शनिवार, मई 16, 2009

फिर चला जादू


सूबे में गहलोत का तिलिस्म फिर चला और भाजपा को चारों खाने चित्त कर दिया। चुनाव परिणामों ने जहां गहलोत को फ्रीहैंड दे दिया है वहीं, वसुंधरा के हाथ बांध दिए हैं। एक और मात खाने के बाद महारानी के सामने संकटों का नया सिलसिला शुरू हो सकता है।

अशोक गहलोत द्वारा विधानसभा चुनाव में दिया गया जुमला 'मुझे जादू करना आता है' लोकसभा चुनाव में और भी असरदार साबित हुआ। हालांकि इसमें गहलोत की जादूगरी के अलावा राहुल गांधी का हुनर भी काम आया। प्रचार के दौरान राहुल राज्य की 7 लोकसभा सीटों पर गए थे। इनमें से 6 पर कांग्रेस ने जीत हासिल की है। बारां-झालावाड़ ही एकमात्र ऐसी सीट रही जहां राहुल गांधी प्रचार के लिए आए और कांग्रेस प्रत्याशी जीतने में कामयाब नहीं रहा। कुल मिलाकर राजस्थान के रण में भाजपा के बड़े-बड़े दावे कांग्रेस की आंधी में उड़ गए और पिछली बार 25 में 21 सीटें जीतने वाली भाजपा इस बार 4 सीटों पर ही सिमट गई। पार्टी के ज्यादातर गढ़ ढह गए और बड़े-बड़े दिग्गज को मुंह की खानी पड़ी। दूसरी और 20 सीटें हासिल कर कांग्रेस ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि विधानसभा चुनावों में मिली जीत तुक्का नहीं थी। लोकसभा चुनावों के परिणाम सूबे की सियासत में खलबली मचा सकते हैं। जहां कांग्रेस अशोक गहलोत के नेतृत्व में और स्थायित्व हासिल करेगी वहीं, भाजपा में प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर और नेता प्रतिपक्ष वसुंधरा राजे को बदलने की मांग फिर से जोर पकड़ेगी।
सूबे में सरकार बनाते ही मुख्यमंत्री गहलोत ने लोकसभा चुनाव की तैयारी शुरू कर दी। उन्होंने अपने पिछले कार्यकाल से सबक लिए और एक के बाद एक लोक कल्याणकारी निर्णय किए। लोकसभा चुनाव की आचार संहिता लगने से पहले मिले 72 दिनों में कांग्रेस सरकार ने 71 छोटे-बड़े कार्य कर जनता में अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शराब की दुकानें खुलने के समय में कटौती करने के निर्णय तुरूप का इक्का साबित हुआ। इससे आमतौर पर भाजपा के साथ रहने वाला शहरी वोटर ने भी कांग्रेस की ओर रुख किया। इन चुनावों में गहलोत ने कर्मचारी और किसान विरोधी होने के कलंक को भी धो दिया। जहां डीए बढ़ाने की घोषणा कर कर्मचारियों को खुश किया गया वहीं, पांच साल तक बिजली की रेट नहीं बढ़ाने का ऐलान कर किसानों का समर्थन हासिल करने की कोशिश की गई। नतीजतन, इस बार कर्मचारी गहलोत के खिलाफ मुखर नहीं हुए और किसानों का तो एकतरफा साथ मिला।
राज्य में कांग्रेस की जीत में गहलोत सरकार के कामकाज के अलावा मुख्यमंत्री का चुनाव मैनेजमेंट भी बड़ा योगदान है। गहलोत ने सत्ता और संगठन में बेहतरीन तालमेल बिठाया। कांग्रेस ने एकजुट होकर पूरी ताकत से चुनाव लड़ा। पार्टी में विभिन्न स्तरों पर धड़ेबंदी होने के कयासों का हकीकत से कोई वास्ता नहीं रहा। कांग्रेस की पूरी टीम गहलोत के पीछे खड़ी रही। गहलोत ने पूरे राज्य में धुंआधार प्रचार किया और बड़ी चतुराई से वसुंधरा सरकार के समय हुए भ्रष्टाचार को मुद्दा बना दिया। दूसरी ओर मतदान से एक दिन पहले गहलोत द्वारा नाराज नेताओं को व्यक्तिगत रूप से समझाने की रणनीति पूरी तरह से कामयाब रही। गहलोत उन नेताओं की नाराजगी दूर करने में सफल रहे जो पार्टी प्रत्याशी के वोटों में सेंध लगाने की की स्थिति में थे। इन नेताओं का देर से ही सही पार्टी के पक्ष में जुट जाना निर्णायक साबित हुआ। बसपा के सभी छह विधायकों का कांग्रेस में शामिल होना भी कांग्रेस के लिए मुफीद साबित हुआ। बसपा के उम्मीदवार कांग्रेस को कोई खास नुकसान नहीं पहुंचा पाए।
कुल मिलाकर सूबे के सरदार बनने के बाद से गहलोत का हर तीर निशाने पर लग रहा है। लोकसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करने से आलाकमान की नजरों में तो उनका कद बढ़ा ही है, राज्य की राजनीति में भी उनके वर्चस्व को चुनौती देने वाला कोई नेता नहीं बचा है। राहत की बात यह है कि कई मौकों पर गहलोत के प्रतिद्वंद्वी साबित हो रहे डॉ. सी.पी. जोशी भीलवाड़ा से चुनाव जीत गए हैं। मुख्यमंत्री के दावेदारों में शामिल रहे शीशराम ओला एक बार फिर से चुनाव जीत चुके हैं। ऐसे में गहलोत डंके की चोट पर अपना कार्यकाल पूरा करेंगे। इस बार उनके पास अच्छा प्रदर्शन करने का बेहतर अवसर भी है, क्योंकि केंद्र में कांग्रेस की सरकार होने से धन की कोई कमी नहीं आने वाली है।
विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपा प्रदेश नेतृत्व यह खुले तौर पर स्वीकारता था कि लोकसभा चुनाव में 2004 की स्थिति को बरकरार रखना संभव नहीं है, लेकिन ऐसे परिणाम की उम्मीद तो किसी को न थी। यदि विधानसभा चुनाव के पैटर्न पर ही वोटिंग होती तो भी भाजपा को 10 से 12 सीटें मिलनी चाहिए थीं, पर पार्टी महज 4 सीटों पर सिमट गई। भाजपा की बदतर स्थिति के लिए ज्यादातर वे ही कारण जिम्मेदार हैं जो विधानसभा चुनावों में थे। वसुंधरा राजे के पूरी ताकत से सक्रिय न होना एक अलग वजह जरूर रही। महारानी चुनाव प्रचार के दौरान अपने बेटे दुष्यंत की बारां-झालावाड़ में ही अटकी रहीं। वे बाकी सीटों पर गहलोत की बराबर सघनता से प्रचार नहीं कर पाईं। वसुंधरा जैसे-तैसे कर दुष्यंत की सीट निकालने में तो कामयाब रहीं, पर बाकी जगह स्थिति और बदतर हो गई। वैसे इस बार महारानी के प्रचार में पहले जैसी धार भी नहीं दिखी। आक्रामक तेवरों की आदी महारानी पूरे चुनाव के दौरान सुरक्षात्मक नजर आईं। वे गहलोत के भ्रष्टाचार के आरोपों का एक भी जबाव नहीं दे पाईं। उनके पास गहलोत सरकार को घेरने के लिए कोई मुद्दा भी नहीं था।
बद से बदतर होता संगठनात्मक ढांचा भी भाजपा की हार की बड़ी वजह है। विधानसभा चुनावों में मिली हार के बाद भाजपाई दिग्गजों की बीच की दरारें खाई में तब्दील हो गईं। प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर और वसुंधरा राजे के बीच मनमुटाव सार्वजिनक होने लगा। महारानी ने अपनी मर्जी से टिकट दिए। इसमें ओम माथुर की भी ज्यादा नहीं चली। टिकट वितरण से नाराज आला नेताओं ने खुले तौर पर अपनी नाराजगी तो जाहिर नहीं की, पर चुनावों से अपने-आपको दूर ही रखा। नेताओं के बीच बढ़ती दूरियों का लब्बोलुआब यह रहा कि कार्यकर्ताओं ने पार्टी से कटते चले गए। उम्मीदवारों को समर्पित कार्यकर्ताओं की खासी कमी खली। भाजपा सरीखी कैडर बेस पार्टी के लिए इससे बड़ा नुकसान और क्या हो सकता था। झुलसा देने वाली गर्मी और शादियों के सीजन में भाजपा के वोटर को घर से निकालने के लिए कार्यकर्ताओं की फौज किसी भी प्रत्याशी के पास नहीं थी। लिहाजा, कम वोटिंग हुई और भाजपा को भारी नुकसान हुआ।
लोकसभा चुनाव में भाजपा का सफाया कई बवंडर खड़े कर सकता है। वसुंधरा राजे और ओम माथुर के विरोधियों को उन्हें यहां से रुखसत करने का एक और मौका मिल गया है। वे इसे किसी भी कीमत पर हाथ से जाने देने के मूड में नहीं हैं। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने वसुंधरा और माथुर की खुली खिलाफत शुरू कर दी है। पूर्व उपमुख्यमंत्री हरिशंकर भाभड़ा ने बताया कि 'प्रदेश में पार्टी की हार का कारण कुछ नेताओं का खुद को पार्टी से ऊंचा मानना है। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कम सीटें मिलीं तो जनता ने तय कर लिया था कि लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत से जिताना है, लेकिन भाजपा इसे भांप नहीं पाई।' राज्यसभा सांसद और प्रदेशाध्यक्ष रहे ललित किशोर चतुर्वेदी भाजपा की हार का जिक्र करते ही पार्टी नेतृत्व पर पिल पड़ते हैं। वे कहते हैं, 'बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से होए। भाजपा की हार के लिए संगठन स्तर पर वरिष्ठ नेताओं की उपेक्षा और कुछ लोगों की दादागीरी जिम्मेदार है। दो-तीन लोगों के कारण पार्टी का यह हाल हुआ है। इन नेताओं ने विधानसभा चुनावों में मिली हार से कोई सबक नहीं लिया।' पूर्व मुख्य सचेतक महावीर प्रसाद जैन ने भी पार्टी नेतृत्व पर जमकर भड़ास निकाली। जैन ने बताया कि 'लोकसभा चुनाव में पार्टी एकजुट नहीं रह पाई। पूरा काम दो-तीन लोगों ने अपने हाथ में ले लिया। इन्होंने पार्टी को अपनी जागीर समझ लिया। इससे कार्यकर्ता और जमीन से जुड़े नेता पार्टी से कटते चले गए और पार्टी की करारी हार हुई।'
मुखर होते विरोध के स्वरों के बीच भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के साथ दिक्कत यह है कि वे फेरबदल करे तो क्या करे? ओम माथुर के बदलने में तो ज्यादा दिक्कत नहीं है, पर वसुंधरा राजे का कोई सर्वमान्य विकल्प पार्टी के पास नहीं है। कोई भी ऐसा कद्दावर नेता दिखाई नहीं दे रहा है जिसका कोई विरोध नहीं करे और जो पार्टी में फिर से प्राण फूंक सके। गुलाब चंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी का नाम काफी समय से चल रहा है। कटारिया की संभावना ज्यादा बनती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव हार जाने के बाद पार्टी तिवाड़ी को शायद मौका नहीं दे। वैसे पार्टी का एक धड़ा अभी भी यह मानता है कि राजस्थान में भाजपा की कमान वसुंधरा राजे के हाथ में ही रहेगी, क्योंकि राजस्थान इकलौता राज्य नहीं है जहां भाजपा हारी है। वसुंधरा राजे के लिए भाजपा का हारना उतना नुकसानदायक नहीं है जितना लालकृष्ण आडवाणी का कमजोर होना। महारानी, आडवाणी की खास सिपेहसालार रही हैं। कई मौकों पर आडवाणी ने उनका खुला समर्थन किया है। यदि आडवाणी ने सक्रिय राजनीति से तौबा की तो इसका असर वसुंधरा के कद पर भी पड़ेगा।

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