गुरुवार, जनवरी 21, 2010

इन नेताओं की टैक्सी पंचर करो


यह विडंबना ही है कि महाराष्ट्र राजनीतिक दलों के लिए क्षेत्रवाद की प्रयोगशाला बनता जा रहा है और बाल ठाकरे व राज ठाकरे के पदचिह्नों पर चलते हुए सत्ताधारी कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन भी इसका सहारा लेकर अपने राजनीतिक हित साधना चाहता है। स्थानीय निकाय चुनावों में बढ़त हासिल करने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने यह निर्णय किया है कि टैक्सी का लाइसेंस अब उन्हीं को दिया जाएगा जिन्हें मराठी अच्छी तरह से आती है और राज्य में कम से कम 15 साल से रह रहे हों। सरकार यह तालिबानी फरमान जारी कर किसका भला करना चाहती है? चुनाव नजदीक आते ही उसे 'मराठी माणुस' की याद क्यों आई है? यदि पूरा देश महाराष्ट्र की तर्ज पर चले तो आने वाले दिनों में पश्चिम बंगाल में बंगाली, केरल में मलयाली, आंध्र प्रदेश में तेलगू, तमिलनाडु में तमिल और असम में असमिया ही रहेंगे? क्या यह देश के संघीय ढांचे को सीधे-सीधे चुनौती नहीं है? सत्ता के लिए देश का यह बंटवारा राजनीति की दुकान खोलकर बैठे जो लोग कर रहे हैं क्या उन्हें पता है कि अगर देश ही नहीं रहेगा तो वे खुद कैसे बचेंगे? राष्ट्रीय दलों का देश के पैमाने पर क्षेत्रीय दलों के सामने कमजोर पडऩा और बदले में की जा रही ओछी राजनीति ने देश को ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया हैं जहां राष्ट्रीय कानून के होते हुए भी राष्ट्रीयता की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। इसके लिए मौजूदा दौर की राजनीति के वे दलाल दोषी हैं, जिन्होंने कभी यह सोचा ही नहीं कि हिंदुस्तान की एकता को चुनौती देने के खिलाफ कड़े कानून बनाए जाने चाहिए जिससे ऐसे तत्व कभी सिर ही नहीं उठा सकें। महाराष्ट्र क्षेत्रीयता की आग में कुछ ज्यादा ही झुलस रहा है, लेकिन दुर्भाग्य से वर्तमान में पूरे देश में कमोबेश यही हालात हैं। पश्चिम बंगाल में कभी मारवाडिय़ों पर टिप्पणी की जाती है, तो असम से बंगालियों को खदेड़ा जाता है। बंगाल में हिंदी माध्यम से पढ़ रहे छात्रों को हिंदी में प्रश्नपत्र सिर्फ इसलिए नहीं दिए जाते हैं कि इससे बंगाली मानसिकता को सरकार भुनाती है। सुनील गंगोपाध्याय जैसे बांग्ला के प्रख्यात विद्वान-साहित्यकार हिंदी भाषियों को सरेआम खदेडऩे की बात करते हैं। दक्षिण में हिंदी व हिंदी भाषियों का विरोध जगजाहिर है। पंजाब और असम में सरेआम हिंदी भाषी मजदूरों को वहां के जातीय संगठन मार डालते हैं। लोग भागने और दरबदर होने को मजबूर होते रहते हैं, मगर इसे रोकने की जगह बड़े या क्षेत्रीय दल सिर्फ राजनीतिक लाभ उठाने की संभावनाएं तलाशते नजर आते हैं। क्या मानकर चला जाए कि एकछत्र भारत की अब किसी दल को जरूरत नहीं? शायद ऐसा ही लगता है। सभी राजनीतिक अवसरवादिता की रोटी सेक रहे हैं। आखिर हो क्यों नहीं? यही क्षेत्रीय क्षत्रप ही तो केंद्र में सरकारें चलवा रहे हैं और सत्ता के भागीदार हैं। मलेशिया जैसा छोटा देश भी आज भारत के सामने बड़ी आर्थिक ताकत इसलिए है, क्योंकि वहां किसी को राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ की छूट नहीं है। वहां ऐसे कानून हैं जो किसी को भी राष्ट्रविरोधी होने से पहले सौ बार सोचने पर मजबूर कर देते हैं। क्या भारत को ऐसे कानून पर विचार नहीं करना चाहिए। आखिर यहां भी तो ऐसे तमाम उदाहरण हैं जो साबित करते हैं कि क्षेत्र, भाषा, धर्म और जाति के नाम पर चलाए जाने वाले राजनीतिक अभियान देश की अखंडता को सीधी चुनौती पेश करते हैं।

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