गुरुवार, जुलाई 09, 2009

सक्रिय हुए सूरमा


ओम माथुर का प्रदेशाध्यक्ष पद से मोहभंग क्या हुआ उनकी जगह लेने वालों की कतार लग गई। कई धड़ों में बंटी भाजपा के आला नेता एकाएक सक्रिय हो गए हैं। सब किसी अपने को जिम्मेदारी दिलाना चाहते हैं। सूबे की भाजपा में अध्यक्ष पद के लिए चल रही रस्साकशी के छोर खोजती रिपोर्ट!


भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश कार्यालय। पहले विधानसभा और फिर लोकसभा चुनावों में मिली करारी हार के बाद यहां सन्नाट पसरा रहता था, पर पिछले कुछ दिनों से अचानक पुरानी रौनक लौट आई है। नेताओं की आवाजाही तो बढ़ी ही है, कार्यकर्ताओं का आना-जाना भी शुरू हो गया है। पार्टी दफ्तर में हुई इस हलचल की वजह प्रदेशाध्यक्ष ओम माथुर की विदाई तय होना है। कोई उनकी जगह लेने के लिए तो कोई नए निजाम की टीम में शामिल होने के लिए लाबिंग में जुटा है। आलाकमान ने भी राजस्थान में पार्टी का नया कप्तान तलाशने की कवायद शुरू कर दी है। पार्टी किसी ऐसे चेहरे की तलाश में है जो महारानी की मर्जी का हो, जिसके नाम पर संघ मुहर लगाए, जिसे भैरों सिंह शेखावत का भी आशीर्वाद प्राप्त हो और जो वसुंधरा विरोधियों की नजरों में भी नहीं खटकता हो।


वैसे भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व अभी राजस्थान में बदलाव करने के मूड में नहीं था, लेकिन ओम माथुर काम करने को राजी नहीं हुए। उन्होंने मौजूदा हालातों में पद पर बने रहने से साफ तौर पर इंकार कर दिया। माथुर को मनाने में नाकाम रहने के बाद पार्टी नए प्रदेशाध्यक्ष को लेकर पशोपेश में है। आलाकमान ऐसे नेता को राजस्थान की जिम्मेदारी देना चाहता है जिससे किसी को ऐतराज नहीं हो और जो पार्टी में चल रही खींचतान को खत्म करने की दिशा में काम कर सके, पर फिलहाल ऐसे किसी नाम पर सहमति बनती दिखाई नहीं दे रही है। प्रदेशाध्यक्ष के चयन को लेकर भाजपा तीन खेमों वसुंधरा राजे, संघ और संघ समर्थित वरिष्ठ नेताओं में बंटी हुई है। इनमें से महारानी का खेमा अभी भी सबसे मजबूत है। विरोधी मान रहे थे कि दो चुनावों में मिली हार और माथुर के इस्तीफे के बाद महारानी पर नेता प्रतिपक्ष पद छोडऩे का दबाव बनेगा, लेकिन पार्टी राज्य में दोहरा बदलाव करना नहीं चाहती है।


वर्तमान परिस्थितियों इस बात की संभावना ज्यादा है कि प्रदेशाध्यक्ष पद महारानी की मर्जी से ही किसी को दिया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक वे किसी जाट पर दांव खेलना चाहती हैं। गौरतलब है कि चुनावों में भाजपा की पराजय के पीछे जाटों की नाराजगी को बड़ी वजह माना जा रहा है। प्रदेशाध्यक्ष पद पर जाट नेताओं के तौर पर डॉ। दिगंबर सिंह, रामपाल जाट और सुभाष महरिया के नामों की चर्चा है। दोनों वसुंधरा के करीबी हैं, पर महरिया के नाम पर संघ ऐतराज कर सकता है। ऐसे में दिगंबर सिंह का दावा मजबूत है। वसुंधरा के करीबियों की मानें तो महारानी ने दिगंबर को अध्यक्ष बनने के लिए तैयार रहने को कहा है। इसी के चलते पार्टी कार्यालय में उनका आना-जाना अचानक बढ़ गया है। आजकल वे अपना ज्यादातर वक्त यहीं बिता रहे हैं। दिगंबर के साथ दिक्कत एक ही है कि जाटों पर उनका प्रभाव भरतपुर तक ही सीमित है। शेखावाटी क्षेत्र में उनकी इतनी पकड़ नहीं है। यही परेशानी रामपाल जाट के साथ भी है।


यदि किसी गैर जाट को मौका दिया जाता है तो महारानी के विश्वस्तों में से रामदास अग्रवाल की लॉटरी खुल सकती है। सूत्रों के मुताबिक वे इसके लिए लॉबिंग भी कर रहे हैं। उन्हें महारानी का समर्थन तो हासिल है ही, संघ से भी उनके अच्छे संबंध हैं। भैरों सिंह शेखावत से उनकी ट्युनिंग उस जमाने से है जब बाबोसा मुख्यमंत्री और वे स्वयं प्रदेशाध्यक्ष थे। डॉ। किरोड़ी लाल मीणा के भाजपा छोड़ देने के बाद वसुंधरा विरोधियों में उनकी खिलाफत करने वाले ज्यादा नहीं हैं। केंद्रीय नेताओं से मधुर रिश्ते अग्रवाल के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। अग्रवाल के लिए उम्र एक बाधा हो सकती है। पार्टी नेतृत्व अग्रवाल सरीखे पुरानी पीढ़ी के नेता को जिम्मेदारी देने की बजाय किसी नए नेता को राज्य का जिम्मा सौंपना ज्यादा पसंद करेगा। संघ ने भी पार्टी को यही राय दी है कि राजस्थान में भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले बेहतर खड़ा करने के लिए किसी नए चेहरे को दायित्व सौंपा जाए।


संघ समर्थक दावेदारों की बात करें तो पूर्व मंत्री मदन दिलावर, प्रदेश उपाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और सतीश पूनिया का नामों की चर्चा है। संघ के सूत्रों की मानें तो ये तीन नाम पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को भेज दिए गए हैं। संघ ने सूबे की 'कास्ट केमिस्ट्री' और पार्टी के भीतर अब तक के कामकाज की समीक्षा के आधार पर ये नाम भेजे हैं। इन नामों से में मदन दिलावर को दलित होने का फायदा मिल सकता है। लेकिन पार्टी के आला नेताओं का एक धड़ा उनके नाम पर हामी भरने को तैयार नहीं है। इनका मानना है कि दिलावर की धार्मिक कट्टरता पार्टी के लिए कभी भी संकट खड़ा कर सकती है। वसुंधरा के शासनकाल में मंत्री रहते हुए वे कई मर्तबा सरकार को परेशानी में डाल चुके हैं। स्वाभाव से तल्ख दिलावर के लिए वसुंधरा के साथ कड़वे संबंध नुकसानदायक साबित हो सकती है। अरुण चतुर्वेदी के साथ भी यही है। महारानी से उनका शुरू से छत्तीस का आंकड़ा है। विधानसभा चुनावों के समय चतुर्वेदी ने सिविल लाइन क्षेत्र से टिकट हासिल करने में अपना पूरा दम लगा दिया, पर कामयाब नहीं हुउ। वसुंधरा ने उनकी जगह युवा मोर्चा के अध्यक्ष अशोक लाहोटी को उम्मीदवार बना दिया, जो भैरों सिह शेखावत के भतीजे और कांग्रेस उम्मीदवार प्रताप सिंह खाचरियावास से हार गए। चतुर्वेदी पार्टी उपाध्यक्ष होने के साथ-साथ प्रवक्ता भी है, पर शायद ही ऐसा कोई मौका हो जब उन्होंने वसुंधरा की तारीफ की हो। ऐसे में यदि आलाकमान चतुर्वेदी को जिम्मेदारी देता है तो खींचतान कम होने की बजाय और बढ़ जाएगी।


जहां तक सतीश पूनिया की दावेदारी का सवाल है तो इनके साथ भी वही दिक्कत है जो मदन दिलावर और अरुण चतुर्वेदी के साथ है। पांच साल मुख्यमंत्री रहते हुए महारानी ने पूनिया को किनारे करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। दरअसल, पूनिया चूरु क्षेत्र की राजनीति से निकल कर आए हैं। यहां राजेंद्र सिंह राठौड़ और उनके बीच शुरू से ही राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता रही है। वसुंधरा ने इसका फायदा उठाने की रणनीति पर काम किया। पूनिया का पटकनी देने के लिए उन्होंने राजेंद्र राठौड़ को अपने खेमें में शामिल कर लिया। महारानी का वरदहस्त प्राप्त होते ही राठौड़ ने पूनिया की जड़े खोदना शुरू किया। राठौड़ की मुहीम कामयाब रही और आज हालत यह है कि पूनिया खुद की ही पार्टी में पूरी तरह से हाशिए पर हैं। वसुधंरा कभी नहीं चाहेंगी कि पूनिया प्रदेशाध्यक्ष बन पहले से भी ज्यादा ताकतवर बन जाएं। उन्हें अच्छी तरह पता है कि उनकी हालत जख्मी शेर सरीखी है। मौका मिला तो शिकार को बख्शने का सवाल ही पैदा नहीं होता।


इन तीन नामों के अलावा संघ की ओर से घनश्याम तिवाड़ी और गुलाबचंद कटारिया का नाम लंबे समय से चल रहे हैं। ये दोनों नेता वसुंधरा विरोधी खेमे का अहम हिस्सा हैं। जसवंत सिंह को इनका सरदार माना जाता है और भैरों सिंह शेखावत को सलाहकार। इस खेमें लंबे से समय से महारानी के खिलाफ मुहीम छेड़ रखी है। प्रदेशाध्यक्ष पद से माथुर के इस्तीफे के बाद यह खेमा फिर से सक्रिय हो गया है। ये लोग पार्टी के आला नेताओं से मिलकर वसुंधरा पर नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफे के लिए दबाव बना रहे हैं। इनका कहना है कि जिस तरह से माथुर ने पार्टी की हार की जिम्मेदारी ली है, उसी तरह से महारानी को भी जिम्मेदारी लेकर इस्तीफा दे देना चाहिए। आलाकमान से जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं, उन्हें देखकर लगता नहीं कि महारानी से इस्तीफा देने के लिए कहा जाएगा। ऐसे में वसुंधरा के विरोधियों ने अपना पूरा ध्यान प्रदेशाध्यक्ष के पद को झटकने में लगा दिया है।


लोकसभा चुनाव से पहले तक गुलाबचंद कटारिया और घनश्याम तिवाड़ी में से तिवाड़ी की दावेदारी ज्यादा मजबूत नजर आ रही थी, पर जयपुर से गिरधारी लाल भार्गव की विरासत बचाने में नाकाम रहने के बाद वे कमजोर पड़ गए हैं। हालांकि अभी भी उन्हें संघ का समर्थन प्राप्त है, लेकिन उनके काम करने के तरीके से खिन्न होकर कल तक उनके साथ रहने वाले कई लोग खिलाफत करने लगे हैं। लोकसभा चुनावों में अतिआत्मविश्वास तिवाड़ी को अब तक दुख दे रहा है। दरअसल, अपनी जीत के प्रति आश्वस्त होने के कारण तिवाड़ी ने दूसरी पंक्ति के नेताओं और कार्यकर्ताओं को ज्यादा तवज्जों नहीं दी। चुनाव परिणाम तो उनके लिए निराशाजनक रहे ही, समर्थक भी नाराज हो गए। वसुंधरा विरोधी होने का ठप्पा तो उन पर पहले से ही लगा हुआ है। इन हालातों में आलाकमान तिवाड़ी को मौका देकर खींचतान का नया मैदान तैयार करने की भूल शायद ही करे।


ओम माथुर के विकल्प के तौर पर गुलाबचंद कटारिया की दावेदारी की चर्चा भले ही आखिर में की जा रही हो, पर वर्तमान में वे सबसे मजबूत स्थिति में हैं। कल तक जिस 'भोली छवि' और 'ढुलमुल व्यक्तित्व' को उनकी कमजोरी बताया जाता था, अब वही उन्हे सूबे में भाजपा का मुखिया बनवा सकती है। संघ तो उनका साथ देने के लिए पहले से ही तैयार है। कई गुटों में बंटी पार्टी समझौते के रूप में कटारिया के नाम पर सहमत हो सकती है। कटारिया भले ही वसुंधरा विरोधी मुहीम में शामिल रहे हो, लेकिन उन्होंने कभी उनसे व्यक्तिगत बैर नहीं बांधा। वसुंधरा उनके नाम पर इसलिए राजी हो सकती है कि कटारिया उनके लिए भविष्य में ज्यादा परेशानी पैदा करने वाले नहीं हैं। कटारिया को करीब से जानने वाले लोग अच्छी तरह जानते हैं कि उन्हें कठोर निर्णय लेने और विवादों में पडऩे से परहेज है। यदि कटारिया अध्यक्ष बनते हैं तो वे शायद ही महारानी के कामकाज में कोई दखल दें।


दावेदारों की भीड़ के बीच भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह आखिर किस पर भरोसा करे। आलाकमान की दुविधा यह है कि वह किस धड़े की बात मानें और किसे अनदेखा करे। पार्टी का प्रयास है कि राज्य के बड़े नेता किसी एक नाम पर सहमत हो जाएं और टकराव टल जाए। सूत्रों के मुताबिक आलाकमान पार्टी नेताओं को यही समझाने का प्रयास कर रहा है कि अध्यक्ष कोई भी बने सब मिलकर फिर से खड़ा करने का काम करें। नेताओं के लिए भी यही करना ठीक है, क्योंकि पार्टी से ही उनकी अहमियत है।

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