शुक्रवार, जनवरी 22, 2010

माया मेमसाब अब तो शर्म करो...


स्मारकों, मूर्तियों और पार्र्कों के निर्माण में करोड़ों रुपये फूंकने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार का इनकी चौकीदारी के लिए 'स्टेट स्पेशल जोन सिक्युरिटी फोर्स' के गठन की कवायद यह साबित करने के लिए काफी है कि जनता के पैसे को कैसे बर्बाद किया जाता है। वैसे तो केंद्र से लेकर राज्यों तक कमोबेश सबकी यही कहानी है, लेकिन उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री इसमें निश्चित रूप से अव्वल हैं। वे पूरे राज्य को मूर्तियों, स्मारकों और पार्र्कों से पाटकर न जाने किसका भला करना चाहती हैं? आज यदि राज्य में सड़क-बिजली-पानी सरीखी आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं, मजदूर-किसान बदहाल हैं, बेरोजगार युवकों को नौकरी नहीं है और उद्योग नहीं पनप रहे हैं, तो इसके लिए सूबे की मुखिया मायावती का मूर्ति प्रेम भी कम जिम्मेदार नहीं है। मायावती एक साथ दो मोर्र्चों पर गलती कर रही हैं। एक तो वे सरकारी खजाने को मूर्ति, पार्क और स्मारकों जैसे अनार्थिक क्षेत्रों पर खर्च कर रही हैं और दूसरे आर्थिक बदलाव के किसी बड़ी योजना को लागू नहीं कर रही हैं। उत्तर प्रदेश जैसे खस्ताहाल राज्य के मुखिया का यह रवैया किसी जुर्म से कम नहीं माना जाना चाहिए। वर्तमान में उत्तर प्रदेश का सारा राजस्व सरकारी खर्च में चला जाता है, उस पर कर्ज का भारी बोझ है और मानवीय या आर्थिक हर पैमाने पर वह देश के सबसे गए-बीते राज्यों में गिना जाता है। यदि सरकार इसी ढर्रे पर चलती रही, तो राजनीतिक रूप से देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य को दिवालिया होने से कोई नहीं बचा सकता। जाहिर तौर पर राजनेताओं का कोई नुकसान नहीं होगा, क्योंकि बदहाली भी उसका एक हथियार है, लेकिन उत्तर प्रदेश के लोगों को जो झेलना पड़ेगा, वह सियासत कतई नहीं होगी, वह मानवीय त्रासदी होगी।
यह तो समझ में आता है कि दलित हितों की पैरवी करने वाली मायावती अंबेडकर, महात्मा फुले या काशीराम आदि की मूर्तियां लगवाएं, लेकिन वे तो खुद की बुत भी लगवा रही हैं। इसमें संदेह नहीं कि मायावती आज देश के एक बड़े राज्य की मुख्यमंत्री हैं और दलित क्षमता व दलित उपलब्धि का एक प्रतीक हैं, लेकिन ये और ऐसे कारण उनकी आत्म-मुग्धता का औचित्य सिद्ध नहीं करते। यह सही है कि सवर्र्णों की तुलना में दलित महापुरुषों को देश में सम्मान नहीं मिला है, लेकिन यह मूर्तियों की संख्या से निर्धारित नहीं होगा। वह चाहे दलित हों, अल्पसंख्यक हों या फिर और कोई वंचित तबका, उनका भला करना है तो उन्हें प्रतीकात्मक रूप से शक्तिशाली दिखाने से कुछ नहीं होगा, उन्हें असल में वे सुविधाएं और संसाधन मुहैया कराने होंगे जिनसे वे बराबरी हासिल कर सकें। देश बदल रहा है, तो इसकी सबसे ज्यादा रोशनी उत्तर प्रदेश पर पडऩी चाहिए, लेकिन उजाला तब होगा जब उत्तर प्रदेश अपने पैरों पर खड़ा होगा। इतने बड़े राज्य का पिछड़ा रहना पूरे देश की तरक्की पर लगाम लगाता है। मायावती अक्सर केंद्र से मदद की गुहार करती हैं, लेकिन पहले वे खुद अपने खजाने का सही इस्तेमाल करना तो सीखें। वे जितना ध्यान सोशल इंजीनियरिंग के सहारे देश के बाकी हिस्सों में पैठ जमाने में लगाती हैं, यदि उसका थोड़ा भी उत्तर प्रदेश की तरक्की के लिए लगा दें, तो उत्तर प्रदेश की जनता उन्हें बिना मूर्ति के ही पूजने को तैयार हो जाएगी। इसका मंत्र सीखने के लिए उन्हें दूर जाने की जरूरत नहीं है। उनके पड़ोस में ही नीतिश कुमार बिहार का कायाकल्प करने में लगे हैं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. अंधेर नगरी चौपट राजा !दारू की बोतलों पर,
    पर बोतल पियक्कड़ो से जो ५, १० और १५ रूपये की पिछले दो साल से अतिरिक्त उगाही हो रही है, किसी ने यह नहीं पुछा कि यह पैंसा जा कहाँ रहा है ?

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  2. मायावती ने ये दिखा दिया है की वो सचमुच हरिजन समाज की मसीहा है, ( अलग नजरिये से) लेकिन हरिजन समाज भी तो उनकी इस करनी से खुश है। मेरे समझ से मायावती ने अगर इन पैसे का इस्तेमाल हरिजन लोगो के बच्चो की पढाई और शादी या उनके रोजगार के साधन उपलब्ध करने मैं खर्च किया होता तो शायद आज ये नौबत नहीं आती। मगर मायावती तो जानती है की अगर हरिजन समाज के लोग अगर आगे निकल जायेंगे तो उनको सत्ता तक कौन भेजेगा। उस से तो अच्छा है की उनको मूर्तियों और पार्को मैं ब्यस्त रहने दे।

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  3. सब जगह अंधेर नगरी चौपट रजा .. टका सेर भाजी टका सेर खाजा ..... कोई नेता दूध का धुला नहीं है .... ये भारत के ६० सालो का इतिहास गवाह है ....

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  4. ये उस दि‍न ही पैदा नहीं हुई कि‍ शर्म करें।

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