रविवार, फ़रवरी 07, 2010

मैं मुंबई हूं...


मैं मुंबई हूं। मैं पहले एक टापू थी। मुंबादेवी के नाम से मेरा नाम मुंबई पड़ा। पहले मेरी पहचान मछुआरों के गांव से अधिक कुछ नहीं थी। 'कोली' समाज के लोग तब यहां रहा करते थे। तांदले, नाखवा, भोईर, भांजी, सांधे, कलसे वगैरह सब कोली समाज के ही लोग हैं। मछली पकडऩा, समुद्र की पूजा करना और भाईचारे से रहना इन सबका धर्म है। वक्त बदला तो इन लोगों ने नमक के खेत छोड़ सारी जमीन बेच दी। ईरानी, पारसी, गुजराती, मारवाड़ी और उत्तर प्रदेश व बिहार से आए लोगों ने ये जमीनें खरीदीं और यहां मिलें बनवार्ईं, कल-कारखाने शुरू किए, अखबार निकाले, प्याऊ, मंदिर, स्कूल, अस्पताल, धर्मशालाएं और गैराज आदि बनवाए। गोवानीज, पुर्तगाली और ईसाइयों के चर्च यहां पहले से ही थे। अंग्रेजों ने रेल चलाई तो इसका संचालन करने वाले ज्यादातर लोग उत्तर व दक्षिण भारतीय लोग थे। पोर्ट ट्रस्ट में भी वे सेवा में थे। मुसलमान भी थे। तब मकान के मकान खाली पड़े रहते। मकान मालिक लोगों को पकड़-पकड़कर अपना मकान लेने के लिए बुलाते। बाकी जो जमीनें बची थीं वे लीज यानी पट्टे पर थीं। ट्रामें चलती थीं। तब उत्तर भारतीय दूध का कारोबार करते थे। कच्छी-गुजराती भी दूध व होटल के कारोबार में थे। पारसी और ईरानी केक और पेस्ट्री के साथ पाव का कारोबार करते थे। मस्का मार के ईरानी चाय बहुत चलती थी। एक पाव में लोगों का पेट भर जाता था। मिलों में तीन-तीन पालियां (पारी) चलती थीं। जो बेरोजगार थे, वे किसी के नागा करने पर, बदली कामगार का काम करते थे। दोपहर में फुटपाथ पर सिले हुए कपड़े, हरी सब्जियां-फल आदि का धंधा करते। अलग-अलग क्षेत्र, भाषा और संस्कृति के लोग मजे से रहते थे। पहले खानावल चलते थे। बना बनाया भोजन घर-घर मिलता। डिब्बेवाले उसी परंपरा से निकले हैं। वे दफ्तर में डिब्बा पहुंचाते और वापस ले आते। सुबह ग्यारह बजे के बाद लोकल गाड़ी के मालडिब्बे उनके डिब्बों से भर जाते। जब शाम को रेलवे के कारखाने छूटते और दोपहर में मिलें, तो आम जनता का अथाह समुद्र सड़कों पर गहरा जाता। एक-दो घंटे में ही सारी सब्जी बिक जाती। यहां के गरीब लोग चौका-बर्तन का काम करते। उनके जैसा मेहनती कोई दूसरा नहीं है। घर चमके या न चमके, बर्तन दप-दप चमकते। चाहें तो अपना मुंह देख लें। शॉर्टहैंड और टाइपिंग के साथ-साथ नर्स के कामों की वजह से दक्षिण के लोग यहां आते गए। कुछ तो केंद्र सरकार की नौकरियों में प्रमोशन और तबादले की वजह से आए। पूरी दुनिया कहने लगी कि मुंबई जैसा कोई दूसरा कॉस्मोपोलिटन शहर नहीं है। देश के नामी-गिरामी धनपतियों, फिल्मी सितारों, खिलाडिय़ों और राजनेताओं ने मेरी शान बढ़ाई। मेरे यहां की बसें, लोकल ट्रेनें, मस्का-पाव- सभी चीजें तो बेमिसाल हैं, बदल गए या यूं कहूं बहक गए हैं, तो वे लोग जो मेरे स्वयंभूं ठेकेदार बन बैठे हैं। कहते हैं- मैं केवल मराठियों की हूं। कहने वालों की याददाश्त शायद कमजोर हो गई है, क्योंकि वे तो एक समय मध्य प्रदेश से मेरी शरण में आए थे। वे एक आदिम नारे- जिसकी लाठी उसकी भैंस को चरितार्थ कर रहे हैं, लेकिन ऐ दुनिया वालो! भैंस और एक जीते-जागते शहर में बड़ा फर्क होता है। कोई है, जो मेरे इस दर्द को समझेगा?

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