मंगलवार, नवंबर 18, 2008

मौन हुईं महारानी


ताबड़तोड़ सियासत में माहिर महारानी ने चुप्पी साध रखी है। कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के चलते गहलोत भी खामोश हैं। मुद्दों की भरमार होते हुए भी दोनों दल 'डिफेंसिव गेम' खेल रहे हैं। क्या है वजह? विश्लेषण।


राजस्थान में सत्ता की खातिर चल रहे सियासी संघर्ष का रुख बदल रहा है। भाजपा के साथ कांग्रेस ने भी सुरक्षात्मक रणनीति अपना ली है। भाजपा की तैयारियों से विकास का मुद्दा 'नहीं रुकेगा राजस्थान' के होर्डिंग्स तक ही सिमट गया है। लगता है चौतरफा हमले झेल रहीं मुख्यमंत्री के राजनीतिक कौशल की धार भी कुंद हो गई है। 'परिवर्तन यात्रा' सरीखे कोई अभियान चलाना अब उनके साथ वक्त के बूते से भी बाहर है। कांग्रेस की स्थिति बिना कप्तान की टीम जैसी हो रही है। भाजपा के कारनामों की पोल खोलने का दावा करने वाली पार्टी सत्ता विरोधी लहर की उम्मीद पाले बैठी है।
चुनावी महासमर में भाजपा की कमान इस बार भी वसुंधरा राजे के पास है। मुख्यमंत्री की सीरत बेहद आक्रामक है। उन्हें अपने ढंग से सियासत करना पसंद है। महारानी अपने काम में किसी का दखल बर्दाश्त नहीं करतीं। उनके इसी अंदाज के चलते कई भाजपाई तो उन्हें इंदिरा गांधी का क्लोन तक कहते हैं। लेकिन, पिछले कुछ समय से उनका दूसरा ही रूप सामने आ रहा है। चुनाव अभियान में उनके और आक्रामक होने की आस लगाए बैठे पार्टी के नेता महारानी के मौन से हतप्रभ हैं। मुख्यमंत्री के इस व्यवहार परिवर्तन की कई वजह हैं। पिछले कुछ समय से महारानी के सारे दांव उल्टे पड़ रहे हैं। वे पिछली चुनावों की तरह 'परिवर्तन यात्रा' की तर्ज पर प्रचार करना चाहती थीं। पूरा कार्यक्रम बन गया था। तैयारियां भी पूरी हो गई थीं, लेकिन गुर्जर आरक्षण आंदोलन ने सब चौपट कर दिया। वहीं, गुर्जरों को मनाने की सारी कोशिशें भी विफल साबित होती दिखाई दे रही हैं। कर्नल किरोड़ी सिंह बैंसला के लाख कहने पर भी गुर्जर भाजपा के पक्ष में जुटने को राजी नहीं हैं। गुर्जर को मनाने के चक्कर में किरोड़ी लाल मीणा से दूरियां अलग से बढ़ गईं, यानि 'माया मिली न राम'। विश्वेंद्र सिंह के मामले में भी मुख्यमंत्री की रणनीति कारगर नहीं रही। भरतपुर के दो दिग्गजों की लड़ाई में दिगंबर सिंह का साथ देना उन्हें भारी पड़ गया है। विश्वेंद्र सिंह कांग्रेस का दामन थाम भाजपा को बड़ा नुकसान पहुंचाने की तैयारी में हैं। एंटीइंकंबेंसी के असर को कम करने के मकसद से 'मोदी मॉडल' की तर्ज पर विधायकों व मंत्रियों के टिकट काटने का फैसला भी उल्टा पड़ गया है। टिकट नहीं मिलने पर ज्यादातर नेता खुली बगावत पर उतर आए हैं। दरअसल, मुख्यमंत्री गुजरात और राजस्थान के सियासी समीकरणों में के भेद को नहीं पाईं। गुजरात में नरेंद्र मोदी का एकछत्र राज्य है। वहां उनके खिलाफ कोई चूं बोलने को तैयार नहीं है। वहां क्षेत्रीय मुद्दे इतने हावी नहीं हैं।
मुख्यमंत्री बीते पांच सालों में पार्टी के ही एक खेमे के लगातार निशाने पर रही। विरोधियों ने उनके खिलाफ दिल्ली दरबार के भी खूब कान भरे। राज्य की राजनीति से बेदखल करने की कोशिश भी खूब हुईं। हालांकि केंद्रीय नेतृत्व हमेशा वसुंधरा के सुर में ही बोला, लेकिन राजनाथ सिंह को महारानी के तेवर रास नहीं आ रहे थे। सिंह ने मुख्यमंत्री के खास समझे जाने वाले महेश शर्मा की जगह ओमप्रकाश माथुर को पार्टी का मुखिया बनाकर संकेत दे दिया कि सब कुछ उनके हिसाब से नहीं चलेगा। मजबूरी में ही सही माथुर के साथ उनकी ट्युनिंग बैठने ही लगी थी कि टिकट वितरण में बढ़े विवाद ने सब मटियामेट कर दिया। सूत्रों के मुताबिक माथुर ने टिकट बांटने में महारानी पर मनमानी का आरोप लगाकर दूरी बना ली है। पहली सूची तक तो सब ठीक था, लेकिन दूसरी सूची के नामों को लेकर तनातनी हो गई। गुस्साए माथुर पार्टी नेतृत्व से शिकायत कर भूमिगत हो गए हैं। वैसे पार्टी के आला नेता उन्हें मनाने में लगे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि माथुर अब नहीं मानेंगे। माथुर का नाराज होना दूसरी पारी की तैयारी कर रही मुख्यमंत्री के लिए भारी पड़ सकता है।
कांग्रेस की कहानी जरा हटके है। पार्टी के आला नेता दबे स्वर में यह मानते हैं कि सरकार के खिलाफ हम आक्रामक नहीं हो पाए हैं। पार्टी के ज्यादातर नेता यह मानते हैं कि वसुंधरा सरकार खुद के कारनामों से ही डूब जाएगी। हालांकि डूबने लायक पानी सूबे में कहीं मयस्सर नहीं है। बीते पांच सालों में कांग्रेस सरकार के खिलाफ कोई जनआंदोलन खड़ा नहीं कर पाई। विपक्ष के तौर पर कांग्रेस की सरगर्मी कहीं नोटिस में नहीं आई। ऐसा नहीं है कि सरकार के खिलाफ कोई मुद्दा नहीं मिला हो। मुद्दों की तो भरमार रही। जगह-जगह हुए गोलीकांड, आबकारी नीति, जमीन घोटाले, कानून व्यवस्था, दूषित पेयजल सरीखे किसी भी मामले को उठाकर कांग्रेस सत्ता के खिलाफ माहौल बना सकती थी। वहज साफ है, पार्टी में किसी ने नेतृत्व की कमान नहीं संभाली। अशोक गहलोत की धरती पकड़ खामोशी के कई अर्थ निकलते हैं। सूत्रों के मुताबिक गहलोत सबकुछ योजनाबद्ध तरीके से कर रहे हैं। गहलोत दो कारणों से सक्रिय नहीं रहे। पहला, पार्टी का एक धड़ा उन्हें दोहराने के मूड में नहीं है और दूसरा, जाट समाज की नाराजगी। दरअसल, आलाकमान नहीं चाहता कि चुनावों से पहले ही पार्टी में गुटबाजी उभर कर आए। भाजपा से नाखुश चल रहे जाटों को नाराज करने की जुर्रत भी पार्टी नहीं करना चाहती। अलबत्ता गहलोत अच्छी तरह जानते हैं कि मुख्यमंत्री बनने के लिए सक्रियता नहीं दस जनपथ का आशीर्वाद जरूरी है। लिहाजा वे वहां पूरी तरह से सक्रिय हैं। वैसे सरकार के खिलाफ कुछ मुद्दों पर मौन रहना कांग्रेस की मजबूरी भी रही। गुर्जर आरक्षण आंदोलन को ही लें। कांग्रेस ने चुप रहने में ही फायदा समझा। पार्टी का मानना है कि आंदोलन में 70 से ज्‍यादा लोगों के मारे जाने के बाद गुर्जर तो वैसे भी भाजपा को वोट नहीं देंगे। पार्टी गुर्जरों के पक्ष में बोलकर पार्टी मीणाओं से बेर लेना नहीं चाहती।
महारानी के मौन और गहलोत की खामोशी के बीच जनता भी चुप्पी साधे सारा माजरा देख रही है। चरम की और बढ़ रहे चुनावी माहौल में सबसे अहम सवाल यह है कि कांग्रेस और भाजपा को पलट-पलट कर सत्ता का स्वाद चखाने वाले मतदाता इस बार क्या जनादेश देंगे? देखते हैं सूबे की जनता किसे सियासी विरासत संभलाती है और किसे सबक सिखाती है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें