज्योति बसु की राजनीति भी कम कसूरवार नहीं है। साठ के दशक में राज्य में कांग्रेस सरकार के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंकने वाले बसु ने रास्ता तो लोकतंत्र का चुना, लेकिन उनके तरीके नक्सलवादियों के थे। उस खूनी दौर के गवाह रहे लोग जानते हैं कि कैसे वामपंथ और नक्सलवाद की जुगलबंदी ने राज्य में कहर बरपाया था। उस उद्वेलनकारी समय के गर्भ से भले ही वामपंथी सत्ता के शिशु ने जन्म लिया, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि उसने बड़े होकर अर्थ से ज्यादा अनर्थ किए। उन्हीं अनर्र्थों का नतीजा हुआ कि बसु के रिटायर होते ही वामपंथी किले की दीवारें ढहने लगीं। इसकी वजह यह थी कि आंदोलन की कोख से निकले वामपंथी आरामतलब हो गए। आम जनता से कटने लगे। जिन दीन-हीन लोगों की आवाज बनकर वे सत्ता के सिंहासन पर पहुंचे थे, उनकी चीख-पुकार को भी अनसुना करने लगे। नतीजतन, जनता से कटा हुआ नेतृत्व अपने पार्टीजनों के बीच भी विवाद का विषय बनने लगा। चूंकि ज्योति बसु राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी थे, इसलिए इस लड़ाई को उन्होंने सार्वजनिक नहीं होने दिया, लेकिन बुद्धदेव भट्टïाचार्य ऐसा नहीं कर पाए। वे हाथ-पांव तो खूब मार रहे हैं, लेकिन पार्टी की अंदरूनी खींचतान ने उन्हें निढाल कर रखा है।
इसे वाम मोर्चे की भयंकर राजनीतिक भूल ही माना जाएगा कि पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का डटकर मुकाबला करने की बजाय उसके नेता केंद्र में यूपीए सरकार को मुसीबत में डालने में मशगूल रहे। भारत-अमेरिका न्यूक्लियर डील के सवाल पर यूपीए सरकार से समर्थन वापसी और कांग्रेस को सबक सिखाने के इरादे के साथ की गई तीसरे मोर्चे की स्थापना की भूमिका सबसे अहम रही। सबसे बुरी बात यह हुई कि आम लोगों ने सीपीएम के नेतृत्व में रची गई इस रणनीति को जनपक्षी मूल्यों में दृढ़ निष्ठा की मिसाल की तरह लेने के बजाय अवसरवाद और सिद्धांतप्रियता के अजब घालमेल की तरह लिया। 2004 के आम चुनाव में सीपीएम ने इराक पर अमेरिकी हमले को केरल और बंगाल में बाकायदा चुनावी मुद्दा बनाया था और इसके आधार पर भारत के साम्राज्यवाद विरोधी जनमत के अलावा मुस्लिम वोटों की भी भरपूर फसल काटी थी। अपनी इस मुहिम को खींचकर उसके नेता 2005 में न्यूक्लियर डील के लिए की गई जॉर्ज डब्ल्यु. बुश की भारत यात्रा तक ले गए और समर्थन वापसी के बाद इसका विस्तार पिछले साल हुए आम चुनाव तक करने की उन्हें पूरी उम्मीद थी, लेकिन चुनाव नतीजे बताते हैं कि इस चुनाव में एक वोट बैंक के रूप में वाम मोर्चे को सबसे बड़ा झटका मुसलमानों की तरफ से ही लगा है। इस उलटबांसी को समझना वाम नेताओं के लिए बहुत आसान नहीं है, लेकिन इसे समझे बगैर उनका गुजारा भी नहीं हो सकता। यूपीए सरकार में रहते हुए वाम दलों ने गरीब, मजदूर, दलित, आदिवासी और अल्पसंख्यक तबकों की पैरवी करने का खूब दिखावा किया, लेकिन चुनाव में इसका रत्ती भर भी लाभ उन्हें नहीं मिला, तो इसके लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं। वे जिन मुद्दों पर केंद्र की यूपीए सरकार का विरोध कर रहे थे बुद्धदेव उन्हीं नीतियों का अनुसरण कर रहे थे।
वाम मोर्चा यह भी उम्मीद नहीं कर सकता कि भविष्य में सब कुछ ठीक हो जाएगा। उनके पास अब न तो मुद्दे बचे हैं और न ही ममता बनर्जी के मुकाबले का कोई जनप्रिय नेता। ममता बनर्जी आज उन्हीं मुद्दों को लेकर राजनीति कर रही हैं, जिन पर किसी जमाने में वामपंथियों का एकाधिकार हुआ करता था। उन्होंने बड़ी चतुराई से बुद्धदेव भट्टïाचार्य के औद्योगिक विकास के एजेंडे को किसान और मजदूर विरोधी करार दे दिया। भट्टïाचार्य ने किसानों को समझाने की बजाय उद्योगों के लिए उनकी जमीन अधिग्रहण के धड़ाधड़ फरमान जारी कर दिए। विरोध में सिंगूर और नंदीग्राम उबल पड़े और जमकर खून-खराबा हुआ। इस दौरान ममता बनर्जी ने यह सफलतापूर्वक प्रचारित किया कि इस अत्याचार से उन्हें वे ही बचा सकती हैं। लिहाजा जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ती गई। इससे हुआ यह कि बरसों से वाम दलों को वोट देते आए लोग उनके नेतृत्व पर भरोसा जाहिर करने लगे। इसी वोट बैंक के दम पर ही तो वाम दल बरसों से सत्ता में बने हुए थे। पंचायत, लोकसभा और स्थानीय निकाय चुनाव के परिणाम यह साबित करते हैं कि वाम दलों के परंपरागत वोट बैंक में सेंध लग चुकी है। वाम नेताओं को परेशानी यह है कि उन्हें इस वोट बैंक को फिर से समेटने का कोई रास्ता भी नहीं सूझ रहा है। ज्योति बसु के देहावसान के बाद ऐसा कोई नेता भी नजर आता, जो अपने दम पर जनाधार बढ़ा सके। वाम नेताओं की जिस पीढ़ी ने गरीबों की झोपडिय़ों में रह कर राजनीति का ककहरा सीखा था, वह अब या तो विदा हो चुकी है या नेपथ्य में है। शायद इसी का दुष्परिणाम है कि जिस अनुशासन के लिए वाम दलों को जाना जाता था, अब वह तार-तार होने लगा है। कुल मिलाकर देश की वाम राजनीति जाने-अनजाने कई व्याधियों से घिर चुकी है और फिलहाल यह संभावना भी कम ही है कि वह इनसे जल्द उबर पाएगी।

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