शनिवार, दिसंबर 25, 2010

किस-किसको संभाले गहलोत

अशोक गहलोत को सूबे की सत्ता संभाले दो साल पूरे हो गए। इस दौरान ऐसे मौके कम ही आए जब सरकार उनके मुताबिक चली। कभी मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने ही उन्हें मुसीबत में डाला तो कभी उन्हें टीम के नौसिखिया होने का खामियाजा भुगतना पड़ा।

अपनी सरकार की दूसरी वर्षगांठ पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विपक्ष के आरोपों का तो आक्रामक अंदाज में जबाव दे दिया, लेकिन सरकार में शामिल उन ‘अपनों’ को वे कोई सबक नहीं सिखा पाए जो पिछले दो साल उनके लिए सिरदर्द बने हुए हैं। संभवत: ऐसा इसलिए है कि गहलोत को इन्हें सुधारने का कोई तरीका ही नहीं सूझ रहा है। वरना कोई वजह नहीं है कि सरकार को रफ्तार देने में बाधा बन रहे इन साथियों को वे कब का सीधा कर चुके होते। ऐसा नहीं है कि गहलोत ने इन पर लगाम कसने की कोशिश नहीं की। उन्होंने कई बार सरकार की चाल चुस्त करनी चाही, लेकिन हर बार नाकामी के सिवा कुछ न मिला। अब गहलोत को यह चिंता सता रही है कि यदि ऐसे ही चलता रहा था तो वे तीन साल बाद किस मुंह से जनता से वोट मांगेंगे।
मौजूदा सरकार में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बाद नंबर दो की हैसियत शांति धारीवाल की है। वे सरकार के सबसे अनुभवी मंत्रियों में से एक हैं और उनके पास गृह, विधि, नगरीय विकास एवं स्वायत्त शासन सरीखे महत्वपूर्ण मंत्रालय भी हैं। मुख्यमंत्री ने उनको फ्रीहैंड दे रखा है, लेकिन पिछले दो साल में उनके खाते में उपलब्धियां कम और नाकामियां ज्यादा आई हैं। इनका विस्तृत ब्यौरा ‘शुक्रवार’ पहले ही दे चुका। गहलोत धारीवाल के कामकाज से तो खिन्न हैं ही, इस बात से खासे नाखुश हैं कि धारीवाल उनकी नसीहतों पर ध्यान देने की बजाय स्थानीय स्तर की राजनीति में उलझ रहे हैं।
असल में धारीवाल पर इन दिनों हाड़ौती का सबसे बड़ा नेता बनने की सनक सवार है। कल तक दूसरी पंक्ति के नेताओं को निपटाने में लगे धारीवाल ने अब पंचायतीराज मंत्री भरत सिंह को भी निशाने पर ले लिया है। पिछले दिनों मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कोटा आए तो उन्हें जानबूझकर सभी कार्यक्रमों से दूर रखा गया। जब गहलोत को इसका पता लगा तो उन्होंने तब तो कुछ नहीं कहा, लेकिन कुछ दिन बाद धारीवाल को बिना बताए भरत सिंह के साथ क्षेत्र को दौरा कर संकेतों में बहुत कुछ समझाने की कोशिश की। हालांकि इसके बाद भी धारीवाल के रवैये में कोई बदलाव नहीं आया।
धारीवाल के अलावा हाड़ौती क्षेत्र से दो और मंत्रियों- प्रमोद जैन ‘भाया’ और भरत सिंह के कामकाज से भी गहलोत संतुष्ट नहीं बताए जा रहे हैं। भाया सार्वजनिक निर्माण मंत्री हैं और धारीवाल से उनकी अदावत जगजाहिर हैं। इस तनातनी के अलावा गहलोत उनके काम करने के तरीके से भी नाखुश हैं। सडक़ों और अन्य निर्माण कार्यों के मामले में उन्हें बारां के अलावा राज्य का कोई दूसरा क्षेत्र नजर ही नहीं आता है। हालांकि स्थानीय लोग भी उनके कामकाज से संतुष्ट नहीं है। मसलन राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 90 की खस्ता हालत लोगों को बेहद अखर रही है। इस सडक़ को बारां जिले की लाइफ लाइन माना जाता है। भाया ही नहीं पंचायतीराज एवं ग्रामीण विकास मंत्री भरत सिंह का राजनीति करने का अंदाज भी गहलोत को नहीं भा रहा है। हालांकि भरत सिंह साफ छवि के नेता हैं, लेकिन उनका अडियल रवैया कई बार सरकार के लिए मुसीबतें खड़ी कर चुका है। खुद की पार्टी के विधायकों के विरोध के बाद भी वे मनरेगा की सॉशल ऑडिल करवाने की बात पर अड़े रहे। इस पर विधायक रघु शर्मा ने विधानसभा में ही उन्हें मानसिक अवसाद का शिकार बता मेडिकल मुआयना करवाने की सीख दे डाली। हाड़ौती के कांग्रेसी नेताओं में उनकी शांति धारीवाल से तो बिल्कुल नहीं बनती है। हालांकि प्रमोद जैन ‘भाया’ से उनकी कुछ हद तक सुलह हो गई है। इसी तनातनी की वजह से कोटा जिला प्रमुख के चुनाव में कांग्रेस का उम्मीदवार बहुमत के बाद भी हार गया। इस मामले में भरत सिंह की भूमिका संदिग्ध रही थी। इस मामले में आलाकमान भी उनको दो बार तलब कर चुका है।
गहलोत के साथ परेशानी यह भी यह है कि जिन्हें वे अपना मानते थे वे भी उनकी किरकिरी करवाने में लगे हुए हैं। इस फेहरिस्त में पहला नाम खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति मंत्री बाबू लाल नागर का आता है। नागर को गहलोत का खास माना जाता है। नागर ने ‘शुद्ध के लिए युद्ध’ अभियान के मार्फत खूब चर्चाओं में रहे थे, लेकिन गेहूं पिसाई के ठेके में गड़बड़ी का मामला उन पर भारी पड़ गया है। प्रधानमंत्री कार्यालय के दखल के बाद भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो इस मामले की जांच कर रहा है। मजेदार बात यह है कि जांच शुरू होने के बाद भी नागर उसी विभाग के मंत्री बने हुए हैं। मंत्री पद से इस्तीफा देना तो दूर उन्होंने पार्टी के आला नेताओं को इस मामले में अब तक सफाई भी नहीं दी है। उल्टे वे जांच को प्रभावित करने में लगे हैं। गौरतलब है कि इस पूरे मामले की फाइल कई दिनों तक भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को नहीं दी गई और अब पता चला है कि काफी रिकॉर्ड गायब भी हो चुका है।
शिक्षा मंत्री मास्टर भंवर लाल मेघवाल को भी गहलोत का खास माना जाता है, लेकिन वे भी आए दिन उनके लिए मुसीबतें खड़ी करते रहते हैं। उल्टी-सीधी देसी कहावतों का इस्तेमाल करते हुए मेघवाल कब क्या बोल जाएं, कोई कुछ नहीं कह सकता। बयान देने से वे चूकते नहीं है और ऐसा कोई बयान होता नहीं है जिससे बवाल खड़ा न हो। मेघवाल ने पिछले साल विदेश यात्रा पर जाते हुए वहां मौज-मस्ती करने की बात कही थी बाद में इस पर विवाद हुआ। पिछले दिनों राजस्थान विश्वविद्यालय में एक कार्यक्रम के दौरान उन्होंने समानीकरण मामले में शिक्षकों की पत्नियों को लेकर अभद्र टिप्पणी की और हल्ला मचने पर उन्हें माफी तक मांगनी पड़ी। इसके बाद उन्होंने कहा कि महंगाई कहां है, गरीब आदमी भी दिन में चार बार कपड़े बदलता है। उन पर अपनी ही पार्टी की एक महिला नेता से दुव्र्यवहार का आरोप भी लगा। शिक्षक तबादलों पर ही विपक्ष ही कांग्रेस के कई नेताओं ने खुले तौर पर उन पर आरोप लगाए। गहलोत के सामने मेघवाल को लेकर एक परेशानी यह भी है कि वे उनके विभाग के राज्य मंत्री मांगी लाल गरासिया को जरा भी भाव नहीं देते। इस पर गरासिया कई बार खुले तौर पर नाराजगी जता चुके हैं। शिक्षा मंत्री द्वारा विभागीय बैठकों में नहीं बुलाने व विज्ञापनो में फोटो नहीं छपाने की गरासिया ने मुख्यमंत्री से शिकायत की, लेकिन हालात अभी भी पहले के जैसे ही बने हुए हैं।
वन, पर्यावरण और खान मंत्री राम लाल जाट को भी गहलोत का खास माना जाता है। जाट दो साल पहले उस समय भी गहलोत के साथ खड़े नजर आए थे जब प्रदेश के जाट नेता किसी ‘किसान’ को मुख्यमंत्री बनाने के लिए लॉबिंग कर रहे थे। इतना ही नहीं उन्होंने पहली-दूसरी बार विधायक बने जाट नेताओं का समर्थन जुटाने में भी गहलोत की खूब मदद की। गहलोत ने भी उन्होंने उपकृत करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और उन्हें अच्छा पोर्टफोलियो दिया, लेकिन उनके तौर-तरीकों पर भी खूब अंगुलियां उठ रही हैं। राज्य में अवैध खनन पहले के मुकाबले बढ़ा ही है और रणथंभौर-सरिस्का बाघ अभयारण्यों की बदइंतजामी भी सरकार की छवि को नुकसान पहुंचा रही है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश सार्वजनिक रूप से यह कह चुके हैं कि बाघों की मौत के लिए राज्य सरकार का कुप्रबंधन जिम्मेदार है। इसके अलावा राम लाल जाट भीलवाड़ा में जिंदल समूह को खनन पट्टा देने के मामले में खान मंत्री रामलाल जाट विधानसभा के अन्दर व बाहर काफी चर्चित रहे।
गहलोत ऐसे मंत्रियों से भी परेशान हैं जो उनके सादगी और अनुशासन के मंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं। इस मामले में बीना काक शीर्ष पर हैं। वे चुनाव जीतने तक ही कांग्रेस की रीति-नीतियों को याद रखती हैं। उन्हें राजसी ठाठ-बाट से रहना पसंद है और उनका सियासत का अंदाज भी वैसा ही है। उनके नेतृत्व में पर्यटन मंत्रालय तो कोई तरक्की नहीं कर रहा है, लेकिन उनकी खूब तरक्की हो रही है। उनके पुत्र अंकुर काक की कंपनी मेजस्टिक रियलमार्ट को सरकार की अफोर्डेबल हाउसिंग पॉलिसी के तहत सस्ते मकान बनाने का टेंडर भी मिल गया। उनके पास ‘प्रशासन गांव के संग’ अभियान में जाने का तो वक्त नहीं है, लेकिन वे विदेश जाने का कोई मौका नहीं चूकती। गहलोत की सादगी-सादगी की रट के बावजूद वे अधिकारियों के लवाजमे के साथ कई बार विदेश जा चुकी हैं।
जनजाति विकास मंत्री महेंद्रजीत सिंह मालवीय का काम करने का सलीका भी मुख्यमंत्री को खूब खटक रहा है। मालवीय के पास न तो विधानसभा में आने का वक्त है और न ही विभागीय कामकाज निपटाने का। विधानसभा के बजट सत्र में वे बीमारी का बहाना बनाकर गायब हो गए और सहकारिता मंत्री परसादी लाल मीणा को उनके विभाग की बजट मांगों का जबाव देना पड़ा। इतना ही नहीं मीडिया में यह सामने आने के बाद कि वे बीमार नहीं है, बल्कि घर पर ही जरूरी फाइल निपटा रहे हैं, उन्होंने विधानसभा आना उचित नहीं समझा। हां, इस दौरान उन्होंने अपने क्षेत्र में एक मेले में खूब जश्र जरूर मनाया। जयपुर आने के बाद भी वे विभागीय कामकाज के लिए समय नहीं निकाल पाते हैं। यहां तक कि उन्हें कर्मचारियों के तबादला आदेशों पर हस्ताक्षर करने तक का समय नहीं मिल पाता। कई आदेश उनके पीए के हस्ताक्षर से निकले। इस दौरान एक मीडियाकर्मी से मारपीट का आरोप भी उन पर लगा और उनके खिलाफ मुकदमा भी दर्ज हुआ।
जब अपने ही इस तरह से पेश आ रहे हैं तो गहलोत उन मंत्रियों से तो उम्मीद ही क्या कर सकते हैं जिन्हें मजबूरी में मंत्री बनाया गया।
गहलोत को ऐसे मंत्रियों से तो पहले से ही उम्मीद नहीं थी, जिन्हें मजबूरी में मंत्रिमंडल में जगह दी गई। इस सूची में पहला नाम गोलमा देवी का आता है। गोलमा के पास खादी एवं ग्रामोद्योग मंत्रालय है। वे कांग्रेस के कई नेताओं को शुरू से ही खटकती रही हैं, लेकिन अब गहलोत भी उनके कार्यप्रणाली से आजिज आ चुके हैं। पहला तो विभागीय काम में उनका योगदान शून्य है और दूसरा वे सरकार का कहा भी नहीं मान रही हैं। राज्यसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा उम्मीदवार राम जेठमलानी को वोट देकर आग में घी डालने का काम किया। असल में गोलमा को सरकार से ज्यादा चिंता अपने पति दौसा सांसद डॉ. किरोड़ी लाल मीणा की रहती है। इसी के चलते वे एक बार उनके किरोड़ी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माने जाने वाले केंद्रीय वित्त राज्य मंत्री नमोनारायण मीणा के एक कार्यक्रम में जा धमकी थीं। हालांकि यह उनके विभाग का ही कार्यक्रम था और उन्हें यहां बुलाया नहीं गया था। कांग्रेस हलकों में भी यह बड़ा प्रश्न बना हुआ है कि सरकार को परेशानी में डालने वाली गोलमा देवी को मंत्री बनाए रखने की आखिर क्या मजबूरी है।
आपदा राहत राज्य मंत्री बृजेंद्र ओला की सुस्ती से भी गहलोत का माथा ठनका हुआ है। गहलोत ने जब सत्ता संभाली थी तो उन्होंने तय किया था कि पहली बार विधायक बनने वालों को मंत्री नहीं बनाया जाएगा, लेकिन बृजेंद्र ओला के मामले में उन्हें ही यह आचार संहिता तोडऩी पड़ी। गहलोत के साथ मुख्यमंत्री पद की दौड़ में शामिल शीशराम ओला को संतुष्ट करने के मकसद से बृजेंद्र को मंत्री तो बना दिया, पर वे अब तक कोई छाप नहीं छोड़ पाए हैं। उल्टे उन्होंने सरकार को कई बार मुश्किल में ही डाला है। राज्यसभा चुनाव में दूसरी वरीयता का वोट कांग्रेस के बजाय भाजपा उम्मीदवार को डाल दिया। आलाकमान ने ओला को नोटिस दिया, लेकिन कार्रवाई नहीं हुई। ओला के पास उतना बड़ा मंत्रालय तो नहीं है, लेकिन उनकी सुस्ती ने आपदा राहत विभाग को बिना काम मंत्रालय बना दिया है। कुल मिलाकर काम में हाथ बंटाने की बजाय गहलोत मंत्रिमंडल के कई मंत्री सरकार के लिए ही मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। गहलोत जितना जल्दी ‘मुसीबत’ बने इन मंत्रियों से निपट लें अच्छा है, वरना बाकी बचे तीन साल भी उन्हें कांटो पर ही चलना होगा।
(शुक्रवार के ताजा अंक में प्रकाशित)

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