शनिवार, अप्रैल 11, 2009

कमल के कर्नल!


जाति की जाजम पर बैठकर कर सियासत में सफलता के ख्वाब देखने वालों में कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला का नाम भी जुडऩे जा रहा है। वे भाजपा का दामन थाम संसद की सीढ़ीयां चढऩे को बेताब हैं। तो क्या आंदोलन के समय हुए समझौते में यह भी शामिल था? अंदर की कहानी!

कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला। सूबे में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के अगुवा। जिनके नेतृत्व में गुर्जरों ने दो ऐसे आंदोलन किए कि समूचे राजस्थान में जनजीवन ठहर गया और सरकार की चूलें हिल गईं। हालांकि इस आंदोलन में गुर्जरों के साथ हर कदम पर छल हुआ। इतनी जान कुर्बान करने के बाद भी उन्हें आश्वासनों के अलावा कुछ नहीं मिला। गुर्जर समाज का एक तबका इसके लिए कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला को जिम्मेदार मानता है। इनके मुताबिक कर्नल ने भाजपा सरकार के सामने घुटने टेक दिए। गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल ने तो उन्हें सरकार का एजेंट तक कहा। कोई कुछ भी कहे, लेकिन आज भी गुर्जर समाज में कर्नल की पकड़ सबसे ज्यादा है। भारतीय जनता पार्टी गुर्जरों में उनके इसी रुतबे का फायदा उठाने की फिराक में है। भाजपा काफी दिनों से बैंसला को पार्टी में लाने और चुनाव लडऩे के लिए मना रही है। सूत्रों के मुताबिक कर्नल इसके लिए राजी हो गए हैं और सवाई माधोपुर संसदीय सीट से मैदान में उतरने की तैयारी में हैं। यहां से कांग्रेस की और से केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा चुनाव लड़ रहे हैं।
बैंसला का भाजपा मोह नया नहीं है। सेना से रिटायर होने के बाद वे भाजपा के सैनिक प्रकोष्ठ में पदाधिकारी रहे। 2003 के विधानसभा चुनावों में उन्होंने भाजपा के लिए वोट भी मांगे। वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री के बाद वे उनसे गुर्जरों को एसटी आरक्षण की वादे को याद दिलाने के लिए कई बार मिले। बात बनती नहीं दिखी तो प्रदर्शन भी किया। जब उन्हें लगा कि सरकार कुछ करने की बजाय मामले को टाल रही तो बड़े आंदोलन की तैयारी शुरू हो गई। बैंसला ने गांव-गांव जाकर लोगों को तैयार किया। एकदम सेना की मानिंद। आरपार की लड़ाई के लिए। कर्नल की मेहनत का नतीजा भी निकला। उनके नेतृत्व में एक अविश्वसनिय आंदोलन शुरू हुआ। दर्जनों लोग मारे गए, पर गुर्जर हिले तक नहीं। कर्नल के एक इशारे पर हजारों गुर्जर मरने-मारने को तैयार थे। सरकार को मामले का कोई हल नहीं दिखा। वह इस इंतजार में थी कि गुर्जर थक-हार कर खुद ही रास्ता खोल दें। इस बीच ये आंदोलन कर्नल के हाथों में से निकल कर उत्तर भारत के कई हिस्सों में फैल गया। बैंसला पर समझौते का दबाव बढऩे लगा। वार्ताओं के कई दौर चले और आखिरकार समझौता हुआ। इसमें गुर्जरों को एसटी आरक्षण की संभावनाओं का अध्ययन करने के लिए चोपड़ा कमेटी का गठन, मृतकों के आश्रितों को मुआवजा व नौकरी और आंदोलनकारियों से मुकदमें वापस लेने की घोषणा हुई। कई गुर्जर नेता इस समझौते से खुश नहीं थे। इनके मुताबिक कर्नल आंदोलन के चरम पर ढीले पड़ गए और समझौते के दौरान बहुत कम में मान गए।
समझौते के बाद बैंसला पूरी तरह से महारानी के मुरीद हो गए। कर्नल ने उनकी खूब तारीफ भी की, लेकिन जब सरकार ने अपने वादों से मुकरना शुरू किया तो वे भौचक रह गए। सरकार ने न तो आंदोलनकारियों पर लदे मुकदमों को वापस लिया और न ही मृतकों के आश्रितों को नौकरियां दीं। इतने में ही चोपड़ा कमेटी की रिपोर्ट भी आ गई जिसमें गुर्जरों को एसटी में शामिल करने के दावे को खारिज कर दिया गया। गुर्जरों का गुस्सा उबाल लेने लगा और कर्नल पर आंदोलन के लिए दबाव बढ़ता गया। आखिर उन्हें आंदोलन की घोषणा करनी पड़ी। हालांकि इस घोषणा में गुर्जरों के अलावा महारानी के दबाव ने भी काम किया। दरअसल, उन दिनों बसपा के बेनर तले कई गुर्जर नेता सक्रिय थे और पहले आंदोलन की बरसी पर मायावती की बड़ी सभा की तैयारी कर रहे थे। प्रह्लाद गुंजल भी इनमें शामिल थे। महारानी को डर था कि मायावती की सभा के बहाने गुर्जर आंदोलन का नेतृत्व बैंसला के हाथों से छिटक ओर किसी के हाथों में जा सकता है। इस बारे में गुंजल बताते हैं, 'जगह-जगह गुर्जरों की पंचायतें हो रही थीं। सरकार के साथ समझौते के नाम पर समाज के सम्मान को गिरवी रखने वाले कर्नल साहब के प्रति लोगों में गुस्सा बढ़ रहा था। गुर्जर अपने हक के लिए एक बड़े आंदोलन की तैयारी कर रहे थे। महारानी नहीं चाहती थीं कि गुर्जरों का नेतृत्व कर्नल साहब के अलावा कोई करे, इसलिए उन्होंने एक सुनियोजित आंदोलन शुरू करवाया। इसकी पूरी पटकथा महारानी ने लिखी, कर्नल साहब ने उसी के अनुसार काम किया।'
आंदोलन के दूसरे दौर में गुर्जरों ने सड़क की बजाय रेल की पटरियों पर कब्जा कर दिल्ली-मुंबई रेलवे ट्रेक को बाधित कर दिया। इस दौरान खूब खून बहा और दर्जनों गुर्जर मारे गए। कई दिनों के बाद सरकार ने आंदोलनकारियों से वार्ता प्रांरभ की। इस बातचीत में राज्य के बाहर के गुर्जर नेता भी शामिल हुए। सरकार पर गुर्जरों की मांगे मानने के लिए दबाव बढ़ ही रहा था कि बैंसला ने फिर से पाला बदल लिया। वे साफ तौर पर महारानी क पक्ष में आ गए। बाहर से आए गुर्जर नेता बैंसला के इस व्यवहार परिवर्तन से रुष्ट होकर वापस हो लिए। कश्मीर से ताल्लुक रखने वाले रिटायर्ड पुलिस अधिकारी और गुर्जर नेता मसूद चौधरी ने तो साफ तौर पर कहा कि कर्नल समाज का भला नहीं कर रहे हैं, वे साफ तौर पर सरकार के साथ सौदबाजी कर रहे हैं। गुर्जर नेताओं के लाख विरोध के बाद भी बैंसला ने सरकार के साथ समझौता कर लिया। जिसके तहत गुर्जरों को विशेष श्रेणी में आरक्षण का प्रावधान किया गया। वसुंधरा सरकार ने इस विधेयक को विधानसभा में पास कर राज्यपाल के पास भेज दिया था, जहां यह आज तक लंबित है। इस आरक्षण का कोई संवैधानिक औचित्य नहीं है। यदि राज्यपाल इस पर हस्ताक्षर कर भी देते हैं तो इसमें सुप्रीम कोर्ट के आरक्षण की सीमा पचास प्रतिशत से ज्यादा नहीं होने संबंधी निर्देश का पेंच फंस जाएगा।
वसुंधरा सरकार के साथ हुए समझौते के बाद से ही बैंसला यह प्रचारित कर रहे थे कि 'वसुंधरा सरकार गुर्जरों की भलाई के लिए अपनी सीमाओं के हिसाब से बहुत कुछ कर चुकी है। महारानी तो आरक्षण भी दे चुकीं हैं, लेकिन कांग्रेस के इशारे पर राज्यपाल विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं कर रहे हैं। गेंद अब केंद्र की यूपीए सरकार के पाले में है। यदि आरक्षण विधेयक को लागू करने में दिक्कत आ रही है तो सरकार को संविधान में संशोधन कर आरक्षण की सीमा बढ़ानी चाहिए।' कुल मिलाकर बैंसला इस पूरे मामले को कांग्रेस के ऊपर थोप देना चाहते हैं। महारानी का भी शुरू से यही मकसद था कि कैसे भी करके उनके यह बला टल, कांग्रेस के पाले में चली जाए। कुछ हद तक कर्नल ने यह काम कर दिखाया। इस बीच गुर्जरों पर बैंसला की पकड़ लगातार कमजोर होती जा रही थी। विधानसभा चुनावों में यह साबित हो गया कि गुर्जर अब कर्नल की सारी बातें मानने वाले नहीं हैं। गौरतलब है कि विधानसभा चुनावों में बैंसला ने गुर्जरों से भाजपा को वोट देने की अपील की थी, पर उसका कोई खास असर नहीं हुआ। गुर्जरों ने भाजपा को वोट नहीं दिए।
विधानसभा चुनावों में कर्नल का जादू नहीं चलने के बाद भाजपा का एक धड़ा उन्हें किनारे करने के पक्ष में है। इसका मानना है कि बैंसला का ज्यादा तवज्जों देने से मीणा वोट पूरी तरह से पार्टी से कट जाएंगे। किरोड़ी लाल मीणा के पार्टी छोड़ देने के बाद पहले ही अधिकांश मीणा वोटर भाजपा से रूठ चुके हैं, लेकिन महारानी कर्नल का पूरा पक्ष ले रही हंै। इसके पीछे एक बड़ी वजह है। वसुंधरा के बेटे दुष्यंत सिंह झालावाड़-बारां सीट पर मुकाबले में फंस गए हैं। इस सीट पर गुर्जर वोटर अच्छी संख्या में हैं। यदि दुष्यंत गुर्जर वोट हासिल कर लेते हैं तो उनकी जीत की संभावनाएं बन जाएंगी। बेटे को जिताने के लिए महारानी बैंसला का सक्रिय समर्थन चाहती हैं। इतने समय से नेताओं के संपर्क में रहने के बाद कर्नल ने भी अब सियासत सीख ली है। उन्होंने दुष्यंत की मदद करने की एवज में टोंक-सवाई माधोपुर सीट से भाजपा का टिकट मांग लिया है।
बैंसला को करीब से जानने खुले तौर पर स्वीकारते हैं कि सियासत का कहकरा उन्हें नहीं आता है। वे बहुत जल्दी राजनीतिक चालों में फंस जाते हैं। कर्नल के चुनाव लडऩे के निर्णय से आरक्षण आंदोलन के दौरान उनके दाएं-बाएं खड़े रहने वाले गुर्जर नेता खासे खिन्न हैं। वे कहते हैं कि कर्नल साहब ने ही यह तय किया था कि आरक्षण आंदोलन संघर्ष समिति से जुड़ा कोई भी शख्स चुनाव नहीं लड़ेगा और अब उसके मुखिया ही मैदान में कूद पड़े हैं। आंदोलन के दौरान बैंसला के प्रवक्ता रहे डॉ. रूप सिंह भी उनके राजनीति में आने के निर्णय से खासे खफा हैं। सिंह बताते हैं कि 'जिनकी अगुवाई में हमने सामाजिक आंदोलन शुरू किया था आज वे ही राह भटक गए हैं। कर्नल साहब के चुनाव लडऩे के फैसले ने समाज को पीछे धकेल दिया है। समाज उन्हें कभी माफ नहीं करेगा। वे उस दल के साथ जा रहे हैं जिनकी सरकार ने 71 निर्दोष गुर्जरों को मार डाला। समाज उन्हें कभी माफ नहीं करेगा।'
बैंसला के पास राजनीति में आने का अपना ही तर्क है। वे मानते हैं कि राजनीतिक रूप से सक्षम हुए बिना किसी भी समाज का भला नहीं हो सकता। चुनाव लडऩे के मकसद के बार में उन्होंने बताया कि 'मैं राजनीतिक व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन समाज के भले के लिए चुनाव लड़ रहा हूं। आंदोलन के दौरान हमारे पास कोई मजबूत नेता होता तो हमें आरक्षण मिल चुका होता। 2010 में आरक्षण की अवधि समाप्त हो रही है। आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा होने चाहिए। मैं संसद में जाकर यही मांग करुंगा। आरक्षण सामाजिक समानता लाने के उद्देश्य से भटक गया है।' शुरू से ही बैंसला के खिलाफ रहे गुर्जर नेता प्रह्लाद गुंजल उनके इस तर्क से सहमत नहीं है। वे कहते हैं, 'कर्नल साहब समाज के मान-सम्मान पर पैर रखकर उस कुनबे में शामिल हो रहे हैं जिसने गुर्जरों के 71 बेटों की हत्या करवाई हो। समाज में अब उनकी कोई इज्जत नहीं बची है।'

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