शनिवार, मई 23, 2009

छप्पर फाड़ के


विधानसभा चुनावों में महज एक वोट से मात खाने वाले डॉ। सी.पी. जोशी की केबीनेट मंत्री के रूप में ताजपोशी यही साबित करती है कि देने वाल जब भी देता है छप्पर फाड़ के देता है। स्थितियां बदलीं तो गहलोत भी जोशी के साथ हो लिए। आखिर कैसे हुआ ऐसा? एक अंतर्कथा।

डॉ. सी.पी. जोशी। राजस्थान में कांग्रेस के निजाम। तीन बार विधायक रहे। एक बार मंत्री भी बने, पर देश भर में उन्हें इन सबसे ज्यादा पिछले विधानसभा चुनाव में महज एक वोट से मिली हार के लिए जाना जाता है। यह हार जोशी की उम्मीदों को तीन-तेरह करने वाली थी। कहां वे मुख्यमंत्री बनने का सपना देख रहे थे और विधायक भी नहीं बन पाए, लेकिन लोकसभा चुनाव में उन्होंने पूरा हिसाब चुकता कर लिया वह भी सूद समेत। मनमोहन की दूसरी पारी की टीम ट्वंटी में जोशी राजस्थान से इकलौते हैं। जोशी ने गिरिजा व्यास, शीशराम ओला, नमोनारायण मीणा, चंद्रेश कुमारी और सचिन पायलट सरीखे दिग्गजों को पछाड़ते हुए कैबीनेट मंत्री बनकर सबको चौंका दिया है।
केंद्र की मनमोहन सरकार में डॉ. जोशी की कैबीनेट मंत्री के रूप में ताजपोशी कई तरह से मायने रखती है। इससे जोशी का कद तो बड़ा ही है, मुख्यमंत्री गहलोत भी मजबूत हो गए हैं। अब राज्य में उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा है। गौरतलब है कि जोशी, गहलोत के लिए सबसे बड़ी चुनौती बने हुए थे। विश्लेषकों की मानें तो यदि जोशी विधानसभा चुनाव जीत जाते तो गहलोत का गद्दीनशीं होना इतना आसान नहीं होता। वे उन्हें कड़ी टक्कर देते। हालांकि दस जनपथ पर अच्छे रसूखों के चलते पलड़ा गहलोत का ही भारी रहता, लेकिन मुख्यमंत्री नहीं बनने पर भी जोशी उनके लिए पूरे पांच साल तक गले की फांस ही बने रहते। एक वोट से विधानसभा चुनाव हार जाने पर मुख्यमंत्री बनने का सपना टूटने के बाद भी जोशी ने गहलोत के लिए कम समस्याएं पैदा नहीं की। अपने प्रतिद्वंद्वी से आगे निकलने के लिए जोशी ने गहलोत को खबर दिए बिना जयपुर में राहुल गांधी का कार्यक्रम रखवा दिया और फिर लोकसभा चुनाव की तैयारी के लिए 'टारगेट-25' भी बना डाला।
गहलोत को टकराव की राजनीति कम ही भाती है। उन्होंने जोशी से कई बार सुलह करने का कोशिश की, पर बात नहीं बनी। कभी जोशी की उम्मीदें आड़े आती तो कभी तल्ख मिजाजी, लेकिन जब जोशी ने लोकसभा चुनाव लडऩे की इच्छा जाहिर की तो गहलोत को एक और मौका मिल गया। हालांकि जब जोशी को चित्तौडग़ढ़ की बजाय भीलवाड़ा से टिकट दिया गया तो लगा कि गहलोत उन्हें एक और पटकनी देना चाहते हैं। चुनाव प्रचार के शुरूआती दिनों में भी यही प्रतीत हो रहा था, पर मतदान का दिन नजदीक आते-आते गहलोत ने जोशी को जिताने के लिए पूरी ताकत झौंक दी। वे खुद तो वहां गए ही पार्टी के कई नेताओं को जोशी को जिताने की जिम्मेदारी के साथ भेजा गया। भितरघात कर रहे क्षेत्रीय नेताओं को भी गहलोत ने व्यक्तिगत तौर पर जोशी के पक्ष में पाबंद किया। आखिरकार विधानसभा चुनाव में एक वोट से हारने वाले जोशी लोकसभा चुनाव में एक लाख से ज्यादा वोटों से विजयी रहे।
जोशी तो जीते ही पूरे राजस्थान में भी कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन किया। जब इसका श्रेय लेना का समय आया तो इस बार माहौल कुछ बदला-बदला सा था। गहलोत ने पहली बार जोशी को सामने किया और प्रदेशाध्यक्ष होने के नाते उन्हें भी जीत का श्रेय दिया। गौरतलब है कि गहलोत और जोशी के रिश्तों में कड़वाहट 'श्रेय' लेने की होड़ में ही आई थी। प्रदेशाध्यक्ष बनते ही उन्होंने सूबे में मृतप्राय पड़ी कांग्रेस को फिर से खड़ी करने के लिए खूब मेहनत की, लेकिन आलाकमान के सामने इसका पूरा श्रेय अशोक गहलोत ले जाते। विधानसभा चुनावों में मिली जीत के समय भी ऐसा ही हुआ। पूरा श्रेय गहलोत हड़प गए। जोशी को तो हर मोर्चे पर हार ही हाथ लगी। विश्लेषकों के मुताबिक जोशी की स्पष्टवादिता ही उन पर भारी पड़ी। साम्यवादी चे-गुवेरा से प्रभावित जोशी जो भी करते गहलोत के सामने गा देते। और जब आलाकमान से शाबासी लेने की बारी आती तो गहलोत बड़ी चतुराई से जोशी को किनारे कर अपनी पीठ आगे कर देते। हालांकि मुख्यमंत्री बनने के बाद गहलोत ने इस आदत को छोड़ दिया और वे जोशी के साथ सुलह के मूड में नजर आए। ज्यादातर मौकों पर उन्हें साथ रखने की कोशिश की। शुरूआत में जोशी के कदम कुछ ठिठके हुए थे, पर लोकसभा चुनाव में गहलोत की ओर से की गई मदद से वे गदगद हो गए। उदयपुर की सुखाडिय़ा यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान के प्रोफेसर रहे जोशी, गहलोत की मनोदशा भांपने में कामयाब रहे और साथ हो लिए।
गहलोत को नजदीक से जानने वाले अच्छी तरह जानते हैं कि वे जिस पर मेहरबान होते हैं पूरी तरह से होते हैं। जोशी को मनमोहन सिंह सरकार के कैबीनेट में शामिल करवाकर उन्होंने इसे एक बार फिर से साबित कर दिया है। सहयोगी दलों के दबाव के बीच जब यह तय हुआ कि महमोहन सिंह के साथ छोटा मंत्रिमंडल शपथ लेगा तो यह तय माना जा रहा था कि राजस्थान से शायद ही किसी की बारी आए। कयास लगाए जा रहे थे कि एकाध का नंबर आया तो शीशराम ओला या गिरिजा व्यास हो सकते हैं। राहुल गांधी की ज्यादा चली तो सचिन पायलट का नाम लिस्ट में हो सकता है, लेकिन सी.पी. जोशी के बारे में किसी ने नहीं सोचा था। विश्लेषक यह मान कर चल रहे थे कि मनमोहन सिंह मंत्रिमंडल में राजस्थान से चार मंत्री होंगे। इनमें एक ब्राह्मण, एक जाट, एक गुर्जर और एक एससी या एसटी से संबंध रखने वाले सांसद होंगे।
ब्राह्मणों में गिरिजा व्यास की दावेदारी को सबसे पुख्ता माना जा रहा था। गिरिजा पहले भी मंत्री रही हैं और दस जनपथ पर भी उनकी अच्छी पहुंच है। इस हिसाब से सी.पी. जोशी उनसे कद में काफी छोटे हैं। वे एक विधायक और राज्य सरकार में मंत्री की हैसियत से तो राजनीति अनुभव रखते हैं, पर सांसद पहली बार ही बने हैं। वैसे भी लोकसभा चुनावों में टिकट वितरण में भी वे जोशी पर भारी पड़ी थीं। चित्तौडग़ढ़ से गिरिजा को जोशी के मुकाबले तरजीह दी गई थी। पर कैबीनेट मंत्री बन जोशी ने पूरा हिसाब चुकता कर लिया। गहलोत के करीबी सूत्रों के मुताबिक उन्होंने जोशी की ताजपोशी का मन केंद्र में यूपीए की जीत के साथ ही बना लिया था। गहलोत ने काफी पहले ही पार्टी आलाकमान को जोशी का नाम दे दिया था। उन्होंने साफ तौर पर कह दिया था कि जोशी का नाम पहली लिस्ट में ही होना चहिए।
गहलोत के अलावा राहुल गांधी ने भी जोशी की पूरी मदद की। सूत्रों के मुताबिक राहुल, जोशी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित हैं और उन्होंने काफी पहले से ही उन्हें बड़ी जिम्मेदारी देने का मन बना रखा था। केंद्र में यूपीए की सरकार नहीं भी आती तो राहुल उन्हें संगठन में अच्छा पद देने के मूड में थे। सूत्रों के मुताबिक राहुल ने जोशी के लिए मंत्रालय भी तय कर रखा है। वे संभवतया ग्रामीण विकास मंत्रालय संभालेंगे। वैसे तो राहुल गांधी और सी.पी. जोशी की नजदीकियों की चर्चाएं काफी पहले से होती रही हैं, पर जयपुर में हुए कार्यक्रम में यह पहली बार सार्वजनिक हुईं थी। राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने के कुछ दिन बाद हुए इस कार्यक्रम के बारे में मुख्यमंत्री गहलोत को कानों-कान खबर नहीं थी। पूरे कार्यक्रम में राहुल गांधी साए की तरह सी.पी. जोशी के साथ रहे। लोकसभा चुनाव में राहुल ने जोशी का पूरा ध्यान रखा। वे राज्य में सात लोकसभा क्षेत्रों में प्रचार के लिए गए, इनमें एक सी.पी. जोशी की सीट भीलवाड़ा भी थी।
सी.पी. जोशी को दिल्ली भेजकर गहलोत ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। जोशी से प्रतिद्वंद्विता समाप्त होने के बाद उन्हें यहां चुनौती देने वाला कोई नहीं बचा है साथ ही प्रदेशाध्यक्ष भी अब उनकी मर्जी का होगा। यानी राजस्थान में अब गहलोत का एकछत्र राज चलेगा। वैसे जोशी को मनाने के फेर में गहलोत को नई दिक्कतों से रूबरू होना पड़ सकता है। शपथ ग्रहण के पहले दौर में जोशी को शामिल करने से मंत्री बनने का ख्बाव सजाए बैठे कई नेताओं की उम्मीदें चकनाचूर हुई हैं। ये नेता गहलोत के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। जोशी के कैबीनेट में शामिल होने से सबसे ज्यादा प्रभावित होने वालेे नेताओं में गिरिजा व्यास और शीशराम ओला हैं। दोनों नेता गहलोत के विरोधी माने जाते हैं। विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के दावेदारों में भी ये दोनों नेता शमिल थे। गहलोत के लिए राहत की बात यह है कि केंद्र में अभी मंत्रिमंडल का विस्तार होना है। इसमें इन नेताओं को समायोजित किया जा सकता है। फिर भी सभी को संतुष्ट करना संभव नहीं होगा, क्योंकि राजस्थान के हिस्से में शायद ही चार से ज्यादा मंत्रालय आएं और कैबीनेट मंत्रालय की संभावना तो नहीं के बराबर है।
सूबे के दिग्गज नेताओं की नाराजगी के अलावा गहलोत पर एक बार फिर से जाट विरोधी होने का ठप्पा भी लग सकता है। शीशराम ओला को पहली सूची में जगह नहीं मिलने को उनका विरोधी खेमा जाटों के अपमान के तौर पर प्रचारित कर सकता है। सूत्रों के मुताबिक गहलोत को भी इसका अंदेशा है और इसे एनकाउंटर करने के लिए उन्होंने तरकीब भी सोच रखी है। वे किसी जाट नेता को प्रदेशाध्यक्ष बनाने के बारे में सोच रहे हैं। ऐसा करके वे जाटों में तो अच्छा संदेश देने में कामयाब होंगे, लेकिन शीशराम ओला की नाराजगी को दूर नहीं कर पाएंगे। तमाम तरह के कयासों के बीच यह देखना रोचक होगा कि गहलोत क्या कदम उठाते हैं। उनका हर कदम उम्मीद से आगे होता है और हालात के अनुसार नपा-तुला। जादूगर जो ठहरे, वो भी खानदानी।

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