गुरुवार, जून 18, 2009

धांधली या पश्‍िचम की धौंस

ईरान के राष्ट्रपति चुनाव में महमूद अहमदीनेजाद का दुबारा चुने जाने की घोषणा के बाद उपजा विवाद थमने का नाम नहीं ले रहा है। पराजित प्रत्याशी मीर हुसैन मुसावी ने चुनावों में भारी धांधली का आरोप लगाते हुए परिणामों को खारिज कर दिया है। वे इस चुनाव को रद्द कर फिर से मतदान की मांग कर रहे हैं। उनके समर्थक देशभर में प्रदर्शन कर रहे हैं। कई जगह प्रदर्शन ने हिंसक रूप ले लिया है और लोगों के मारे जाने की भी खबरें आ रही हैं। मामला बिगड़ता देख गार्डियन काउंसिल ने चुनाव परिणामों को अस्थाई घोषित कर दिया है। इस रोक को अहमदीनेजाद की कमजोर होती पकड़ के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है। वैसे देश के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई अभी भी अहमदीनेजाद के पक्ष में हैं। गार्डियन काउंसिल के ज्यादातर मौलवी भी उनके पक्ष में हैं। ऐसे में इस बात की संभावना बहुत कम है कि परिणामों को निरस्त किया जाएगा और देश में फिर से चुनाव होंगे।
चुनावों में अहमदीनेजाद की भारी जीत को विपक्षी खेमा पचा नहीं पा रहा है। मुसावी लगातार यह आरोप लगा रहे हैं कि वोटों की गिनती के दौरान भारी हेराफेरी की गई है। हालांकि राष्ट्रपति अहमदीनेजाद और गार्डियन काउंसिल ने ऐसे इलाकों में वोटों की दुबारा गिनती करवाने के हामी भर दी है जहां गड़बड़ी की आशंका जताई जा रही है, लेकिन मुसावी इसके लिए तैयार नहीं हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि मतदान के दौरान ही लाखों मतपत्रों का गायब कर दिया गया था और बड़ी संख्या में लोग अपना वोट नहीं डाल पाए तो दुबारा वोट गिने जाने का क्या अर्थ है? उल्लेखनीय है कि ईरान की जनता ने इन चुनावों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। 85 प्रतिशत से भी ज्यादा तमदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया, जो कि एक रिकॉर्ड है। हालांकि मतदान के दौरान कई जगह मतपत्र समाप्त हो जाने और कई लोगों के वोट नहीं डाल पाने की खबरें मीडिया में आई थीं। मुसावी ने भी इस तरह की अनियमितताएं होने का बयान दिया था, पर उन्होंने उस समय चुनाव आयोग से ऐसे मतदान केंद्रों पर फिर से मतदान कराने की गुजारिश नहीं की।
दरअसल, मुसावी को अपनी जीत का पूरा भरोसा था, पर परिणामों ने उन्हें हैरत में डाल दिया है। उनके प्रभाव वाले क्षेत्र में भी वे अहमदीनेजाद से बड़े अंतर से पिछड़े हैं। इन चुनावों में मुसावी ने देश की खस्ताहाल अर्थव्यवस्था को और अहमदीनेजाद ने ईरान की संप्रभुता तथा प्रतिष्ठा को मुद्दा बनाया था। चूंकि अहमदीनेजाद एक भावनात्मक मसले पर चुनाव लड़ रहे थे इसलिए उन्हें जनता का ज्यादा समर्थन मिला। पिछले कुछ सालों में अमरीका और इजराइल की खुली खिलाफत करने के कारण ईरान में अहमदीनेजाद की लोकप्रियता का ग्राफ तेजी से बढ़ा है। इसी साल अप्रैल में जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र संघ के नस्लभेद सम्मेलन में जब उन्होंने इजराइल को नस्लभेदी बताया था तो ईरान वापसी पर उनका हीरो सरीखा स्वागत हुआ था। परमाणु कार्यक्रम के मसले पर अमेरिका और यूरोपीय यूनियन के भारी दबाव के बाद भी अहमदीनेजाद टस से मस नहीं हुए। चुनावों में भी उनके यही भावनात्मक मुद्दे कारगर साबित हुआ और जनता ने उन्हें भारी समर्थन दिया।
अहमदीनेजाद को मिले भारी मतों के बावजूद मुसावी की काबिलियत पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता है। वे एक अच्छे आर्थिक सुधारक हैं। 1981 से 89 तक ईरान के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने अच्छा काम किया। इस दौरान उनकी आर्थिक नीतियों की सभी ने सराहना की। यह इराक के साथ टकराव का दौर था, लेकिन मुसावी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था पटरी से नहीं उतरी। मुसावी ने अहमदीनेजाद की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना करते हुए देश की जनता से वोट मांगे थे। उन्हें उम्मीद थी कि जिस प्रकार 1997 में सुधारवादी नेता मोहम्मद खातमी 70 प्रतिशत से भी ज्यादा वोट पाकर राष्ट्रपति बने थे, ठीक वैसा ही समर्थन उन्हें हासिल होगा। चुनाव के दौरान खातमी ने मुसावी के पक्ष में जमकर प्रचार भी किया था। लाख कोशिशों के बाद भी मुसावी देश की अर्थव्यवस्था का कायाकल्प करने के सपने को लोगों की भावनाओं के साथ जोडऩे में असफल रहे और उन्हें राष्ट्रपति बनने लायक समर्थन नहीं मिला। चुनाव में मिली हार के बाद मुसावी जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह समझ से परे हैं। वे अपनी हार के लिए उसी सिस्टम को दोष दे रहे हैं जिसका वे वर्षों तक हिस्सा रहे हैं। 8 साल तक देश का प्रधानमंत्री रहने के बाद वे 6 साल तक राष्ट्रपति के सलाहकार रहे। इन पदों पर रहते हुए उन्होंने चुनाव के दौरान होने वाली गड़बडिय़ों को दुरुस्त करने की मुहिम नहीं छेड़ी और न ही लोकतंात्रिका प्रक्रिया को पारदर्शी और जबावदेह बनाने का काम किया।
ईरान में जिस तरह का लोकतंत्र है, उसमें इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव की दौरान अनियमितताएं नहीं हुई होंगी, पर इस बात की कोई गारंटी नही है कि फिर से चुनाव कराने पर ये स्वतंत्र और निष्पक्ष ही होंगे। देश में जब तक सत्ता सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल के पास केंद्रित रहेगी, ज्यादातर निर्णय और प्रक्रियाएं संदेहास्पद ही रहेंगी। बस, इस पर अगुंली उठाने वाले हाथ बदल जाएंगे। ईरान के लोकतंत्र में कई खामियां हैं। यहां शासन की वास्तविक शक्ति जनता से चुने प्रतिनिधियों के पास नहीं बल्कि मौलवियों और रूढ़ीवादियों के पास रहती है। संविधान के मुताबिक तो राष्ट्रपति कार्यपालिका का प्रमुख होता है, पर सर्वोच्च नेता और गार्डियन काउंसिल की सहमति के बिना वह ज्यादा कुछ नहीं कर सकता है। रक्षा और विदेश मामलों के बारे में सभी फैसले का अधिकार सर्वोच्च नेता के पास होता है। इसके अलावा कार्यपालिका का वास्तविक संचालन गार्डियन काउंसिल करती है। मजलिस यानी संसद में पेश होने वाले विधेयकों को इस काउंसिल से अनुमोदित कराना होता है। यहां तक कि चुनाव लडऩे वाले उम्मीदवारों के नामों को भी काउंलिस हरी झंडी देती है। हालिया चुनावों में उसने ऐसे 2005 में चुनाव लडऩे वाले सैकड़ों उम्मीदवारों पर प्रतिबंध लगा दिया था।
ईरान में उपजे हालातों पर पश्चिम देशों के रुख का जिक्र करना भी जरूरी है। ईरान के चुनावों परिणामों से मुसावी के बाद सबसे ज्यादा दुख ये देश ही मना रहे हैं। परिणाम आते ही यहां के मीडिया ने अहमदीनेजाद की जीत को कट्टरपंथ की जीत बताते हुए चिंता जाहिर करना शुरू कर दिया। अहमदीनेजाद हमेशा से इन देशों की आंख का कांटा रहे हैं। परमाणु कार्यक्रम के अलावा कई मौकों पर उन्होंने इन देशों की बादशाहत की हंसी उड़ाई है। दुबारा राष्ट्रपति चुने जाने के बाद भी वे कह चुके हैं कि ईरान अपने परमाणु कार्यक्रम में कोई बदलाव नहीं करेगा। ऐसी स्थिति में ये देश ऐसा कोई मौका नहीं चूकना चाहते जिसमें अहमदीनेजाद को सत्ता से बाहर होने की संभावना बनती हो। इसी के तहत ईरान में हो रहे विरोध प्रदर्शन को पश्चिम जगत का मीडिया कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ा कर दिखा रहा है। मंगलवार को तेहरान में हुई रैली को ईरान के इतिहास की सबसे बड़ी रैली के रूप में प्रचारित किया जा रहा है, जबकि तस्वीरों और वीडियो फुटेज से तो ऐसा कुछ प्रतीत नहीं होता है। प्रदर्शनकारियों की भारी भीड़ और सुरक्षाकर्मियों के कड़े रुख की खबरों के बीच जो आंकड़े दिए जा रहे हैं वे और भी ज्यादा हास्यास्पद लग रहे हैं। बताया जा रहा है कि रैली में सुरक्षाकर्मियों की ओर से की गई गोलीबारी में एक व्यक्ति की मौत हो गई और सौ लोगों को गिरफ्तार किया गया। लाखों की भीड़ पर गोली चलाई जाए और एक ही व्यक्ति की मौत हो, ऐसा कैसे हो सकता है?
पश्चिमी मीडिया अपने हितों की खातिर पहले भी ऐसा भ्रामक कवरेज करता आया है। वह तथ्यों को इस तरह से पेश करता है कि शेष विश्व को लगता है कि यहां तो हालत बहुत ज्यादा खराब है। इस मामले में इराक का उदाहरण लिया जा सकता है। पश्चिमी मीडिया ने यहां किस तरह से अपने मुताबिक सच को तोड़ा-मरोड़ा। ईरान की स्थिति की भ्रामक तस्वीर पेश करने में अमरीकी मीडिया जितना तत्परता दिखा रहा है उसका पासंग भी इराक में अमरीकी सेना के अत्याचारों को दिखाने में लगाया होता तो दुनिया का दादा बनने वाला देश कब का नंगा हो चुका होता। बहरहाल, ईरान ने बहुत जल्दी पश्चिमी देशों के इरादों का भांप लिया है और सरकार ने विदेशी मीडिया पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं। सरकार की अनुमति के बिना अब कोई भी विदेशी मीडियाकर्मी यहां से रिपोर्टिंग नहीं कर पाएगा और न ही प्रदर्शन स्थल पर मौजूद रहेगा। कड़ी पाबंदियों के चलते विदेशी मीडियाकर्मी प्रदर्शन स्थल पर तो नहीं जा रहे हैं, पर माहौल को भयावह बताने से बाज नहीं आ रहे हैं। इसके लिए अब सबसे ज्यादा इस्तेमाल साइबर मीडिया हो रहा है। ईरानी सरकार अब इस पर नजर लगाए हुए है और प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रही है।

3 टिप्‍पणियां:

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